मेरे घर आना जिंदगी / भाग 6 / संतोष श्रीवास्तव्

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धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय...

बताया गया था कि हवाई यात्रा 35 मिनट की होगी। उन 35 मिनटों में बेमौसम बौर महके थे जो पोर-पोर मुझे महका गए थे। मेरे अंदर समंदर हिलोरे ले रहा था और मैं बालूहा तट पर खुद को दौड़ते पा रही थी।

राजकोट से मुंबई की उड़ान ने जब सांताक्रुज एयरपोर्ट पर लैंड किया तो गुलाबी शॉल में दुबके हेमंत ने अपनी बेहद चमकीली काली आंखें झपकाईं और विजय भाई ने जो हमें रिसीव करने आए थे उमंगकर हेमंत को गोद में ले लिया। मैं जीजाजी के साथ राजकोट से आई थी। उनकी सेंटूर होटल में कॉन्फ्रेंस थी और उन्हें 2 दिन मुंबई में रुकना था।

विजय भाई के पास घर न था और वे ठाकुरद्वार में किसी बॉयज हॉस्टल में रह रहे थे। फिलहाल तो मुझे उसी हॉस्टल में दो दिन रहने की इजाजत हॉस्टल के मैनेजर ने दे दी थी लेकिन अलग कमरा उपलब्ध न होने की वजह से विजय भाई अपने दोनों रूम पार्टनर के साथ बाहर बरामदे में सोते थे और मैं हेमंत को लेकर अंदर। हॉस्टल में अधिकतर फिल्मों में भाग्य आजमाने के लिए दूरदराज से आए युवा लड़के थे। विजय भाई के दोनों रूम पार्टनर भी निर्देशन और स्क्रिप्ट राइटिंग के लिए संघर्ष कर रहे थे। दो दिन में भी विजय भाई घर नहीं ढूँढ पाए। फिल्म अभिनेत्री और विजय भाई की दोस्त आशा शर्मा ने प्रस्ताव रखा कि "जब तक तुम्हें घर नहीं मिलता विजय तब तक संतोष मेरे घर रह सकती है।" वे खुद अपनी कार से मुझे बांद्रा स्थित अपने बंगले में ले आईं। विशाल बंगला फूलों के सुंदर बाग वाला। अक्सर उनका बंगला फिल्म वाले शूटिंग के लिए किराए से लेते थे और वे किराए में भारी भरकम रकम वसूलती थीं। मुझे उन्होंने एक बड़ा-सा कमरा रहने को दिया जो आधुनिक सुविधाओं से युक्त था। खाना वे मुझे अपने साथ अपने डाइनिंग रूम में खिलातीं। एक दो बार शूटिंग पर भी ले गईं मुझे। मैं उनके घर उनके लाड़ दुलार में 20 दिन रही। 20 दिन बाद विजय भाई को सांताक्रुज में वन रूम किचन का घर मिला। आशा शर्मा खुद मुझे लेकर सांताक्रुज मेरे साथ आईं। मुम्बई में मेरे 40 साल के प्रवास में आशा शर्मा से गहरे ताल्लुकात रहे।

वह वक्त था मुंबई में प्रगतिशील आंदोलन इप्टा और ट्रेड यूनियन आंदोलनों का। कई नामी-गिरामी लेखक फिल्मों में गीत और संवाद लिखने को विभिन्न प्रदेशों से जुट आए थे। यहाँ टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप अपने चरम पर था। जहाँ से निकलने वाली पत्रिकाओं से मुंबई की एक अलग पहचान बनती थी। पृथ्वी थियेटर, तेजपाल थिएटर, रंगशारदा में खेले गए तुगलक हयवदन, सखाराम बाईंडर, मी नाथूराम गोडसे बोलतो जैसे नाटक शो पर शो किए जा रहे थे। मुझे इस सब के बीच अपनी जगह बनानी थी।

फिल्मी पत्रकार प्रमिला कालरा विजय भाई की मित्र थी। उन्होंने मुझसे टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की पत्रिकाएँ धर्मयुग, सारिका, माधुरी के संपादकों से मिलने की सलाह दी।

"एक बार मिल लो। मिलने से कई राहें खुल जाती है।"

मैं प्रमिला कालरा के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया की बिल्डिंग में बिना किसी अपॉइंटमेंट के संपादक धर्मवीर भारती से मिलने गई। अपने नाम की स्लिप केबिन में भिजवा कर बाहर इंतजार करने लगी। ऑफिस का माहौल शांत था। मनमोहन सरल, शशि कपूर, रूमा भादुड़ी, सुमन सरीन सब अपने-अपने कामों में मुब्तिला। लकड़ी के पार्टीशन से लगा माधुरी का ऑफिस, सामने सारिका का। थोड़ा हटकर नंदन, पराग बाल पत्रिकाओं का। ऑफिस में मुझे बैठा कर प्रमिला कालरा माधुरी ऑफिस की ओर चली गई। 10 मिनट बाद भारती जी के केबिन से बुलावा आ गया। सिगार सुलगाती हुई भव्य आकृति।

"आईए संतोष जी, बैठिए।"

"जी मैं जबलपुर से अब यहीं रहने आ गई हूँ।"

"अच्छा किसी नौकरी के सिलसिले में?"

तभी चपरासी चाय और पानी लाकर रख गया।

"चाय लीजिए, छापा है हमने आपको।"

"जी नौकरी नहीं पत्रकारिता करने आई हूँ।" मैंने झिझकते हुए कहा।

"बड़ी कठिन राह है पत्रकारिता की। बताइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।"

मुझे लगा कि वह समझ रहे हैं मैं उनसे काम मांगने आई हूँ।

"जी पहले समझ तो लूँ। अभी तो पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ी पत्रकारिता की।"

वे मुस्कुराए फिर सूरज का सातवां घोड़ा पुस्तक मुझे भेंट की। मैंने इजाजत चाही। वे उठकर केबिन के बाहर तक मुझे छोड़ने आए।

तब तक लंच टाइम हो चुका था प्रमिला कालरा ने मुझे अपने लंच बॉक्स में से पराठा और बैंगन का भर्ता दिया।

"अरविंद जी से भी मिल लो।"

माधुरी के संपादक अरविंद जी मुझे भारती जी की बनिस्बत सीधे सरल लगे। उनके साथ आधे घंटे का समय पता ही नहीं चला कब बीत गया।

दूसरे दिन प्रमिला कालरा ही मुझे बांद्रा कलानगर अवधनारायण मुद्गल जी के घर ले गई। वहाँ चित्रा मुद्गल और अवध जी से मिलकर लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रही हूँ। गजब की आत्मीयता।

"तुम्हारी खूबसूरत तस्वीर धर्मयुग और सारिका में देख चुके हैं हम। बिल्कुल पहचान गई हूँ तुमको।" चित्रा जी ने गले से लगाते हुए कहा। हमने साथ खाना खाया। सारिका के लिए "आकारों में कोहरा" और "पुल" कहानियाँ प्रकाशनार्थ अवध जी को दीं। कहानियाँ मैंने पीले रंग के पन्नों में लिखी थीं। अवध जी बोले-"पीले पन्ने तुम्हारी पहचान बन गए हैं। इसके पहले पीले पन्नों में ही हमें डाक से मिली थी तुम्हारी कहानी मकड़ी।" अभिभूत थी मैं मुम्बई अजनबी नहीं लग रही थी। कितने अपनों से भरी है मुम्बई। उस दिन घर लौटी तो अपने संग चित्रा दी और अवध जीजा का नया रिश्ता लेकर लौटी।

