मैं अपना जीवन दोबारा जीना चाहूँगा...इसी तरह: एम.एफ.हुसैन / ओमा शर्मा

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भारतीय चित्रकला और विवादों का पर्याय बने मकबूल फिदा हुसैन का साक्षात्कार लेना-करना आसान नहीं था। वे अपनी बिंदास-वृत्ति, कला और वार्धक्य में रमी सनक के चलते कब क्या कह-कर दें, इसका कोई भरोसा नहीं। इस बातचीत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। शुरुआत में ही जब मैं उस तरफ यानी उन पेंटिंग्स के मंतव्य पर जिन पर हिंदू-अतिवादियों ने उपद्रव मचा रखा था और जिससे तात्कालिक निजात पाने के लिए तब वे दुबई में रह रहे थे (नागरिकता के खयाल से कोसों दूर) तो वे यकायक भड़क पड़े, अप्रत्याशित और असहनीय ढंग से। टेपरिकॅार्डर को धक्का देकर फेंकने लगे। हैरान तो मैं था ही, डर भी गया था कि जिस प्रमुख कार्य को करने दुबई आया था वह गया खटाई में। वह गुस्सा किसी अतिवादी की तरह ही विवेक-च्युत था। किसी तरह मिन्नतों से उन्हें समझाया गया कि जनाब, ये सवाल मेरे नहीं तमाम आम लोगों और तैयब मेहता (तब वे जिंदा थे) जैसे कलाकारों की ओर से भी हैं जो आपसे यहाँ किए भर जा रहे हैं। इसमें पर्सनल कुछ नहीं है।

मगर वे पर्सनल रूप से बहुत आहत थे। विवादों में बीता उनका जीवन कभी इस कदर आक्रांत नहीं हुआ था। घुमक्कड़ी अब उनकी आदत या शौक नहीं, मजबूरी हो गई थी। उनके भीतर उस पंछी की तड़प लक्ष्य की जा सकती थी जो देर तक उड़ान भरने के बाद अपने जहाज (मुल्क) पर लौटने पर सुकून महसूस करता था और आज जिसे वह मुहैया नहीं था। एक जलावतन हुए बूढ़े कलाकार की पीड़ा का अंदाजा लगाना मुश्किल था क्योंकि जीवन-शैली और बाकी ताम-झाम में सब कुछ पूर्ववत-सा ही था। वे जीवन की हर छोटी-बड़ी चीज का आनंद उठाने का हौसला रखते, किसी रेस्टोरेंट में खाने की मेज पर रखे मेन्यू-कार्ड को किसी कस्बाई युवक की जिज्ञासा से पढ़ते और पसंद न आने पर दूसरी डिश ऑर्डर करते और उसका लुत्फ लेते हुए बताते कि यह सबसे अच्छी कहाँ मिलती है। नब्बे पार करती उम्र में जीवन के प्रति उनका उत्साह देखते बनता था। "अभी यहाँ (दुबई) इस्लामिक हिस्ट्री को पेंट करने का बड़ा प्रोजेक्ट है, फिर भारतीय सिनेमा के इतिहास को पेंट करूँगा... लंदन में" यानी उम्र के शतक पार तक तो इधर-उधर कुछ देखने तक की फुर्सत नहीं! हमारे यहाँ साठ पार तीसमार खाँ भी अकसर मुफ्त में अध्यात्म बाँटते रहते हैं, और अस्सी पार वाले के तो अंजर-पंजर ही नहीं, जिजीविषा भी गंधाने लगती है। मगर हुसैन साब, क्या कड़क अपवाद थे! उनकी चाल-ढाल, रोब-रुतबा और खान-पान हर लिहाज से सब किसी युवक के से थे। उन्हें देखकर यकीन हो जाता था कि दुनिया में कुछ लोग वास्तव में एकसौ दस, एकसौ बीस की वय पाते हैं! अपनी शख्सियत से वे आपको पूरा एंटरटेन करते..." सन तिहत्तर में पिकासो के साथ मेरी प्रदर्शनी हुई थी, अगले साल बेचारे की डैथ हो गई... मेरे जैसे औसत की संगत का सदमा कहाँ बर्दाश्त होता..." बतलाकर वे तबियत से खुद पर हँसते, बात-बेबात छेड़ते, लतीफे शेयर करते और माकूल शेर सुनाते! हल्के-फुल्के मिजाज में उनका सुनाया एक दुअर्थी शेर आज भी याद आता है: दुखतरे दर्जिन का सीना देखकर, जी करता है मलमल दूँ!'

यह बातचीत उनके सुझाव पर मुंबई में मेरे घर पर होनी थी मगर बिना किसी सूचना या योजना के वे दुबई चले गए। इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। घुमक्कड़ी उनका स्वभाव ही नहीं, जीवन भी था और इसके लिए उन्होंने खुद को पूरी तरह ढाल रखा था। कोई पैकिंग नहीं, अंग-वस्त्र भी नहीं। एक अदद बेंत-नुमा ब्रश और पासपोर्ट उठाया और लो, हो गई दुनिया मुट्ठी में... केनवास से लेकर कमीज, कौन सी चीज कहाँ नहीं मिलती है? अन-अफोर्डेबिलटी जैसा कुछ रहता नहीं था। राजेंद्र यादव की तरह समाज-दर्शन की लत थी सो दुबई में भी उन्होंने अपने ठिकाने बना लिए थे। वे ऐसे चित्रकार थे जो चित्रकारी का सूफियाना आनंद लेते हुए जीवन के दूसरे सुखों में पिछड़ना नहीं चाहते थे।

दूसरी कलाओं की तरह चित्रकला में मेरी विद्यार्थीनुमा दिलचस्पी है। प्रभु जोशी और जेपी सिंघल जैसे समकालीन दिग्गजों की सोहबत नसीब रही है मगर चित्रकला की बारीकियों, खासियतों या उसके इतिहास से लगभग अनभिज्ञ ही हूँ। साक्षात्कार कला-शिक्षा का माध्यम हो भी नहीं सकता है इसलिए मेरे जेहन में जाहिरा किस्म के सवालों पर उनकी राय और मुमकिन हो तो उस लंबे कला-जीवन के कुछ अक्स उकेरने की बात ज्यादा थी लेकिन हुसैन जैसे जीनियस, वन मैन आर्ट मूवमेंट, को समझना, डॅान की तर्ज पर, मुश्किल ही नहीं नामुमकिन ही है। उनकी मेधा, परतों और अंतर्विरोधों की चकचौंध, उनके बारे में जतन से बनाए नतीजों पर पुनर्विचार करने को बाध्य कर जाती है। समझ को बार-बार रिवाइज करने के बावजूद मुँह की खानी पड़ती है। एक जीवनीकार ने उन्हें महाभारत के पात्रों का मिला-जुला रूप माना है... अर्जुन की तरह एकाग्र निशानेबाज, अभिमन्यु सा अकेला लड़ने वाला, कर्ण की तरह तन्हा और बेजार, भीष्म की तरह जख्म खाया और कृष्ण की तरह कूटनीतिज्ञ! हमारे एक कॅामन मित्र ने यूँ ही नहीं कह डाला था - ही इज ए मास्टर हू कैन गिव मार्किटिंग टिप्स टू पीटर ड्रकर। और सच, यह बात मेरे गले कभी नहीं उतर पाती है कि अरसे से भारतीय चित्रकला के सिरमौर और दुनिया भर में शौहरत हासिल कर चुके इस चित्रकार को किसी टैक्सी वाले को अपना परिचय देना क्यों गुदगुदाता है, अमिताभ बच्चन के लीलावती अस्पताल में दाखिल हो जाने पर उसका पोर्ट्रेट बनाकर उसके साथ अखबारी सुर्खियों में शामिल होना क्यों लुभाता है; 'गजगामिनी' जैसी नितांत कथ्यहीन, बिंबात्मक फिल्म बनाने वाला और सत्यजीत राय की फिल्म-कला का मुरीद 'विवाह' और 'हम आपके हैं कौन' जैसी वैडिंग वीडियोज पर घोर आसक्त कैसे हो सकता है। या फिर एक घोर उत्तर-जीवी को डीजे जोशी, विष्णु चिंचालकर और ची पी हुंग के जिक्र में क्या असुरक्षा सता सकती है...

