मेरे बचपन के हरे दिन / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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सुपर्णा खड़ी होकर एक अनजान स्त्री को देख रही थी। नाटा कद, मलिन चेहरा, गोरा रंग, थोड़े से बालों को खींचकर पीछे चोटी बनाकर, रंग छूट रही यू.पी. हैण्डलूम की साड़ी के भीतर उस स्त्री की उम्र तीस या बत्तीस लग रही थी। आते ही लगातार बात करने वाली स्त्री अचानक कुछ समय के लिए चुप हो गई, सुपर्णा को सीढ़ियों पर खड़ा होकर देखने लगी और कहने लगी, ““अरे मम्मी, यह सुपर्णा है?”

सुपर्णा की मां अंधेरे घर में जाकर किसी नौकर को बर्तन निकालने के लिए कह रही थी। घर के अंदर से ठन -ठन -ठन- ठन शब्द सुनाई दे रहे थे। शायद इसी वजह से वह बात नहीं सुन पा रही थी। इसलिए स्त्री ने सुपर्णा को देखकर कहा, “मुझे पहचान रही हो? हां, ये तो बचपन की बात है। और अब कहां मुलाकात होती है?”

सुपर्णा नहीं पहचान पाई, मां अलमारी के ऊपर से बड़ी कड़ाई और हांडी लाकर धोने लगी। वह कहने लगी, “अरे ! यह तो तुम्हारी सहेली मालती है।”” और उसके बाद एकदम नीरवता छा गई। सुपर्णा न तो सीढ़ियों के ऊपर चढ़ पा रही थी और न ही नीचे की ओर।

आजकल उसके साथ ऐसा ही होता है। म्यूजिम की किताब की तरह एकदम उदास। कहीं भी किसी के सामने वह अपने को प्रस्तुत नहीं कर पा रही थी। उसके चारो तरफ एक मजबूत किला बना हुआ था। उस किले के छेद में से वह बाहरी दुनिया को झांकती थी। कोई उसे स्पर्श नहीं कर पाता था। यह भगवान का शुक्र है, जो मालती ने चुप्पी तोड़ी। नहीं तो, इस तरह चुप्पी का खेल खेला जाता, बहुत समय तक जो खत्म नहीं होता। ““हमारे भाई राम की शादी है, इसलिए पीतल के बर्तन लेने आई थी।” मालती की यही स्वरोक्ति सुपर्णा के लिए थी।

उसके बाद सुपर्णा को अपनी खोली से बाहर आना उचित लगा। गले न मिलने पर भी मस्तिष्क की स्मृतियाँ छाती की कोठरी न दिखाने पर भी गले से आवाज निकालना ठीक था। मैं अतीत दिनों की वही सुपर्णा हूँ। अभी भी मेरे ए पोजिटीव खून में बचपन की यादें ताजी है, दौड़ने -भागने की स्मृतियां तरो- ताजा है।

उस समय सुपर्णा मूंग, उड़द, गेहूं के पहाड़ चढ़ती थी, किरोसीन के हौद में दौडती थी। जूट के बादलों में तैरती थी, पकी महुली की चिपचिपाहट और गंध उसे अच्छी नहीं लगती थी। लूण के सफेद पहाड़ देखकर उन पर चढ़ने की इच्छा होती थी। किसी चोट वाली जगह लूण के कारण जलने का भय था और इसलिए वह चढ़ नहीं पा रही थी। उस समय पिताजी ने एक मारवाड़ी व्यापारी के साथ मिलकर कमीशन का धंधा शुरु कर दिया था और इस सिलसिले में सुपर्णा उन सारे गोदामों की राजकुमारी थी।

उस समय सुपर्णा ने स्कूल की दूसरी कक्षा में अपना नाम लिखवाया था। स्याही की गोलियां और लकड़ी की कलम से लिखने में असमर्थता जताकर पेन के लिए लड़ने लगती थी। उसके पिता स्टेशन पर माल लोड के समय दर्जन के भाव पेन खरीदकर लाए थे। सुपर्णा की रोज-रोज की हठ से वह तंग आ चुके थे। कभी पिटाई, कभी पिटाई के बाद भी जिद्द पर अडिग रहना, आखिरकर वह एक पेन निदान पाने के लिए दे देते थे। साधारण पेन से काफी छोटे लिलीपुट पेन को हमेशा वह खो देती थी।

