मेरे घर आना जिंदगी / भाग 7 / संतोष श्रीवास्तव्

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पत्रकारिता के मेरे अनुभवों ने यह तो समझा दिया था कि पत्रकारिता का भविष्य अनिश्चित है। दुनिया बदल देने और कलम की धार से सत्ता की चूलें हिला देने का दम भरने वाले पत्रकार कब सड़क पर आ जाएँ कहना मुश्किल है। मैंने धर्मयुग बंद होते देखा। जनसत्ता बंद होते देखा। पत्रकारों को हुक्मरानों का हुकुम बजाते देखा। जो विचार जो सपने लेकर वह पत्रकारिता की दुनिया में प्रवेश करता है वह तो कब के टूट चुके होते हैं और वह सिर्फ नौकरी कर रहा होता है। इस तरह तो नहीं चलेगा। ठोस जमीन होनी ही चाहिए पैरों के नीचे। मेरे सामने हेमंत का भविष्य भी था।

जिंदगी फिर दोराहे पर थी और मैं बहुत अधिक तनाव में। वैसे भी विजय भाई के निधन से मैं उबर नहीं पा रही थी। पत्रकारिता से निराशा तो थी ही साथ ही रमेश को लेकर मैं व्यथित थी। मेरी वैवाहिक जिंदगी डगमगाने लगी थी और रमेश को लेकर मेरे भ्रम टूटने शुरू हो गए थे। वे बेहद अच्छे गायक थे पर उतने ही अधिक कुंठित भी। उन्हें वह सब करने नहीं मिला जिसका सपना लेकर लखनऊ से मुंबई आए थे। पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी उनके मामा थे। खानदानी स्वाभिमान उन्हें विरासत में मिला था। अतः अपने सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने किसी की एप्रोच नहीं ली और बिना पहुँच के तो ...उनकी असफलता उनकी कुंठा बन गई जिसे वे मुझ पर और हेमंत पर बिला वजह नाराजगी प्रकट कर निकालते। वे नियमित शराब पीने लगे और दो-दो बजे रात तक हमें सोने नहीं देते। उनकी चीख-पुकार गुस्से से पूरा मोहल्ला परिचित था। मैं हेमंत को उनके गुस्से की जद में नहीं आने देती। चिड़िया की तरह मानो अपने पँखों में छुपा कर रखती। रमेश की इन्हीं आदतों की वजह से कभी उनके मित्र, भाई-बहन, भतीजे उनके नहीं हुए। मैं इतनी शॉक्ड थी कि धीरे-धीरे अपना स्वास्थ्य खोने लगी। गहरे अवसाद का शिकार हो गई। मेरी दोनों ओवरीज में सिस्ट पड़ गई और लगातार रक्तस्राव से मैं कई-कई बार बेहोश होने लगी। डॉक्टरों ने कैंसर की संभावना जताई। लंबे-लंबे थका देने वाले टेस्ट्स से गुजरने लगी। लंबा ऑपरेशन हुआ। यूट्रस और दोनों ओवरीज रिमूव कर दी गईं। मेरा शरीर निरंतर छीजने लगा। टांके रड़कते रहते। ढेरों दवाइयाँ, इंजेक्शन, दर्द ... उफ। मेरा मन बुझ गया। लेखनी थम गई और मुझे लगा मैं जिंदगी से हार गई हूँ। रमेश की कुंठा की, अनचाहे माहौल की, वैवाहिक जीवन की भेंट चढ़ गई हूँ। सब कुछ इतना जानलेवा होगा सोचा न था। कतरा-कतरा दर्द बाहर का भी, भीतर का भी कलेजे को भी बींध रहा था। मैं मर रही थी। मैं मरती रही। लगातार चार सालों तक मैंने अपने अंदर का वनवास सहा लेकिन यह भी तय था कि मुझे हेमंत के लिए खुद को इस वनवास से बाहर निकालना होगा। मेरे लिए नियमित आय का स्रोत अध्यापन ही था इसलिए मैंने बी एड का फॉर्म भरकर खार स्थित हंसराज कॉलेज में दाखिला ले लिया। इसी बीच ललित पहवा संपादक के पद का प्रस्ताव लेकर मेरे घर आए। वे मेरी सहेली नाम से महिलाओं की एक पत्रिका लांच कर रहे थे और चाहते थे कि मैं उसे पूरी तरह से संभालूं। पत्रिका का कलेवर महिला विषयक था। पति को कैसे रिझाएँ, पुरानी साड़ियों से पर्दे कैसे बनाएँ, सर्दियों में चेहरे की कैसे देखभाल करें। वगैरह वगैरह। मैंने असमर्थता प्रकट की फिर उन्होंने खुद ही पत्रिका संपादित की हेमा मालिनी का नाम संपादक में देकर। हालांकि वे मेरी कहानियाँ और स्त्री विमर्श के लेख छापने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। खूब छापा, अच्छा पारिश्रमिक भी दिया और आज भी ललित पहवा बहुत मान सम्मान देते हैं मुझे। मेरी हर उपलब्धि पर मुझे बधाई देना कभी नहीं भूलते।