यकीनन एक पहेली थे हुसैन। इस उस्ताद बहुमुखी चित्रकार की शख्सियत में सादादिली और बड़प्पन भी खूब-खूब भरा था। दोस्तों के साथ भरे बाजार नुक्कड़ की चाय की चुस्की लेना उनका शगल था जो अंत तक कायम रहा। खाकसार समेत शायद ही कोई मित्र हो जिसे फराख दिली में उन्होंने अपनी मूल 'हुसैन' से खुशहाल न किया हो। रचनात्मक ही नहीं, उनमें मानवीय ऊर्जा भी अकूत थी।

जिस मानसिकता के साथ उनसे बातचीत करने की तैयारी मैंने की थी, उनके 'उखाड़फेंकू' रवैये ने शुरुआत में ही उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। एक 'टेस्ट मैच' को 'टी-20' में सिकोड़ना पड़ा। कितने सवाल यूँ ही पड़े रह गए। यही वजह रही कि जनवरी 2007 में दुबई में की गई यह बातचीत अभी तक (2011) टेप पर ही पड़ी रही। मैंने सोचा था कि उनकी कला और व्यक्तित्व की खूबियों, और जटिलताओं पर सम्यक लिखते वक्त उनकी कही इन बातों का उपयोग करूँगा लेकिन इतना अवकाश मिल नहीं सका। "जब कहीं छपे तो एक कॅापी भेजना जरूर... मैंने इतनी देर किसी से बात नहीं की है" उन्होंने अलविदा के वक्त ताकीद की थी।

हुसैन साब, सॅारी, आपकी यह जायज उम्मीद पूरी नहीं हो सकी!

ओमा शर्मा: हुसैन साहब, पंढरपुर जैसे कस्बे से चलकर बंबई आया एक मामूली-सा लड़का भारत का ही नहीं, दुनिया का एक मकबूल चित्रकार बनता है। उसके ट्रांजीशन के बारे में बताइए?

हुसैन: मैं जो पेंटिग करता हूँ वह मेरे काम का दस प्रतिशत हिस्सा है। मैं खूब घूमता हूँ, लोगों से मिलता हूँ, किताबें पढ़ता हूँ। मेरी कोई पेंटिंग ऐसे ही नहीं हो जाती है। वह मेरे उस तमाम घूमे-फिरे, देखे-पढ़े का निचोड़ होती है। मैं सबके लिए टाइम देता हूँ... इकॉनोमिक्स, पॉलिटिक्स, सोसाइटी सब होता है उसमें...

ओमा शर्मा: वह ठीक है। उस पर हम बाद में बात करेंगे लेकिन मॉडर्निज्म जिस सहज तरीके से आपकी पेंटिंग्स में आया है उसके सूत्र क्या रहे... मेरा मतलब है कि पहले फर्नीचर की दुकान या फिल्मों के होर्डिंग्स लगाने से लेकर आधुनिक चित्रकार बनने की यात्रा...

हुसैन: जो पेंटिंग मैं कर रहा था वह सचेतन तो नहीं कर रहा था। एक वो शेर है: यही जाना कि कुछ नहीं जाना, वो भी एक उम्र में हुआ मालूम (मीर)। मैंने कभी कोई प्लान नहीं बनाया। कोई छलाँग लगाने की नहीं सोची। बस, सब कुछ यूँ ही होता चला गया। कभी सोचा भी नहीं कि क्या होगा। मुझे याद है जब मैं आठवीं में था तभी मैंने अपने पिताजी को कहा कि मुझे पढ़ना नहीं है, पेंटिंग करनी है। फिल्मों का मुझे तभी से आब्सेशन है। घर वाले परेशान हुए कि ये क्या सोचा है। उस जमाने में किसी आर्टिस्ट की क्या हैसियत होती थी? ऐसे आदमी के साथ कौन अपनी लड़की ब्याहेगा, इसकी चिंता थी। मगर मेरे पिता को संगीत और कला का शौक था। मैं जो करता रहता था वह उन्हें अच्छा लगता था। उन्होंने इजाजत दे दी। मान सकते हैं कि वह एक छलाँग थी। छह बरस का था मैं तब। हरदम पेंटिंग करता रहता था। जब ग्यारह साल का हुआ तो वे मुझे एक कॉलेज में ले गए। वहाँ जो अंतिम बरस के छात्र थे, जो चार-पाँच साल पेंटिंग सीखने में लगा चुके थे, मैंने कहा कि मैं उनसे बढ़िया चित्र बना सकता हूँ। उन्होंने कहा, बनाओ, और मैंने बना दिया। वाकई। लेकिन मैंने उनसे कहा कि मुझे कोई डिग्री नहीं चाहिए। मुझे नौकरी नहीं करनी है। सिर्फ पेंटिंग करनी है। मेरे हाथ में ब्रश है, कुछ नहीं होगा तो दीवारें पेंट करके पेट भर लूँगा...

ओमा शर्मा: आप पाँच-छह लोगों ने मिलकर जो बॉम्बे ग्रुप बनाया उससे कुछ त्वरण मिला ...ब्रेकिंग पॉइंट जैसा कुछ...

हुसैन: तब तो मैं चालीस छू रहा था। वह मेरा ब्रेकिंग पॉइंट नहीं था। उससे मुझे कुछ नहीं मिला। असल चीज तो उससे पहले स्कूल में हुई। वहाँ - इंदौर में - न कोई गैलरी थी और न कोई देखनेवाला, बस दीवानगी थी जिसके तहत मैं पेंटिंग करता जाता था। तभी हॉलीवुड की एक फिल्म आई थी, 'रेंब्रां' जो मास्टर रेंब्रां पर थी। उसे देखकर मैं पागल हो गया था। मुझे लगा कि मुझे यही करना है क्योंकि इन्सानी भावनाओं के साथ जो चित्र वह बनाता था या जो भावनाएँ उसके चित्रों में उभरकर आती थीं उसका कहीं कोई मुकाबला नहीं था। लगा, मुझे भी वैसा ही करना चाहिए। वह मेरा गुरु हो गया। वह जबरदस्त पोर्ट्रेट बनाता था। सन 1953 में जब पहली बार मैं यूरोप गया तो सबसे पहले एम्सटरडम में उसकी पेंटिंग्स ही देखने गया। किसी ने यदि मुझे छुआ है तो बस रेंब्रां ने। वहाँ उसकी एक पेंटिंग थी 'नाइटवॉच', ग्यारह बाई ग्यारह की, मैं उसे देखने लगा और देखता रह गया। उसे देखकर मैं रोने लगा... फूट-फूटकर रोने लगा...

ओमा शर्मा: क्यों, रोने क्यों लगे?

हुसैन: उस पेंटिंग से जो ताकतवर इन्सानी भावनाएँ उभरकर आ रही थीं उसे महसूस करके... उस चित्र में अन्यथा कुछ खास नहीं था। कोई औरत नहीं थी जिसमें मैं अपनी माँ ढूँढ़ता। उसमें सिर्फ क्रिएटिव पावर थी... देखकर कि ऊपर वाला जो सर्जक है वह कैसे देता है। उसमें कुछ भी सेंटीमेंटल नहीं था फिर भी इट वाज प्योर क्रिएटिव पावर। स्टार्क! कभी लोग कहते हैं कि कला जिंदगी से प्रेरित-प्रभावित होती है, कलाकार अपने आसपास से उठाता है, यह सब बकवास है। दुनिया को देखकर आप चित्र बनाएँगे तो वह ज्यादा दिन नहीं चलेगा। कभी अकाल पड़ा, लोगों ने उसे पेंट किया। ऐसे ही विश्वयुद्ध को लेकर लोगों ने खूब पेंटिंग्स कीं। लेकिन कला के इतिहास में ऐसे मकाम ज्यादा मानी नहीं रखते हैं। क्रिएटिव पावर से जो होता है वही टिकता है। रेंब्रां में थी यह पावर। रेनेसां काल में भी खूब दिखती है...

ओमा शर्मा: रेंब्रां के अलावा कोई और चित्रकार... मसलन पिकासो का कुछ प्रभाव...

हुसैन: पिकासो का भी संपूर्णता में कोई प्रभाव नहीं है।

ओमा शर्मा: आपके साथ जो बॉम्बे ग्रुप के लोग थे... आरा, सूजा उनसे कुछ जानने-सीखने को मिला...

हुसैन: नहीं। बिल्कुल नहीं। पेंटिंग के स्तर पर हम सब अपने आप में ही रहते थे।

ओमा शर्मा: आपके रंग-संयोजन में इंदौर के डीजे जोशी का असर दिखता है।

हुसैन: डीजे जोशी तो थर्ड रेट पेंटर था। उसकी कोई सिग्नीफिकेंस ही नहीं है। उसका क्या असर होता? उसका तो जिक्र भी न करें...

ओमा शर्मा: विष्णु चिंचालकर?

हुसैन: आप ऐसे नाम मत गिनाइए... इससे कुछ नहीं होने वाला है.. आपको चीजों को समग्रता में देखना आना चाहिए। बड़ा विजन चाहिए होता है।

( मैं स्पष्ट करता हूँ कि यहाँ अभिप्राय किसी के प्रभाव में आने या नकल से नहीं बल्कि अपने कला - मकाम की राह में मिले उस ' उधार ' से है जो हर कोई जाने - अनजाने ग्रहण करता है। वे नुनखरी अदा में चुप रहते हैं। उस चुप्पी को कुछ देर जीते हुए मैं अगला सवाल करता हूँ )

ओमा शर्मा: आपके मुताबिक कला का कोई सामाजिक सरोकार होता है?

