मैंने सोचा / मनोहर चमोली 'मनु'
वही हुआ जिसका डर था। बस खचा-खच भरी हुई थी। कण्डक्टर ने कहा-”एक ही सीट बची है। वो पीछे।”
मुझे पता था कि ग्वालदम जाने वाली यह पहली और आखिरी बस है। लंबी दूरी की बसों में ऐसा ही होता है। यात्रा कल पर नहीं टाली जा सकती थी। मैंने दरवाजे से ही उस सीट का मुआयना किया। उस सीट की बगल की सीट पर खिड़की की ओर एक हट्टा-कट्टा, घनी-काली-मोटी मूंछों वाला नौजवान ऊंघ रहा था। घुंघराले और लंबे बालों से ढका हुआ बड़ा सा सिर उसके चेहरे पर जैसे डोल रहा था। सीट तक पंहुचते-पहुंचते मैंने अनुमान लगा लिया था कि उसने दूसरी सीट की एक तिहाई जगह भी घेर रखी थी। मैंने मन को समझाया कि लगभग चौदह घंटे का सफर इस खडूस आदमी के बगल में बैठ कर ही बिताना पड़ेगा। ऊंघ रहे नौजवान को बस के रुकने का और मुझसे हुई कण्डक्टर की बातचीत का आभास तक नहीं हुआ। अब उसका सिर उसकी छाती को छूने की मशक्कत करने लगा था।
मुझे अगल-बगल की सीटों के बीच डोलता देख कण्डक्टर ने जोर से चिल्लाते हुए उससे कहा-”अरे भई! बाद में सोना। चौड़ा होकर क्यों बैठा है। थोड़ा खिसक ले।”
अक्सर सवारियां आरामतलब होती हैं। अपने दाएं-बाएं खूब स्पेस चाहती हैं। सरकना तो दूर हिलना तक पसंद नहीं करती। ये भी ऐसा ही करेगा। मैंने सोचा। मगर उस खडूस ने जरूरत से ज्यादा जगह मेरे लिए छोड़ दी थी। वह अपनी बांयी ओर सरक गया। उसने सकपकाते हुए पहले अपना सिर ताना था। उसे इस तरह जरूरत से ज्यादा जगह छोड़ते हुए देख मुझे हैरानी हुई।
मैंने खुद से कहा-”ज्यादा स्मार्ट बन रहा है। मुझ पर प्रभाव डालने के लिए ऐसा कर रहा है। थोड़ी देर बाद दायीं ओर खिसकना शुरू करेगा। भला आदमी होता तो खिड़की की तरफ मुझे बैठने के लिए कहता।” मैंने अपना एक बैग बस की छत में बने खांचे में रखा ही था कि वह बोला-”आप खिड़की की ओर आ जाइए।”
मुझे लगा कि अब वह सीट छोड़ते समय मुझसे चिपकते हुए दायीं ओर आना चाहेगा। यह भी संभव है कि मेरे आगे से मेरे स्तनों को छूता हुआ सरकना चाहेगा। या फिर मेरे पीछे से मेरे नितंबों का स्पर्श करता हुआ जगह छोड़ने का अभिनय करेगा। मगर उसने सीट के पीछे मजबूत डण्डे के उपर संतुलन बनाया और मुझसे फासला बनाकर सीट खाली कर खड़ा हो गया। हालांकि चलती बस में उसे ऐसा करने में थोड़ा दिक्कत हुई और वह अपना संतुलन भी खो बैठा था। मगर वह चेहरे पर संतोष के भाव लाना चाह रहा था। मैं उसकी सीट पर बैठ चुकी थी।
मैंने सोचा-”अब ये मेरे दायें शरीर को अपने बांये शरीर से छूना चाहेगा। मेरे पैरों से अपने पैर और मेरे घुटनों से अपने घुटने छूने को आतुर होगा। इसका कूल्हा, कोहनी और कांधा बार-बार मेरे शरीर से छुएगा। बस के हिचकोले खाते ही यह अपने शरीर का भार मेरी और उड़ेल देना चाहेगा। इस खडूस से बचने का एक ही उपाय है कि मैं किसी दूसरे से अपनी सीट बदल लूं।”
मैंने बस की सीटों पर नजर दौड़ाई। तीन-चार महिलाएं अपने बच्चों के साथ सीटों पर मानों ठूंसी हुई हों। कुल मिलाकर दूसरी सीट मिलने की दूर तक कोई संभावना नहीं थी। तभी वह बोला-”दूसरी सीट नहीं मिलेगी। बीच में कोई भी उतरने वाला नहीं है। अधिकांश को बागेश्वर जाना है।”