चित्रा दी मुझे नवभारत टाइम्स के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मिलवाने ले गईं और मेरे दोस्तों की सूची में संपादक, पत्रकार जुड़ते गए। मनमोहन सरल, सुमंत मिश्र, विमल मिश्र, आलोक श्रीवास्तव, आलोक भट्टाचार्य, कैलाश सेंगर, सुमन सरीन, रूमा भादुरी, शशि कपूर एक ऐसा समूह तैयार होता गया जिससे एक दिन भी न मिलना बड़ा शून्य रच देता। धीरे-धीरे काम भी मिलने लगा। नवभारत टाइम्स में मैं लगातार लिखने लगी। पहले छिटपुट लेख फिर विश्वनाथ जी ने मुझसे मानुषी कॉलम लिखवाना शुरू किया। डेस्कवर्क मैं करना नहीं चाहती थी, मेरा मन फ्रीलांस में ही लगता था। दूसरे हेमंत भी बहुत छोटा था और उसको मैं अधिक समय तक अकेला नहीं छोड़ सकती थी।

फिर न जाने क्या सनक चढ़ी संतोष वर्मा नाम बदलकर शादी के बाद का सरनेम संतोष श्रीवास्तव लिखना शुरू किया। इस खबर को भारती जी ने धर्मयुग में छापा। शुभचिंतकों ने इस बात पर विरोध प्रकट किया"यह क्या किया सरनेम बदलने की क्या जरूरत थी? अपनी पहचान खुद मिटा रही हो।"

"पहचान बरकरार रहेगी, मैं संतोष वर्मा को मिटने नहीं दूंगी।"

भारती जी ने धर्मयुग में कॉलम लिखने का प्रस्ताव रखा। इस कॉलम में मनोरोग से पीड़ित बच्चों की केस हिस्ट्री, चिकित्सकों से पूछ कर उसका बाल मनोरोग व्रत्त और निदान भी लिखना था। तब धर्मयुग साप्ताहिक था और यह कॉलम हर पखवाड़े प्रकाशित करने की उनकी योजना थी।

इस कॉलम के लिए जानकारी जुटाना बहुत भागदौड़ से संभव हुआ। मुझे मनश्चिकित्सकों से अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था और फिर उनके संग तीन-चार घंटे बैठकर केस हिस्ट्री आदि जानने की व्यस्तता शुरू हो गई। मेहनत जरूर करनी पड़ी लेकिन कॉलम बहुत ज्यादा चर्चित हुआ। बच्चों का यह कॉलम दो साल तक लिखा मैंने। इस कॉलम के बाद भारती जी ने मनोरोगी औरतों के बारे में भी मुझसे अंतरंग नाम से कॉलम लिखवाया। इस कॉलम के लेखन के दौरान मैं आश्चर्यचकित कर देने वाले और मर्मान्तक अनुभवों से गुजरी। मुझे एहसास हुआ कि एक स्त्री को मनोरोगी बनाने में जितना परिवेश जिम्मेदार है उससे कहीं अधिक पति, पिता, भाई, बेटा और अन्य मर्द से सम्बंधित रिश्ते जिम्मेवार हैं। पीड़ा ने भीतर तक मुझे कुरेदा और मैं नारी विषयक लेख यथा

अत्याचार को चुनौती समझें

क्यों सहती है औरत इतने अत्याचार

पितृसत्ता को बदलना होगा

आदि शीर्षकों से लिखने लगी जिन्हें धर्मयुग, नवभारत टाइम्स ने तो खूब छापा ही। नई दिल्ली के "भारत भारती" द्वारा तथा "युगवार्ता त्रिसाप्ताहिक प्रसंग लेख सेवा" द्वारा देश भर के अखबारों में भी प्रकाशित किए गए। मानुषी और अंतरंग तथा बाल अंतरंग स्तंभों ने मुझे पत्रकार के रूप में मुंबई में प्रतिष्ठित कर दिया।

अरविंद जी ने माधुरी में लिखवाया। स्तंभ तो नहीं पर कवर स्टोरी लिखवाई। मेरी कहानियाँ भी प्रकाशित कीं।

पत्रकारिता को लेकर मेरे मन में जो चाह थी एक पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित होने की, वह चाह पँख पसार चुकी थी और उड़ान थोड़ा बहुत आसमान भी नाप चुकी थी। लेकिन जीवन जीने को जितना रुपया चाहिए वह पत्रकार वह भी स्वतंत्र पत्रकार कहाँ कमा पाता है।

मुझे शीला जीजी के पास रखे अपने कंगन और लॉकेट जंजीर उनके ₹5000 देकर वापस लेने थे। धर्मयुग से मुझे महीने में दो बार कॉलम लिखने के ₹600 मिलते थे। इतने ही नवभारत टाइम्स से, जिसमें मेरे अपने खर्च भी शामिल थे। लिहाजा मैंने विजय भाई के जरिए आरटीवीसी (रेडियो एंड टीवी कमर्शियल) और लिंटाज यानी विज्ञापनों की दुनिया में प्रवेश किया। आरटीवीसी में विजय भाई मनोहर महाजन के रेडियो धारावाहिक सेंटोजन की महफिल, विनोद शर्मा की रामायण आदि में स्क्रिप्ट लिख रहे थे और अपनी आवाज भी दे रहे थे। मैं कॉपीराइटिंग में कुसुम कपूर के दिए हुए कामों को पूरा करने लगी। कई कमर्शियल प्रोग्राम भी लिखे जो रेडियो पर प्रसारित होने लगे। लिंटाज ज्वाइन किया तो कई जिंगल लिखे भी कंपोज भी किए। विज्ञापन की दुनिया से जुड़ना मुझे रास नहीं आ रहा था। मन खिन्न रहने लगा। यह तो मेरा मार्ग नहीं है।

इसी बीच विजय भाई का एक्सीडेंट हो गया। उस रात लगभग तीन बजे जब दरवाजे की घंटी बजी तो न जाने क्यों अनिष्ट की आशंका से मन कांप उठा था। दरवाजा खोलते ही देखा एसपी (सुरेंद्र प्रताप सिंह) और खन्ना विजय भाई को कंधों का सहारा दिए ला रहे हैं। उनकी जींस घुटने पर से फट चुकी थी और उस पर खून के काले पड़ चुके धब्बे थे। माथे पर भी चोट के निशान थे। मैं बेतहाशा घबरा गई

"क्या हुआ भाई को?"

"घबराओ नहीं, छोटा-सा एक्सीडेंट हुआ है। बस घंटे दो घंटे में पैसों का इंतजाम करके लौटता हूँ। तब तक विजय को कॉफी पिलाओ।"

उस रात एसपी अपने घायल दोस्त की खातिर सूनी सड़कों का सन्नाटा चीरते बगटुट भागते रहे।

कॉफी पीते हुए विजय भाई डूबती आवाज में बताते रहे-"किंग सर्किल में सड़क पर जो डिवाइडर है वह कमर तक ऊंची दीवार का है। लोकल पकड़ने की जल्दी में जो दीवार फांदी कि संतुलन बिगड़ गया। घुटना पत्थर से जा टकराया और घुटने की कैप चूर-चूर हो गई।"

मैं ताज्जुब से भरी उठी "तुम्हें कैसे पता भाई कि तुम्हारी हड्डी टूट गई?"