हुसैन: मैं आपको संगीत का उदाहरण देता हूँ। क्या उसमें कोई सामाजिक संदेश होता है? ध्रुपद को सुनिए जहाँ एक भी शब्द नहीं है। उसे सुनकर आपके भीतर कुछ होने लगेगा जो आपकी भीतरी ताकत को इनवोक करेगा। विशुद्ध संगीत आपके भीतर उतर जाता है। किसी ट्रेजेडी पर लिखी कविता को गाना संगीत नहीं है। ये तो रोजमर्रा की बातें हैं।

ओमा शर्मा: आपके लिए कला के क्या मायने हैं?

हुसैन: दुनिया में जितना कुछ है - विज्ञान, संगीत, नृत्य, तकनीकी, व्यापार या जो कुछ भी, उस सबका निचोड़ है कला... और वैसे दस हजार साल तक आप सरोद बजाते रहिए तब भी उससे कुछ होने वाला नहीं है। जो जीवन के बारे में सोचता है और किसी रूप में अभिव्यक्त करता है वही कलाकार है। रियाज वहाँ किसी सुर का नहीं, जीवन का होता है। बाकी सब तो टैक्नीक है। वो कहते हैं न कि... वो किसी चीज का मोहताज नहीं, जिसको जीने का हुनर आता है... आप यदि जीना नहीं सीखे हैं तो कुछ भी नहीं कर सकते हैं।

ओमा शर्मा: यह तो खैर बहस का मुद्दा है। हमारे आसपास कितने ही लोग हैं जो किसी कला को जाने-सराहे बगैर मजे से जी रहे हैं...

हुसैन: अब जैसे बिल गेट्स है, खूब पैसा है उसके पास, खूब चैरिटी करता है वह मगर आज से दस हजार साल बाद क्या वह सिग्नीफिकेंट रहेगा? गांधी, बुद्ध या महावीर की तरह क्या वह रहेगा? मैं यह नहीं कहता कि ऐसे लोगों को नहीं होना चाहिए... जो उथल-पुथल हो रही है, हो सकता है उसमें उनकी जरूरत या भूमिका हो मगर जो ताकत दुनिया को चलाती है, क्या उसमें वह शामिल होगा? तो मैं कहता हूँ नहीं होगा।

ओमा शर्मा: क्या आप यह कह रहे हैं कि हमारे जीवन में जो नैतिकता घोल रहे हैं, सिर्फ वही बचेंगे?

हुसैन: पिकासो ने एक अच्छी बात कही है कि उसके समय में जो भी पाँच-दस हजार कलाकार थे, वे सब उसकी वर्कशॉप थे, उनकी भी अहमियत थी। उन हजारों लोगों के काम का जो अर्क है उसे वह व्यक्ति इस्तेमाल करता है जो एन्लाइटेंड है।

ओमा शर्मा: आम आदमी को कला की क्या जरूरत है? उसका काम तो उसके बगैर चलता ही है।

हुसैन: यह ठीक है। हिंदुस्तान में सौ करोड़ से ज्यादा लोग है। दुनिया भर में छह सौ करोड़ जैसे होंगे। इनमें जो वाकई खराब कहे जाएँ उनकी तादाद दस हजार भी नहीं होगी... तो बात यह नहीं है कि कला हमको कितना बेहतर या ह्यूमनाइज करती है। उसकी जरूरत हमारे भीतर पैदा की जाने वाली चर्निंग से है। कला हमारे भीतर क्या स्पार्क जगा दे, यह बताना मुश्किल है लेकिन ये है कि जो काम कला करती है वह अन्यथा नामुमकिन है...

ओमा शर्मा: धर्म भी तो वही काम करता है...

हुसैन: हाँ, हो सकता है। आध्यात्मिक स्तर पर यह सच हो। आप समझ ही नहीं रहे हैं। कोई आइंस्टीन की लैब में भी चला जाता तो भी उसके हुनर और हासिल से अछूता रह जाता...

ओमा शर्मा: आप पर एक इल्जाम है कि आप मध्यवर्ग से निकले कलाकार हैं मगर आज मध्यवर्ग का आदमी आपको न तो एप्रिशिएट करता है ओर न वह आपको अफोर्ड कर सकता है...

हुसैन: अच्छा! (सवाल की चुभन झलक रही है) आप मुझे यह बताइए लता मंगेशकर कितनी बड़ी आर्टिस्ट है? बच्चा-बच्चा उसके नाम और गायन से वाकिफ है, है न? और सुब्बलक्ष्मी? उसे कितने जानते है? बिना सब्सटैंस के आप कब तक चला लेंगे? चालीस- पचास साल तक आप लोगों को यूँ ही बेवकूफ बना सकते हैं? चित्रकारी दरअसल एक विजुअल साइंस है जिसका तार आपके दिमाग से जुड़ा होता है। इसके अंदर बड़ी गहराइयाँ होती हैं, संगीत की तरह। खाली सिरों की गिनती से किसी की अहमियत कम- ज्यादा नहीं होती है। सुब्बलक्ष्मी ज्यादा दिनों तक रहेंगी। वह ज्यादा बड़ी कलाकार हैं। एक फूल में कितना इसेंस होता है? मगर वही पूरे चमन को महकाता है, फूल का बाहरी ताम-झाम नहीं। आर्ट की जरूरत हर चीज में होती है। माचिस की तिल्ली बनाने के लिए भी हुनर चाहिए...

ओमा शर्मा: लेकिन जिसे हम आधुनिक कला कहते हैं उसके मायने इतने गड्डमड्ड रहते हैं और लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे उसमें मायने तलाशें!

हुसैन: (सामने इशारा करके) आप उसे देखिए यह नीम का पेड़ है कोई कहे यह नीम का क्यों है, इसे तो आम का होना चाहिए! इसकी पत्तियाँ हरी क्यों हैं, इन्हें तो लाल होना चाहिए! यह वैसी ही बात है...

ओमा शर्मा: लेकिन जब चित्रकार कुछ बनाता है तो उसके मन में कुछ तो होता होगा... मंतव्य के स्तर पर कोई निर्धारित कोण लोग उसे चाहे कैसे भी देखें...

हुसैन: गालिब भी कहता था कि शेर भले मैं लिखता हूँ मगर अक्सर पढ़ने वाला बताता है कि उसके मानी क्या हैं कुछ ऐसा जो उसने नहीं सोचा था। तो क्रिएटिव प्रॉसेस तो जटिल होती है।

ओमा शर्मा: वो है मगर यह भी है कि वह अकेलेपन या आइसोलेशन में पनपती है जब कलाकार स्वयं के भीतर घुसता है...

हुसैन: अकेलेपन में वह अपने भीतर लाखों को लेकर घुसता है। आप उसे कैसे भी देखिए मगर यह मत भूलिए कि अकेले तो आदमी रह ही नहीं सकता है। अकेलेपन में उसे तमाम चीजों की छँटनी करने का अवकाश होता है। पहले आप अपने भीतर अच्छा-बुरा, काला-सफेद सब भर लेते हैं, फिर उसे छाँटते हैं, छोटा करते हैं तभी पूर्णता आती है... इसी को तो नेति-नेति कहते हैं।

ओमा शर्मा: मेरा सवाल यह था कि कलाकार की दुनिया तो उपेक्षा और अकेलेपन की दुनिया होती है मगर आपके संदर्भ में वह बाजार और सुर्खियों से जुड़ी है। आप बाजार की नब्ज खूब पहचानते हैं...

हुसैन: इसमें बुरा क्या है? क्या गलत है जो मैं बाजार को अपनी कला के लिए इस्तेमाल करता हूँ? क्या मैं लोगों को धोखा देता हूँ? मिट्टी को सोना कहकर बेचता हूँ? अगर मेरे पास कुछ नहीं होता तो क्या यह सब मुमकिन था? आप कलाकार हैं तो क्या जरूरी है कि आप अँधेरे में ही रहें? पहले कला कहाँ रहती थी... सबसे पहले वह गुफाओं में आई, उसके बाद मंदिरों ओर गिरजों में, औद्योगिक युग आने के बाद वह संग्रहालयों में आई और उसके बाद वह रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनी... तो रोजमर्रा की जिंदगी में आप बाजार के जरिए ही तो पहुँच सकते हैं...

(वे बोल रहे थे। मैं इत्मीनान से सुन रहा था , कुछ - कुछ अगले सवाल की तैयारी करते हुए। उन्होंने टोका, नहीं, आप मुझे सिर्फ सुनिए मत देखिए भी ! उनकी यह अदा वाकई दिलचस्प और मोहक थी। मैं सिमटा तो वे पुनः एकाग्र हुए )

आप घर बैठे दुनिया भर की चीजें देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। कैसे हो पा रहा है यह सब? ज्ञान के लिए पहले आप गुरु के पास जाते थे, आज बाजार आपको यह सब मुहैया करा रहा है तो बाजार तो जरिया है वह आधुनिक गुरु है

ओमा शर्मा: आपका मकसद सृजन है तो क्या पहली नजर व्यापार पर रहेगी? यदि हाँ तो कला सफर नहीं करेगी?

