मेरे होने का अर्थ / संतोष श्रीवास्तव
इन दिनों कई बार मैंने अपने आप से सवाल किया है कि मैं क्यों हूँ? क्यार्थ है मेरे होने का? "मेरे न होने पर तुम क्या करोगे?" पूछा था मैंने रोग से जर्जर शरीर लिये पति नवनीत से... जवाब कितना शानदार था। क़ाश, वह स्पष्ट बोल पाते पररोग का आक्रमण जीभ पर भी हुआ था और उनके लिपटे-लिपटे से अस्पष्ट शब्दों को बूझने में मुझे अपने कानों को कुत्ते जैसा खड़ा करना पड़ा था।
"कुछ नहीं... हमारा क्या, कहीं भी रह लेंगे... मिर्ज़ापुर चले जायेंगे छोटी बहन उषा के पास..."
मेरेदिल पर हथौड़े-सी चोट लगी। तो ये कूबत है मेरी... ये अहमियत है मेरी? न अफसोस, न पीड़ा कि ऐसा क्यों सोचती हो, हम तुम्हारे बिना रह कहाँ पायेंगे जो फालतू का सोचें... मेरी चोट ने मुँह उठाया-
"वहाँ? उस पुराने असुविधा से भरे मकान में? जहाँ टॉयलेट जाने के लिये कम से कम दस सीढ़ियाँ छत से उतरनी पड़ती हैं और सोने के कमरे में जाने के लिये तीन सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। एक डग भी तो चल नहीं पाते तुम..."
नवनीत व्यंग्य से हँसे-"बचपन से रहे हैं वहाँ... वहींपले बढ़े, पढ़े लिखे... अब वहीं अच्छे भी हो जायेंगे।"
मैं भी मुस्कुराई... लेकिन मेरी मुस्कुराहट एन व्यंग्य नहीं था... था मेरे होनेकार्थ... मेरे ग़म का एहसास पक्का होने का सबूत थी मेरी मुस्कुराहट। अचानक मेरा दम घुटने लगा है आँखें चिरमिरा रही हैं... जैसे गाढ़े धुएँ के बीच बैठा दी गई हूँ... हर साँस धुआँ हो उठी है।
दिसम्बर की कड़कड़ातीठंड... सालका आख़िरी दिन... न्यूइयर्स ईव। यूँ मन तो नहीं करता हिमांशु के बाद कुछ भी करने का पर रमोला है... हिमांशु के दोस्त भी आते हैं। वैसे रमोला ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी लौटेगी। कह रही थी-"वाइन का इंतज़ाम करो न यार, मज़ा करेंगे।"
वाइन की आधी बोतल तो नवनीत की अलमारी में रखी ही है। अब वे पीते कहाँ हैं? पाँच साल हो गये। जब से हिमांशु गया उन्होंने शराब को हाथ नहीं लगाया। इसलिये नहीं कि हिमांशु की कमी से उत्पन्न शून्य को शून्य ही रहने देना चाहते हैं वे बल्कि रोग इसकी इजाज़त नहीं देता। आज से आठ साल पहले उन्हें लिवर सिरॉसिस हो गया था। पूरे साल बीमार रहे। मैंने पानी की तरह रुपया बहाया... मैं उन्हें ठीक करना चाहती थी हिमांशु के लिये, घर की छत बचाने के लिये, समाजमें रुतबे के लिये... पर तब मेरा स्वार्थ था। वेमेरे स्वार्थ में खरे नहीं उतरे। हिमांशुउन्हेंफूटी आँख नहीं सुहाता। कभी उसके गुण उन्होंने नहीं देखे... बल्कि कमी ही ढूँढते रहे उसमें, जो उसमें नहीं के बराबर थी। वे अपनी इस झुँझलाहट को उसे मार पीट कर दूर करते रहे। लांछित, अपमानित करके दूर करते रहे। जानती हूँ वे अपने जीवन की नाकामयाबियों से फ्रस्टेटेड थे पर इसमें उस मासूम का क्या दोष? वे उसे शराब के नशे में मारते... रातको दो-दो बजे तक चिल्लाते... नशे में होश नहीं रहता कि उनके हाथों क्या अनर्थ हो रहा है। शराब की लत ने उन्हें लिवर सिरॉसिस का तोहफ़ा दिया। वे जानते थे कि उनका बैंक बैलेंस निल है कि बीमार पड़ेंगे तो इलाज़ का रुपया कहाँ से आयेगा? उनके पास सिर्फ़ शराब के लिये रुपए होते। कैसे सह रही थी मैं ये सब? और क्यों?