दो नए पैसों में बड़ा- वड़ा, दस पैसे और दो नए पैसे मिलाकर दो आने में पका मांस मिलता था गुरिया की दुकान पर। पांच पैसों के साथ कुछ पैसे लेकर स्कूल जाती थी सुपर्णा। शाल के पत्तों से बने दोनों में दाल-वड़ा लेकर किसी सुविधा वाली जगह पर खाने के लिए सुपर्णा स्कूल का मैदान पार करते समय एक दिन कहीं से कौए ने आकर उसके वडे झपट लिए। हाथ पर गिर गई दाल की सब्जी। उस समय सुपर्णा का रुआंसी अवस्था में मालती से दोस्ती और परिचय हुआ। कौआ स्कूल की छत में बैठकर सुपर्णा के दो पैसों के वड़ों को चोंच मारकर खाते देखकर मालती ने एक छोटा कंकड उसकी तरफ फेंका। कंकड के भय से कौआ थोड़ा दूर जाकर सुपर्णा को चिढ़ाने के लिए वड़ों के पास जाकर बैठ जाता था।

पाकेई मौसी के पास से मालती दो पैसों के चने लाई और दोनों मिलकर आधा- आधा करके खा रही थी। मालती का घर उसके घर से केवल तीन घर छोड़कर था। फिर भी इस घटना से पहले उन लोगों का कभी परिचय नहीं था।

मालती जाति से माली थी, और सुपर्णा के दादाजी एक नामी व्यापारी थे। सुपर्णा के जन्म से पहले ही दादाजी की मृत्यु हो गई थी। फिर भी सुपर्णा का एक अलग परिचय था, दादाजी के पोनी के हिसाब से।

सुपर्णा को उस समय तक कोई समझ न थी, बड़े पिताजी का घर पैसे वाला था, उनका और चाचा जी का परिवार तो मध्यमवर्गीय परिवार था। बड़े पिताजी के घर में एक बहुत बड़े हॉल में बेसन, मैदा, सूजी के डिब्बें और बोरें भरे हुए थे। सामने के घर में साबुन, तेल के डिब्बें, खुले बोरों में सजा कर रखी हुई पीली लाल दालें। कभी जरुरत पड़ने पर सुपर्णा किलो चीनी, किलो दाल मांगकर लाती थी। एक काना आदमी, जो मुनीम का काम करता था, वह अपनी नीली आंखों से देख रहा था और एक खाते में लिखकर ले जाने के लिए कह रहा था।

बचपन से ही सुपर्णा बहुत अन्यमनस्क रहती थी। एक बार दुकान पर जाकर मांगने लगी थी, “आलू पकोड़ी चार आना और पचीस कड़े पान।”

दुकान के सभी लोगों के चेहरे पर हंसी फूट पडी। सुपर्णा नर्वस हो गई थी।

““क्या लोगी बेटी?”

नीली आंखों वाले काने आदमी ने पूछा। फिर वही बात, “आलू पकोड़ी चार आना और पचीस कड़े पान।” दुकान के नौकर अट्टहास करने लगे। बडे पिताजी एक दीवान पर गद्दी बिछाकर बैठे हुए थे। अपने गोल्डन फ्रेम वाले चश्मे से झांककर हुंकार करते हुए पूछने लगे, “हूँ, बुद्दू, पान, आलू, पकोड़ी लेने आई हो। पान, आलू, पकौडी यहां मिलते हैं?” सुपर्णा का ध्यान लौट आया। तभी उसके बड़े पिताजी ने उसको अपने पास बुलाया, “”कौन सी कक्षा में पढ़ती हो?”