सन 1985 में मैंने खार स्थित हंसराज जीवनदास कॉलेज ऑफ एजुकेश्न में बी एड में दाखिला लिया। ट्रेनिंग एक साल की थी। वह पूरा साल मानो कड़ी मेहनत और तपस्या का था। सुबह 8 बजे कॉलेज पहुँचना होता था। हेमंत तब तीसरी कक्षा में था। कहाँ छोड़ती उसे जो पढ़ाई का समय निकाल पाती। लिहाजा उसे आगरे में अम्मा के पास दयालबाग ले गई। दौड़ भाग करके उसका एडमिशन करवाया और मुंबई आकर पढ़ाई में जुट गई। मेरे कॉलेज की प्रिंसिपल उर्मी संपत मुझ से बहुत प्रभावित थीं। मेरी रेडियो में कहानी प्रसारित होती तो कांटेक्ट लेटर की प्रिंट निकाल कर नोटिस बोर्ड पर लगा देतीं। कहीं कहानी छपती तो वह भी नोटिस बोर्ड पर ...और बड़े-बड़े अक्षरों में मेरा नाम कि "हमें फख्र है कि लेखिका संतोष श्रीवास्तव हमारे कॉलेज की विद्यार्थी हैं।"

वह पूरा साल मेरी बेशुमार गतिविधियों से भरा रहा। सुबह उठकर मैं रमेश के साथ रियाज भी करती। हारमोनियम बजाकर फिराक और फैज़ की गजलें गा लेती थी। फिल्मी गाना बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना और रमेश के साथ नैन सो नैन नाही मिलाओ, जो वादा किया वह निभाना पड़ेगा और छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा पर हाथ बैठ गया था हारमोनियम पर और गला भी बेसुरा न था। कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हारमोनियम पर गीत गाती और प्रस्तुति भी करती। उसी दौरान 14 सितंबर हिन्दी दिवस पर हिन्दी भाषण प्रतियोगिता का निर्णायक बनाकर वालकेश्वर स्थित बिरला पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल श्रीमती प्रकाश ने बुलाया। मैंने अपने वक्तव्य में कहा-"मैं बीएड कर के अध्यापन करना चाहती हूँ और लड़कियों के स्कूल में पढ़ाना चाहती हूँ ताकि हर घर शिक्षित हो।" उस समय बिरला पब्लिक स्कूल केवल लड़कियों का कान्वेंट स्कूल था। यह बात श्रीमती प्रकाश को बहुत पसंद आई। उन्होंने कहा "आप बीएड करके इस स्कूल को ही ज्वाइन करना।"

सर्दियों के दिन थे। मैंने हेमंत के लिए स्वेटर, फुलपैंट, शर्ट आदि का पार्सल तैयार करके उसकी मनपसंद चॉकलेट भी उसमें रखी। कुछ दिनों बाद उसके हाथ का लिखा पोस्टकार्ड मिला। बस एक वाक्य "मम्मी आप बोहोत अच्छी हैं।" अम्मा से पता चला कि पार्सल में स्वेटर और चॉकलेट नहीं थी। पार्सल की चोरी का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा। चीज भले छोटी थी। पर मेरे हेमंत के लिए महत्त्वपूर्ण थी। मैं अम्मा के ऊपर भी हेमंत को लेकर किसी तरह का बोझ तनाव नहीं डालना चाहती थी। आगरे की कड़ाके की सर्दी में मेरा बच्चा बिना स्वेटर के!

लेकिन अम्मा के रहते उसे कभी किसी तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ा।

B. Ed में मैं मैरिट में आई। हिन्दी विषय में मैं टॉप पर थी। रिजल्ट के पहले ही मेरी जी डी सोमानी में 14 सौ रुपए महीने की नौकरी लग गई थी। मैं हिन्दी और इतिहास पढ़ाती थी। गर्मियों में हेमंत को आगरा से मुंबई ले आई। वह पास तो हो गया था पर अच्छे नंबरों से नहीं। मैंने उसे अपनी देखभाल में जी डी सोमानी स्कूल में भर्ती करा दिया। जी डी सोमानी में मेरी नौकरी केवल एक साल की थी क्योंकि जिस अध्यापिका की जगह मुझे लिया गया था वह एक साल की छुट्टी पर थी। मैंने जी डी सोमानी छोड़ा तो हेमंत को भी वहाँ से वडाला के बंसीधर हाई स्कूल में भर्ती करा दिया। लेकिन मुझे अधिक दिन इंतजार नहीं करना पड़ा।

6 महीने बाद ही बिरला पब्लिक स्कूल से नौकरी के लिए बुलावा आ गया। मेरे लिए यह बहुत बड़ा जिंदगी से मिला उपहार था कि जिसके बल पर मैं अपनी हार को किसी तरह जीत में बदलने की कोशिश कर सकती थी। मैं जो शरीर और मन से इतनी बड़ी त्रासदी से गुजरी अब और होम होना नहीं चाहती थी। मुझे अपने अंदर उठे पेचीदा सवालों से खुद ही जूझना था। खुद ही उनके हल ढूँढने थे। गलत के आगे झुकना नहीं था।