पर मैंने कहा न... मेरे पास किसी ऐसे सवाल का जवाब नहीं है जो निखालिस मेरे लिये कियागया हो। बचपन से देख रही हूँ... मेरे साथ घटित होता है पर क्यों होता है यह सवाल अनुत्तरित ही मेरी ज़िंदग़ी की किताब में दर्ज़ हो जाता है। ईश्वर ने मेरी कुंडली ही अधूरी बनाई, मेरे तो ग्रह-नक्षत्र तक नहीं जानते कि मेरे साथ क्या होने वाला है?
जैसे यही कि लिवर सिरॉसिस की बीमारी से मेरी जी तोड़ कोशिशों और कड़ी मेहनत से कमाये मेरे धन से ठीक होने के बाद नवनीत को शराब छोड़ देनी थी पर नहीं छोड़ी तो शरीर लुंज-पुंज होना शुरू हो गया। पैरोंकी चलने की ताकत ख़त्म हो गई। घिसट कर चलते थे... जैसे बच्चे अपने पैर के आकार से बड़े जूते पहनकर चलते हैं... दाँतभी कमज़ोर हो गये, टूटने लगे। इसीदौरानहिमांशु अपने हिस्से का दर्द पीड़ा भुगतकर दुनिया से चल बसा... जवान जहान मौत... एकखुशमिज़ाज, हर दिल अज़ीज, होनहार की मौत... मेरीकोख, मेरा दिल, मेरामन, मेरे शरीर का रोयाँ-रोयाँ हाहाकार कर उठा पर मेरे पास इतनी सहूलियत न थी कि मैं अपने होश खो पाती। लोग कहने लगे कि रेनुका में तो ज़बरदस्त विल पॉवर है... स्ट्राँग लेडी... टूटकरबिखर जाने वाली कमज़ोर औरत नहीं है रेनुका। उनकाविश्वास मुझे दृढ़ बनाता गया पर मैं दृढ़ बनी कहाँ? मैं तो मशीन बन गई जो सिर्फ़ चलती है पर सोचती नहीं... मेरी सोच पर ऐसी मोटी परत चढ़ गई थी जिसे भेदना मुश्किल था।
जिसने तूफान झेला हो उसे तूफान के बाद की सिर्फ़ बरबादी ही याद रहती है। हिमांशुकी मृत्यु के समय बरपां तूफान एक लंबी बरबादीसहित मेरी ज़िंदग़ी से आन जुड़ा... मैंने अपने आपको एक शून्य में समेट लिया था, सब कुछ छोड़ दिया था मैंने। नौकरी, लोगों से मिलना जुलना, आना जाना... घर के अंतहीन कामों में मैंने ख़ुद को खपा लिया था। नवनीत की सेवा करती... क्यों? क्यों करती मैं सेवा? एक ऐसे इंसान की जो मेरा कभी हुआ ही नहीं। जिसनेकभी मुझे प्यार किया ही नहीं कभी मेरे हित में कुछ सोचा ही नहीं। मेरी जान से भी प्यारे हिमांशु को तड़पाया, रुलाया... तो मैं क्यों कर रही हूँ सेवा? पर... फिर वही सवाल... इन सवालों के घेरे में मेरी पहचान छुपी है। कौन हूँ मैं? मेरे होने का अर्थ?
