मेवाड़ केसरी-कवि का आह्वान / मुकेश कुमार सिन्हा
ऐतिहासिक कालखंड में अनगिनत महापुरुषों, योद्धाओं, संत-महात्माओं का अविर्भाव भारत भूमि पर हुआ है, जिनकी गौरवगाथा से इतिहास इठलाता है। यथार्थ है कि हमारी विरासत गौरवशाली रही है। अतीत ने हमें बहुत कुछ दिया है। कितने बलिदानों के बाद 'सुखद' वर्तमान है। ऐसे में, उन वीरों को याद करना हमारा फर्ज है या यूँ कहें कर्तव्य भी। महाराणा प्रताप पर लिखी गयी प्रबंध काव्य 'मेवाड़ केसरी' वर्तमान की ज़रूरत है, क्योंकि मशीनी और स्वार्थपूरक युग में हम खोते जा रहे हैं इतिहास के पन्नों को। ऐसे में मौजूँ है इतिहास को याद रखना! युवा कवि राहुल शिवाय की काव्य कृति 'मेवाड़ केसरी' में महाराणा प्रताप के बचपन से देहावसान काल तक घटित घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन है, जो नजीर है।
महाराणा प्रताप की गौरव गाथा तो आज हर किसी की जुबाँ पर है। कहा जाता है कि राज्य की बागडोर संभालते समय महाराणा प्रताप के पास न तो राजधानी थी, न राजा का वैभव। बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ। उन्होंने तय किया कि सोने-चांदी की थाली में नहीं खायेंगे, मखमली शैय्या पर नहीं सोयेंगे। ध्येय था अपनी विरासत को फिर से बहाल करना। अंततः वे कामयाब भी हुए. कवि लिखते हैं-
यह वह गाथा जिसको अब भी
हल्दीघाटी गाती है
जो मेवाड़ी राजस्थानी
भारत माँ की थाती है।
1540 ई के ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी तिथि को सिसोदिया वंश में जन्मे महाराणा प्रताप सांगा के वंशज थे। महाराणा सांगा, उन मेवाड़ी महाराणाओं में से एक थे, जिनका भारत के इतिहास में गौरव के साथ नाम लिया जाता है। महाराणा हिंदू रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ राजनीतिज्ञ, कुशल शासक, शूरवीर व दूरदर्शी थे। उसी वंश में जन्म लेने वाले महाराणा प्रताप वीर योद्धा थे, उनका कवच 72 किलों का था, तो भाला का वजन अस्सी किलो। बचपन से ही महाराणा प्रताप के कौशल का लोग लोहा मानने लगे थे। कवि ने सही लिखा है कि
बरछी-भाले उनके खिलौने
जिनके संग वह खेले थे
सौ-सौ सैनिक से भी राणा
लड़ते सदा अकेले थे।
महाराणा प्रताप को न केवल दूसरों से लोहा लेना पड़ा, बल्कि 'अपनों' से भी उन्हें मुकाबला हुआ। उनके पिता उदय सिंह की दो संतानें थीं। एक जगमल, तो दूजा राणा। जगमल, राणा से घृणा करते थे। इस बात की जानकारी राणा को थी, लेकिन वह भाई को मन से सदा भाई ही मानते रहे। महाराणा प्रताप त्यागी थे। जगमल से बड़ा होने के बाद भी राणा ने जगमल को राजा के रूप में स्वीकार किया। यह दीगर बात रही कि सरदारों को यह स्वीकार्य नहीं था। अंततः राणा को राज दिया गया, लेकिन जगमल द्वारा मुगलों से मिलकर कटुता के बीच बोने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गयी। कवि लिखते हैं कि
सरदारों ने धूमधाम से
राणा को सम्राट चुना
था तब तेतीस वर्ष का राणा
जब था वह सम्राट बना