समय बीतता गया। एक दिन अचानक श्रीकांत जी (बाबा नागार्जुन के पुत्र जो अब यात्री प्रकाशन संभालते हैं) का फोन आया

"प्रमिला वर्मा जी ने आप की कहानियों की पांडुलिपि भेजी है। मैं प्रूफ के लिए पाण्डुलिपि कुरियर कर रहा हूँ।"

हाँ याद आया प्रमिला जब ऑपरेशन के बाद मुझे देखने आई थी तो मेरी कहानियों की फाइल यह कह कर ले गई थी कि इन्हें पढ़कर तुम्हें वापस कर दूंगी। उस फाइल में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, शिक, वामा, ज्ञानोदय, सारिका, माधुरी, हंस, वागर्थ, आदि में छपी कहानियाँ थीं। यह दूसरा उपहार था जिसने मेरी जिजीविषा को सम्बल दिया। मैंने जब प्रूफ पढ़कर संग्रह का शीर्षक "बहके बसन्त तुम" रखकर यात्री प्रकाशन रवाना किया तो लगा अपनी हार के मैदान में अचानक उभर आई सीढ़ियों के पहले पायदान को मैंने चढ़ लिया है। कहानी संग्रह 1996 में प्रकाशित होकर आया तो मैं रो पड़ी। ये आँसू उन खुरदुरी घटनाओं को मिटाने के लिए थे जो मेरे जीवन की रुकावटें थी। मैंने राख हुए जीवन में से फिनिक्स पक्षी की तरह खुद को समेटा और उठ खड़ी हुई। मेरी पहली उठान हेमंत के लिए थी। रमेश से इस वादे और समझौते के साथ कि वे हेमंत के पालन पोषण में न तो अपनी कमाई खर्च करेंगे न पिता की मोहर लगने देंगे। मेरा उनका पति पत्नी का सामाजिक रिश्ता बरकरार रहेगा लेकिन घर में हम इस रिश्ते से दूर रहेंगे। शादी के बाद के केवल 2 साल अच्छे गुजरे। अच्छे इस तरह कि मुझे खुद को भूल जाना पड़ा था। एक कुंठित व्यक्ति के मानसिक धरातल पर खुद को खोप देना पड़ा था क्योंकि मेरे मन में उन्हें लेकर परंपरावादी कोमलता थी। वे लखनऊ से गायक बनने और फिल्म स्क्रिप्ट राइटर बनने मुम्बई आए थे। पर चूंकि उनमें अकड़ बहुत ज्यादा थी, कुछ ऐसी सोच कि"मैं क्यों जाऊँ फलाँ के पास काम मांगने। उन्हें मेरी जरूरत होगी तो खुद बुलाएंगे।"

लेकिन कोई भी कला, कोई भी क्षेत्र बिना स्ट्रगल के हासिल नहीं होता। मुम्बई तो वैसे भी विज्ञापन का क्षेत्र है। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू होना पड़ता है। खुद को शो करना पड़ता है। तब सामने वाले को पता चलता है कि आप कौन हैं और रमेश को ऐसा करने में तौहीन महसूस होती। नतीजा उनके साथ के लोग आगे निकलते गए और वे पीछे रह गए। कुंठा का जन्म यहीं से हुआ। एक बात और उन्हें सालती कि क्या मुँह लेकर लखनऊ लौटेंगे। कहकर तो आए थे कि अब मैं अपनी गाड़ी से लखनऊ आऊंगा और सबको मुंबई दर्शन कराऊंगा और अपने शानदार फ्लैट में रुकवाऊंगा। सो कुछ न हुआ।

मेरे बर्दाश्त ने भी जवाब दे दिया था सो मुझे उनसे ऐसा समझौता करना पड़ा। मैंने हेमंत को भी उनकी कुंठा उनके "मेरी रोटी खाता है" वाली बीमार मानसिकता से दूर रखा और उसे लायकवर इंसान बनाने में एड़ी चोटी का पसीना एक कर दिया। आज मैं इस बात को गर्व से कह सकती हूँ कि मैं ही उसकी माँ भी थी पिता भी।

मेरी दूसरी उठान मेरे लेखन के लिए थी। भले ही पत्रकारिता का भविष्य अनिश्चित है फिर भी मुझे बाकायदा पत्रकारिता में भी उतरना है और चाहे कितनी भी व्यस्तता रहे लेखन के लिए दिन के 24 घंटों में से एक घंटा निकालना है। "बहके बसंत तुम" कथा संग्रह की 10 प्रतियों का बंडल रखा था। जिसका लोकार्पण और चर्चा होना आवश्यक था। मैंने विश्वनाथ सचदेव जी से इस बात की चर्चा की। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं दादर स्थित नूतन सवेरा पत्र के संपादक नंदकिशोर नौटियाल जी से मिलूँ। वे अवश्य मेरी सहायता करेंगे।

