मैं और मेरी कहानी / भाग 1 / प्रकाश मनु

Gadya Kosh से
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कहानी के लिए दीवानगी तो शुरू से ही थी। बचपन में मुझे याद है, माँ और नानी की सुनाई गई कहानियाँ मुझे किसी और ही दुनिया में पहुँचा देती थीं। लगता था वह दुनिया मेरे आसपास की देखी-भाली दुनिया से काफ़ी अलग और कौतुक भरी है। उसमें हर क्षण कुछ न कुछ घटित होता था और मुझे लगता था, मैं बिना पंखों के उड़ रहा है, उड़ता जा रहा हूँ एक अंतहीन आकाश में और जीवन-जगत के एक से एक नए रहस्यों को जान रहा हूँ।

कहानी के जरिए बिना पंखों के उड़ने की कहानी शायद मेरे जीवन की सबसे अचरज भरी कहानी है, जिसने मुझे भीतर-बाहर से बदल दिया और जिस दुनिया में मैं था, जी रहा था, उसके मानी भी कुछ बदल गए। दुनिया वही थी जिसमें सब जी रहे थे, पर मेरे लिए वह दुनिया कुछ अलग हो गई थी।

मुझे याद है, बचपन में माँ से सुनी कहानियों में एक अधकू की कहानी भी थी, जो मुझे सबसे ज़्यादा अच्छी लगती थी। भला क्यों? इसलिए कि यह अधकू बड़ा विचित्र था। एक हाथ, एक पैर, एक आँख और एक कान...! सब कुछ आधा। ऐसा विचित्र था अधकू।...और मैं भी तो कुछ ऐसा ही था। एकदम दुबला-पतला, सींकिया सा। अगर घर में कोई कुछ कह देता तो माँ बरजतीं। बार-बार कहतीं, “मेरा कुक्कू ताँ अड़या-जुड़या होया तीला है। इन्नू कुज्झ न आक्खो!” यानी जैसे तिनते एक-दूसरे में अटके हों, वैसे ही मेरा कुक्कू तो बस किसी तरह जुड़ा हुआ है। हाथ लगते ही तिनके बिखर जाएँगे।...इसलिए इसे ज़रा भी छेड़ो मत।

अधकू ऐसा था, विचित्र। पर बड़ा हँसमुख था। ख़ुशमिजाज। हिम्मती और दिलेर भी और आसानी से हार मानने वाला नहीं थी।... उसकी सबसे बड़ी ताकत थी उसकी माँ, जो उसे बेइंतिहा प्यार करती थी। उसके भाई चोरी और डाका डालने का काम करते थे। वे उसे मारने को तैयार हो गए, यह सोचकर कि यह सींकिया तो किसी काम का नहीं। पर माँ ने चुपके से बता दिया अधकू को कि “अधकू, खबरदार! आज की रात सो मत जाना। तेरे भाई ही तेरा काल बन गए हैं।” तो अधकू चुपचाप लेटा रहा और बाक़ी छहों भाई पत्थर पर घिस-घिसकर छुरियाँ चमकाने लगे, ताकि एक ही बार में अधकू का काम तमाम हो जाए।

वे अधकू के सोने का इंतज़ार कर रहे थे। पर अधकू सो कहाँ रहा था? वह तो बस आँखें मींचे लेटा था और मन ही मन हँस रहा था। भाइयों को जोर-जोर से छुरियाँ चमकाते देखा तो मजे-मजे में बोला, “छुरियाँ ना चमका कि अधकू जागदा...!”

सुनकर भाइयों को बड़ा गुस्सा आया। उनमें से एक बोला, “मरे अधकू दी माँ कि अधकू जागदा...!”

आखिर माँ के बहुत समझाने पर वे उसे भी साथ ले जाने लगे। पर अधकू बड़ी होशियारी से कुछ न कुछ ऐसा करता कि वे मुसीबत में पड़ जाते और आख़िर भाग लेते। फिर एक बार वे राजा के यहाँ चोरी करने पहुँचे। अधकू के पास एक तूँ-तूँ बाजा था। एक तार का बाजा। अधकू की सबसे बड़ी दौलत। चलते-चलते अधकू ने उसे भी साथ ले लिया था। भाइयों ने पूछा, “तू इसका क्या करेगा रे अधकू!”

“अगर कोई मुसीबत हुई तो यह बाजा बजाकर आप लोगों को चेता दूँगा।” अधकू ने सिर हिलाते हुए कहा।

भाइयों ने मान लिया। बोले, “अच्छा, ठीक है सुकड़ू, ठीक...! तू अपना यह तूँ-तूँ बाजा भी ले ले।”

अधकू ने बड़ी ख़ुशी से सिर हिलाया और वह छोटा-सा तूँ-तूँ बाजा अपनी फेंट में कस लिया।

कुछ देर बाद जब राजा के महल में चोरी कर रहे थे उसके भाई, तो अधकू परेशान। सोचा, यह तो अच्छी बात नहीं है। उसने झट अपना तूँ-तूँ बाजा निकाला। उस बाजे को बजाते हुए उसने सोते राजा को चेताया कि “अरे ओ राजा, तू तो लंबी तानकर सो रहा है,/ जबकि तेरे महल में घुस गए चोर.../ इतने सारे चोर।/ जल्दी से जाग और अपना महल सँभाल,/ अरे ओ राजा!”

सुनते ही राजा हड़बड़ाकर उठा और अधकू के भाई पकड़े गए। राजा ने ख़ुश होकर अधकू को अपना मंत्री और मुख्य सलाहकार बना लिया। पर अधकू को अभी चैन कहाँ था? अगले दिन बेड़ियाँ पहने अधकू के भाई दरबार में लाए गए तो अधकू बोला, “महाराज, ये मेरे ही भाई हैं। ग़लते रास्ते पर भटक गए थे। इनके पास कोई काम नहीं था। आप कोई ढंग का काम दें तो भला ये चोरी क्यों करेंगे?”

तब राजा ने अधकू के छहों भाइयों को अपने दरबार में रख लिया। यों अधकू जो आधा था, अधकू जो सींकिया था, विचित्र भी, उसने जीवन में एक सम्मानपूर्ण जगह बनाई और अपने भाइयों को भी तार दिया।

इस कहानी में कुछ बात थी कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पाया। क्यों भला? शायद इसलिए कि मुझे लगता था, मैं ही अधकू हूँ। औरों से बहुत अलग। इसलिए कि मुझमें शारीरिक ताकत ज़्यादा नहीं थी। दुनियादारी में कच्चड़। खेलकूद में कच्चड़... बहुत सारी चीजों में फिसड्डी। एकदम फिसड्डी। पर फिर भी लगता, कुछ है मुझमें कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ। सारी दुनिया से कुछ अलग कर सकता हूँ।...

वह क्या चीज थी, जिस पर इतना भरोसा था मुझे? तब तो शायद बहुत साफ़ न रही होगी। पर आज जानता हूँ कि वह मेरी चुपचाप सोचते रहने की आदत थी और लिखने-पढ़ने की धुन, जो शायद पाँच-छह बरस से ही शुरू हो गई थी। वही धुन जो आगे चलकर मुझे साहित्य की खुली दुनिया में लाई।