" दिखा कर आ रहे हैं न आशा पारेख अस्पताल में। एक्स-रे भी कराया। '

मैंने देखा उनका घुटना सूजकर डबल हो गया हो गया था। अब क्या होगा? ऑपरेशन का खर्च, अस्पताल का खर्च और मुंह बाए जेब।

एसपी, मनोहर महाजन और खन्ना सुबह 7 बजे लौटे और विजय भाई को नानावटी अस्पताल में भर्ती किया गया। जहाँ 3 घंटे उनका ऑपरेशन चला। मनोहर महाजन दवाइयाँ लाने दौड़े। एसपी को मेरी चिंता-"सुबह से कुछ खाया नहीं तुमने, खन्ना से दोसा मंगवाया है। खाकर घर जाकर थोड़ा आराम कर लो। घर में किसी को फोन करवाना हो तो फोन नंबर दे दो। यहाँ हम लोग हैं विजय के पास।"

मैंने शीला जीजी, प्रमिला और रमेश भाई के फोन नंबर उन्हें दे दिए।

लेकिन मैं घर नहीं लौटी। विजय भाई को होश में आने के बाद ऑपरेशन थिएटर से कमरे में शिफ्ट कर दिया गया था।

मेरी रुलाई ने सारे बाँध तोड़ डाले थे। विजय भाई के घुटने से तलवे तक प्लास्टर बंधा था। अचेतन अवस्था में वे, उनकी ओर देखा नहीं जा रहा था। डॉक्टर ने बताया था कि नीकैप चूर-चूर हो गया है इसलिए चाँदी का नीकैप लगवाना पड़ेगा। एक हताशा पूरे कमरे में फैल गई थी। जब विजय भाई को होश आया तो खन्ना बोले

"विजय अब तुम कंगले नहीं रहोगे। चांदी का घुटना लगेगा तुम्हारे।"

' यार विजय चांदी के नीकैप में तो लाख तक का खर्च होगा। इतना रुपया कहाँ से आएगा। "

एसपी के संग-संग यही बात मुझे भी परेशान किए थी।

कोई बात नहीं, हम बिना नीकैप के चलने की आदत डाल लेंगे। "

विजय भाई ने जितनी वीरता से यह बात कही हम सब ने उतनी ही हार महसूस की।

विजय भाई ने कौल निभाया। बिना नी कैप के ताउम्र रहे और चाल में जरा भी फर्क नहीं आया उनकी।

लेकिन मैं इस बात से भीतर तक हिल गई। इतनी मजबूरी पैसों के न होने की। तब मुझे एहसास हुआ कि पत्रकार लोकतंत्र का भले चौथा स्तंभ हो पर उस स्तंभ की न तो कोई नींव होती है न जमीन। मुझे लगा रुपयों की वजह से पत्रकार अब पत्रकार नहीं रहा। वह रिश्वतखोरी के खिलाफ कलम तो उठाता है परंतु खुद अपेक्षा रखता है मुफ्त इलाज, मुफ्त दवाएँ, मुफ्त रेल यात्रा, मुफ्त किताबें, मुफ्त विज्ञापन का माल। शराब की दुर्गति पर लिखने वाला पत्रकार शराब की एवज लिखता है। यह कैसी पत्रकारिता है? मेरे मन में पत्रकारिता को लेकर एक सागर उफ़नने लगा। मुझे लगा सिर्फ पत्रकारिता से रोजी-रोटी नहीं चलेगी। फिर सिंगल मदर बनकर हेमंत को भी तो सुयोग्य व्यक्ति बनाना है।

मैंने केजी की ट्रेनिंग ली और एंटॉप हिल के प्रायमरी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी करने लगी। उसी स्कूल में हेमंत को भी केजी वन में भर्ती करा दिया ताकि घर में उसके अकेले छूट जाने का टेंशन न रहे। मुझे वहाँ ₹400 का वेतन मिलता था जो एंटॉप हिल के सरकारी क्वार्टर में गैरकानूनी तौर से फ्लैट किराए पर लेने की वजह से किराया और एजेंट की भेंट चढ़ जाता था। सरकारी फ्लैट जो फोर्थ क्लास कर्मचारियों को आबंटित किया गया था। उसमें कभी चैन से रहने नहीं मिला। हमेशा जान सांसत में रहती कि कब पुलिस की चेकिंग आ जाए। पर सब का हफ्ता बंधा था। औपचारिक तौर पर जब पुलिस चेकिंग के लिए आती तो हमें फ्लैट में ताला लगाकर कहीं सर छुपाना होता था या मकान वाला हमें फ्लैट में बंद कर चला जाता था। जब पुलिस दल जेब भर कर लौट जाता तो वह हमें आकर आजाद करता।

प्रमिला कालरा भी इसी तरह के सरकारी मकान में रहती थी। जब चेकिंग के लिए पुलिस आई तो वह जिद पर अड़ गई-"न घर से बाहर जाऊंगी न ताला लगाने दूंगी।" बहरहाल मकान जिसके नाम अलॉट हुआ था उसने तो पुलिस को रिश्वत दे दी लेकिन प्रमिला कालरा का सामान सड़क पर फेंक दिया गया। इन्हीं सरकारी घरों में फिल्म अभिनेत्री सविता बजाज, हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव, राम तेरी गंगा मैली फेम मंदाकिनी, यहाँ तक कि अपने शुरुआती दिनों में अचला नागर भी रहीं। रेडियो विविध भारती के प्रोग्राम प्रोड्यूसर गंगा प्रसाद माथुर भी वहीं रहते थे पर चोरी छुपे नहीं उनके नाम तो आकाशवाणी से फ्लैट अलॉट हुआ था। मेरा उनके घर आना-जाना विविध भारती में प्रसारित होने वाले मेरे नाटकों और गीतों भरी कहानी की वजह से हुआ। उन्होंने मुझसे खूब लिखवाया। फिर आकाशवाणी में हेमांगिनी रानाडे नारी जगत के लिए मुझसे लिखवाती रहीं। उन दिनों कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग नहीं होती थी। लाइव प्रोग्राम होते थे। बहुत आनंद आता था लाइव प्रसारण में। न कहानी या वार्ता पढ़ते-पढ़ते बीच में पानी पी सकते थे, न खाँस सकते थे। पन्ने पलटने की आवाज भी नहीं आनी चाहिए। बरसों बरस मेरी कहानियाँ, वार्ताएँ आकाशवाणी और विविध भारती से प्रसारित होती रहीं। सिलसिला अब भी जारी है। अब एक बार के कार्यक्रम के 22 सौ रुपए मिलते हैं। लेकिन शुरुआत ₹50 से हुई थी। जिसमें से ₹10 चर्चगेट लोकल से आने जाने में खर्च हो जाते थे।

शायद मेरी वह चौथी कहानी थी जो आकाशवाणी के नारी जगत कार्यक्रम से प्रसारित होनी थी। रात में कहानी फेयर कर ड्यूरेशंस आदि चेक कर तकिए के नीचे दबा कर सो गई थी। सुबह 9: 00 बजे की लोकल ट्रेन पकड़नी थी। हेमंत को भी तैयार कर किरण पांडेय के घर छोड़ना था। जब भी मैं बाहर जाती उनके ही घर हेमंत रहता। किरण पांडेय माधुरी में मेरे सहयोगी पत्रकार थे जो मेरे घर के सामने वाली बिल्डिंग में अपनी माँ के साथ रहते थे।

सुबह जब मैं नहा कर कमरे में आई तो हेमंत महाशय कहानी के पन्ने फाड़कर हवा में उड़ा रहे थे और कूद-कूद कर खुश हो रहे थे। अब क्या हो? कोई उपाय नहीं। बदहवास मैं बिना कहानी लिए जब आकाशवाणी पहुँची तो हेमांगिनी रानाडे ने पीठ पर धौल जमाई।

"क्या करती हो। रात को ही पर्स में रख लेना था न कहानी। अब?"