नूतन सवेरा के ऑफिस पहुँचकर रिसेप्शन में अपना नाम लिखाया। 5 मिनट बाद बुलावा आ गया। वरिष्ठ पत्रकार, महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष, हिन्दी ब्लिट्ज के भूतपूर्व संपादक, कद्दावर व्यक्तित्व, साथ में पहाड़ी भोलापन भी।

"बैठो संतोष इनसे मिलो यह है आलोक भट्टाचार्य नूतन सवेरा का सारा काम यही संभालते हैं।"

"जी हम परिचित हैं धर्मयुग के दिनों से। सुनो संतोष तुम्हारे नाम की चिट लेकर जब शिंदे आया तो विस्फारित नेत्रों से हमारी ओर देख कर बोला" है तो महिला पर नाम संतोष बताती हैं। " आलोक जी के कहने पर सब ठहाके लगाने लगे। महाराष्ट्र में संतोष नाम लड़कों का ही होता है।

मैंने किताब की प्रति भेंट की

"हाँ विश्वनाथ का फोन आया था। बताया तुम्हारे बारे में। कब करना चाहती हो लोकार्पण?"

"आपकी सुविधा अनुसार।"

नौटियाल जी ने आलोक जी को किताब दी

"लो भाई संभालो जिम्मेवारी। डॉ राम मनोहर त्रिपाठी के हाथों करा लो लोकार्पण।"

डॉ राम मनोहर त्रिपाठी जाने-माने उत्तर भारतीय नेता और महाराष्ट्र के मंत्री विधायक थे और उनकी अध्यक्षता में 1982 में महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी की स्थापना हुई थी।

"संतोष, तुम किताब की एक प्रति खुद उनके घर जाकर उन्हें भेंट करो और निमंत्रित भी करो।"

मैं दूसरे ही दिन डॉ राम मनोहर त्रिपाठी के कुर्ला स्थित निवास में बिना किसी पूर्व सूचना के पहुँच गई। सुबह के 10 बजे थे। वे नाश्ता कर रहे थे। मैंने आने का मंतव्य बताया।

"बैठो, पहले नाश्ता करो।"

नाश्ते में बेसन के चीले, चटनी और चाय। कितना सीधा सरल माहौल। मंत्री होने का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं। लगभग एक घंटे का समय मैंने उनके साथ गुजारा और इस आश्वासन के साथ लौटी कि वे लोकार्पण के लिए अवश्य आएंगे।

नूतन सवेरा के ऑफिस में ही लोकार्पण हुआ। करीब 30 साहित्यकारों की उपस्थिति में। डॉ राम मनोहर त्रिपाठी, नंदकिशोर नौटियाल, हरि मृदुल, हृदयेश मयंक और विभा रानी ने किताब पर वक्तव्य दिए। संचालन आलोक भट्टाचार्य ने किया। मेरे स्कूल से भी अध्यापिकाएँ आई थीं। सिटी चैनल ने कार्यक्रम की कवरेज की और हमारी बाइट्स ली। वह दिन मेरी स्मृतियों में स्वर्णिम दिन के रूप में आज भी ताजा है। दूसरे दिन मुंबई के सभी प्रमुख अखबारों नवभारत, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, यशोभूमि, दोपहर का सामना, प्रातः काल आदि में तस्वीर सहित समाचार प्रकाशित हुआ।

संझा लोकस्वामी ने तो पूरे पेज पर विस्तार से समाचार छापा। "बहके बसन्त तुम ने" मेरे अंदर की ठंडी पड़ गई लेखन की आग को ऐसी हवा दी कि मैं खुद को भूल लेखन के सागर में गोते खाने लगी।

दिल्ली से निकलने वाली मासिक पत्रिका साहित्य अमृत में पंडित विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंध छप रहे थे। मैं भी स्कूल में अपने खाली पीरियड में ललित निबंध लिखने लगी। इसी बीच दीपावली की छुट्टियों में बनारस जाना हुआ। पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से मिलने की इच्छा बलवती थी। ललित निबंध परंपरा में वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के साथ मिलकर त्रयी के रूप में लोकप्रिय थे। फोन पर उनसे मिलने की रजामंदी लेकर मैं उनके घर पहुँची। भव्य घर लेकिन भारतीय संस्कृति का प्रतीक... पीतल के गिलास और लोटे में हमारे लिए पानी लेकर उनका सेवक आया। थोड़ी देर में बेहद सौम्य व्यक्तित्व के मिश्र जी धोती, कुर्ता और कंधे पर शॉल, माथे पर तिलक लगाए मुस्कुराते हुए आए। इतने महान लेखक, संपादक, पत्रकार, भूतपूर्व कुलपति को सामने देख मैं थोड़ी नर्वस हो रही थी। बात उन्हीं ने शुरू की। पूछने लगे "क्या करती हो, किस विधा में लिखती हो, कुछ प्रकाशित हुआ है क्या?"