नहीं अभिमान नहीं एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि सारी गृहस्थी मैंने अपने कमाये धन से बसाई। बड़ी कचोट उठती है जब मैं सोचती हूँ कि एक अदद गृहस्थी और जीवन साथी पाने की कशमकश में मैं कितना हारी हूँ... हर बार जीतने की कोशिश में हारती चली गई हूँ। जब मेरी शादीहुई थी, नवनीत के पास था क्या? एक पंप वाला केरोसिन का स्टोव्ह, चंद अल्यूमीनियम के बर्तन और कॅरिअर बनाने का लंबा संघर्ष। अजय भाई के द्वारा उनसे पहचान हुई थी। अजय भाई के घर उनका आना जाना था और मैं भी अपना कॅरिअर बनाने गाँव से मुंबई अजय भाई के पास आई थी। नवनीत गाते बहुत अच्छा थे। वे गायन को लेकर ही अपना भविष्य बनाना चाहते थे। उनके सधे हुए शब्द, व्यवहारकी शालीनता मुझे छूगई थी। उन्हें शायद मेरी सुंदरता या मेरी ग्रामीण अल्हड़ता। शादी का प्रस्ताव उनकी ओर से आया। मेरीज़िंदग़ी खुली किताब थी। गाँव में जिससे मेरी शादी हुई थी वह देशद्रोही निकला। जब वह मीसा में गिरफ्तार हुआ था उस वक़्त मेरी गोद में छ: महीने का नन्हा हिमांशु था। घबराकर पिता ने मुझे अजय भाई के पास भेज दिया था। मुंबई जैसे शहर में अजय भाई के पास कोई ऐसा कमरा न था जहाँ वे मुझे रुकाते, वे ख़ुद संघर्ष के दौर से गुज़र रहे थे। ऐसे में मेरा आना उनके लिये समस्या साबित हुआ। मैंबैरंग रमोला के घर कुरुक्षेत्र भेज दीगई कि घर का इंतज़ाम होते ही बुला ली जाऊँगी। रमोला की नई-नई शादी हुई थी। वह हनीमून के लिये जाने वाली थी। मैंने यूँ ही सहजता से कहा-"मुझे भी ले चलो।" रमोला चिढ़ गई-"हाँ, क्यों नहीं... अब तुम्हारे लिये हम अपना हनीमून फेमिली टूर में तब्दील करलें।"
मैंभावुक... मन पर ले ली ये बात... बाथरूम में नहाने के बहानेबाल्टी उलीच-उलीच कर रोती
रही। तब सवाल किया था मैंने कि ऐसा क्यों होता है कि साथ-साथ खेली कूदी, पली-बढ़ी बहनें शादी के बाद पराई-सी हो जाती हैं। क्या सभी सिर्फ़खुद के लिये जीना चाहते हैं?
हनीमून से लौटकर रमोला बहुत खुश थी। शायद उसी ख़ुशी के आवेग में वह मुझे दिल्ली शॉपिंग कराने ले गई। पर्स, दो कीमती साड़ियाँ, हिमांशु के लिये कपड़े दिलाये उसने। मेरे मन में उसके प्रति जो क्षणिक दूरी आई थी वह नज़दीकी में बदल गई। मेरा गुस्सा कभी भी स्थाई नहीं रहता।
हफ़्ते भर बाद अजय भाई का ख़त आया-"आ जाओ, एक खोली का इंतजामकर लिया है।" मैं बहुत खुश थी। तभी रजनी जीजी आईं। चूँकि तीनों बहनों में मेरी ही ज़िंदग़ी अस्तव्यस्त थी अतः बातचीत का मुद्दा मैं ही थी। रमोला ने जो साड़ियाँ मुझे दी थीं उन्हें रजनी जीजी बड़ी देर तक देखती रहीं। इस बीच में हिमांशु के लिये दूध बनाने उठी कि चलते-चलते सुना-"इतनी कीमती साड़ियाँ उसके लिये खरीदने की क्या ज़रुरतथी रमोला?"
दूध लेकर लौटी तब तक रमोला निर्णय ले चुकी थी-"रेनुका, वह पीली साड़ी मुझे वापिस दे दो... आख़िरउसे पहनने का मौका तुम्हें मिलेगा कैसे?"