राणा को झूकना पसंद नहीं था। मुगलों की गुलामी उन्हें ठीक नहीं लगती। उनमें राष्ट्रीयता की भावना कुट-कुटकर भरी थी। एक बार, अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर मानसिंह महाराणा प्रताप के पास आये। महाराणा प्रताप ने मानसिंह के संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया। यह कहते हुए महाराणा प्रताप ने संधि को ठुकराया कि
मुगल एक है, एक हम नहीं
यह अपनी कमजोरी है
राज कर रहे भारत पर वो
कारण अपनी दूरी है।
परिणामस्वरूप, 21 जून 1576 को हल्दी घाटी नामक स्थान पर अकबर और महाराणा प्रताप के बीच भीषण युद्ध हुआ। नतीजतन, महाराणा को जंगल की खाक छाननी पड़ी। इस कालखंड में उनके द्वारा घास की रोटी खायी गयी, निरंतर अकबर के सैनिकों का आक्रमण झेलना पड़ा, किंतु हार नहीं मानी। मेवाड़ को एक बार खोकर फिर मेवाड़ राज्य को प्राप्त करने का साहस महाराणा प्रताप जैसे वीर योद्धा ही कर सकते थे। खोकर, फिर सब कुछ पाना मुश्किल था। महाराणा ने तो एक-एक कर बतीसों किलों पर अपना अधिकार जमाया। बुलंद हौसलों के आगे अकबर भी मात खा गये। कवि लिखते हैं कि
अकबर डिगा नहीं पाया था
राणा के उस गौरव को
आज भी मिट्टी भूल ना पाई
वीर शौर्य के सौरभ को।
जो महाराणा को और बेहतर ढंग से जानना चाहते है, उनके लिए यह पुस्तक वरदान है। महाराणा प्रताप का बचपन, राज्याभिषेक, मानसिंह-अकबर का संधि प्रस्ताव, हल्दी घाटी का युद्ध, शक्ति सिंह का हृदय परिवर्तन और चेतक की प्रशंसा, राणा का गमन संधि स्वीकार, राणा का पुर्नोत्थान, युद्ध विराम, राणा की मृत्यु का लघु खंड में विस्तृत काव्यात्मक चर्चा से राणा के व्यक्तित्व को आसानी से जाना व समझा जा सकता है। कवि ने ठीक ही लिखा है कि
स्वर्ण युगों को लाना है तो
बलिदानों को याद करो
रहकर केवल चुप निज घर में
दुख पर नहीं विषाद करो
ताज्जुब है कि युवा कवि भौतिकी एवं गणित विषय के शिक्षक हैं और अभियांत्रिकी अर्हता प्राप्त भी। बावजूद शिद्दत से हिन्दी साहित्य के सर्जन में दिन-रात मुस्तैद हैं। यह फख्र की बात है और शुभ संकेत भी। युवा कवि में राष्ट्रभक्ति की भावना कुट-कुटकर भरी हुई है, तभी तो उन्होंने महाराणा प्रताप पर प्रबंध काव्य की रचना की है। यथार्थ है कि मेवाड़ की धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड़, बल्कि संपूर्ण भारत को गौरवांवित किया। स्वतंत्रता का अलख जगाने वाले महाराणा प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुए हैं। ऐसे में प्रबंध काव्य का सर्जन सराहनीय पहल है।
एक बात और! कवि जिज्ञासु हैं, उनमें पढ़ने की भूख है। मेवाड़ केसरी के कृतित्व व व्यक्तित्व को काव्य रूप देने से पूर्व न जाने कितनी पुस्तकों को सूक्ष्मता से पढ़ा गया होगा, तभी तो प्रबंध काव्य में महाराणा प्रताप के हर प्रसंग को उद्धृत किया गया है। महाराणा प्रताप के कृतित्व-व्यक्तित्व को काव्य की चाशनी में पिरोकर तैयार यह अमूल्य कृति के सृजनहार को कोटि-कोटि बधाई है। मौजूदा समय में ऐसी कृतियों की ज़रूरत है। कवि का आह्वान मौजूदा समय में लाजिमी है-
भूलो जाति-धर्म का झगड़ा
एक साथ सब आगे बढ़ो
निज मूल्यों की करके रक्षा
भारत का सम्मान गढ़ो।