मैंने उन्हें बहके बसन्त तुम की प्रति भेंट की। कहा "ललित निबंध में मार्गदर्शन चाहती हूँ।"

"तुमने लिखा है कोई निबन्ध?"

"जी सुनेंगे?"

"हाँ सुनाओ।" इसी बीच कांसे की चमचमाती थाली में तरह-तरह की मिठाइयाँ नमकीन और गरमा गरम दूध के गिलास आ गए।

"अरे भाई दूध ढाँक दो। अभी बिटिया निबंध सुना रही है।"

सेवक ने दूध पर तश्तरियाँ ढंक दी। मैंने फागुन का मन निबंध पढ़कर सुनाया। वे भावविभोर होकर बोले "अपार संभावनाएँ हैं। तुम इसके दो तीन ड्राफ्ट लिखो। अपने आप निखार आएगा। साहित्य अमृत में प्रकाशन के लिए भेजो।"

उन्होंने मुझे अपनी लोकप्रिय किताब "मेरे राम का मुकुट भीग रहा है" भेंट की। मैंने उनके चरण स्पर्श किए। उस शाम ललित निबंध लेखन में मैं विश्वास लेकर लौटी।

मुझे "मैकाले का भूत" के लेखक कमल गुप्त से मिलना था। बाबा भैरव नाथ के दर्शन करते हुए उनके निवास अरविंद कुटीर पहुँची। त्रैमासिक पत्रिका कहानीकार के संपादक व्यंग्यकार कमल गुप्तजी अचानक मुझे अपने घर आया देख तपाक से उठे"अरे, क्या बात है, मुंबई से अचानक!" "जी, मुंबई की बारिश का असर।" (मुंबई में बिना उमड़े घुमड़े अचानक बारिश हो जाती है)

उन्होंने ठहाका लगाया। कमरे के बाहर स्कूल पर एक लड़का बैठा था। उसे तुरंत भेजा।

"यहाँ की कचौरियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं।" चाय नाश्ते के दौरान बनारस के लेखकों पर चर्चा होती रही।

"बनारस तो गढ़ है लेखकों का।"

"था किसी समय। यही जिंदगी का दस्तूर है। एक पीढ़ी खत्म होती है तो दूसरी उभरती है। मौजूदा पीढ़ी में भाव और शिल्प का अभाव दिखता है। सब में नहीं। तुममें तो हरगिज नहीं। वरना तुम्हारी रचनाएँ कहानीकार में हम छापते?"

"हाँ आपने मेरी कहानी लावा और कितने खोए प्रकाशित की हैं और धूप छँट गई कहानी आप के निर्णय के इंतजार में है।"

"वह भी छाप रहे हैं न। स्वीकृति का पोस्टकार्ड मिला नहीं क्या?"

फिर वे अपनी प्रेस दिखाने ले गए। जहाँ से कहानीकार पत्रिका वे लगातार प्रकाशित और संपादित कर रहे हैं। इतनी लगन बिरले ही लोगों में होती है। उन्होंने मुझे कहानीकार के कुछ पुराने अंक भेंट किए।

"पढ़ना अच्छी रचनाएँ हैं इसमें।"

मुम्बई लौटकर लंबे अरसे तक उनसे पत्राचार हुआ। एक दिन संपर्क टूट गया। कमल गुप्त जी के निधन के साथ ही कहानीकार पत्रिका भी समाप्त हो गई। सृष्टि के नियम के आगे हम सब कितने बौने हैं।

पिशाच मोचन में हिन्दी प्रचारक संस्थान की विशाल इमारत के गेट से जैसे ही अंदर प्रवेश किया किताबों की खुशबू ने मन मोह लिया। वरिष्ठ लेखक कृष्णचंद्र बेरी के बेटे विजय प्रकाश बेरी मुझे किताबों के रैक से भरे लंबे-लंबे गलियारों से पहली मंजिल में ले गए। जहाँ बड़े से कमरे में व्हील चेयर में महान रचनाकार कृष्ण चंद्र बेरी बैठे थे। बनारस के प्रकाशन पुरुष कहे जाने वाले वयोवृद्ध बेरी जी के मैंने चरण स्पर्श किए और दीवान पर बैठ गई। बनारस ही नहीं बल्कि देश भर में हिन्दी प्रचारक संस्थान का विशेष महत्त्व है। प्रचारक बुक क्लब, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना जैसी योजनाओं को इस संस्थान ने प्रारंभ कर एक नए युग का सूत्रपात किया है। जबलपुर में थी तो विजय जी से खतो किताबत के दौरान मेरी किताब हिन्दी प्रचारक पब्लीकेशन से प्रकाशित करने की चर्चा भी होती थी। लेकिन वे पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन में मशगूल थे और बात आई गई हो गई थी। कृष्ण चंद्र बेरी से काफी देर तक संस्थान के विषय में चर्चा होती रही। जलपान भी आत्मीयता भरा था। चलने लगी तो उन्होंने अपना विशिष्ट ग्रंथ"पुस्तक प्रकाशन संदर्भ और दृष्टि" तथा "आत्मकथा प्रकाशकनामा" मुझे भेंट की। दोनों ही किताबें काफी मोटी और ग्रंथनुमा थीं। बाद में हिन्दी प्रचारक पत्रिका में हर साल मेरे जन्मदिन की बधाई, हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कारों और मेरी पुस्तकों के लोकार्पण, पुरस्कारों के समाचार छपते रहते थे। बल्कि छपते रहते हैं। इस पत्रिका से कहीं भी रहते हुए मेरा जुड़ा रहना मानो हिन्दी प्रचारक संस्थान से जुड़े रहना है। अब कृष्णचंद बेरी जी नहीं है लेकिन इस संस्थान से जुड़ना कुछ ऐसा हुआ कि जब भी बनारस जाती हूँ हिन्दी प्रचारक संस्थान जाए बिना मन नहीं मानता।