““दूसरी में।”

“”हूं, दूसरी में पढ़ती हो। बताओ राम तीन रुपए लेकर बाजार गया। दो रुपए के आलू खरीदे, अब उसके पास कितने रुपए बचे?”

“ “एक रुपया ” सुपर्णा ने डरते हुए कहा।

“क्या कहा? एक रुपया।”

“ “हूँ।”

“”तीन रुपए देखे हैं कभी?” बडे पिताजी ने कहा।

“इसकी पढ़ाई इसके पिताजी देखेंगे, तब न?”

पिताजी बच्चों को बहुत ही कम मिलते थे। सिर्फ कभी- कभार दिन में दोपहर में खाना खाने के समय। बाकी समय पिताजी गोदाम या ट्रक पर बिताते थे। कभी- कभी तो दो चार दिन तक घर भी नहीं आते थे। सारे बच्चों के लिए एक मास्टर थे। उन्हीं से सुपर्णा ने खड़ी पकड़ी और पढ़ाई की। वे लोग उन्हें दाढ़ी वाले मास्टर कहते थे। लंबी सफेद दाढ़ी और मूंछे थी उनकी घर के पास मंदिर के चबूतरे पर, वे लोग पाठ पढ़ते थे। बड़े पिताजी ने अपने बच्चों के लिए अलग से ट्यूशन भी रख दी थी। सुपर्णा शाम को पता नहीं कैसे अपना समय बिताती थी, मगर वह शाम को पढ़ाई नहीं करती थी। सुपर्णा से छोटे दो भाई बहिन थे। शायद मां के साथ मिलकर बड़ी दीदी उनको संभालती थी। और सुपर्णा दिन भर घूमते- घूमते थक जाती थी। संध्या होते- होते ही नींद आ जाती थी।

हर शाम को घर लौटने पर सुपर्णा को मां मारती थी। माली के बच्चे के साथ जाकर उस माली बस्ती में ही रहो। अपनी शक्ल तो देखो। सिर और हाथ पर तेल नहीं। बाल बिखरे हुए। धूप में घूमने से चेहरा काला हो गया। सुपर्णा सुबह उठते ही स्कूल जाती थी। पहले स्कूल से आकर कुंए पर नहाने वाली सुपर्णा चुपके से पेंट- शर्ट लेकर मालती के साथ टाऊन के सबसे बड़े तालाब पर चली जाती थी। पहले- पहल तालाब से उसे भय लगता था,मगर मालती जिस समय फ्रॉक में हवा भरकर पानी में छप- छप करती थी, सुपर्णा तब अपने लोभ को रोक नहीं पाती थी। एक बार तैरने की कोशिश करके बहुत दूर जाते समय अचानक फ्रॉक से हवा निकल गई और उसके फोटका के अंदर पानी घुस गया और सुपर्णा के पैरों के नीचे पानी के सिवाय कुछ नहीं। जीवन के प्रति मनुष्य का प्रगाढ़ प्रेम और उस समय मृत्यु कितनी भयंकर होती है, सुपर्णा ने जान लिया था।

विकल होकर वह चिल्लाने लगी थी, “मैं डूब रही हूं, मैं डूब रही हूं। आंधी की रफ्तार से दौड़ी चली आई थी मालती और उसके सहारे से उसने अपने पांवों के नीचे जमीन पाई।

घर लौटते वक्त मां डंडा लेकर उसका इंतजार कर रही थी। देखी हो अपनी कुंभाटूआ जैसी लाल आँखें। घर में होकर दो बच्चों के साथ नहीं खेल सकती हो। मां की रोजमर्रा की डांट फटकार सहना उसकी आदत हो गई थी।खाना खाकर किसी प्रकार मां की गिरफ्त से वह खिसक जाती थी। मालती के घर में फूलों के ढेर पड़े हुए थे। फर्श पर सभी फूल पहाड़ की तरह लग रहे थे। कनेर, कंचन और सबसे ज्यादा टगर के फूल। टोकरी में संभालकर रखे हुए थे चंपा के फूल। मालती की मां को जैसे रसोई नहीं करनी है, उसकी मां केवल दिन रात फूलों के ढेर से फूल लेकर गूंथती थी। और मालती भी।