"मैं ऐसे ही सुना दूंगी। याद है मुझे मेरी कहानी।" और आँख बंद कर माइक पर जो कहानी कहना शुरू की तो 10 मिनट कब निकल गए पता ही नहीं चला।

"वाह, बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से तुमने कहानी सुनाई। आइंदा पढ़कर मत सुनाना पर हमारे रिकॉर्ड के लिए लिखी हुई कहानी लाना जरूर।" और उस दिन इस बात पर सील लग गई कि मैं बिना पढ़े कहानी ज्यादा अच्छी तरह से कहती हूँ। उन दिनों रेडियो में प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों का क्रेज बहुत था। जिस दिन मेरी कहानी प्रसारित होती उसके हफ्ते भर बाद आकाशवाणी के पते पर प्रशंसक श्रोताओं के पत्र आने शुरू हो जाते। उनमें से कुछ पत्र नारी जगत के कार्यक्रमों में पढ़कर सुनाए जाते। मैं ध्यान से उन पत्रों को सुनती और अपना लेखन सार्थक मानती। वाकई वे दिन लेखन को एंजॉय करने के दिन थे।

मुंबई में उन दिनों जितने पत्रकार, साहित्यकार फिल्मों में काम करने वाले लोग अपने करियर की तलाश में भटक रहे थे उन सब का ठिकाना था अंधेरी, कांदीवली के एमआईडीसी सरकारी क्वार्टर और एंटॉप हिल के फोर्थ क्लास कर्मचारी सरकारी क्वार्टर। जहाँ से हम सब ग्यारह-ग्यारह महीने में खदेड़े जाते सो बिच्छू का डेरा पीठ पर ही रहता। जब मैं अंधेरी पूर्व के एमआईडीसी क्वार्टर में रहने आई तो कई परिचितों को वहाँ निवास करते देखा।

किरण पांडेय के बड़े भाई राकेश पांडेय फिल्म अभिनेता थे। राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर बनी फिल्म में उनका मुख्य रोल था। किरण पांडेय पत्रकारिता में अपनी किस्मत आजमा रहे थे। अरविंद जी के संपादन में माधुरी में वे सहयोगी पत्रकार थे। उनकी माँ देहरादून से आईं थीं और उनसे मेरी अच्छी मित्रता थी। वे तीसरी मंजिल में रहती थीं। दूसरी मंजिल में प्रमिला कालरा अपने पति कालरा को तलाक दे अपनी अविवाहित बड़ी बहन शीला तिवारी के साथ रहती थी। जब मनोहर महाजन श्रीलंका में रेडियो में थे तब शीला भी उनके साथ श्रीलंका में एनाउंसर थी। वहाँ से लौटकर वह भी पत्रकारिता में पैर जमा रही थी। घर में साहित्यकारों, संपादकों का आना जाना था। विजय भाई की वजह से फिल्मी कलाकार भी आते। फिल्मी गायिका हेमलता और रविंद्र जैन भी आए, गीतकार इंदीवर आए। इंदीवर उन दिनों कुर्बानी के गाने लिख रहे थे 'हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे मरने वाला कोई जिंदगी चाहता हो जैसे' गाना तब उन्होंने ताजा-ताजा लिखा था। मेरे घर ही बैठकर उसकी धुन इंदीवर ने थाली बजाकर कंपोज की और गाकर सुनाया। हालांकि इस गीत को फिल्म में संगीत दिया है कल्याणजी-आनंदजी ने पर इसकी धुन तो मेरे घर पर ही तैयार हुई। इंदीवर मुझे बड़ी लेखिका मानते थे। कहने लगे—"तुम मेरे गीतों की किताब प्रकाशित करवा दो। यार विजय, जब तक अपना लिखा किताब रूप में हाथ में न हो मजा ही क्या।"

प्रमिला कालरा ने अपने जन्मदिन की पार्टी मेरे घर पर दी। अवध नारायण मुद्गल, चित्रा मुद्गल, मनमोहन सरल जी और सुमन सरीन सभी आए पार्टी में। शीला तिवारी द्वारा बनाए पकौड़े, कॉफी और गर्मागर्म साहित्यिक चर्चा। उस दिन मुझे धर्मयुग, सारिका और माधुरी दफ्तरों की अंदरूनी बातों को जानने का मौका मिला। अरविंद जी जितने अपने सहयोगियों के प्रिय हैं भारती जी उतने ही अपने दबंग व्यक्तित्व से अपने सहयोगियों की सिट्टी पिट्टी गुम रखते थे। पत्रकार कॉलोनी बांद्रा में चित्रा मुद्गल, मनमोहन सरल जी ने फ्लैट लोन पर ले लिए थे। हेमांगिनी रानाडे भी वहीं फ्लैट खरीदकर रहने लगीं। थोड़ी ही दूरी पर धर्मवीर भारती ने पूरा फ्लोर खरीद लिया था। बाकी पत्रकारों ने मीरा रोड भयंदर का रुख किया। लेकिन उन दिनों मीरा रोड जंगल ही कहलाता था। किरण पांडेय ने मीरा रोड में बन रही बिल्डिंग में फ्लैट खरीदना चाहा। हमें दिखाने ले गया। मीरा रोड पश्चिम में तो कोई रहाइश ही नहीं है। नमक के खेत ही खेत हैं। पूर्व में घना जंगल था तब। कोई कत्ल करके फेंक दें तो पता ही न चले। किरण पांडेय को हमने अपना डर बताया—"कहाँ जंगल में बसने की सोच रहे हो।" किरण पांडेय ने आईडिया कैंसिल कर दिया। उसका बुकिंग अमाउंट वापस तो नहीं मिला पर वहाँ न रहने के फैसले पर वह बहुत खुश था। कितना फर्क था राकेश और किरण में। राकेश पांडेय जुहू के बड़े से फ्लैट में अपनी पत्नी और गोद ली बेटी के साथ रहते थे। फिल्मों की वजह से समृद्धि भी थी। पर माँ को अपने पास नहीं रखते थे। फिर एक दिन सुना किरण पांडेय का निधन हो गया है। मुश्किल से पैंतीस की उम्र, असफल करियर और ढेर सारे सपने। याद आता है किरण का मेरे प्रति दीवानापन। पर मैंने इस बात को तवज्जो नहीं दी। पर उसकी मृत्यु से कई दिनों तक मैं डिस्टर्ब रही। फिर उसकी माँ कुछ महीने राकेश के घर रहीं फिर उनकी भी मृत्यु हो गई।

विजय भाई आवाज की दुनिया में अपनी पहचान बना चुके थे। उन्हें बड़ा ब्रेक मिला था फिल्म आलाप में डबिंग का। फिल्म के बिना डबिंग वाले सीन बांद्रा स्थित विजय आनंद (गोल्डी) के स्टूडियो में डबिंग आर्टिस्ट्स को दिखाए जाने थे। विजय भाई मुझे भी साथ ले गए थे। जहाँ मेरी मुलाकात इस फिल्म के गीतकार वरिष्ठ लेखक राही मासूम रजा से हुई। हॉल में उन्होंने मुझे अपनी बगल वाली कुर्सी पर बैठाया। थोड़ी देर बाद उन्होंने जेब से एक मखमली बटुआ निकाला और घुंघरू लगे चांदी के सरोते से सुपारी काटने लगे। काटते हुए सरोते के घुंघरू एक लय में छुन-छुन बज रहे थे। अंधेरे कमरे में यह आवाज एक तिलिस्म-सा रच रही थी। उन्होंने खूब बारीक सुपारी काटकर खिलाई और अपने उपन्यास टोपी शुक्ला का जिक्र करते हुए उसकी एक प्रति मुझे भेंट की। वे अपने बेटे नदीम खान के बारे में भी बताने लगे। आगे चलकर नदीम खान ने हिन्दी पॉप गायिका पार्वती से शादी की थी।

चित्रा मुद्गल के घर भी फिल्मी लेखकों कलाकारों का आना-जाना था। उनके ही घर में शब्द कुमार से मेरी पहचान हुई। वे फिल्मी लेखक थे और हम सब उन्हें कुमार दा कहते थे। उन दिनों वे "इंसाफ का तराजू" फिल्म लिख रहे थे। एक दिन मुझसे बोले-"तुम क्यों नहीं फिल्मों में काम करती, ऑडिशन दे दो, सिलेक्शन मेरे जिम्मे।" हफ्तों इस प्रस्ताव को लेकर मैं दिमागी मंथन से गुजरी। प्रस्ताव चमकीला, मन को लुभाने वाला था। आज सोचती हूँ कि काश तब हाँ कह देती। मेरे अंदर कलाकार था। बस थोड़े से सपोर्ट की जरूरत थी, जो कुमार दा का मिल ही रहा था। लेकिन तब तो पत्रकारिता का नशा चढ़ा था। एक खुशफहमी में जी रही थी कि मुझे तो अपनी लेखनी की धार पर चलना है और सामाजिक परिस्थितियों को अपनी जुझारू पत्रकारिता से समाज के सामने लाना है। मेरी इंकारी पर कुमार दा ने अविश्वास से मेरी ओर देखा "कमाल है, फिल्मों में आने के लिए लोग मरते हैं और एक तुम हो कि..."