हुसैन: तो मान लीजिए कि मैं कलाकार हूँ ही नहीं (कटाक्ष से भरकर)

ओमा शर्मा: आपके कलाकार होने से इनकार नहीं है... मैं उसके अंतर्विरोधों को समझना चाहता हूँ...

हुसैन: वही तो मैं कह रहा हूँ... आप क्यों नहीं मानते कि कोई कलाकार बाजार को भी सँभाल सकता है। दोनों की जरूरत है। एक ही आदमी यदि दोनों को कर सकता है तो इसमें बुरा क्या है... ये जो दिमाग है (उँगली के इशारे से कनपटी इंगित करते हुए) उसमें खाने हैं जो अलग-अलग काम कर सकते हैं। व्यास के बारे में कहते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को चुना जो उनके सोचने के मुताबिक न सिर्फ लिख सकें बल्कि उस लिखे को समझ भी सकें... कहते हैं शेक्सपीयर एक साथ कई नाटकों पर काम करते थे। क्यों? क्योंकि वे कर सकते थे। मेरे साथ बस ये है कि मैं दोनों मोर्चों पर काम कर लेता हूँ। आप आलसी हों तो कुछ भी नहीं कर सकते और साधना कर लो तो क्या मुमकिन नहीं है...

ओमा शर्मा: व्यापार के रास्ते एक वाजिब खटका यह रहता है कि आपको अपनी कला के साथ समझौता करना पड़ सकता है

हुसैन: नहीं, यदि आप एनलाइटेंड हैं तो ऐसा नहीं होगा। कमतर कलाकार उसमें बह सकता है। जो कलाकार सच्चा है वह चट्टान की तरह खड़ा रहेगा।

ओमा शर्मा: आप खड़े रहे हैं?

हुसैन: हाँ, बिल्कुल।

ओमा शर्मा: आपने इमरजेंसी का समर्थन नहीं किया था...

हुसैन: बिल्कुल नहीं किया था... मीडिया ने मुझे ऐसे पेश किया था। मैंने इंदिरा गांधी का कभी कोई पोर्टेट नहीं बनाया। जो तीन पेंटिंग्स उन्हें दी थीं वे उस उथल-पुथल को लेकर थीं जो उस समय चल रही थी। लोगों की ईर्ष्या थी ...उन्होंने मीडिया की आड़ में मुझ पर आक्रमण किया। रास्ते चलते मुझे सुनना पड़ता कि यह मैंने क्या कर डाला।

ओमा शर्मा: इतने सारे लोग-कलाकार जो यह कह रहे थे, गलत थे?

हुसैन: नब्बे प्रतिशत तो उनमें कलाकार थे ही नहीं। सूडो थे। ब्रश पकड़ लेने से कोई पेंटर नहीं बन जाता है। और गिनती पर तो आप कभी जाइए ही मत। वे सब गधे थे। मेरे आसपास के चंद लोग जानते थे कि हकीकत क्या है और एक बात यह भी देखिए कि यदि वह सच होता तो बाद में कला की दुनिया ने मुझे क्यों अपना लिया? उसके बाद कोई बात ही नहीं चली, क्यों? क्योंकि वह झूठ था, प्रायोजित था...

ओमा शर्मा: अपने कला व्यापार के लिए आपने माधुरी दीक्षित का इस्तेमाल किया क्योंकि उन दिनों वह लोकप्रियता के शिखर पर थी।

हुसैन: आप यह बताइए क्या मैं माधुरी को उसके घर से उठाकर लाया था? मीडिया तो मुझे रोज नुस्खे देता था कि मैं यह-वह खाकर उसके साथ हम-बिस्तरी करूँ... इतने गलीज दिमाग।

ओमा शर्मा: विवादों में बने रहना तो माशाअल्ला आपको सूट करता है।

हुसैन: सवाल ये है कि विवाद पैदा ही क्यों होता है? आप अपना काम करें तो तमाम लोग विरोध में आ खड़े होते हैं। क्या उससे डरकर काम बंद कर देना चाहिए? ये जो पंडित किस्म के लोग थे राय किशनदास, कन्हैयालाल मुंशी... इन्होंने स्कूल कॉलेज के बच्चों तक को मना करवा दिया था कि प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप के जो हम लोग थे, उनसे न मिलें। उनकी हरमजदगियों को मीडिया ने कभी नहीं उभारा, बल्कि मीडिया को वे अपनी तरह से हाँकते रहे। वे कहते थे कि हम लोग भारतीय संस्कृति को नष्ट कर रहे थे जबकि बाहर वाले लोग हमें सपोर्ट कर रहे थे। हमारे चित्र बॉम्बे आर्ट सोसाइटी में लिए ही नहीं जाते थे। हम खुद अपने पोस्टर लगाते थे। यह कोई शिकायत नहीं है रेनेसां (ज्ञानोदय) काल में जब प्रभाववाद आया... जब पता लगा कि जो रोशनी है उसमें सात रंग छिपे होते हैं और जिनका इस्तेमाल हो सकता है, जो उन्होंने किया, तो लोगों को लगा कि उनकी तौहीन की जा रही है। लगा, जैसे प्याले के रंगों को उनके चेहरे पर उड़ेल दिया गया है, और याद रहे वे सब पढ़े-लिखे लोग थे! मोरारजी देसाई जो उन दिनों बंबई के मुख्यमंत्री थे उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था कि हम लोगों की आर्ट को खदेड़ दिया जाना चाहिए। मैंने तब मोरारजी को एक बंदर की तरह पेंट किया था। तब कम से कम इतनी आजादी तो थी। आज ऐसा करने लगूँ तो पता नहीं क्या हो जाए। स्तन पर रखे हाथ के चित्र - ऐज ए सिंबॉलिक प्रोटेक्टर - बनाने वाले को पुलिस पकड़ ले गई लेकिन हम लड़े और जीते। क्या हमारी संस्कृति में लिंग को पूजा नहीं जाता है? खजुराहो क्या है? वह रीयलिस्टिक थोड़े है, एक मैटाफर है। वो कहते हैं न कि पढ़े-लिखे की इग्नोरेंस बड़ी भयानक होती है...

ओमा शर्मा: इन पंडित किस्म के जीवों को कुछ हद तक आपने भी मौका दिया - सीता और सरस्वती के न्यूड्स बनाकर...

हुसैन: आप कितनी ही जगह ये सब देख सकते हैं मंदिरों में, गुफाओं में...

ओमा शर्मा: इससे आपको उनको इस तरह दिखाने का आर्टिस्टिक लायसेंस मिल जाता है?

हुसैन: लायसेंस की बात नहीं है, आर्ट की बात है

( इसके बाद जैसे वे दुर्वासा हो उठे... ये सब बंद कीजिए क्या वाहियात सवाल है, ये रिकॉर्ड नहीं होना चाहिए, ऐसे सवाल करने वाले जानते ही नहीं कि कितने बड़े बेवकूफ हैं। वे एक बार फिर उठ खड़े हुए ओर कहने लगे कि क्या मैंने कुमार स्वामी की किताब ' इंडियन एस्थैटिक्स ' पढ़ी है ? मैंने ना में सिर हिलाया तो बोले फिर तो मुझे उनके पास तक बैठने का हक नहीं है। मैं उन्हें मनाता हूँ और समझता हूँ कि वे जो भी कहना चाहें पूरे हक से अपना पक्ष रखें क्योंकि उनकी पेंटिंग्स को लेकर हिंदूवादी तोड़फोड़ पर उतर आते हैं और बुद्धिजीवी स्टूडियो या लेखों के जरिए सिर्फ बहस करते हैं भारतीय संस्कृति और कलागत आजादी की अनंत बहस के बीच हुसैन कहाँ खड़े हैं यह किसी को खबर नहीं। एक चाय के ब्रेक ने बात को थोड़ा सँभाला मगर उनके भीतर मेरे लिए एक संशय तो स्थायी जगह ले चुका था। कला और समकालीनता को लेकर हमारे बीच मुंबई में जीवंत बातचीत होती रही थी लेकिन उस सबके भेस में मैं ' और ' भी कुछ हूँ, यह ' यकीन ' उन्हें अब जाकर हुआ। वे उखड़ गए और उसके बाद भी जब कई मौके आए मैंने अपनी सहनशीलता और दिल्लगी नहीं छोड़ी जिसके कारण लगभग समाप्त होती बातचीत फिर से जुड़ सकी। उनका तेवर - कलेवर ठंडा होने में वक्त अलबत्ता लगा। एकबारगी लगा था कि वे मुझ पर हाथ न उठा दें। खैर, मैं हिम्मत करके उन्हें फिर मुद्दे पर लाता हूँ )

आप यह सवाल कला मर्मज्ञों से कीजिए। वे इसका उत्तर देंगे मैं क्या जवाब दूँ मैं तो कलाकार हूँ।

ओमा शर्मा: हुसैन साहब, आपकी किसी पेंटिंग को देखकर - उसपर चाहे आपके दस्तखत न भी हों - तो पता चल जाएगा कि यह आपकी है

हुसैन: ये कोई सवाल है?