सुपर्णा बैठकर फूलों को देख रही थी। सूखे फूलों की अलग खुशबू और ताजा फूलों की अलग। बैठे- बैठे केले के रेशे में दो-दो टगर के फूलों को डालकर माला बनाना सीख रही थी। फूल खराब हो रहे हैं, सोचकर मालती की मां उसकी तरफ तिरछी निगाहों से देख रही थी। शादी हो या सभा - उनके लिए बड़े - बड़े हार मालती की मां बनाती थी। फूलों के ऊपर अगर गलती से पांव लग जाते थे तो मालती की मां चिड़कर कहती थी, “फूलों को क्यों मसल रही हो?”

डेढ़ बजे के करीब फूलों के भीतर से बाहर निकल आती थी सुपर्णा। पिताजी दोपहर का खाना खाते समय वहीँ होते थे और इस समय मां पिताजी के सामने पिटाई नहीं कर सकती थी। अगर कभी मां पिताजी के सामने उसको पीटती, तब पिताजी और मां की खूब बहस होती थी। कभी- कभी यह बात इतनी बढ़ जाती थी कि मां म्यूनिसपालटी एरिया के दूसरी तरफ अपने मायके रिक्शा करके चली जाती थी। मां कई दिन तक रुठकर अपने मायके रहती थी। इधर सुपर्णा अकेली। उस समय पिताजी बहुत बेचैन हो जाते थे, सुबह- सुबह गेरुआ टीका लगाकर बाहर निकल जाते थे।

सुपर्णा को उस समय और क्या दिक्कत होती? पता नहीं क्यों, बड़ी बहिन की यादों में थे ये सब सुपर्णा के लिए। तब भी, उसे याद है घर के पास एक होटल, बहुत नामी होटल उस समय टाऊन का, लकड़ी के बड़े बड़े टेबल, हाथ से बनी हाथवाली कुर्सी में मालिक का बड़ा पेट निकला हुआ था। जब इच्छा होती सुपर्णा उस दुकान पर दौड़कर जाती आलूचाप और रसगुल्ला लाने के लिए, "ऐ रसगुल्ला दो"। दुकानदार बिना कुछ बोले नौकर को फलाना- फलाना सामान लाने का आदेश दे देता था। पिताजी के गोदाम से घर आते समय मैं उनको पकड़कर होटल ले जाती थी। सुपर्णा और उसका छोटा भाई टेबल पर बैठकर खाते थे। कलेजे की सब्जी, भात और दाल का स्वाद अभी भी याद है उसे।

चारों तरफ दोपहर में जब सब साथ जाते थे, बड़े पिताजी के बैठक कक्ष में औरतों का छोटा मेला लगता था। बड़ी मां पीठ का कपड़ा हटाकर टेबल फेन को दिखाकर बैठ जाती थी, पास में रखा रहता था पान सुपारी का बॉक्स। अपेक्षाकृत गरीब दिखने वाली औरतें आभार भरी निगाहों से प्रजा की तरह उसको घेरे रहती थी और बड़ी माँ के लिए बड़ी बेटी रामायण या महाभारत जोर- जोर से स्वर के साथ गाती थी, बीच- बीच में कुछ समझाती भी थी। बड़ी मां या उनकी प्रजा मेरी मां को पसंद नहीं करती थी।

सुपर्णा बहुत समय से इधर- उधर करवटें बदलकर यह जान गई थी मां-पिताजी दोनो सो गए हैं। चुपके से छुपे कदम उठकर वह आती थी। मालती के घर में उस समय बहुत सारे फूल, मालाओं में बदल जाते थे। उसकी मां बैठकर मुकुट बनाती थी। कमल के सूखे तने को धारीदार छुरी से आलू चिप्स की तरह पतला -पतला काटती थी। तने को रंगा जाता था लाल, नीला। सुंदर- सुंदर तने की माला बनाना जानती थी उसकी मां। सुपर्णा की मन ही मन इच्छा हो रही थी कि कम से कम एक फूल छुपाकर वह लेकर आती। मगर वह डर रही थी। उसकी मां की भारी आवाज, दो संदेही आंखें और चिडचिड़ा स्वभाव।