कुमार दा के यहाँ एक गेट टूगेदर में उन्होंने मुझे भी बुलाया। ग्राउंड फ्लोर का उनका सुंदर बगीचे वाला घर वहीं कलानगर में था। उनकी पत्नी सरोज सक्सेना बेहद मिलनसार, बेटियाँ शैल और सरस। वहीं अभिनेत्री निम्मी से और कई फ़िल्मी लेखकों से मुलाकात हुई। कुमार दा के यहाँ आना-जाना शुरू हुआ। कलानगर साहित्य की नगरी-सा लगता। चित्रा दी फुर्सत में होती तो मुझे मिलवाने ले जातीं मनमोहन सरल जी के घर, धर्मवीर भारती और पुष्पा भारती के घर, अशोक रानाडे और हेमांगिनी रानाडे के घर। मुझे लगता जैसे मुझे अब सही जमीन मिल रही है। नभाटा में विश्वनाथ सचदेव जी ने मुझसे परिचर्चा करवाई।

"ठुनकते बच्चे मचलती कहानियाँ" मालती जोशी, चित्रा मुद्गल, सरोज सक्सेना, मेहरून्निसा परवेज आदि को मैंने परिचर्चा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। नवभारत टाइम्स में छपने के बाद यह परिचर्चा बहुत चर्चित हुई। जब जबलपुर में थी तो धर्मयुग में आयोजित परिचर्चाओं के खूब निमंत्रण मिलते। जिन्हें गणेश मंत्री और योगेंद्र कुमार लल्ला जी आयोजित करते।

"अब मैं बता सकती हूँ" जिसमें केवल लेखिकाओं के ही लेख छपते। मेरा लेख "लहरों से छिटकी बालू, मेरी अंतरंग सखी" 14 वीं कड़ी में छपा था। फिर एक और परिचर्चा

"वह क्षण जिसने जीवन को नया मोड़ दिया" नाम से आरंभ हुई जो नारी जीवन के अंतर्द्वंद पर आधारित थी। इन परिचर्चाओं में भाग लेकर मुझे लेखन के नए आयाम मिले और संपादकों द्वारा मुझे परिचर्चा आयोजित करने या भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा।

एक दिन रवींद्र श्रीवास्तव का फोन आया।

"मैं मुंबई आ गया हूँ। कहाँ रहती हैं आप?"

रवींद्र श्रीवास्तव जब इलाहाबाद में माया, मनोरमा और मनोहर कहानियाँ में ब्यूरो चीफ थे उस दौरान मेरी कहानियाँ इन पत्रिकाओं में खूब छपीं। अंधेरी में मेरे घर पर उनसे मैं पहली बार मिली। बेहद मिलनसार, खुशमिजाज। बोले-"यहाँ मासिक पत्रिका शिक का संपादक होकर इलाहाबाद से आया हूँ। इलाहाबाद से आलोक मित्रा ने मेकर चेंबर में एक ऑफिस खुलवा दिया है मेरे लिए कि मैं वहाँ बैठकर मुम्बई की साहित्यिक दुनिया को उनकी रचनाओं के जरिए इलाहाबाद पहुँचाऊँ। पता चला आप भी मुंबई में हैं। कोई जॉब?"

' नहीं रविंद्र जी अभी तो पत्रकारिता के लिए स्ट्रगल कर रही हूँ। "

"तो फिर शिक के लिए भी लिखिए।"

"जी फिलहाल तो मैं लघु उपन्यास लिख रही हूँ टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी के साथ।"

"अब आप लिख रही हैं तो निश्चय ही उम्दा होगा। आप चैप्टर देते जाइए धारावाहिक छपेगा शिक में। कवर स्टोरी भी लिखवाउँगा आपसे।"

"जरूर।" उनसे यह पहली मुलाकात मित्रता में तब्दील होती गई। हम जब मिलते न वे संपादक होते न मैं लेखिका। मेरे उपन्यास के कुल 5 चैप्टर थे। शिक के 5 अंकों में

छपकर उपन्यास पूरा हुआ। महीने भर बाद मुझे शिक से ढाई हजार का चेक बतौर पारिश्रमिक मिला। चेक लेने मैं खुद गई थी शिक कार्यालय।

"आपके उपन्यास के प्रकाशन के समापन को सेलिब्रेट करना चाहिए।"

"हाँ क्यों नहीं। कहीं लंच लेते हैं।"

"होटल में नहीं मेरे घर आइए।" मालाड में रहते थे। बहुत ढूँढना पड़ा उनका घर। उनकी पत्नी उषा के आतिथेय में उस दिन का लंच स्मृतियों में कैद है। उषा जी अब नहीं रहीं पर उनका वह वात्सल्य रूप कभी भूलता नहीं।

रवींद्र जी दिल्ली चले गए साप्ताहिक हिंदुस्तान में। साप्ताहिक हिंदुस्तान में तो मैं जबलपुर से छप रही थी। मनोहर श्याम जोशी जब वहाँ संपादक थे तब से। रविंद्र जी ने दिल्ली पहुँचकर मुझे साप्ताहिक हिंदुस्तान का मुम्बई ब्यूरो चीफ नियुक्त किया। उन्होंने मुझसे अधिकतर कवर स्टोरी लिखवाई जिसमें मैंने सबसे अधिक आनंद लिया इस्कॉन के हरे रामा हरे कृष्णा आंदोलन की कवर स्टोरी लिखने में।


मेरे लिए मेरे जीवन में आया एक-एक व्यक्ति भविष्य के लिए मेरी आँखें खोलता गया फिर चाहे आँखें उससे मिले धोखे से खुली हो या मेरे प्रति ईमानदारी से। रवींद्र श्रीवास्तव मेरे ईमानदार दोस्तों में से हैं। कहीं एक जगह नौकरी में स्थायित्व नहीं मिला उन्हें। हालांकि वे बड़े-बड़े राष्ट्रीय स्तर के अखबारों से जुड़े रहे। वे नवभारत में समाचार संपादक, हिंदुस्तान टाइम्स में सह संपादक, टाइम्स ग्रुप में सीनियर संपादक, नवभारत टाइम्स में संपादक और संझा लोकस्वामी में संपादक के पद पर थे। नौकरियों की वजह से उन्हें दिल्ली मुम्बई बार-बार स्थान परिवर्तन करना पड़ा और यही वजह थी कि पत्रकारिता की अनिश्चितता और अंधकारमय भविष्य को मैंने बारीकी से समझा।