ओमा शर्मा: सवाल अभी पूरा नहीं हुआ है।

हुसैन: अभी तक तो आपके सवाल ऐसे ही रहे हैं (खिन्नता बोध)

ओमा शर्मा: आप धैर्य तो रखें।

हुसैन: आप जैसे पढ़े-लिखों की जाहिलियत है ये

ओमा शर्मा: पूरा सवाल सुने बगैर ऐसा फतवा हुसैन साहब

हुसैन: आप ऐसे सवाल बिल्कुल मत कीजिए। मैं कला के बारे में आपको जवाब दे सकता हूँ। दस घंटे तक बोल सकता हूँ। मगर यह सब मत कीजिए।

ओमा शर्मा: सवाल जैसे भी हों, आप तो अपनी तरह जवाब दे सकते हैं, समझा सकते हैं?

( इतनी जल्दी वे फिर भड़क जाएँगे यह मैंने उम्मीद नहीं की थी। ऐसा कम होता है कि मौके के बावजूद मैं प्रतिकार - प्रतिरोध न करूँ लेकिन मैं प्रतिबद्ध था कि जो काम है उसे पूरा करना है। फिर हुसैन जैसा दिग्गज कलाकार ! उस समय शांत रहकर यदि वे जवाब देते , अपनी बात कहते तो हिंदूवादी - बजरंगियों की अतिवादिता को ध्वस्त - परास्त करने का उन्हें अवसर रहता मगर हुसैन तो हुसैन थे, अपनी तरह से जीने वाले , अपनी तरह से चलने वाले। बहरहाल , मेरा अधूरा छूटा सवाल किसी चित्रकार की पहचानगत विशिष्टता और टाइप्ड हो जाने के फर्क को लेकर था जिस पर उन्होंने आने ही नहीं दिया। बातचीत फिर अपने अंत के कगार पर थी। हम दोनों इधर - उधर देख रहे थे - वे गुस्से से और मैं लज्जित होकर। मगर कर क्या सकते थे। इससे उबरने के लिए मैंने बातचीत की दिशा बदल ली मगर अपने सामान्य , बिंदास स्वरूप में वे आ ही नहीं सके। वे वहाँ थे मगर हर बात को ताबड़ - तोड़ खारिज करने की मुद्रा में। मैंने सोचा जो भी है , ग्रहण करना चाहिए। मैदान छोड़कर भागने से तो बेहतर है )

ओमा शर्मा: हुसैन साहब, 6 मई 1991 का जिक्र आपने अपनी आत्मकथा में किया है जब आप सत्यजीत रे से मिले थे, उस मुलाकात के कुछ इंप्रेशंस...

हुसैन: वह हमारी आखिरी मुलाकात थी। हमने एक-दूसरे के स्कैचिज बनाए थे (कहकर वे रूठी रानी की तरह फिर चुप्प। उस महान फिल्मकार जिसकी कला के वे प्रशंसक हैं उसके बारे में बटोरी किसी भी छवि पर जैसे हाथ ही नहीं रखना चाहते हैं)

ओमा शर्मा: बंगाल स्कूल के चित्रकारों के बारे में, उनकी कला के बारे में आपको कैसा लगता है?

हुसैन: बंगाल स्कूल या फ्रेंच स्कूल जैसा कला में कुछ होता ही नहीं है! कला या तो बढ़िया होती है या खराब। यह काम आर्ट क्रिटिक्स का है। हम तो यही देखते हैं कि जो भी अच्छी है, हमारी है। वह कहीं की भी हो।

ओमा शर्मा: फिर ये ग्रुपिज्म क्यों बन रहा है? हम तो ऐसा ही कुछ पढ़ते-सुनते आए हैं...

हुसैन: यह आप आर्ट हिस्टोरियन्स से पूछिए। हमारे लिए तो आर्ट इज आइदर गुड और बैड। वह आज की हो या दस हजार साल पुरानी।

ओमा शर्मा: और इस गुड-बैड का फर्क करने का पैमाना क्या है?

हुसैन: वे हर जमाने के हिसाब से बनते रहते हैं... पहले मिनिएचर आर्ट खूब चलती थी, आज बनाने लगो तो उसके कोई मायने नहीं...

ओमा शर्मा: सूजा ने कहा है कि आर्ट इज एन एलिटिस्ट एक्टीविटी, क्या कहेंगे?

हुसैन: उसके लिए होगी, मेरे लिए नहीं।

ओमा शर्मा: आप कोई पेंटिंग शुरू करते हैं तो उसका सबसे चुनौतीपूर्ण पक्ष क्या होता है?

हुसैन: फिर वही सवाल!

ओमा शर्मा: वही किस तरह?

हुसैन: इस सवाल का कोई जवाब नहीं है।

ओमा शर्मा: मुश्किल तो नहीं है!

हुसैन: मुश्किल नहीं बेवकूफी भरा है

ओमा शर्मा: कैसे?

हुसैन: मैंने कहा ना कि कला के सृजन को समझाना मुश्किल है। न यह दुनिया को देखकर होती है न किसी और को...

ओमा शर्मा: आपके मुताबिक भारतीय कला और यूरोपियन कला भी अलग नहीं होगी?

हुसैन: बिल्कुल! कोई फर्क नहीं है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में तो यह बात और भी मौजूँ हो गई है। आज सारे बंधन टूट गए हैं।

ओमा शर्मा: बद्रीविशाल पित्ती की आपके जीवन में क्या भूमिका रही?

हुसैन: सन् 1962 में उनसे मिलना हुआ था। हिंदी की जितनी सेवा उन्होंने की, किसी और ने नहीं की होगी। 25 साल तक वे एक पत्रिका, 'कल्पना' निकालते रहे। आज कोई हिंदी वाला उनका नाम लेता है?

ओमा शर्मा: आपको दोस्त कैसे पसंद हैं?

हुसैन: दोस्त या तो अच्छे होते हैं या बुरे।

ओमा शर्मा: स्त्रियाँ कैसी अच्छी लगती हैं?

हुसैन: स्त्रियाँ दो तरह की होती हैं: वे जो सुंदर हैं या फिर जो सुंदर नहीं हैं। सुंदरता किसे अच्छी नहीं लगती है? सुंदरता के अपने-अपने मायने हैं, यह खाली चेहरे की सुंदरता की बात नहीं है

ओमा शर्मा: एक कवि के मुताबिक स्त्रियाँ असुंदर होती ही नहीं हैं।

हुसैन: नहीं? कुछ स्त्रियाँ कैकई होती है कि नहीं? क्या वह सुंदर थी?

ओमा शर्मा: आपका पसंदीदा शहर या जगह जहाँ आपको बार-बार जाना अच्छा लगता हो?

हुसैन: यह दोस्तों से तय होता है। जहाँ अच्छे दोस्त हों वह जगह अच्छी। अच्छे दोस्त जंगल में भी हों तो वह अच्छा लगेगा।

ओमा शर्मा: फिर भी?

हुसैन: मुझे बदलाव हमेशा अच्छा लगता है। कश्मीर में भी कुछ दिन रहने पर ऊब जाऊँगा। अच्छे से अच्छा खाना खाकर बोर हो जाता हूँ...

ओमा शर्मा: पीछे मुड़कर देखने पर किन दोस्तों को याद करके खुशी होती है?

हुसैन: यह सवाल व्यक्तिगत है।

ओमा शर्मा: पेंटिंग के अलावा किन छोटे-छोटे कामों को करना सुख देता है?

हुसैन: मुझे लोगों से मिलना-जुलना बहुत अच्छा लगता है। वहाँ मैं चूजी नहीं हूँ। सबसे मिलता हूँ पान वाले से, ड्राइवर से। यह निजी स्वभाव की बात है। रामकुमार जी का स्वभाव इससे अलग है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे अच्छे इन्सान नहीं हैं।

ओमा शर्मा: दूसरों की कौन सी चीज माफ कर देंगे?

हुसैन: यह मेरे हाथ में नहीं है। माफ करने वाला मैं कौन होता हूँ ऊपर वाला है ना!

ओमा शर्मा: बकाया हसरतें क्या हैं?

हुसैन: हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि... एक प्यास, एक तड़प मेरे भीतर अब भी है... उसे जहाँ पानी मिल जाए मुझे गुरेज नहीं। वो कहते हैं न कि... प्यास न देखे घोबी घाट, नींद न देखे टूटी खाट। तो प्यास रहनी चाहिए। अच्छी सेहत के लिए मैं ये मानता हूँ कि भूख लगने पर तुरंत और भरपेट नहीं खाना चाहिए, हो सकता है कुछ और अच्छा आने वाला हो...