दूसरा झटका मुझे मुंबई पहुँचकर लगा जब अजय भाई ने मुझे रमोला का लिखा वह ख़त पढ़ाया जिसमें उसने लिखा था-"भाई, कब तक मकान मिलेगा तुम्हें, यहाँरेनुका के कारण मुझे अपना घर बिखरता नज़र आ रहा है, समझ ही गये होगे तुम?"
उस रात जितनी खुश मैं मुंबईआने से थी उससेदुगना दुःख मुझे रमोला के व्यवहार से था। रात के अँधेरे में देर तक रोती रही, लगा जैसे रिश्ते टूट से रहे हैं और सूखे पत्तों की तरह मेरी ज़िंदग़ी की राह पर खड़खड़ा रहे हैं। मैं भीतर तक हिल उठी थी पर इस भूकंप ने मेरे अंदरहिमांशु को लेकर एक चाहत पैदा कर दी थी कि मुझे अपने बेटे के लिये जीना है औरमज़बूती से जीना है लेकिन इसके लिये ज़रूरी है कि मेरा एक अपना घर हो और इज़्ज़तदार घर तभी होगा जब मैं दुबारा शादी करूँ।
नवनीत ने शादी के बाद एक स्कूल में गायन अध्यापन का पद सम्हाल लिया। मैं भी उसीस्कूल में पढ़ाने लगी। ज़िंदग़ी की गाड़ी किसी हद तक चल निकली लेकिन जब हम नज़दीक आये, हमसफ़र बने तो उनके स्वभाव की शालीनता के अंदर छुपा बेहदक्रोधी, बात-बात पर शक करने वाला, बेहद शराब पीने वाला एक हिंसक पुरुष मेरे सामने प्रगट हुआ। मैं स्तब्ध रह गई। यह क्या... यह मैं क्या कर बैठी? बग़ैरजानेबूझे इस क़दर विश्वास क्यों कर बैठी मैं... मान लिया था कि भले ही उम्र के... उन्तालीसवें वर्ष में मुझे जीवन साथी मिला पर इससे क्या... अब मैं जी तो पाऊँगी, चैन से रह तो पाऊँगी, मेरा अपना घर होगा... वह भटकन, वह बिखराव, वह अपनों के दर की ठोकरें तो नहीं होंगी। उफ़, कितना अपमान सहा है मैंने... सभी ने मान लिया था कि न मेरी नौकरी है, न पति ... कहींमैंउन पर बोझ न बन जाऊँ। अपनाया तो सिर्फ़ अजय भाई ने और वहीं से मुझे मिला मेरा सुलझा हुआ कॅरिअर। अजय भाई मेरी तरफ़ से निश्चिंत हो गये थे। हिमांशु की चिंता उन्हें सताती थी, उसे वे बेहद प्यार करते थे पर नवनीत के मेरी ज़िंदग़ी में आते ही उनकी वह चिंता भी समाप्त हो गई। एक रात जो सोये तो फिर उठे ही नहीं। मेरे लिये अजय भाई का जाना एक ऐसा हादसा था जो मेरे दिल में आज भी कील की तरह गड़ा है। आख़िर क्यों मुझे चाहने वालों को भगवान मुझसे छीन लेता है।
नवनीत के साथ चंद महीने ही अपने को आज़ाद पंछी-सा महसूस किया होगा, चंद महीने ही अपनी मर्ज़ी का पहन ओढ़ कर मैंने रात के भोजन में नवनीत की प्रतीक्षा की होगी कि सब कुछ बालू की दीवार की तरह भरभरा गया। वे पिये हुए घर लौटे। जूते पहने ही बिस्तर पर ढेर हो गये। मैंने उनके जूते उतारे, कपड़े बदले कि तभी उन्होंने वहीं कमरे में उल्टी कर दी। बदबू से मेरा दिमागचकरा गया। पर क्या करती, नाक पर नैपकिन बाँध मुझे ही सब कुह साफ़ करना पड़ा। वे बड़बड़ाते रहे... क्या बड़बड़ा रहे थे, किसे गाली दे रहे थे, किस पर गुस्सा उतार रहे थे, मेरी समझ से परे था।