मुम्बई लौटते ही मैं ललित निबंधों पर काम करने लगी। इधर 15 निबंध लिखकर पूरे हुए, उधर आलोक भट्टाचार्य जी ने महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार के लिए बहके बसन्त तुम की प्रतियाँ प्रविष्टि में लगाने कहा। जिसके लिए डोमोसाइल सर्टिफिकेट की जरूरत थी। भागदौड़ करके सर्टिफिकेट बनी। फॉर्म भरा और प्रविष्टि भेज दी। यात्री प्रकाशन में श्रीकांत जी को फागुन का मन ललित निबंध संग्रह की पांडुलिपि भी भेज दी। इनमें से दो निबंध पंडित विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य अमृत में प्रकाशित किए थे। बाकी इंदौर, उज्जैन, भोपाल और मुंबई के अखबारों में छप चुके थे।

मैं अपने फ्री पीरियड में बैठी पाण्डुलिपि का प्रूफ पढ़ रही थी कि तभी महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी से फोन आया कि आपकी किताब बहके बसन्त तुम को 1997 का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। प्रमिला वर्मा तब संझा लोकस्वामी में कार्यरत थी। तुरंत प्रमिला वर्मा, रजनीकांत और आलोक भट्टाचार्य ने बधाई दी। कितनी तेजी से पूरे मुम्बई को पता चल गया था इस पुरस्कार का। रजनीकांत ने संझा लोकस्वामी में प्रमुखता से यह खबर छापी। अगले दिन मुम्बई के अन्य अखबारों में भी खबर छपी। स्कूल की प्रिंसिपल मिस अमीन ने बधाई देते हुए खबर की घोषणा की। सारे दिन बधाइयों का तांता लगा रहा। उस वक्त अकादमी के अध्यक्ष शशिभूषण बाजपेई थे। सदस्य सचिव डॉ केशव फालके। जिंदगी में कई राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार मिले पर जो खुशी इस पहले पुरस्कार ने दी उसका रोमांच आज भी बरकरार है। यूँ तो भूलने और याद रखने की रस्सी पर नौसिखिये नट-सा चलता है मन। पर जहाँ यादों को लेकर पैर पड़ता है रस्सी डगमगाती नहीं थम जाती है।

चर्चगेट स्थित सिंघम कॉलेज के सभागार में मुझे स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता के हाथों यह पुरस्कार प्रदान किया गया। वह मेरे जीवन का कभी न भूलने वाला पल था।

श्रीकांत जी ने दिल्ली से फोन पर "फागुन का मन" का ब्लर्ब मांगा।

"पन्द्रह दिन में दे दीजिए। पुस्तक प्रेस में है।"

मैंने डॉ केशव फाल्के से अनुरोध किया। पाण्डुलिपि की एक प्रति उन्हें दी। उन दिनों वे बंजारों पर पुस्तक लिखने का काम कर रहे थे। काम बीच में ही छोड़कर उन्होंने ब्लर्ब लिखा।

मैं चर्च गेट स्थित ऑफिस में गई तो हंसते हुए बोले

"कुछ बात तो है आप में। काम करवा लेती हैं।"

"फागुन का मन" जून 2000 में प्रकाशित होकर आई। तो पहली प्रति विद्यानिवास मिश्र जी को बनारस भेजी। उनका पत्र आया "मैंने कहा था न, अपार संभावनाएँ हैं तुममें। महिला लेखकों में ललित निबंध लेखन में तुम सर्वोपरि हो।"

मुझे लगा जैसे मैं चौपाटी सागर तट पर खड़ी हूँ और सामने ज्वार की ऊंची-ऊंची लहरे डूबते सूरज और उठते पूर्णमासी के चांद के संग अठखेलियाँ कर रही हैं। वे सड़क के किनारे की दीवार से टकरातीं, उछलकर सड़क की ओर जाती मानो आमंत्रण दे रही हों कि जिंदगी भी ज्वार भाटे की तरह है। अभी तुम्हारा ज्वार है। थाम लो इस ज्वार को। मगर मैं ज्वार के बहकावे में कभी नहीं आई। मैंने खुद को शांत बहने दिया।