ओमा शर्मा: कभी उदास होते हैं?

हुसैन: कई बार! उदास होकर रोना भी कभी अच्छा लगता है। दिक्कत ये है कि खुदा ने सब कुछ तो दे दिया है। शिकायत भी नहीं कर सकते। रोएँ किस मुँह से? सच, अब मुझे रोने में मुश्किल होती है। आपको एक बात बताऊँ? माँ को याद करके मैं कभी नहीं रोया। मुझे उसकी कोई याद ही नहीं है क्योंकि डेढ़ साल का था जब वह दुनिया से चली गई। अपनी आपबीती में माँ पर मैंने जो चैप्टर लिखा है वह फ्लोरेन्स के रेलवे प्लेटफार्म पर लिखा गया था। शब्द की ताकत क्या होती है इसके लिए यह बता रहा हूँ... मुझे रेलवे प्लेटफार्म बहुत पसंद हैं। वहाँ जो चहल-पहल और जीवन होता है मुझे आकर्षित करता है। किसी नए शहर की तीन चीजें मैं जरूर देखता हूँ वहाँ का रेलवे स्टेशन, चिड़ियाघर, और रेड लाइट एरिया। इन तीनों से मुझे शहर की नब्ज पता लगती है। हाँ, तो मैं माँ वाले चैप्टर के बारे में बता रहा था... मैं स्टेशन की बेंच पर बैठकर लिखता रहा, लिखता रहा ढाई घंटे तक जब लिख लिया और फिर उसे पढ़ने लगा तो अस्सी बरस की उम्र में पहली बार मैं माँ को याद करके रोया! तो ये शब्द की ताकत होती है!

ओमा शर्मा: मदर टेरेसा की पेंटिंग्स में आपने अपनी माँ को ही याद किया है - उन्हें चेहराविहीन दिखाकर...

हुसैन: बिल्कुल।

ओमा शर्मा: लेकिन आपके दादाजी चित्रकारी में कम दिखते हैं।

हुसैन: नहीं, ऐसा नहीं है। उन्हें भी मैंने खूब पेंट किया है। दिक्कत यही है कि पेंटिंग्स इतनी जगह बिखरी पड़ी हैं कि उनकी तरफ कम ध्यान गया है।

ओमा शर्मा: ऊपर वाले में यकीन रखते हैं?

हुसैन: नहीं रखता तो यहाँ नहीं बैठा होता। जबरदस्त।

ओमा शर्मा: आपकी पसंदीदा पेंटिंग्स?

हुसैन: मेरा जो बॉडी ऑफ वर्क है उससे मैं खुश तो हूँ मगर संतुष्ट नहीं... कोई पेंटिंग कभी पूरी नहीं होती है।

ओमा शर्मा: बनाते वक्त असंतुष्ट होकर कभी डिस्कार्ड की है?

हुसैन: खूब! खासकर शुरू के दिनों में।

ओमा शर्मा: रेंब्रां के अलावा किसी दूसरे चित्रकार की पेंटिंग अच्छी लगी?

हुसैन: नहीं रेंब्रां के अलावा कोई नहीं हैं।

ओमा शर्मा: जिंदगी के उत्कर्ष पल कौन से रहे हैं?

हुसैन: मुझे तो अपना सारा जीवन ही ऐसा लगता है। मैं अपना जीवन दुबारा जीना चाहूँगा... इसी तरह...

ओमा शर्मा: किसी युवा चित्रकार को क्या सलाह देंगे?

हुसैन: कोई सलाह नहीं। देनी हुई तो यही कि अपने मन का काम करो, अपने संस्कारों को जानो, अपने समय की नब्ज पकड़ो। वैसे मैं खुद को अभी युवा चित्रकार ही मानता हूँ। मेरा सब कुछ उन्हीं जैसा है।

ओमा शर्मा: एक फिलॉस्फर ने कहा है कि दुख (पेन) ही सारी क्रिएटिविटी का स्रोत है, आप सहमत हैं?

हुसैन: उस बेचारे को दर्द रहता होगा (हँसकर) शारीरिक दुख...

ओमा शर्मा: नहीं, ऐसा नहीं था, पूरी उम्र पाई थी उसने...

हुसैन: मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ कि दुख से गुजर रहा हूँ और उससे निजात पाने के लिए पेंटिंग करने लग गया। नैवर।

ओमा शर्मा: आप हिंदी कविता - कवियों को पसंद करते हैं?

हुसैन: हाँ, मुझे कविताएँ पसंद हैं। बचपन में खूब शायरी लिखता था मैं, 'हया' के तखल्लुस से। जब पेंटिंग करने लगा तो मित्रों ने कहा अब तुम अपना नाम बदल लो: 'हया' की जगह 'बेहया'! (संयुक्त ठहाका)

ओमा शर्मा: हुसैन साहब, पेंटिंग एक दृश्य कला है, आपकी कोई पेंटिंग सामने हो और उसका हूबहू प्रिंट सामने हो - ऐसा प्रिंट जिसका रंग-संयोजन मूल के प्रति फेथफुल हो - तो देखने वाले के भीतर तो दोनों का असर एक-सा ही होगा... तो फिर मूल के लिए चित्रकला की दुनिया में इतना प्रीमियम क्यों है?

हुसैन: ऐसा हो ही नहीं सकता है। प्रिंट में वह बात आ ही नहीं सकती है जो ओरिजनल में होगी। कैनवास का जो टैक्सचर होता है वह प्रिंट में कहाँ मिलेगा? आप कोई चीज देखते हैं तो सबसे पहले छूकर परखते हैं...

ओमा शर्मा: लेकिन इस दृश्य-कला की अहमियत तो उस रंग-संयोजन और चित्रांकन में है जो दोनों में समान रूप से मौजूद है, दर्शक के भीतर संवेदना जगाने का माल-ओ-असबाब तो कमोबेश वही है...

हुसैन: ये आप कैसे कह सकते हैं? दोनों अलग चीजें हैं। इसका मतलब है मीडियम के बारे में आप कुछ नहीं जानते हैं। एक मूर्ति को आप लकड़ी पर बनाएँ, उसी को पत्थर पर बनाएँ और वही मैटल पर... तो आपके मुताबिक तीनों में कोई फर्क नहीं होगा? मैटीरियल का अपना चरित्र होता है, उसकी अपनी पहचान होती है...

ओमा शर्मा: मैंने आपकी मदर टेरेसा वाली मूल पेंटिंग्स तो नहीं देखी है मगर कैलैंडर पर उनके प्रिंट देखे हैं। मुझे लगा मदर टेरेसा को लेकर जो भावनाएँ मूल पेंटिंगों में जगेंगी, वही उन कैलैंडर-प्रिंट्स में जग रही थीं...

हुसैन: ये आपका सवाल है या इसे भी लोग पूछते हैं... (वे खुफिया की तरह मेरी तरफ एकाग्र होते हैं)

ओमा शर्मा: यह मेरा सवाल है, एक मासूम संदेह...

हुसैन: बहुत घटिया सवाल है। अफसोस, आपको कला की तमीज ही नहीं है। कला को छोड़िए, आप कपड़ों को देखिए (वे अपनी पैंट, जैकिट और तकिये को पोटुओं से सहलाकर जतला रहे हैं) आप तो कपड़ा ही नहीं देख रहे हैं...

ओमा शर्मा: तो क्या कला की अहमियत उसके माध्यम पर ज्यादा निर्भर है बनिस्वत उसकी अंदरूनी विषय-वस्तु के जिसे वह अभिव्यक्त करती है?

हुसैन: मीडियम इज द मैसेज। यदि आप मीडियम को नहीं समझते हैं तो उस कृति तक कभी जा ही नहीं सकते हैं। कोई इन्सान आपसे मिलने आता है तो सबसे पहले आप क्या देखते हैं... उसका रंग, उसकी चाल, उसका तौर-तरीका वह क्या कहता है वह सब बाद की चीज है।

ओमा शर्मा: तो उस लिहाज से पेंटिंग का सरोकार उस इन्सान की चाल-ढाल और रंग रूप से है या उसके चरित्र, उसकी सोच-समझ से... (इसका वे कोई जवाब नहीं देते हैं। मेरी समझ को एक बार फिर कोसते हैं। कुछ अंतराल के बाद मैं पूछता हूँ कि वे किन हिंदी के लेखकों को पढ़ते हैं?)

हुसैन: निर्मल वर्मा को। उन्होंने मेरी किताब की जो भूमिका लिखी उसे पढ़कर मैंने उनसे यही कहा कि इसके बाद मुझे और कुछ लिखने की जरूरत नहीं है।

ओमा शर्मा: निर्मल वर्मा के अलावा?

हुसैन: मुक्तिबोध को पढ़ा है।

ओमा शर्मा: आपके घोड़े जग-जाहिर हैं। इसका कोई मंतव्य?