रवींद्र श्रीवास्तव जी जब मुम्बई दैनिक संझा लोकस्वामी में संपादक के पद पर आए, उन्हीं दिनों प्रमिला वर्मा नौकरी के लिए मुम्बई आई। मैंने रविंद्र जी से जिक्र किया बोले "मिलवाओ" हम दोनों मालाड स्थित संझा लोकस्वामी के ऑफिस गए। कुछ कहना ही नहीं पड़ा। प्रमिला का बायोडाटा सरसरी निगाह से देख कर उन्होंने तुरंत उसे अपॉइंट कर लिया। वहीं मेरी रजनीकांत वर्मा से मुलाकात हुई जो संझा लोकस्वामी में सह संपादक थे। 5 महीने के अंतराल के बाद मुझे संझा लोकस्वामी के रविवारीय संस्करण में साहित्य पेज का संपादन कार्य सौंपा गया। पूरे 2 पेज के इस साहित्य पेज में कहानी, कविता, मेरा संपादकीय परिचर्चा आदि को लेकर मुझे पेज बनाना होता था। पूरे 3 साल मैंने यह कार्यभार संभाला लेकिन संझा लोकस्वामी के मालिक जितेंद्र सोनी के व्यवहार और वैचारिक मतभेद, कभी भी पारिश्रमिक न मिलने की वजह से मैंने संपादन कार्य छोड़ दिया। रविंद्र श्रीवास्तव भी संझा लोकस्वामी के पद को छोड़ चुके थे। बीच में कुछ साल वे संपर्क में नहीं रहे। उषा जी की मृत्यु के बाद इन दिनों वे चांदीवली मुंबई में एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

संझा लोकस्वामी में रजनीकांत वर्मा रविंद्र श्रीवास्तव के पद छोड़ने के बाद संपादक हो गए।

संझा लोकस्वामी में मेरा लेखन की वजह से आना जाना था ही। वहाँ सैलानी सिंह भी पत्रकार था जो बिहार से आया था। कम उम्र के इस लड़के का काम उसके भविष्य के प्रति संभावनाएँ जगाता था। गरीबी इतनी कि एक वक्त का खाना ही नसीब होता। रात को वहीं ऑफिस में टेबल पर सो जाता। एक दिन जितेंद्र सोनी ऑफिस में जब थे मैं भी उनसे मिलने ही गई थी। सैलानी ने 3 महीने से रुकी हुई तनख्वाह की मांग की। सैलानी की आँखें बड़ी-बड़ी थीं और वह स्वाभाविक रूप से भी आँखें फाड़कर देखता था। जितेंद्र सोनी ने आग्नेय नेत्रों से उसे देखा।

"आँखें किस बात की दिखा रहा है। क्या कर लेगा बता?"

और अपना जूता उतार ताबड़तोड़ उसे पीटने लगे। मुझे तुरंत हट जाना चाहिए था या विरोध करना चाहिए था इस बात का। पर हालत सकते में थी। जितेंद्र सोनी एक बड़ा आतंक बनकर आया था। बाद में पता चला वह कई रेप, गबन और हत्याओं के केस में जेल की हवा काट रहा है।

रजनीकांत वर्मा जुझारू पत्रकार थे। जयप्रकाश नारायण के घराने से थे। लेकिन स्वभाव के बेहद फक्कड़। वे हल्द्वानी के थे। पत्रकारिता का जुनून उन्हें कहाँ-कहाँ खींच ले गया। इंदौर, भोपाल, मुम्बई और फिर दिल्ली। मैं मुम्बई संझा लोकस्वामी में पत्रकारिता के दौरान उनसे जो जुड़ी तो उनकी जिंदगी में बड़ी बहन की हैसियत से अंत तक जुड़ी रही। अपने संपादन काल में खूब लिखवाया उन्होंने मुझसे। फिर वह भोपाल चले गए और सुधीर सक्सेना की पत्रिका दुनिया इन दिनों संभालने लगे। उनके भोपाल प्रवास के दौरान मैं जब भोपाल गई तो वे खुद मुझे हबीबगंज स्टेशन पर लेने आए और अपने घर के अलावा उन 4 दिनों की भोपाल यात्रा में किसी और के घर ठहरने नहीं दिया। उनके घर पर मुझसे मिलने हरि भटनागर आए, गोविंद मिश्र आए, मेहरून्निसा परवेज आईं।

रजनीकांत ने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में मीडिया विमर्श में मुझे अध्यक्षता का भार सौंपा। करीब 20 पत्रकारों के बीच हमने मीडिया में भाषा के दुरुपयोग पर चर्चा की। वे दुनिया इन दिनों में सहयोगी संपादक थे और सुधीर सक्सेना हमेशा मेरे विरोध में ही पत्रिका में छापते रहे। रजनीकांत कहते

" दीदी, यही विरोध तो आपको ऊंचाइयाँ दे रहा है। एक दिन इस पत्रिका में आप की कहानी मांगकर छापी जाएगी और हुआ वही सुधीर जी ने मुझसे रचना मंगवाई और मेरी कहानी चित्रों की जुबान छापी।

दिल्ली में रजनीकांत 26 साल तक लोकस्वामी समूह के साथ जुड़े रहे। उन्होंने अपनी धारदार लेखनी के साथ लोकस्वामी में अवाम की आवाज को अंत तक जगाए रखा।

हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ करते रहते थे वे। कहते भी थे कि "दीदी आपकी बहुत फिक्र है मुझे। मैं लोकस्वामी ऑफिस के बगल में ही हेमंत फाउंडेशन का ऑफिस खोल रहा हूँ। जिसमें आपके लिए कुर्सी टेबल और एक कंप्यूटर रहेगा। फिर आपको जल्दी-जल्दी मुंबई से दिल्ली आना पड़ेगा।"

कौन सोचता है इतना? इस एक दूसरे को पहचानने की प्रतिस्पर्धा वाले युग में रजनीकांत जैसी शख्सियत मुश्किल से ही मिलती है। मैं जब भी दिल्ली जाती वह मेरे दिल्ली में आने जाने के लिए सुबह से रात तक गाड़ी खड़ी रखते। यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि वह किराए की गाड़ी मेरे लिए बुक कराते थे, क्योंकि उनके पास गाड़ी नहीं थी।

वे अचानक ही चौंका देते मुझे।

"दीदी टिकट भेज रहा हूँ दिल्ली आने जाने की। स्टेशन पर गाड़ी आएगी आपको लेने। घर (उनके संत नगर वाला घर) आकर आराम करना। सुबह चलना है। राजस्थान के सरदार शहर।"

"क्या है वहाँ?"

"आप पूछा मत करिए ज्यादा।"

उनके घर पहुँची तो रजनीकांत ऑफिस में थे। रूपम ने खाना खिलाया। बिल्कुल जैसे अपने ही घर में आई हूँ। बेहद मिलनसार घरेलू-सी लगती उनकी पत्नी रूपम लेकिन उतनी ही बड़ी चित्रकार। रजनीकांत के ऑफिस से लौटने तक वह अपने बनाए चित्र दिखाती रही। शाम को रजनीकांत ने ऑफिस से लौट कर खुद मेरे लिए चाय बनाई।

"सरदारशहर चलना है। सुबह 6: 00 बजे की ट्रेन है। वहाँ कनकमल डूंगर जी का आईएएसइ विश्वविद्यालय है जिसके प्रबंधन में उनका पूरा परिवार कार्यरत है। 26 जनवरी को होने वाले विशेष आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में उन्होंने आप को आमंत्रित किया है। परेड का गार्ड ऑफ ऑनर भी लेना है आपको।"