सूचना मिली पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के निधन की। एक समारोह में जाते हुए उनकी कार पेड़ से टकरा जाने के कारण घटनास्थल पर ही उनका निधन हो गया। मैं भीतर तक व्यथित हो गई थी। ललित निबंधों के लिखने के लिए उनका आग्रह और मार्गदर्शन अब कभी नहीं मिलेगा।


हमने लोन लेकर विरार में टू बेडरूम हॉल किचन का खूबसूरत घर खरीदा। अपनी पसंद का फर्नीचर बनवाया। जहाँ बेडरूम की खिड़कियाँ खुलती थीं वहाँ की जमीन पर बगीचा लगाया। घर बहुत सुविधाजनक था। पांच मिनट के वॉकिंग डिस्टेंस पर रेलवे स्टेशन था। जहाँ से ट्रेन चर्चगेट जाती थी। मैं स्कूल के लिए सुबह 6: 30 की ट्रेन लेती थी। प्रमिला वर्मा संझा लोकस्वामी के लिए थोड़ी देर से निकलती थी। क्योंकि उसका घर परिवार औरंगाबाद में था वह नौकरी के कारण मेरे साथ ही रहती थी। उन दिनों जिंदगी खट्टे मीठे पड़ाव से गुजर रही थी।

1998 में ही विजय वर्मा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना हम कुछ मित्रो आलोक भट्टाचार्य, नंदकिशोर नौटियाल, प्रमिला वर्मा और तेजेंद्र शर्मा ने मिलकर की। जिसके तहत प्रतिवर्ष "विजय वर्मा कथा सम्मान" आयोजित करने की योजना बनी। समाज, साहित्य, रंगकर्म और पत्रकारिता को समर्पित, फिल्मों तथा धारावाहिकों में अपनी आवाज देने वाले मात्र 48 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कहने वाले विजय वर्मा की स्मृति में इस प्रकार के प्रस्ताव पर मुंबई के लेखकों ने स्वीकृति की मुहर लगाई। स्पॉन्सरशिप लोकमंगल के अध्यक्ष रामनारायण सराफ जी से मिली। लोकमंगल मुम्बई की सराफ बंधुओं द्वारा स्थापित ऐसी संस्था है जो साहित्यकारों की मदद पुस्तक प्रकाशन, लोकार्पण, पुरस्कार आदि के लिए करती है। पुरस्कार के संयोजक भारत भारद्वाज (दिल्ली) थे। निर्णायक काशीनाथ सिंह (बनारस) विभूति नारायण राय (इलाहाबाद अब दिल्ली में निवास) और सूर्यबाला (मुम्बई) थे। विजय वर्मा मेमोरियल ट्रस्ट को रजिस्टर्ड कराने के लिए चैरिटी कमिश्नर के कार्यालय के कई चक्कर लगाने पड़े। इसकी डीड नूतन सवेरा के ऑफिस में बैठकर हमने तैयार की। शपथ लेने कोर्ट भी जाना पड़ा। यह एक लंबा और थकाने वाला प्रोसेस है। लेकिन जब संस्था की सर्टिफिकेट और पैन कार्ड हाथ में आए तो हम इतने दिनों की थकावट भूल गए।

पहला पुरस्कार कानपुर के प्रियंवद को दिया गया। पूरे मुंबई के साहित्य वर्ग ने इस पुरस्कार के प्रबंधन में हिस्सा लिया। लोकमंगल ने मालाड स्थित अपना सभागार सराफ मातृ मंदिर कार्यक्रम के लिए दिया। धीरेंद्र अस्थाना ने अपने भयंदर स्थित घर में प्रियंवद को ठहराया। तेजेन्द्र शर्मा और मैं प्रियंवद को रिसीव करने वीटी स्टेशन गए। भयंदर स्टेशन पर देवमणि पांडे ने उन्हें रिसीव कर धीरेंद्र जी के घर पहुँचाया। स्मारिका भी निकालनी थी, निमंत्रण पत्र भी छपने थे। स्मारिका के सारे प्रूफ मैंने और प्रमिला ने रात-रात भर जागकर पढ़े। सैलानी सिंह ने स्मारिका के प्रकाशन का जिम्मा लिया। बाहर के कामों का हेमंत ने... सब में गजब का उत्साह। हम बस काम में जुटे रहते। थकना भूल गए थे।

समारोह के एक दिन पहले मेरे घर गेट-टू-गैदर था। कार्यक्रम अध्यक्ष जगदंबा प्रसाद दीक्षित और मुख्य अतिथि निदा फ़ाज़ली सहित निकटतम मित्रो ने उस शाम और देर रात तक मेरे घर को गुलजार रखा। समारोह भी बहुत गरिमामय ढंग से संपन्न हुआ। लगा जैसे महीनों की हमारी मेहनत सफल हुई है।

उन्हीं दिनों मैंने और प्रमिला ने संयुक्त उपन्यास-उपन्यास लिखने का सोचा। पुरस्कार के कार्यों से फुरसत पाकर हम दोनों इस उपन्यास के लेखन में जुट गए। इसमें कुल 16 अध्याय हैं। 8 प्रमिला वर्मा ने लिखे, 8 मैने। शुरुआत मैंने की। अंत उसने। तय हुआ कि बगैर किसी पूर्व रूपरेखा के हम अध्याय लिखेंगे। हम दोनों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी। दोनों की नौकरी मुंबई की दूरियाँ और उपन्यास अपने कलेवर सहित सामने। लिखो... लिखो ...मगर कब?