हुसैन: अरे भाई, एक खूबसूरत जानवर है, दुनिया भर में पाया जाता है, हर सभ्यता में मिलता है।

ओमा शर्मा: चित्रकला की दुनिया में कुछ परिचित थीम रहे हैं जैसे लास्ट सपर... पता नहीं कितने चित्रकारों ने बनाया है... दृश्य भी लगभग एक सा होता है... इसके पीछे क्या मंशा होती है?

हुसैन: सबकी सोच अलग होती है। अब जैसे कोई पेड़ है, हर चित्रकार अपने ढंग से बनाता है।

ओमा शर्मा: आर्ट हमारे यथार्थ की अभिव्यक्ति ही नहीं होती है वह उसमें कुछ जोड़ती भी है ठीक है।

हुसैन: ये मैंने नहीं कहा।

ओमा शर्मा: यह मैं कह रहा हूँ, आप सुनिए तो...

हुसैन: ओके।

ओमा शर्मा: इस संदर्भ में मेरी विद्यार्थीनुमा जिज्ञासा यह है कि अमूर्त कला हमारे यथार्थ में क्या जोड़ती है?

हुसैन: आप किताबें पढ़िए, सब पता चल जाएगा।

ओमा शर्मा: एक चित्रकार के तौर पर आप अपनी बात बताइए?

हुसैन: मुझे कुछ नहीं कहना है। किसी म्यूजीशियन से आप संगीत की बारीकियाँ पूछेंगे? ये काम क्रिटिक्स का है, हमारा नहीं (कुछ देर रुकने के बाद फिर कहते हैं) कला का उद्देश्य है हारमॅनी... उसी से सारी चीजें निकलती हैं। वह अमूर्त कला के लिए भी सच है। दुनिया में पॉजिटिव और नेगेटिव दोनों शक्तियाँ होती हैं और रहेंगी। दोनों की जरूरत भी है। समुद्रमंथन के लिए देवता काफी नहीं होते थे। राक्षसों का सहारा लेना पड़ा था।

ओमा शर्मा: बहुत खूब। अब ये बताएँ कि आपसे यदि पेंट-ब्रश छीन लिया जाय जो क्या करेंगे?

हुसैन: जिसने छीना उसके सिर पर एक भी बाल नहीं बचेगा (फिर संयुक्त ठहाका। उनके सहायक ने बताया कि एक बार सीधे हाथ में चोट लग जाने से जब उससे ब्रश नहीं पकड़ा जा रहा था तो उन्होंने बाएँ हाथ से पेंटिंग शुरू की थी)

ओमा शर्मा: आपके मुताबिक आपकी चित्रकला का कौन सा पहलू बचा रहेगा?

हुसैन: यह कोई नहीं कह सकता है। ऐसी चीज दुनिया में बनी भी नहीं है। ऐसा हो तो आदमी खुदा न हो जाए (अभी तक हमारी बातचीत उनकी खूबसूरत फाइव स्टार 'झोपड़ी' में हो रही थी। काफी देर हो गई थी। उन्हें कहीं और भी जाना था या थकावट के कारण ऐसा कह रहे थे, पता नहीं। हम लोग उठ खडे हुए। बाहर खुली हवा में आते ही उनका मिजाज कहीं ज्यादा खुशगवार और सामान्य हो गया। जिस बंगाल स्कूल की कला के बारे में उन्होंने पहले कुछ भी कहने से कन्नी काट ली थी, अब उसके सीक्रेट्स बतियाने लगे और यह भी कि कैसे उनके ग्रुप ने बंगाल स्कूल के भारतीय कला पर बने आ रहे वर्चस्व को तोड़ा। हुसैन साहब को बंबइया फिल्मों के जिक्र से भी भरमाया जा सकता है। बंबइया फिल्में उनके अंदर किसी पहले प्रेम की-सी कसक जगाती हैं। वहीं पहली बार मैंने उनके जलरंग देखे। बहुत बारीक काम करने का उन्हें अवकाश नहीं होता हो मगर एक उस्ताद का स्पर्श तो वहाँ भी खूब था। छोटे फ्रेम की ये खेल-खेल में की गई चित्रकारी थी... चटख और गैर मिलावट के रंगों से की गई चित्रकारी। जलरंगों के साथ मैं सिर्फ प्रभु जोशी को याद कर पाता हूँ जिनका काम कहीं ज्यादा बारीक और जटिल होते हुए भी लगभग अज्ञेय पड़ा है। हमारी गाड़ी एक सपाट हाइवे पर है। मेरे भीतर कुछ कुनमुना रहा है कि जो कुछ छूट गया है उसकी भरपाई यहाँ कर लूँ। एक बार मेरा हाथ दबाकर जब उन्होंने कहा, कुछ गलत मेरे मुँह से निकल गया हो तो माफ कीजिए, मेरा इरादा नहीं था तो मेरे भीतर रही सही शिकायत काफूर ही नहीं हो गई, नए सिरे से बातें करने का हौसला भी आ गया। इस बार वे न सिर्फ अधिक सुलझे हुए, मुक्त और ज्यादा शालीन थे बल्कि हल्के अपराध-बोध में भी लगे। मुझे ऐसी स्थिति सूट नहीं करती है। सहमति-असहमति के क्षेत्र जो भी हों, हैसियत, समझ और ज्ञान का लॉरेन्ज वक्र जैसा भी हो, मानसिक धरातल पर तो सिर्फ बराबरी ही संवाद का आधार बन सकती है। चंद लतीफों ने यह मुमकिन करा दिया तो हम झगड़ालू प्रेमियों की तरह फिर शुरू हो गए)

ओमा शर्मा: आपके कुछ चित्रों को लेकर चंद लोगों में जो गुस्सा है यदि वह गलत या नाजायज है तो उसे समझा-बताकर दूर नहीं किया जाना चाहिए?

हुसैन: मैं किस को कहाँ तक समझाऊँगा? मेरे भीतर इतनी ताकत नहीं है अब। और है भी तो मैं उसे अपनी कला के लिए बचाकर रखूँगा।

ओमा शर्मा: पेंटिंग के अलावा आपने फिल्में भी बनाईं हैं। फिल्म को आपने कहानी से बरी कर दिया, इसे क्या समझा जाए?

हुसैन: फिल्मों में कहानी है लेकिन वैसी नहीं है जैसी आप दूसरी तमाम फिल्मों में देखते हैं। दुनियाभर में ऐसे कलाकार हैं जो ऐसा काम कर रहे हैं। अभिव्यक्ति का यह अपना तरीका है। पिछले सौ बरसों में दुनिया का हासिल इसी तरफ तो गया है।

ओमा शर्मा: लेकिन दर्शकों को आपकी फिल्मों का अभिप्राय ही स्पष्ट नहीं होता है...

हुसैन: आप जिन फिल्मों की सोचकर यह सवाल कर रहे हैं? वे क्या हैं? रंडियों का नाच! उनकी कहानी? जीरो! सत्यजीत रे या दो-तीन औरों को छोड़कर बाकी तो गधे ही हैं। हमारे यहाँ साल में 600 से ज्यादा फिल्में बनती हैं, यानी रोजाना की दो तो वो तो घास की तरह ही बनेंगी। बदकिस्मती से हमारे यहाँ घास खाने वाले बहुत हैं। उनको चारा चाहिए तो ये फिल्म वाले देते हैं।

ओमा शर्मा: आपको इस बात की चिंता नहीं है कि उन फिल्मों को लोग देखते नहीं हैं?

हुसैन: नहीं, कतई नहीं है। मुक्तिबोध की कविताओं को कौन समझता था? क्या उन्होंने लिखना बंद कर दिया या ऐसा लिखा जो ज्यादा समझ आने लायक हो? सही कलाकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।

ओमा शर्मा: हुसैन साब एक आखिरी सवाल और... आप चाहें तो टेपरिकॉर्डर उठाकर फेंक सकते हैं... मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आप मानसिक रूप से तैयार रहें...

हुसैन: नहीं, ऐसा नहीं होगा। अगर सवाल ठीक नहीं लगेगा तो मैं चुप रहूँगा।

( मैं उनसे उनकी विवादास्पद पेंटिंग्स के बनाए जाने की मंशा के बारे में पूछता हूँ। वे हँस पड़ते हैं। एक सहमी प्रतिबद्ध हँसी। फिर चुप लगा जाते हैं। इतना जरूर है कि वे इसका जवाब नहीं देना चाहते हैं या जवाब देकर किसी और विवाद में फँसना नहीं चाहते हैं। मुमकिन है कि पहले हुई बदमगजी की पुनरावृत्ति न करने के लिए उन्होंने चुप्पी साधी हो। कुछ देर इंतजार करने के बाद मैंने भी जाने दिया और अगला सवाल किया )

ओमा शर्मा: हुसैन साब, कला क्यों जरूरी है?