उस रात मैं भी भूखी रही। सारा खाना उठाकर फ्रिज में रख दिया। ड्रॉइंग रूम में सोफे पर लेटकर देर तक रोती रही... अपनी नियति पर मैं अवाक् थी... एक का पुरुष के चुनाव पर मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े हुआ जा रहा था। वे जो बनना चाहते थे नहीं बने... उनका फ्रस्ट्रेशनरोग बन चुका था। उनकी नाक़ामयाबियों ने उनके अंदर की अच्छाइयों को मार डाला था। अपना कॅरियर बनाने के लिये, कुछ कर दिखाने के लिये वे अपने माँ-बाप का घर त्यागकर मिर्ज़ापुर से यहाँ आये थे। उन्होंने जो चाहा वह नहीं मिला... उनकी भटकन जारी थी। पर जब मुझसे शादी की है तो मेरे प्रति भी तो उनका कुछ फ़र्ज़ बनता है। मेरी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं थी, कोई कुंठा नहीं थी। मैं बस अपने पैरों पर खड़ी होनाचाहती थी और हो भी गईथी। कहने को स्कूल की नौकरी थी पर ट्यूशन की कमाई बहुत आकर्षक थी। धीरे-धीरे मैंने अपनी गृहस्थी सजाई, आधुनिक सुविधाओं से घर भर दिया। नवनीतसे अपेक्षाएँ भी समाप्त कर लीं। अपने इकलौते बेटे हिमांशु का भविष्य बनाने में जुट गई। नवनीत का भटकाव अंतहीन था। मुझे लगा वे अपने भटकाव से उबरना नहीं चाहते थे। दो बातें उन्हें और सालती थीं। एक तो हिमांशु का बेहद ब्रिलियंट होना, उसकी सफलताएँ, उसकाउज्ज्वल भविष्य और दूसरी मेरी तरक्की... एक शिक्षिका के रोल में मुझे पहले प्रादेशिक और फिर राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिल चुके थे। सम्मेलनों में मैं मुख्य अतिथि के रूप में बुलाई जातीथी जो उन्हें नागवार लगता। वे मेरी तरक्क़ी से ज़रा भी खुश नहीं होते। मैंने मन ही मन अपने को अपने में ही समेट लिया पर ईश्वर को यह भी मंजूर न था... वह कैसे देख सकता था कि मैं हिमांशु से मिलने वाला सुख भोगूँ। उसनेमेरा हिमांशु मुझसे छीन लिया। मैं ज़िंदग़ी के मेले में लुट गई। कंगाल हो गई। और लुटा हुआ व्यक्ति या तो मोम की तरह पिघल जाता है या पत्थर हो जाता है। पिघलना मुझे मंजूर न था। मैं पत्थर हो गई। जिस पर ओले, पानी, धूप, ठंड का कोई असर नहीं होता। मैंने मान लिया सुख मेरी ज़िंदग़ी में नहीं है इसीलिये उसके लिये हाथ पैर फड़फड़ाने, मन तड़पाने से कोई फ़ायदा नहीं। अगर सुख तक़दीर में होता तो... कहाँ तक लडूँ ज़िंदग़ी से... तो मैंने अनिर्णीत युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी। जबकिइस लड़ाई में हमेशा प्रहार मेरे अपनों के द्वारा ही हुआ।
डोर बेल बजी। नौकरानी ने अंदर आते ही कहा-"अरे, उल्टी" नवनीत सोफे पर आँखें मूँदे लेटे थे। नीचे फ़र्श पर खून की उल्टी... उनका शरीर पसीने से भीगा हुआ। कुरता पायजामा निचोड़ने की हद तक गीला।
"यह क्या हो गया, मुझे आवाज़ तो देते।"
तब तक नौकरानी पड़ोसी को बुला लाई। दस मिनिट में डॉ. भी आ गये। ब्लड प्रेशर चेक किया-"इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाइए, इमरजेंसी केस बन गया है।"