मुख्तसर-सी न्यूज़ के बाद रात 1 बजे तक खूब गपशप। न वे सोए न मैं। रूपम ने दो-तीन बार चाय बना कर पिलाई। फिर रास्ते के लिए आलू मटर की सब्जी और पराठे बनाने में जुट गई। स्टेशन पर कपकपाती ठंड में हम ट्रेन का इंतजार करते रहे। उस दिन कोहरा भी बहुत था। ट्रेनें वैसे भी कोहरे की वजह से लेट हो जाती हैं। हमारी ट्रेन एक घंटे लेट थी लेकिन रजनीकांत के साथ की वजह से न ट्रेन के लेट होने का एहसास हुआ। न सरदार शहर तक की दूरी का। कुलपति डूंगर जी ने स्टेशन पर हमें लिवाने गाड़ी भेज दी थी। सभी सुविधाओं से युक्त कमरे में हमें रुकाया गया। तैयार होकर हम नाश्ते के लिए डाइनिंग हॉल पहुँचे। वहीं सभी प्रोफेसर और स्टाफ के लोगों से परिचय हुआ। नाश्ते के बाद हमें कार्यक्रम स्थल पर ले जाया गया। बहुत बड़ा ग्राउंड परेड के लिए। सभी विद्यार्थी यूनिफॉर्म में। सामने स्टेज जिसे फूलों से सजाया गया था। गेट में प्रवेश करते ही बैंड बजने लगा। गाड़ी से उतरकर मुझे सीधे खुली जीप में ही कुलपति और शिक्षा सचिव के साथ खड़ा होना था। जीप धीरे-धीरे परेड ग्राउंड में घूमने लगी और हम परेड की सलामी लेते रहे। सलामी के बाद मैंने तिरंगा फहराया। फूल बरसकर मानो राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान को सलामी दे रहे थे। लगभग 4 घंटे कार्यक्रम चला। बीच में लंच ब्रेक भी।

शाम को हम सुरेंद्र कुमार वर्मा के घर गए। वहाँ कुछ कवियों के संग छोटी-सी कवि गोष्ठी हुई। सबके लिए डिनर का आयोजन था। सुनना कम सुनाना ज्यादा हुआ। उस दिन पहली बार मैंने रजनीकांत से उनकी बेहद खूबसूरत प्रेम कविता सुनी। यह कविता उन्होंने अस्पताल में रूपम की तीमारदारी देखकर तब लिखी थी जब उन्हें अपने दिल के बीमार होने का पता चला था और कुछ ही दिनों में उन्हें पेसमेकर लगाया जाना था। मेरा मन जहाँ उनके रूपम के प्रति प्रेम से भीग उठा था वहीं उनकी बीमारी को लेकर चिंता ग्रस्त भी। दूसरे दिन डूंगर जी ने हमें पूरे विश्वविद्यालय की सैर कराई और पीएचडी के विद्यार्थियों के बीच मेरी पुस्तक "मुझे जन्म दो माँ" (स्त्री विमर्श के लेखों का संग्रह प्रकाशक सामयिक प्रकाशन दिल्ली) को शोध कार्य के लिए उन्होंने रिफरेंस बुक के रूप में अपने विश्वविद्यालय में मान्यता दी और मानद पीएचडी के लिए भी "मुझे जन्म दो माँ" को सिलेक्ट किया। शाम घिर आई थी रात 8 बजे से गायन वादन का कार्यक्रम था। रजनीकांत ने बताया कनकमल जी बहुत अच्छे सिंगर हैं। वाह एक ही इंसान में इतने सारे गुण।

"आप संतोष जी को शहर की हवेलियाँ और बाज़ार दिखाइए।" कहते हुए डूंगर जी के पुत्र ने ड्राइवर को समझा दिया कि कहाँ-कहाँ घुमाना है। गाड़ी में घूमते हुए हमने शहर के चारों तरफ टीले ही टीले देखे। जिसकी वजह से इस शहर की खूबसूरती के क्या कहने। गाड़ी हमें एक विशाल छतरी तक ले आई। छतरी का स्थापत्य देखते ही बनता था। गांधी विद्या मंदिर और इच्छा पूर्ण बालाजी मंदिर देखते हुए हम घंटाघर से होते हुए डूंगर जी के पुरखों की हवेली आ गए। वहाँ पहले से कुछ लोग हमारे स्वागत के लिए तैयार थे। विशाल हवेली, परकोटे, हवेली के अंदर मंदिर, बाहर लंबे चौड़े आंगन में कमरे ही कमरे। जो हवेली के गुलजार रहने के समय नौकरों के रहे होंगे। अब वहाँ कन्या विद्यालय है।

कोने में लगा चांदनी के सफेद फूलों से लदा पेड़ मानो कह रहा था इस हवेली की आन बान शान के क्या कहने। मगर वह गुजरे जमाने की बातें हैं। हवेली की भव्यता के साथ-साथ जीवन की क्षणभंगुर का एहसास भी तेजी से हुआ।

शहर का बाज़ार आम बाजारों जैसा ही था।

"रूपम ने घेवर, सांगरी, पिटोर, पंचकूट मंगाया है।" रजनीकांत ने कहा।

साथ में सुरेंद्र थे। जिन्हें इन सामग्रियों के मिलने के स्थान पता थे। सभी खाने की चीजें थीं। सांगरी और पिटोर की तो सब्जी बनती है। मैंने भी एक-एक पैकेट सभी चीजों का खरीद लिया।

लौटे तो रात मुस्कुराती हुई विशाल कमरे में हमारे आगमन को आतुर थी। जहाँ कत्थई और नीला गलीचा, गद्दे, गाव तकिए, तबला, हारमोनियम और तानपूरा था। संगीत की स्वर लहरियों में गीत मुखर हुए। लगभग 2 घंटे चली इस महफिल में कनकमल जी के अलावा उनके बेटे ने भी गाया। रजनीकांत जी ने भी अपनी प्रेम कविता गाकर सुनाई और मैंने अपनी लोकप्रिय ग़ज़लें "शबे हिज़्र में तू मिला ही नहीं" सुनाई।

सरदार शहर में बीते दिनों की उपलब्धियों का श्रेय रजनीकांत को ही जाता है।

सन 2012 के विश्व पुस्तक मेले में नमन प्रकाशन से मेरा कथा संग्रह "प्रेम सम्बंधों की कहानियाँ" का लोकार्पण वरिष्ठ लेखक आलोचक रामदरश मिश्र के हाथों हुआ। दिल्ली में मेरा ठिकाना रजनीकांत का घर। लोकार्पण में रजनीकांत वादा करके भी नहीं आ सके। लोकस्वामी के प्रति समर्पित रजनीकांत पहले अपने काम को ही वरीयता देते थे। लोकार्पण में वरिष्ठ कथाकार चंद्रकांता जी, प्रेम भारद्वाज पत्नी सहित और प्रकाश मनु जी शामिल हुए।

रजनीकांत ने प्रगति मैदान गाड़ी भेज दी।

"दीदी सीधे ऑफिस आ जाइए आपको राहुल देव से मिलवा दूंगा। मेरा ऑफिस भी देख लेना।"

जब राहुल देव मुम्बई आए थे तो चर्च गेट स्थित इंडियन मर्चेंट चेंबर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रॉडक्शन हाउस के कार्यक्रम में उनसे मुलाकात हुई थी। राहुल देव का खुद का प्रोडक्शन हाउस भी है। कई न्यूज़ चैनल्स के लिए बेहतरीन कार्यक्रम और महत्त्वपूर्ण वृत्त चित्र बनाने वाले राहुल देव ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज़ चैनल में काम किया। वैसे वे आलोक मित्र के द्वारा इलाहाबाद से निकलने वाली माया पत्रिका से जुड़े थे और यही वजह थी कि वह मुझ से परिचित हैं। समय इतिहास रच लेता है। राहुल देव के साथ शाम एक कप कॉफी पीते हुए पत्रकारिता पर चर्चा करना न जाने मेरे भीतर के कितने सवालों को सुलझा गया। बाद में मुझे पता चला कि राहुल देव जी ने इस्तीफा दे दिया है और जिस शाम मैं उनसे इंडिया न्यूज़ के ऑफिस में मिली थी। वह उनकी गहमागहमी भरी आखरी शाम थी। तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों में प्रमुखता से राहुल देव के इस्तीफे की खबर थी और वे बेहद शांति और खुशमिजाजी से मेरे संग बात कर रहे थे। इतनी बड़ी खबर को नजरअंदाज करते ...होता है पत्रकारों की जिंदगी ऐसी ही होती है। पानी पर बिना मल्लाह पतवार के डोलती नैया।

दूसरे दिन मैं सुमिता के साथ हल्द्वानी आ गई। हल्द्वानी में रजनीकांत के छोटे भाई रविकांत रहते हैं और उनका खूब बड़ा फॉर्महाउस है। मेरे हल्द्वानी पहुँचते ही रविकांत का फोन-"दीदी कब आऊँ लेने?"