हुसैन: कला किसी समाज किसी देश की पहचान होती है। मैंने यहाँ (दुबई) के शेख को यही कहा कि आपने इमारतें तो खूब आलीशान बना लीं, पैसा भी बहुत है यहाँ मगर कला- संस्कृति का क्या जो आपके वजूद आपकी सभ्यता की पहचान होती है? पैसा तो आएगा, चला जाएगा। सिर्फ कला-संस्कृति ही बचेगी। मुगलों को हम आज भी याद करते हैं... साहित्य, संगीत, वास्तु, चित्रकारी... उन्होंने सबको बढ़ावा दिया।

ओमा शर्मा: लेकिन चित्रकला के वर्तमान संदर्भ में मुझे अकसर ख्याल आता है कि अपने समय और सोच को कोई चित्रकार कैनवास पर आकार देता है मगर उस तैयार माल को तो कोई रईस ग्राहक खरीद ले जाता है - अपने निजी कक्ष में सजाने के लिए... अपने समय से मुठभेड़ करती कला किसे नजर आएगी?

हुसैन: देखिए, किसी चित्रकार की दस फीसदी पेंटिंग्स भी यदि संग्रहालयों तक चली जाएँ तब भी उनका अपेक्षित काम हो जाएगा। बिकी हुई पेंटिंग तो बेशक एक कमोडिटी है, वह उस ग्राहक की है जिसने उसे खरीदा है। संग्रहालयों में वह सुरक्षित रहती है इसलिए संग्रहालय महत्वपूर्ण होते हैं।

ओमा शर्मा: आपको कभी कला के ज्यादा कम्यूनीकेबल होने की जरूरत का ख्याल आता है?

हुसैन: देखिए, कम्यूनीकेशन के लेविल्स होते हैं। जैसे साहित्य है, वह बहुत गहरे तक जाता है। रीजनल आर्ट का दायरा सीमित होता है। संगीत और चित्रकला की पहुँच अलग है। इन सबके बीच एक और माध्यम है जिसकी पहुँच सबसे ज्यादा है: सिनेमा। सिनेमा इस दौर का सबसे सशक्त माध्यम है लेकिन वह ऐसे लोगों के हाथ में है जो उसे सिर्फ मिसयूज करते हैं, इससे माध्यम तो खराब नहीं हो जाता।

ओमा शर्मा: आप खुद को कैसा फिल्मकार मानते हैं?

हुसैन: इसका मैं क्या जवाब दूँ? मगर ये है कि पहली फिल्म - 'थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर' लंदन विश्वविद्यालय के कोर्स में लगी है। दो-तीन अमरीकी विश्वविद्यालय भी उसे पढ़ाते हैं। मैं तो कहीं बेचने नहीं गया था...

ओमा शर्मा: हमारे सिनेमा में दो स्थितियाँ दरपेश हैं; बिना सिर-पैर वाली व्यावसायिक फिल्में और सिर के ऊपर से जाने वाली आपके जैसी कला फिल्में। आप सिनेमा की पहुँच और व्यावसायिकता को अपनी कला के लिए नहीं भुना पाए।

हुसैन: उस तरह मैं खुद को अच्छा फिल्मकार नहीं मानता हूँ, तभी तो थोड़ी-बहुत आजमाइश करके छोड़ दी। वो शेर है ना... चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी, वर्ना हम दुनियाभर को समझाने कहाँ जाते!

ओमा शर्मा: आप कभी कुमार स्वामी से मिले थे?

हुसैन: मिला नहीं हूँ मगर भारतीय कला पर जबरदस्त काम है उनका। लेकिन आप यह देखिए कि भारतीय कला पर जो उनका काम है, संग्रह है, हमारे पास नहीं है। बोस्टन (अमरीका) में एक अमरीकी है होरिट्ज। वह हर साल यहाँ के कलाकारों की पेंटिंग्स खरीदकर ले जाता था। हमारी भी लीं। उसके पास हमारी एक हजार पेंटिंग्स होंगी। वह चाहता था कि उनमें से कोई दो सौ जो वाकई अच्छी हैं भारतीय चित्रकला की पहचान हैं, उन्हें भारत में ही रहना चाहिए। वह मुफ्त में किसी संग्रहालय को देने को तैयार था लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो सकी। उसकी शर्त यही थी कि वह सरकारी क्षेत्र से बाहर हो! ये जो गोदरेज, अंबानी हैं, इनसे भी पूछा गया। कोई आगे नहीं आया। नतीजन, वे अब भी बोस्टन में ही हैं। महाभारत पर बनी मेरी 21 पेंटिंग्स बोस्टन में हैं। अपने राष्ट्रीय संग्रहालय ने पिछले बीस सालों से मेरी कोई पेंटिंग नहीं ली है।

ओमा शर्मा: आजकल उपभोक्तावाद का जो दौर है उसके बीच कला की कहीं जगह बची है? किसे पड़ी है कला की? वह कैसे बचेगी?

हुसैन: मुझे नहीं पता कि वह कैसे बचेगी लेकिन कला जरूर बची रहेगी। वैन गॉग के वक्त कोई उसकी कला को नहीं पहचानता था मगर अपना मुल्क नहीं पहचानेगा तो वह कहीं और चली जाएगी। ब्रिटेन, मिस्र और भारत की कला का सर्वश्रेष्ठ आज अमरीका में है ना कि इन मुल्को में। हमने अपने बेहतरीन मूर्तिशिल्पों के सिर काटकर दूसरों को बेच दिए...

ओमा शर्मा: परिदृश्य निराशाजनक है?

हुसैन: निराशा तो जीवन के हर क्षेत्र में है मगर पिछले दिनों मैंने एक फिल्म देखी 'विवाह'। भारतीय संस्कृति से जुड़ी एक-एक रस्म, रिवाज और दूसरा बहुत कुछ देखने को मिला। उसे देखकर मैं पगला गया। कई बार देखी। एक बार तो पूरा थियेटर बुक करवाकर सब मित्रों को दिखाई... तो संस्कृति, कला के तौर पर बहुत कुछ बचेगा...

ओमा शर्मा: फिल्म के तौर पर 'विवाह' बचेगी?

हुसैन: आप चीजों को रिड्यूस कर देते हो! मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि 'विवाह' कोई बड़ी फिल्म है मगर उसमें हमारी संस्कृति की बहुत सारी चीजें ली गई हैं जैसे विवाह संस्था की पवित्रता है वह बचेगी। उसमें आपको अपना देश दिखेगा...

ओमा शर्मा: एक कलाकार को देश-काल मायने रखते हैं?

हुसैन: हाँ-हाँ। कलाकार जिस भौगौलिक इलाके में रहता है, जिस वातावरण में साँस लेता है, वह तो उसकी कला में आएगा ही। मिस्र की कला, चीन की कलाएँ... सब क्या हैं? उससे हटकर कुछ बना देंगे तो उसकी पहचान क्या होगी?

ओमा शर्मा: लेकिन आप ही अभी कह रहे थे कि कला कला होती है, अच्छी या बुरी वह किसी देशकाल की नहीं होती है?

हुसैन: वो अलग बात थी... उसके कारण अलग थे।

ओमा शर्मा: कोई ऐसा कलाकार जिससे आपका मिलने का मन करता हो?

हुसैन: कलाकार ही क्यों, मुझे तो आम लोगों में भी ऐसे मिलते हैं जिनसे मिलने का मन करता है।

ओमा शर्मा: किसी व्यक्ति में क्या अच्छा लगता है?

हुसैन: बताना मुश्किल है। रहस्य है यह।

ओमा शर्मा: आपकी प्रिय पेंटिंग्स?

हुसैन: मेरे छह बच्चे! आप छह बच्चों के बाप बनकर देखिए, आपको पता चल जाएगा।

ओमा शर्मा: जब बच्चे छोटे रहे होंगे तो पेंटिंग्स के लिए समय कैसे निकालते थे?

हुसैन: मेरी पेंटिंग का सारा श्रेय मेरी पत्नी को जाता है। पूरी गृहस्थी को लगभग अकेले उन्होंने ही सँभाला। उसने मुझे पूरी छूट दी। मैं तो अकसर घूमता-फिरता था। एक शेर मुलाहिजा हो: सैयाद की नजर में वो नश्तर से कम नहीं, एक जुंबिश-ए-खफी जो मेरे बालो-दम में है...


(हम एक होटल में कॉफी शॉप में जा पहुँचते हैं। मैं देखता हूँ कि एक 'स्टार' की हैसियत वे दुबई में भी बना चुके हैं। काफी संश्लिष्ट माने जाने वाले होटल के बेयरे और कुछ ग्राहक उनकी तरफ ऑटोग्राफ माँगने आते हैं। वे किसी को निराश नहीं करते हैं। थोड़ी बूँदा - बाँदी हो चुकी है। कॉफी के साथ अब वे मुंबई की बातें करने निकल पड़े हैं। मैं देख रहा हूँ कि निर्वासन कैसे सालता है)