मैंनेघबराकर रमोला और हिमांशु के दोस्त माइकल को फ़ोन कर दिया। अस्पताल में नवनीत का सी.टी. स्कैन ब्रेन टेस्टहुआ तो पता चला ब्रेन हेमरेज है। हाईब्लड प्रेशर से दिमाग़ की नस फट गई है। तुरंत आई.सी.यू. में भरती कर लिया गया। वह 31 दिसम्बर की रात थी जब मैं हिमांशु के दोस्त माइकल के साथ आई.सी.यू. के बाहर रात भर सोफे पर बैठी रही। रमोला आकर लौट गई थी... एक-एक कर पड़ोसी भी चले गये थे। नवनीत के लिये यह रात भारी थी। मैं हर तरह की ख़बर सुनने को तैयार थी। फ़ोन माइकल के घर से था, उनके लिये तो न्यू ईयर्स ईव एक त्यौहार की तरह होता है औए वह बेचारा सिर्फ़ मेरी ख़ातिर अस्पताल में बैठा था। मैंने इसरार किया-"माइकल, चले जाओ न, मैं फ़ोन करूँगी न तुम्हें..."
उसने मुझे ज़बरदस्ती सोफे पर लिटा दिया-"सो जाइये थोड़ी देर, मैं जाग रहा हूँ।"
नीम अँधेरे में भी वह मुझे एक रोशन सितारा-सा नज़र आया।
सुबह तक ख़तरा टल चुका था। रमोला आई-"चाय लाई हूँ, पी लो... घर जाकर नहा धोकर आओ... आज पहली जनवरी है न, सो ऑफ़स बंद है मेरा। रात भर जागी हो... आराम करके आना।"
तब तक नर्स दवाईयों की लिस्ट दे गई थी। माइकल जा चुका था। मुझे ही फॉर्मेसी की लंबी लाइन में लगना पड़ा। लगभग चालीस मिनट के बाद दवाएँ लेकर मैं आई। मुझे रुपयों का इंतज़ाम भी करना था। कल अस्पताल में एडमिट होने के पहले 15 हज़ार डिपॉजिट पड़ोसियों ने भरा था। थकान से चूर शरीर लिये जब लौटी तो घर सूना-सूना लगा। नवनीत का ख़ाली पड़ा सोफाएक सवाल बनकर मेरे सामने था। उनके होने न होने से क्या सचमुच मुझे फ़र्क़ पड़ता है? याब उनके साथ रहने की आदत पड़ गई है?
दस दिन रहे नवनीत अस्पताल में। इन दस दिनों में मैंने क्या कुछ नहीं भुगता। आई.सी.यू. से जब वे वॉर्ड में शिफ्ट हुए तो जैसे उनकी सारी देखभाल मेरे ज़िम्मे आ गई। वैसे रात में हिमांशु का कोई-न-कोई दोस्त अस्पताल में रुकता। मैं सुबह सात बजे अस्पताल आकर नवनीत के सिरहाने कुर्सी पर जो बैठती तो रात के दस जाते। सारे दिन चकरघिन्नी की तरह इधर से उधर भागती रहती। दवाएँ लानी है, दवा का टाइम होने पर नर्स को बुलाना है, नवनीत को पॉट की ज़रुरत है, वॉर्ड बॉय को बुलाना है, पीने का पानी खतम हो गया है... हर काम में मेरी दौड़। डॉक्टरशेट्टी सुबह चेकअप के लिये आते, अक़्सर मेरी एक दिन पहले लाई दवाएँ बदल देते। फिर दवा फॉर्मेसी की लंबी लाइन... पैर दर्द के मारे मेरे आँसू निकल पड़ते। बैठे-बैठे कमर अकड़ जाती, दुखनेलगती। नवनीत को खाना खिलाना, चाय पिलाना सब मेरे ज़िम्मे... दोपहर को जैसे तैसे नवनीत के सो जाने पर कैंटीन जाकर रमोला का लाया रोटी सब्ज़ी का लंच सूखे गले में उतारती। अब मेरी उम्र रह गई है क्या इतना सब करने की? मगर कौन मेरी देखभाल करे? किसे अपने दर्द बयाँ करूँ? नवनीत की बड़ी बहन को फ़ोन किया था। किसी को भेज दें या ख़ुद आ जायें। अस्पताल का अकेले मुझसे सम्हल नहीं रहा है, थोड़े रुपयों की भी मदद करें। पर रुपया माँगना पाप हो गया। वे बुरा मानकर बैठ गईं। रमोला का सहारा था। अब वह मेरे साथ ही रहती थी। उसकी ज़िंदग़ी ने एक बड़ी करवट ली थी... उसका घर एक तार जोड़े है अब तक... उसने अपनी परिस्थितियों के आगे सर झुका दिया है। कभी मेरेसाथ रहती है, कभी उस छिने घर में एक कोना अपने लिये तलाशने चली जातीहै।
मैंने रमोला से कहा-"जब अस्पताल में सारी देखभाल मुझे ही करनी है तो यहाँ रहने से फ़ायदा?"