जब भी देखने से उसके फर्श पर फूलों का एक पहाड़ नजर आता था। इतने फूल कहां से आते थे? "तुझे एक दिन वहां ले जाऊंगी", मालती ने कहा। रविवार को स्कूल की छुट्टी है। सुपर्णा ने शनिवार से सोच लिया था, मालती के उसके घर के रास्ते से जाते समय वह बाहर निकल जाएगी।

"हरेक फूल को तोड़ने का अपना नियम है” - मालती ने उसको समझाया था चंपा पेड़ के नीचे खड़े होकर। वे दोनो उस समय घर, स्कूल से बहुत दूर आ चुके थे। शहर के अंतिम छोर से थोडी दूरी पर एक पहाड़, एक मंदिर और राजमहल दिखाई दे रहे थे। “चंपा फूल को हाथ से कभी नहीं तोड़ोगी,” मालती ने समझाया। उसके अलावा, चंपा फूल खिलने से पहले तोड़ लेना अच्छा है। क्यों जानती हो? चंपा फूल के ऊपर नाग सांप फन निकाल कर बैठते हैं। हाथ से तोड़ने पर सांप काट सकता है। छोटी छुरी लगी लकड़ी से मालती फूल तोड़ रही थी। चंपा फूल को वह बहुत महत्व देती थी, सोने की तरह। टगर फूल तो मानो साधारण चावल हो। चावल के साथ सभी तरकारी मिलाकर खाने की तरह टगर के साथ सभी फूल मिलाकर एक हार बना सकते हैं।

चार बजे से पहले मालती की मां तेल लगाकर मालती के सिर पर दो चोटियां बना देती थी। टोकरी में गिन- गिन कर फूलों के हार रख देती थी। उसके बाद वे दोनो बाहर निकल जाती थी मालती और सुपर्णा। हर दुकान के सामने खड़ी हो जाती थी, सुपर्णा और मालती उठकर ऊपर चली जाती थी, एक हार देती थी और दो पैसे लाकर टोकरी में रख देती थी। टाऊन में सिर्फ छह दुमंजिले मकान थे। बाकी सभी कच्चे घर, नहीं तो फिर आगे की तरफ एक मंजिला मकान। सोने- चांदी के काम करने वालों के बहुत छोटे मकान, छोटे दरवाजे और भीतर से अंधेरा ही अंधेरा। एक लम्बी पाइप से आग फूंकते समय उनकी पीठ का कूबड़ बड़ा करूण लगता था। एकाध दुकानदार चंपाफूल खरीदता था, विशेष कर पान दुकान वाला, चाय दुकान में जहां अंग प्रदर्शन करती लड़की का फोटो झूलता था और जोर- जोर से सिलोन रेडियो बजता था। कोई -कोई फूल लेकर सीधे भगवान के फोटो पर या मूर्ति पर चढ़ा देते थे। टाऊन बड़ा नहीं था, अधिकतम डेढ़ किलोमीटर लंबा होगा। नदी की तरह सामान्य टेड़ामेडा होने पर भी सीधा चला गया था।

अंतिम फूल एक मुसलमान की भट्टी के लिए रखे जाते थे। गोलाकार मिट्टी की भट्टी, वहीं से पावरोटी और केक बनते थे। फूल देने पर वह मुसलमान बुजुर्ग एक छोटा केक देता था। केक को देखते ही सुपर्णा को उसे छूने की इच्छा हो गई। मालती को देखकर लग रहा था जैसे उसको देने की बिल्कुल इच्छा नहीं है। कागज में लपेटकर उसे अपने पाकेट में डाल देती थी।

