मैं और मेरी कहानी / भाग 2 / प्रकाश मनु
माँ की सुनाई कहानियों में एक और कहानी थी। एक ऐसे राजकुमार की कहानी, जिसे सात कोठरियों वाले महल में क़ैद कर दिया गया था। उससे कहा जाता है कि वह छह कोठरियाँ तो देख ले, पर सातवीं न खोले, क्योंकि इससे उसका अनिष्ट हो सकता है।
राजकुमार ने पहली कोठरी खोली, दूसरी कोठरी खोली, तीसरी कोठरी खोली, एक-एक कर छह कोठरियाँ देख लीं। पर सातवीं कोठरी...? उसने सोचा, क्या सातवीं कोठरी भी खोलकर देखूँ? ज़रा देखना तो चाहिए कि उसमें ऐसा क्या है?
उसने धड़कते दिल से सातवीं कोठरी का दरवाज़ा खोला और उसे खोलते ही भीषण हलचल हुई, एक तेज बवंडर-सा आ गया। भूचाल...! जैसे सिर पर आसमान टूट पड़ा हो। एक से बढ़कर एक विपत्तियाँ आईं। कभी मौत के खेल सरीखा खौलता हुआ समंदर, कभी आग की ऊँची-ऊँची प्रचंड लपटें, कभी फुफकारते हुए बड़े-बड़े विशालकाय साँप...! यहाँ तक के अंगारों जैसी जलती हुई आँखों के साथ गरजते शेर, चिंघाड़ते हाथी और दूसरे हिंस्र जंगली जानवर भी। जैसे अभी झपट पड़ेंगे और मौत के गाल में पहुँचा देंगे।
एक के बाद एक सात समंदर भीषण आपदाओं के!...और राजकुमार का जी थर-थर, थर-थर, थर-थर। पर उसने बड़ी हिम्मत और दिलेरी से एक-एक कर सातों समंदर पार किए। बीच-बीच में डरा, काँपा, लेकिन जूझा भी हर एक विपत्ति से। फिर एक ऐसे द्वीप पर आ पहुँचा, जहाँ सोने जैसे बालों वाली सुंदर राजकुमारी सोनबाला क़ैद थी। उसकी आँखों में करुण याचना, जिसने राजकुमार को द्रवित कर दिया और फिर सोनबाला को कैदखाने से छुड़ाने की मुहिम ने उसे एक भीषण राक्षस के आगे ला खड़ा किया, जिसका भयानक अट्टहास ही धरती को कँपा देता था।
पर राजकुमार गया उस राक्षस की गुफा में और इतनी बहादुरी से भिड़ा कि राक्षस धड़ाम से गिरा...और एक ज़ोर की चीख के साथ ही उसका सारा तिलिस्म ख़त्म! कहानी का नायक राजकुमार राजकुमारी को लेकर लौटता है तो उसके चेहरे पर विजेता होने की जो चमक है, जान पर खेलकर भी कुछ हासिल करने की चमक, वह कहानी सुनते समय हमारे दिल और आँखों में भी एक ख़ुशी की कौंध भर देती थी और कहानी पूरी होने पर जो मीठा-सा सुकून मन में उपजता था, उसे भला मैं किन शब्दों में बताऊँ? कैसे बताऊँ...!
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि कहानी सुनते हुए हर पल मेरी साँस अटकी रहती। लगता, आँधियों के बीच फँसा वह राजकुमार मैं हूँ। मैं ही हूँ। उसके साथ कुछ बुरा घटता तो मन बुरी तरह तड़पने लगता। मैं अंदर ही अंदर छटपटाता और उसकी बेहद-बेहद मुश्किलों से भरी किसी छोटी-सी जीत पर भी आँख में आँसू आ जाते। ऊपर आसमान की ओर हाथ जोड़कर कहता, “ओह, बच गया राजकुमार, बच गया...! हे राम जी, बड़ी कृपा है तुम्हारी। आख़िर तुमने उस सच्चे और हिम्मती राजकुमार को बचा ही लिया।”
यह कहानी थी। कहानी का जादू...! मेरा रोयाँ-रोयाँ उस समय कहानी की गिरफ्त में होता।
मैं कहानी सुन नहीं रहा होता था। उसके भीतर चला जाता था। कहानी में समा जाता था। बल्कि सच तो यह है कि मैं कहानी में और कहानी मुझमें समा जाती थी। उस समय आसपास की दुनिया और लोगों से बहुत ऊपर उठ जाता था मैं और देर तक हवा में चक्कर काटता रहता। बड़ी देर लगती थी मुझे वास्तविक ज़मीन पर पैर रखने में और सच पूछिए तो इसके लिए काफ़ी प्रयत्न करना पड़ता था और ये बड़े कष्टकर क्षण होते थे मेरे लिए।
यों एक नहीं, कई निराली और अबूझ दुनियाएँ मेरे आगे खुलती चली गईं और मैंने जाना—बड़े ही अचरज के साथ यह जाना कि जो दुनिया हमारे आसपास है और जिसे हम हर घड़ी देखते हैं, अकेली वही दुनिया नहीं है। बल्कि इस दुनिया के भीतर बहुत सारी दुनियाएँ हैं और उन दुनियाओं के भीतर और बहुत-सी दुनियाएँ। तमाम रंगों और रहस्यों और अबूझ जिज्ञासाओं से भरी दुनियाएँ, जिन्हें जाने बिना हम अधूरे ही रहते हैं।
यह मेरा पुनर्जन्म था। छल-छल भावना और संवेदना वाले कुक्कू का पुनर्जन्म। तभी पहलेपहल जाना कि दिल में गहरी संवेदना हो, तो वह भीतर एक टीस ही पैदा नहीं करती, कई बार तो कलेजा चीर जाने वाले तीर की तरह आपको घायल कर देती है और आप मछली की तरह तड़पने के लिए छूट जाते हैं।...
इस अनुभव को चाहूँ भी तो बाँट नहीं सकता। चाहूँ भी तो किसी को बता नहीं सकता। पर यही अनुभव था, जिसके कारण मैं अपने आप को औरों से अलग और भीतर-बाहर से भरा-भरा-सा महसूस कर रहा था।
क्या यही मेरे लेखक होने की पृष्ठभूमि नहीं थी?
आज सोचता हूँ, यह सब कैसे संभव होता, अगर राजकुमार सातवीं कोठरी का दरवाज़ा न खोलता तो...? बाक़ी छह कोठरियों के दरवाज़े तो हर कोई खोलता है, पर सातवीं कोठरी का दरवाज़ा कोई-कोई ही खोलता है और वही शायद अपने समय का नायक भी होता है।