मैं चुप रही। वह फिर बोला-”पहाड़ में जुलाई-अगस्त के महीने में भी स्वेटर की जरूरत पड़ती है। कुछ तो शॉल और कंबल तक साथ में रखते हैं। पहाड़ में कब बारिश हो जाए, पता ही नहीं चलता। बादलों के पांव पसारते ही हवा ठंड बढ़ाती हुई बहने लगती है। दुपहरी की धूप में भी सूरज आंख नहीं दिखाता।” यह कहकर वह हलका-सा मुस्कराया।
मैं खिड़की से बाहर देख रही थी। मेरी जानकारी पहाड़ और पहाड़ी रास्तों में लगभग शून्य थी। कल-कल बहती अनजानी नदी बस की विपरीत दिशा में बह रही थी। वह फिर बोला-” अभी हमारे साथ गंगा नदी है। आगे चलकर हमारा परिचय अलकनंदा फिर भागीरथी, भिलंगना और पिण्डर नदी से भी होगा।”
वह जैसे मेरे मनोभावों को पढ़ रहा था। मुझे हवा में तेज ठंडक महसूस ही हुई थी कि वह फिर बोला-”आप चाहें तो खिड़की बंद कर सकती हैं। मुझे कोई दिक्कत नहीं।” मैंने गुस्से में आकर खिड़की बंद कर दी। मेरा ध्यान लगातार अपने शरीर के बायें हिस्से पर जा रहा था। कुछ अवसरों पर बस बांयी ओर झुकी। मगर वह नौजवान अपने संतुलन को दायीं ओर ही रखता रहा। मैंने घड़ी देखी तो अभी बस आधा घंटे का सफर ही तय कर पाई थी। मैंने कनखियों से देखा तो उसने मेरे और अपने बीच लगभग तीन इंच का फासला रख छोड़ा था।
मैंने दांयी और के नजारे देखने के बहाने सीट का जायजा लिया। वह अपनी दांयीं ओर सीट से बाहर असुविधाजनक रूप से बैठा हुआ था। मुझे अजीब-सा लगा। मगर मैंने नजरअंदाज करना ही ठीक समझा।
“यह कौन होगा? क्या यह भी ग्वालदम जा रहा होगा ?” मैंने सोचा। तभी वह बोला-”मैं सुमित हूं। मैं ग्वालदम जा रहा हूं। शायद आप भी?” मैं चुप रही। मैंने सोचा-”जरूरी नहीं है कि मैं अपना नाम बताऊं। फिर ये पूछेगा कि क्यों जा रही हो? क्या करती हो? घर में कौन-कौन हैं? फालतू की बातें। सफर शुरू होता है तो खत्म भी होता है। फिर क्या मतलब रखना।”
वह फिर बोला-”वैसे जरूरी नहीं होता कि हम हर किसी से घुले-मिलें। हर किसी से अपनी बातें साझा करें। मगर कभी-कभी सफर बड़ा उबाऊ हो जाता है। कभी-कभी बातों ही बातों में सफर का पता ही नहीं चलता। मगर जरूरी नहीं है कि बातचीत करते रहने से ही सफर कट जाता है। पेड़-पहाड़ और प्राकृतिक नजारों का आनंद लेते-लेते भी सफर कट जाता है। रात का सफर तो आंखें बंद करते-करते ही बीत जाता है। ये ओर बात है कि नींद आंखों से दूर रहती है।”
मुझे उसकी बातों में आनंद आने लगा था। वह कुछ भी सोच कर नहीं बोल रहा था। न ही वह संभलकर बोल रहा था। उसकी आवाज में सहजता थी। वह कुछ बोलता और फिर चुप हो जाता। जैसे मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा हो। फिर मेरे मौन रहने पर वह भी मौन रहता। मगर मैं जैसे ही उसके बारे में कुछ सोचती तो वह जैसे मेरे मन की बात समझ लेता। वह फिर टिप्पणी करता और फिर चुप हो जाता।
मैंने सोचा-”मैं फिर कुछ ऐसा सोचती हूं जिससे यह फिर टिप्पणी करे। देखती हूं कि क्या वह फिर उसी बात से संबंधित कोई बात कहेगा?” मैं अपनी जींस और टी शर्ट के बारे में सोचने लगी। सोचने क्या लगी। मुझे लगा कि मुझे एक जोड़ी कपड़ों के अलावा गर्म कपड़े या स्वेटर भी रखना चाहिए था। जैसे-जैसे बस की गति बढ़ रही थी, वैसे-वैसे ठंड का अहसास भी बड़ रहा था। मैंने अपना छोटा-सा बैग टटोला।
