मैंने फ़ैज़ को देखा था (केदारनाथ सिंह) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फै़ज़ की चर्चा हिन्दी में इतनी अधिक हुई है कि उनकी शायरी पर कोई बात करना किसी कही हुई बात को बार-बार दोहराने की तरह लगता है। मैंने उस बुलंद शख्सियत को, जिसे फै़ज़ अहमद फै़ज़ कहा जाता है, देखा था और थोड़ा क़रीब से देखा था, इसलिए उसी की चर्चा करूँगा। वैसे भी व्यक्ति फै़ज़ और शायर फै़ज़ दोनों से मिलकर उस जीवन्त काव्य मिथक का निर्माण हुआ है जिसे हम फै़ज़ के सृजन के रूप में जानते हैं। पहली बार मैंने फै़ज़ का नाम तब सुना था जब मैं इण्टरमीडिएट का विद्यार्थी था। यह वह दौर था जब प्रगतिशील कवियों का ज़िक्र छिड़ने पर कुछ नाम बार-बार सामने आते थे, हिन्दी और उर्दू दोनों के। उनमें फै़ज़ का भी नाम अक्सर सुनने में आता था। आज याद करता हूं कि फै़ज़ के किस पहले शेर से पहली बार मेरा साक्षात्कार हुआ था तो मुझे याद आता है उनका एक पुराना रूमानी सा शेर जो इस तरह था :
आस उस दर से टूटती ही नहीं
जा के देखा न जा के देख लिया
इस आखि़री टुकड़े पर मैं रुक गया था और कहीं उसी तरह वह आज भी मेरी स्मृति में अटका हुआ है। पर यह असली फै़ज़ न थे। जिन क्रांतिकारी फै़ज़ को हम जानते हैं, रूमानियत उनकी पूरी बनावट का एक हिस्सा ज़रूर थी, पर ख़ालिस फै़ज़ की पहचान उन दूसरी बहुत सी ग़ज़लों के आधार पर बाद में क्रमशः बनती गई और मेरे जैसे उस समय के असंख्य युवा पाठकों के दिलो-दिमाग़ में बनती गयी, जिन फै़ज़ को आज हम जानते हैं। इसी क्रम में यह तथ्य भी जोड़ दूँ कि अचानक एक दिन (संभवतः यह मेरे बी०ए० का अन्तिम वर्ष था या फिर एम०ए० का आरम्भ) जब मुझे श्री सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की ओर से एक छपा हुआ कार्ड मिला, जिसमें किसी एशियाई लेखक सम्मेलन का ज़िक्र था। यह दिल्ली में होनेवाला था जिसमें एशिया महाद्वीप के अनेक बड़े साहित्यकार शामिल होनेवाले थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि बनारस के कुछ अन्य लेखकों के साथ मैं उस महत्त्वपूर्ण साहित्यिक समागम को देखने गया था। मैं जानबूझकर ‘देखने’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि एक युवा लेखक के लिए सिर्फ़ यही संभव था। जिन व्यक्तित्वों को देखा, उनमें निःसंदेह फै़ज़ अहमद फै़ज़ भी थे। मुझे मंच का दृश्य अब तक याद है। वहाँ जिन बड़े व्यक्तित्वों की पंक्ति बैठी थी, उसमें कुछ नाम मुझे याद आ रहे हैं : राहुल सांकृत्यायन, लक्ष्मी प्रसाद देवकोटा और फै़ज़। याद यह भी आ रहा है कि जब स्वागताध्यक्ष ने फै़ज़ के नाम का उल्लेख किया तो देर तक हाल में करतल ध्वनि होती रही। यह फै़ज़ को पहली बार देखना था। विज्ञान भवन के हाल में यह आयोजन हो रहा था, जिसकी अंतिम पंक्ति से मेरी युवा आँखें फै़ज़ को जितना देख सकी थीं, उसमें सबसे आकृष्ट करनेवाली चीज़ उनकी ख़ामोशी थी, लगभग उस सुपरिचित शेर जैसी ख़ामोशी :
इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी
जैसे हर सिम्त से जवाब आए
उनके व्यक्तित्व से मेरी यह छोटी सी दूरस्थ जान-पहचान कुल जमा यहीं तक थी, पर यह धुंधली सी याद एक खोई हुई पूंजी की तरह मेरे काम आई 1978 में, जब मैं जे०एन०यू० आ चुका था और कुछ मित्रों के साथ उस समय के एक चर्चित नाटक ‘बेगम का तकिया’ देखने मेघदूत थिएटर गया था। वहा सबसे अंत में बैठे-बैठे एकदम अगली पंक्ति में एक चेहरा दिखायी पड़ा जो उस चेहरे से हलका सा मिलता-जुलता था, जिसे मैंने युवा नेत्रों से कभी विज्ञान भवन में देखा था। नाटक की समाप्ति पर हम कुछ लोग उधर लपके, जिधर वह फै़ज़ जैसा शख़्स तेज़ी से बढ़ा जा रहा था। निकट पहुँचकर मैं अपनी उत्सुकता को दबा न सका और एकदम पूछ बैठा, ‘माफ़ करें ! क्या आप फै़ज़ अहमद फै़ज़ हैं?’ वे चकित हुए और दबी ज़बान में ‘हाँ’ जैसा कुछ कहा। यह तो मैंने बाद में जाना कि वे पाकिस्तान से छिपकर भारत आये थे और नहीं चाहते थे कि उनके होने की ख़बर सार्वजनिक हो। हाँ, चलते-चलते मैंने और मेरे कुछ अन्य मित्रों ने भी उनसे यह अनुरोध ज़रूर किया कि आप एक दिन जे०एन०यू० आएँ। उन्होंने स्वीकृति में सिर हिलाया।
उसके कई दिनों बाद फै़ज़ का जे०एन०यू० में आना हुआ। मैं 23-24 वर्षों तक जे०एन०यू० में रहा हूँ. पर न तो उसके पहले वैसा कुछ हुआ था न उसके बाद। फै़ज़ का आना एक बहुत बड़े जश्न की तरह था, एक छोटे-मोटे आन्दोलन की तरह, जिसमें सारी दिल्ली उमड़ पड़ी थी। भीड़ का आलम यह था कि उस बड़े से पण्डाल में सबसे अन्तिम और सबसे लम्बा जो व्यक्ति खड़ा था, उसका नाम है मक़बूल फ़िदा हुसैन।
वे अपने नियम के अनुसार नंगे पांव खड़े थे। यह शायर फै़ज़ के व्यक्तित्व का दुर्दम आकर्षण था जो इतने सारे लोगों को खींच लाया था। फै़ज़ ने उस अवसर पर क्या कहा, यह ठीक-ठीक याद नहीं। वैसे भी फै़ज़ वक्ता न थे। इतना याद है कि उन्होंने कुछ ग़ज़लें पढ़ीं और इस तरह पढ़ीं जैसे पढ़ना कोई सज़ा हो। बार-बार आग्रह किए जाने के बाद भी उन्होंने वही चार-पाँच ग़ज़लें सुनाई थीं जिन्हें वे सुनाना चाहते थे और चुप हो गये थे। फै़ज़ का इस तरह आना और सार्वजनिक मंच पर लम्बे अरसे बाद आना दिल्ली के सांस्कृतिक इतिहास की एक बड़ी घटना थी, जिसकी समाचार पत्रों में व्यापक चर्चा हुई थी।
इसके बाद की दो छोटी-छोटी घटनाओं का जिक्र करूँगा। इसी बीच एक दिन फै़ज़ से मिलने उनके होटल जाना हुआ। वह कौन सा होटल था, यह ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा है, मेरे साथ नामवरजी थे और संभवतः एक कोई और। हमने देखा कि फै़ज़ एक बड़े से कमरे में अकेले बैठे थे, लगभग दीवार के पास और दीवार की ओर मुंह किये। बग़ल में एक छोटी सी तिपाई पर एक भरा गिलास और बर्फ़ के कुछ टुकड़े रखे हुए थे। दीवार की ओर मुंह करके बैठना और अपने प्रिय भरे गिलास के साथ बैठना, मुझे कुछ अजीब सा लगा। मुझ से रहा न गया और मैं औचक पूछ बैठा :
‘फै़ज़ साहब ! दीवार की ओर मुंह करके क्यों पी रहे हैं ?’