"डॉक्टर से पूछ लो।"
शाम ढल रही थी और थकान के मारे मेरे सारे शरीर में दर्द हो रहा था। आँखें भारी-भारी जैसे हफ़्तों से सोई न हो-डॉ. शेट्टी राउंड पर आये। मैंने आग्रह किया-"डॉ. प्लीज़, घर जाने दें।"
डॉ. शेट्टी की आँखों में मेरे लिये दया उमड़ आई। मुझे लगा, उन्होंने मुझे अपार वेदना से देखा है-"ठीक है, हफ़्ते में दो बार चेकअप के लिये आना पड़ेगा।"
पर उन्हें घर ले जाने से पहले थोड़ा इंतज़ाम करना पड़ेगा। माइकल के साथ मैं बाज़ार गई, एक बड़ा रबर, उल्टी करने का टब, यूरिन पॉट ख़रीदा। घर आकर गद्दे पर रबर बिछाया। हर बार तो उठते-उठते बिस्तर गीला कर देते हैं नवनीत। लेकिन जब माइकल के साथ मैं उन्हें घर लेकर आई तो चैन-सा मिला। हालाँकि अस्पताल जैसी ड्यूटी यहाँ भी है मेरी लेकिन बीच-बीच में लेट भी लेती हूँ। माइकल ने ख़ूब साथ दिया। हिमांशु के दोस्त आज भी मेरा साथ दे रहे हैं। बेटे के लिये एक गर्व की भावना से मन भर आया। जानती हूँ नवनीत के लिये जो मैंने हाड़तोड़ मेहनत की है उसका कुछ भी मूल्य नहीं है उनके मन में... पर मेरे संस्कार! एक बीमार, असहाय को कैसे मैं उसके हाल पर छोड़ दूँ? जबकि उन्हें पूछने वाला कोई नहीं। न भाई भतीजे, न बहनें, न यार दोस्त। कोई भी तो देखने नहीं आया उन्हें। मेरे पिता ने मुझे सिखाया है कि फर्ज़ हर बंधन, हर ख़ुशी से पहले आता है। मैं अपना फर्ज़ ही तो निभा रही हूँ। हिमांशु के बाद अब मेरी ज़िंदग़ी एकरस हो गई है, इसलिए सख़्त भी हो गई है। अब इस सख़्त, बंजर धरती पर ख़ुशी का एक फूल भी कभी नहीं खिलता। बचपन में खंडहरडराते थे, अब इस खंडहर घर में मेरी ज़िंदग़ी अटक कर रह गई है और मैं दिन तमाम होने तक अपना शाप ढोती रहती हूँ। मेरे नाज़ुक कंधों परबेताल-सा लदा है नवनीत का जीवन। और मेरे हिस्से है सिर्फ़ सन्नाटा... अंतहीन और चीरकर रख देने वाला।
अचानक मेरी तबीयत खराब रहने लगी। डॉ. शेट्टी को ही दिखाया। ब्लड प्रेशर हाई था-"कैसे डॉक्टर... मैं तो इतने नियम से रहती हूँ। क़सरत, प्राणायाम, मॉर्निंग वॉक, उबला पानी, फल, हरी सब्जियाँ..."