“यदि ग्वालदम रुकना पड़ जाए तो क्या होगा?” मैंने सोचा।
वह बोला-”मौसम अचानक ठंडा हो गया है।” उसने बैग से बंद गले की स्वेटर निकाली और पहन ली। आस-पास सुगंधित कपूर की खुशबू फैल गई। खुशबू आम कपूर से हट कर थी। मन प्रफुल्लित हो गया। मैंने कनखियों से देखा कि वह मुझसे बात तो कर रहा था मगर उसका सारा ध्यान चालक की गतिविधियों पर था। वह बस की गति के साथ-साथ जैसे आने वाले दृश्यों को बारीकी से देखना चाहता हो।
मुझे उम्मीद थी कि वह फिर कुछ बोलेगा। यही हुआ। वह बोला-”आपके पास गर्म कपड़े हैं?” मैं चुप रही। वह बोला-”मेरे पास शॉल भी है। साफ-सुथरी है। आप चाहें तो मैं दे सकता हूं।” मैं चुप रही। कुछ नहीं बोली। वाकई ठंड बढ़ चुकी थी। कमर से लेकर गले तक की देह ठंडी हो चुकी थी। उसने कुछ पलों के लिए सोचा। फिर झट से शॉल निकालते हुए अपने बांयी ओर रख दी।
“ओढ़ने के लिए दे रहा हूं। आगे जरूरत न हो तो लौटा देना।” यह कहकर वह चालक की ओर देखने लगा।
शॉल से आनंदित करने वाली खुशबू आ रही थी। ऐसा लगा ही नहीं कि किसी अजनबी की शॉल को कैसे ओढ़ लूं। मैंने शॉल लपेट ली। पलक झपकते ही मुझे ठंड से राहत मिल गई। शॉल गरम थी। मगर मैं चुप ही रही। वह फिर बोला-”शॉल गरम है न। भेड़ की ऊन से बना है।”
मुझे चुप देख वह भी चुप हो गया। मैंने कनखियों से देखा वह लगातार सामने देख रहा था। जैसे सड़क पर कोई यात्री उसकी प्रतीक्षा कर रहा हो।
“अधिकांश पुरुष धूर्त भी होते है और मक्कार भी। क्षणिक आनंद के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ये भी धीरे-धीरे इसी दिशा में बढ़ रहा है। लंबा सफर है न। न जाने क्या-क्या करेगा। क्या पता सोने के बहाने अपना सिर मेरे कांधे पर रख दे। झपकी लेने के बहाने अपनी कोहनी मेरी देह से बार-बार चिपकाये।” मेरी आंखें बंद होने लगी थीं। मगर मैं उसके स्पर्श की आशंका से सतर्क थी।
अचानक गाड़ी रुक गई। मुझे लगा कि कहीं टायर पंक्चर तो नहीं हो गया। वह फिर बोला-”यहां बस चाय के लिए रुकती है। आप चाय पियेंगी?”
मैंने चिढ़ने के भाव से कहा-”जी नहीं। शुक्रिया।”
वह अपनी सीट पर खड़ा हो गया। मेरी ओर देखते हुए बोला-”जरा आपको तकलीफ देनी थी। आप जहां बैठी हैं। नीचे एक छड़ी होगी। जरा पकड़ा दीजिए।”
मैंने सीट के नीचे देखा। वहां बांस की एक मजबूत छड़ी थी। मैंने निकाल कर दे दी। उसने उस छड़ी को दांये हाथ में ले लिया। खड़ा होकर अन्य सवारियों को उतरता हुआ देखता रहा। उतरने वाली सवारियों की पद-ध्वनि जब थम गई। तब वह छड़ी को कभी दांये तो कभी बांये इस तरह से रख रहा था, जैसे हम अंधेरे में टटोलते हुए चलते हैं। इस तरह से वह कंडक्टर की सीट तक पहुंच गया। बस का दरवाजा बंद था। वह उसे खोलने में असमर्थ हो रहा था। मैं दौड़ती हुई दरवाजे पर पहुंची। मेरा संतुलन बिगड़ गया। मैं लगभग उसकी पीठ पर सवार हो गई थी। वह बोला-”जरा संभल कर। मेरे लिए दौड़कर आई हो। धन्यवाद।”
मैं कुछ नहीं कह पाई। मैंने उसके लिए दरवाजा खोला। वह छड़ी के सहारे चाय की दुकान की ओर बढ़ने लगा।
मैंने सोचा-”मैं कुछ ज्यादा ही सोचती हूँ।”