वे हंसे और बोले, ‘अच्छा सवाल पूछा, अकेले कभी नहीं पीना चाहिए।’
यह एक बड़े शायर के अकेलेपन और उसकी अंतर्निहित पीड़ा पर एक स्मिति-भरी टिप्पणी थी — एक गहरी और वेधक टिप्पणी।
फै़ज़ से अंतिम बार मिलना एक फर्शी नशिस्त में हुआ था, श्रीमती शीला संधू के आवास पर। उसमें अनेक लोग उपस्थित थे, जैसे डॉ. कर्णसिंह और पाकिस्तान के तत्कालीन उच्चायुक्त जनाब अब्दुल सत्तार। हिन्दी के तो कई लोग थे ही। दो चीज़ें मुझे ख़ास तौर पर याद हैं, बल्कि तीन। डॉ० कर्ण सिंह ने फै़ज़ की कई चीज़ें उस मौक़े पर सुनाई थीं, सीधे अपनी स्मृति से और अन्त में कुछ डोगरी लोकगीत भी सुनाए थे। उनका कण्ठ इतना अच्छा है, इसका पता पहले न था। फै़ज़ ने उस मौक़े पर ज़्यादातर नज़्में पढ़ी थीं और बेशक कुछ ग़ज़लें भी। एक ग़ज़ल पढ़ते-पढ़ते अचानक वे किसी जगह अटक गये थे, जैसे कुछ भूल रहे हों कि अचानक पीछे से किसी ने मानो ‘प्रॉम्ट’ किया हो और इस तरह उन्हें भूला हुआ मिसरा याद आ गया। लोगों ने देखा, जिस व्यक्ति ने ‘प्रॉम्ट’ किया था वे पाकिस्तान के हाई कमिश्नर थे। फै़ज़ ने उनकी ओर देखा और पढ़ना जारी रखा। इससे अधिक कोई तवज्जो न दी। हाँ, जब फै़ज़ का पाठ समाप्त हो गया तो उच्चायुक्त महोदय एकदम से भागे हुए आए और फै़ज़ के सामने अभिवादन कर के खड़े हो गए। बैठने का इशारा करने पर भी बैठे नहीं, अन्त तक खड़े ही रहे। फै़ज़ से कुछ शिष्टाचार जैसी बातें होती रहीं और फिर वे कहीं पीछे जाकर फ़र्श पर ही बैठ गए।
पर इस पूरे प्रसंग का अंतिम हिस्सा उस नज़्म से जुड़ा है जो मेरी फै़ज़ की असंख्य पसंदीदा कविताओं में से एक है। कविता का शीर्षक है, ‘रक़ीब से’, जिस पर फ़िराक़ गोरखपुरी का मशहूर लेख भी मैंने पढ़ा था। ज़ाहिर है ‘रक़ीब’ शब्द का पूरी उर्दू परम्परा में एक रूढ़ अर्थ है और इस नज़्म की सबसे बड़ी ब्यूटी यही है कि वह इस रूढ़ प्रतीक में एक नई मानवीय अर्थवत्ता भर देती है। और इस अर्थ में यह कविता प्रेम कविताओं की दुनिया में एक ऐतिहासिक महत्व रखनेवाली कविता बन जाती है। जब फै़ज़ अपनी कई ग़ज़लें और नज़्में पढ़ चुके तो मैंने अनुरोध किया कि कृपया ‘रक़ीब से’ पढ़ें। बोले, ‘ये तो नहीं पढ़ूंगा, कुछ चीज़ें अपनी ही ज़बान से निकलती हैं और हवा में मण्डरा कर जैसे अपने ही सर पर गिर पड़ती हैं, यह नज़्म वैसी ही है।’ फिर कई लोगों के इसरार करने पर उन्होंने यह नज़्म पढ़ी और सिर्फ़ वहीं तक पढ़ी जहाँ यह टुकड़ा आता है :
हमने इस इश्क़ में क्या खोया है, क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ।
बहुत कहने के बाद भी इसके बाद का हिस्सा उन्होंने नहीं पढ़ा और धीरे से कहा, ‘नज़्म यहीं ख़त्म होती है।’ उसके बाद नज़्म में और 14 लाइनें हैं जो थोड़ी लाउड हैं और उस समय का जो एक तरक़्क़ीपस चलन था उसके अनुसार थीं। फै़ज़ को वह बाद का हिस्सा अनावश्यक लगा और इसलिए उन्होंने उसे छोड़ दिया। यह एक बड़े शायर का आत्मालोचन था और कला की उसकी अपनी समझ का आईना भी। फै़ज़ में यह नैतिक साहस था और भरी सभा में उसे व्यक्त करने का अपना ख़ास तरीक़ा भी।