"भैया अभी तो पहुँची हूँ। ठंड भी खूब है यहाँ। कल दोपहर को ही मिलते हैं।" सुमीता के पापा, माँ, भाई-भाभी ...हरी-भरी वादियों, खेतों के बीच में उनका घर। जब भी मैं सोचती हूँ कि जीवन में मैं कितनी तनहा हूँ और कैसे उम्र के रास्ते पार करूंगी कि तभी अपनत्व की एक किरण कहीं से फूट आती है मुझे उजाला सौंपने। सुमीता की माँ ने भी मुझे बेटी की तरह अपनाया। खूब लाड़ दुलार स्वागत सत्कार। हल्द्वानी निवास के तीन दिन तितली जैसे उड़ चले। दूसरे दिन सुमीता और मैं रजनीकांत के फॉर्म हाउस रुद्रपुर गए। रघुवीर चौहान और रविकांत नियत जगह पर हमें मिले। रघुवीर चौहान हल्द्वानी में दैनिक जागरण में वरिष्ठ उप संपादक थे। रघुवीर का प्रेम विवाह था। मुस्लिम लड़की नाज से। नाज बरेली में रहती है और रघुवीर नौकरी की वजह से हल्द्वानी में। अब मैं उसको बहू बेगम कहती हूँ।

"संतोष जी, आपका दैनिक जागरण के लिए इंटरव्यू लेना है। सुमीता जी के घर आकर ले लेता हूँ इंटरव्यू। बताइए, कब आऊँ?"

रघुवीर चौहान मेरी रजामंदी बड़ी शिद्दत से चाह रहा था। मुझे हामी भरनी पड़ी। रजनीकांत और रविकांत का विशाल फॉर्म हाउस... गन्ना, सरसों की फसल लहलहा रही थी। खूब सब्जियाँ लगी थीं। मंडप के ऊपर करेले, बरबटी, सेम, कुंदरू की बेलें छाईं थीं। एक बड़े पॉन्ड में मछलियाँ भी पाली थीं। रविकांत ने ढेर सारे गन्ने तोड़कर कार की डिग्गी में भर दिए। बगीचे में ही धूप तापते हुए चाय नाश्ता किया।

इतनी समृद्धि, फॉर्म हाउस, खेत, घर छोड़कर रजनीकांत दिल्ली में किराए के मकान में रहते हैं। पत्रकारिता का नशा क्या न करा ले। रजनीकांत के जीजाजी सुरेंद्र श्रीवास्तव फिल्मों से जुड़े हैं। उन्हें फिल्मों में प्रोडक्शन के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिल चुका है।

लौटते हुए रघुवीर ने हमें दैनिक जागरण के वरिष्ठ समाचार संपादक आलोक शुक्ल एवं प्रबंधक अशोक त्रिपाठी से मिलवाया।

"सामने ही अमर उजाला का दफ्तर है स्थानीय संपादक सुनील शाह से मिलते हुए जाइएगा।"

कहते हुए आलोक शुक्ला जी ने चाय मंगवाई। खूब गाढ़ी, खूब मीठी। साथ में बिस्किट। आधे घंटे बैठकर हम अमर उजाला चले गए। सुनील शाह जी बातों में बहुत आत्मीय लगे। सूरज डूबने को था। पहाड़ में वैसे ही सरेशाम सन्नाटा घिर आता है। घर पहुँचते ही मैं स्वेटर शॉल लेने कमरे में गई। लौट कर देखा तो सुरमई उजास में बगीचे में बैठे सुमिता के परिवार के सभी मेरे लाए गन्ने चूसने में मगन थे। मुझे तो चाय की तलब लगी थी।

दूसरे दिन लगभग 3 बजे दोपहर को रघुवीर मेरा इंटरव्यू लेने आ गए। लगा ही नहीं कि इंटरव्यू ले रहे हैं। उन्होंने रिकॉर्डर ऑन कर लिया था और हम खुलकर साहित्य और मौजूदा परिवेश पर चर्चा कर रहे थे।

सुमिता की दीदी हमें नैनीताल घुमाना चाहती थी। उनके साथ गाड़ी से हम सब नैनीताल आए। जिस नैनीताल में मैं बरसों पहले आई थी अब कितना बदल गया था। पहाड़ों का हरा भरा बेहद खूबसूरत सौंदर्य, पर्यटकों की जेब खाली करने की नई-नई राइड्स, दुकानों आदि में बदल चुका था। नैना झील का नौका विहार वह मजा नहीं दे रहा था जब मैं हेमंत के साथ आई थी और हमने भुट्टा खाते हुए नौका विहार किया था।

सुमीता की दीदी का 3 सितारा होटल है। वे सपरिवार उसी में रहती हैं। हम भी उसी में रुके।

नैनीताल से लौटकर हल्द्वानी भी घूमे। छोटा-सा बाज़ार गर्म कपड़े बिक रहे थे। मैंने जर्सी खरीदी। सुबह-सुबह निकलना था। सुमीता के भाई काठगोदाम तक छोड़ने आए। खूब ठंड और कोहरा था। स्टेशन पर सन्नाटा पसरा था। तभी देखा रघुवीर दौड़ते चले आ रहे हैं। उनके हाथ में अखबार...

"दीदी, दैनिक जागरण में आपका इंटरव्यू छप गया।"

"अरे इतनी ठंड में सुबह-सुबह! डाक से भेज देते।"

"आपसे मिलना भी तो था, -सी ऑफ करना था न।"

जब तक ट्रेन ने रफ्तार नहीं पकड़ ली रघुवीर साथ-साथ चलते रहे। अब रघुवीर दिल्ली में अमर उजाला में उपसंपादक हैं। प्रतिवर्ष विश्व पुस्तक मेले में उनसे मुलाकात होती है। हल्द्वानी से दिल्ली लौटी तो रजनीकांत ने संदीप मित्र से मिलवाया। माया अब नए कलेवर में संपूर्ण माया नाम से दिल्ली से प्रकाशित हो रही थी और संदीप मित्र उसके संपादक थे। संदीप मित्र ने स्त्री विमर्श का कॉलम लिखने का प्रस्ताव रखा। मैं "आधी आबादी का पूरा सच" नाम से कॉलम लिखने लगी। शुरू में पारिश्रमिक भी अच्छा मिला। लेकिन बाद में पारिश्रमिक मिलना बंद हो गया। फिर भी मैं 8 महीने तक कॉलम लिखती रही। लेकिन जब पारिश्रमिक नहीं मिला तो रजनीकांत ने ही मुझे बिना पारिश्रमिक के नहीं लिखने की सलाह दी। रजनीकांत अब नहीं हैं। 2017 में उन्होने अंतिम साँस ली। 55 बसन्त उनकी जुझारू जिंदगी के गवाह हैं। उन्हें मेरी बहुत चिंता रहती थी और हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ करने को तत्पर रहते थे। अब वह नहीं है तो लगता है जैसे मैंने अपने विजय भाई को दोबारा खो दिया।