रात 10 बजे खाने से निपट कर हम अपने-अपने कमरों में बंद हो जाते। जिस रात अध्याय पूरा होता सुबह एक दूसरे को पकड़ा देते। मैं प्रमिला के लिखे अध्याय को विरार से ग्रांट रोड तक की सवा घंटे की दूरी तय करती लोकल ट्रेन में पढ़ती। इस उपन्यास की नायिका रेहाना थी। जिसे उसके परिवार के लोग रन्नी कहते थे और बच्चे फूफी। तो जब रेहाना का वजूद गढ़ा जा रहा था तब हेमंत के बन चुके करियर में बस एक इजाफा होना था उसकी नौकरी का। मैं अपने आगत के सुख से लबालब भरी थी जो अपने 23 वर्ष के संघर्ष के पश्चात हेमंत को निखार कर मुझे अब हासिल होने वाला था और मैं रेहाना को जी रही थी। उसने मुझे सोने न दिया। अक्सर गहरी नींद से उठा देती। लोकल ट्रेन में सफर करते हुए, क्लास में लेक्चर देते हुए, साहित्यिक गोष्ठियों में बोलते हुए, घर में खाना पकाते हुए वह मुझे टहोका मारने से बाज नहीं आती। पूरे डेढ़ साल उसने मेरा जीना हराम कर रखा था। मेरा पूरा घर रेहाना मय हो गया था। हेमंत हर एक अध्याय मांग-मांग कर पढ़ता। कभी अध्याय पूरा नहीं हो पाता तो वह अधूरा ही लेकर बिस्तर पर लेट कर पढ़ने लगता। रेहाना ने कई बार मेरे बेटे को अपनी पीड़ा से रुलाया है। ऐसा लग रहा था जैसे हम इस उपन्यास को लिखने के दौरान कठिन साधना से गुजर रहे हैं।

कभी-कभी तो मैं लेखन के चिंतन में ऐसी खोई रहती कि अपना होश नहीं रहता और बिना मैचिंग के कपड़े पहने स्कूल चली जाती। कितना कठिन समय था इस सर्जन काल का। मरीन लाइंस स्थित एसएनडीटी विश्वविद्यालय की नेपाली छात्रा मनीषा मेरे कथा संग्रह "बहके बसन्त तुम पर" डॉ माधुरी छेड़ा के मार्गदर्शन में एमफिल कर रही थी। अपने सवालों को लेकर वह विरार दौड़ी आती। हालांकि उसके लघुशोध में हेमंत ने उसकी बहुत मदद की। वह हेमंत पर बहुत हद तक फिदा भी थी। अंतिम अध्याय में रेहाना की मृत्यु निश्चित थी जिसे लिखते हुए हमारे दिल हिल गए थे और हम सचमुच रोये थे। इस उपन्यास के एक-एक पात्र को सजीव जीते हुए हम एक नए और कल्पनातीत अनुभव से गुजर रहे थे। आखिर उपन्यास पूरा हुआ और प्रकाशन के लिए पांडुलिपि यात्री प्रकाशन में श्रीकांत जी को भेज दी। श्रीकांत जी ने उपन्यास के पहले पेज के लिए प्रकाशकीय लिखा-

" उपन्यास विधा के विस्तृत परिसर में यह उपन्यास अपनी खास पहचान के साथ दाखिल होता है। कुछ वर्षों में छपे तमाम उपन्यासों से हटकर सीधी सरल और रोचक भाषा में संयुक्त रूप से लिखा गया यह उपन्यास अपने अभिनव प्रयोग के कारण हिन्दी साहित्य में एक नया मोड़ लेकर दाखिल होता है। संतोष श्रीवास्तव और प्रमिला वर्मा ने अपने लेखन के ढंग को कायम रखते हुए इसे इस तरह लिखा है कि कहीं तारत्म्य नहीं टूटता। पाठक को यह एहसास ही नहीं होगा कि कब एक लेखिका का बयान दूसरी लेखिका की लेखनी के साथ जुड़ गया। जबकि सच्चाई यह है कि दोनों के लेखन की साहित्यिक पहचान भिन्न-भिन्न है। इसके पहले ये अभिनव प्रयोग राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी एक इंच मुस्कान में कर चुके हैं और अब इन दोनों लेखिका बहनों का उपन्यास हवा में बंद मुट्ठियाँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण है।