संध्या को और एक काम था मालती का। सुपर्णा के घर के पास मंदिर, जहां पूरे परिवार के बच्चे पढ़ते थे, वहां संध्या को आरती के समय घंटा बजाने का काम था मालती का। सुपर्णा मालती के साथ मंदिर जाती थी, बाजार से लौटकर। मालती एकस्वर के साथ घंटा बजा सकती थी। बीच- बीच में सुपर्णा उससे मांगती थी,“आज मैं घंटा बजाऊंगी”। सुपर्णा के घंटा बजाने के बेताल शब्द सुनकर पुजारी उसकी तरफ तिरछी निगाहों से देखता था और सुपर्णा घंटा फेंककर घर भाग जाती थी।

उस साल अर्द्धवार्षिक परीक्षा में फेल हो गई सुपर्णा। पहले से प्रश्नपत्र पढ़कर उत्तर लिखने का तरीका नहीं जानने से प्रश्नपत्र को ऐसे ही उतारकर आ गई थी। मगर उसी दिन से मालती के साथ दोस्ती टूट गई थी। दोपहर को गुनी दीदी के घर ट्यूशन। घूसों से पिटाई, ट्यूशन के नए साथियों ने उसे मालती से दूर कर दिया था।

मालती का चेहरा उस दिन के बाद और उसने नहीं देखा। जिस दिन मालती वार्षिक परीक्षा में फेल हो गई, परीक्षा फल निकलते समय खूब रोई थी मालती। सुपर्णा मालती के लिए उतनी ही दुखी हुई थी। उसके क्लास मॉनीटर ने मालती को कहा था, “जा, तुम अपने घर से तीन रसगुल्ले लेकर आ, देखना पास हो जाओगी।” सुपर्णा पहले से ही मालती के साथ बाहर निकल गई, रसगुल्ले लेने के लिए।

उनके घर पहुंचने समय उसकी माँ फूलों का पहाड़ बनाकर बैठी थी। उसकी मां का चेहरा हमेशा की तरह चिडचिडा दिख रहा था। सुपर्णा इंतजार करने लगी, मालती अपने फेल होने की खबर सुनाकर रसगुल्ले मांगेगी। मगर मालती ने कुछ भी नहीं कहा, बल्कि भीतर जाकर हाथ मुंह धोकर फर्श पर रखे फूलों के पहाड़ के पास बैठ गई। जैसे उस फूलों के पहाड को देखकर वह अपना दुख भूल गई हो, अथवा मौका देखकर मां को कहेगी, सोचकर वह नीचे बैठ गई। स्कूल की छुट्टी होने का समय हो गया था। सुपर्णा का धीरज खत्म हो रहा था। आखिर में उसने खुद ने मालती की मां को उसके फेल होने की खबर सुनाकर डेढ रुपए मांगे। मगर मालती की मां के असंतुष्ट चिडचिड़े चेहरे से कोई भी जबाव नहीं मिला। एक पलक झपकाकर वह फूल गूंथने बैठ गई। अचानक उसके दिमाग में अपने नियमित होटल की बात याद आ गई और उसी क्षण भागकर एक मिट्टी के बर्तन में तीन रसगुल्ले लेकर लौटी।

मालती और मालती की मां बैठकर फूल गूंथ रही थी। सुपर्णा ने मिट्टी के बर्तन को मालती को दिखाया। मालती ने जैसे सुपर्णा को नहीं पहचाना या बर्तन के अंदर रखे हुए रसगुल्लों को। न तो वह अपनी जगह से उठी और न ही स्कूल जाने के लिए कहा।

उसकी मां उल्टा कुछ बड़बड़ा रही थी, जो सुपर्णा की समझ से परे था। उसकी मां इतनी चिडचिड़ी थी कि सुपर्णा ने कभी भी उसके चेहरे की तरफ नहीं देखा। बड़बडाना बंद करके मालती की मां ने अचानक धमकाते हुए सुपर्णा को कहा, “जा भाग, तुम यहां क्या कर रही हो?”

मालती के मां के चेहरे की तरफ वह नहीं देख पाई। दौड़ -दौड़कर वह अपने घर भाग गई।