वे मुस्कुराये-"पिछले पंद्रह दिनों से जो स्ट्रेन आपनेझेला है उसका कुछ तो असर होगा। ई.सी.जी., ब्लड और यूरिन टेस्ट भी करा लीजिये।"
उन्होंने लिखकर पर्ची मेरे हाथ में थमा दी। दूसरे दिन सारे टेस्ट कराके मैं रिपोर्ट सहित उनके क्लीनिक पहुँची। उन्होंने रिपोर्ट देखी और गंभीर हो गये-"हूँ... यूरिनइन्फेक्शन है, शुगर लेवल थोड़ा-सा बढ़ा हुआ है। ब्लड प्रेशर हाई है। दवाईयाँलिख रहा हूँ। नियम से लेना है। अपने ऊपर ध्यान दीजिये रेनुका जी, आप एक स्ट्रांग लेडी हैं, फिर भी आज के ज़माने में कोई इतना नहीं करता, जितना आपने किया।"
"वो मेरा फ़र्ज़ था डॉक्टर।"
"आईएम इम्प्रेस्ड... पर ख़ुद को भूलकर? ... इस सत्य को स्वीकार कर लीजिये कि मि। नवनीत को जितना अच्छा होना था हो लिए... इससे ज़्यादा के चांसेज नहीं हैं। हाई ब्लड प्रेशर के कारण उनकी आँखों की नसें सिकुड़ गई हैं, रोशनी कम होते-होते जा भी सकती है। ब्रेन हेमरेज़का असर दिमाग़ को कमज़ोर कर गया है। उनकी सोचने, समझने, स्पष्ट बोलने की शक्ति भी चली गई है। इसस्थिति में आपको जीना है। दवाइयाँ असर करेंगी पर आहिस्ता-आहिस्ता। हाँ, ध्यान, योग, प्राणायाम चमत्कार कर सकते हैं।"
मुझे लगा सामने डॉ. शेट्टी नहीं... हक़ीकत बयाँ करने वाला मेरा सबसे बड़ा हितैषी बैठा है। वे ख़ुद इस्कॉन के सदस्य हैं, कृष्ण भक्त... ध्यान, योग, प्रार्थना में लीन रहने वाले। डॉक्टरी प्रोफ़ेशन तो उनकी रोज़ी-रोटी मात्र है।
वक़्त की फ़ितरत होतीहै बीत जाने की। पाँच लंबे-लंबे महीने बीत गये। नवनीत की हालत में ज़रा भी सुधार नहीं था। मैंने डॉ. शेट्टी को घर बुलाया। चेकअप के बाद उन्होंने वही दवाइयाँता उम्र लेते रहने की सलाहदी। वे मेरे लिये कृष्ण दर्शन की किताबें लाये थे-"इन्हें पढ़िए रेनुका जी, आपको आनंद मिलेगा।"
"अब तो इस शब्द से मेरा दूर-दूर का नाता नहीं डॉक्टर!"
"समझता हूँ। एक बीमार के साथ ज़िंदग़ी गुज़ारना कैसा होता है। हमारे गुरु श्रील प्रभुपाद जी ने कहा है कि केवल चिता में पति के शव के साथ जल जाना ही सती होना नहीं कहलाता, असाध्य बीमारी से त्रस्त पति की तीमारदारी कर अपनी ज़िंदग़ी की खुशियों को स्वाहा कर तिल-तिल जलने वाली औरत भी सती कहलाती है। आप भी सती हैं रेनुका जी।"
डॉ. शेट्टी के शब्दों ने मुझे मथ डाला। तो क्या यही है मेरे होने का अर्थ? मैं, जो स्वयं अपनी रची क़ैद में हूँ, अपनी सलाँखें अपने अंदर लिये।