मैं और मेरी कहानी / भाग 3 / प्रकाश मनु
मुझे याद है, बरसों पहले एक साहित्यिक मित्र ने मुझसे सवाल किया था कि “मनु जी, जिस परिवार के आप हैं, उसमें जन्म लेकर भी आप लेखक कैसे बने?”
मित्र का सवाल सुनकर मैं एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर कहा, “भाई, इसका जवाब मैं बहुत जल्दी में, या दो-एक सतरों में नहीं दो सकता हूँ, इसलिए कि जवाब थोड़ा लंबा है।”
लेकिन सवाल मेरे भीतर गड़ गया और उस दिन से मैंने सोचना शुरू किया। सात भाई और दो बहनें। कुल नौ भाई-बहनों का बड़ा परिवार था हमारा। माता-पिता दोनों लगभग निरक्षर। मेरे परिवार में साहित्यकार होना तो दूर, कोई दूर-दूर तक भी साहित्य के निकट नहीं था। तो फिर मैं क्यों लेखक बना? कैसे...?
और जब मैं यह सोच रहा था, तो यही कहानी याद आ रही थी। मैं सोच रहा था, अगर इस कहानी का राजकुमार सातवीं कोठरी न खोलता तो जो रोमांचक चीजें उसके जीवन में घटित हुईं, वे कैसे होतीं? वह भी दूसरों की तरह एक सामान्य जीवन जीता और जीकर चला जाता। पर फिर कहानी कैसे बनती...? कहानी तो तभी बनती है, जब हम सारे ख़तरे उठाकर सातवीं कोठरी खोलते हैं और फिर एक से एक दिल को कँपा देनी वाली भीषण घटनाएँ घटती हैं, मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़ते हैं, मन लगातार एक भीतरी द्वंद्व के बीच से गुजरता है। बुरी तरह टूट-फूट। आत्मध्वंस...!
कई बार तो लगता है, अपने-पराए सब साथ छोड़ गए। अकेलापन, विवशता, लाचारी। कभी बुरी तरह पराजय और बेचारगी का अहसास भी। पर इन्हीं सब के बीच ही तो एक नवारुण प्रभात सूर्य की तरह जीवन का सत्य चमकता है और जीवन में वह आनंद भी महसूस होता है, जो किसी क़दर योगियों की समाधि से कम नहीं है और दुनिया की बड़ी से बड़ी दौलत के आगे भी जो हेठा नहीं पड़ता। यह मनुष्य का मनुष्य होना है, एक आदमकद मनुष्य...!
कभी-कभी लगता है, यही शायद मेरे लेखक और कहानीकार होने का भी सच है। याद पड़ता है, अपने छात्र-जीवन में मैं बहुत होशियार विद्यार्थी माना जाता है। हर क्लास के सबसे अच्छे दो-तीन विद्याथियों में मेरा नाम चमकता था। माता-पिता और परिवार के लोगों का सोचना था कि मैं इंजीनियर बनूँ। मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कालेज इलाहाबाद में इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए चयन भी हो गया, पर मैंने बहाना बनाया कि नहीं, मैं प्रोफेसर बनूँगा। मुझे इंजीनियर नहीं होना। उसके बाद आगरा कालेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. पास की। पर यहाँ तक आते-आते लगा, जैसे मन के अंदर बैठा कोई कबीर कह रहा है, “साइंस के प्रोफेसर होकर तो तुम ज़िन्दगी भर चक्की के दो पाटों के बीच पिसते रहोगे, प्रकाश मनु। तो वह कब करोगे, जो करने के लिए तुम्हें भेजा गया है?”
तभी जैसे इलहाम हुआ, मुझे तो साहित्य करना है। एक लेखक का, साहित्यकार का जीवन जीना है और उसके लिए जो भी मुश्किलें आएँ, मुसीबतें आएँ, उन्हें मैं सहन करूँगा, लेकिन जीवन वही जिऊँगा, जो मेरे मन में है।
घर वालों से कहा तो उन्हें लगा, लड़का पागल हो गया है। इसलिए कि यह बिना कुछ आगा-पीछा सोचे, एक अथाह समंदर में कूद पड़ना था। वही एक क्षण था, जब लेखक होने का एक पूरा बिंब भीतर बना। लगा, अगर लेखक न हुआ तो जीना भी नहीं है। आधी रोटी ख़ाकर रहूँगा, पर बनूँगा लेखक ही।
बाद में हिंदुस्तान टाइम्स में आया तो हिन्दी के बड़े कहानीकार मटियानी जी से मुलाकात हुई और उनसे बहुत अंतरंगता भी हुई। वे जब भी मिलने आते, अपने बारे में बताते थे। बहुत-बहुत-सी बातें। बड़े दुख-दाह से भरी भी। तो उन दिनों उनकी अपनी कहानी ख़ुद उनके मुँह से सुनने को मिली। बहुत कठिन जीवन था उनका। एक अनाथ बच्चा, जिसके भीतर सपने थे। किशोरावस्था में कसाई का काम करना पड़ा। पर उन्हीं दिनों थोड़ा-थोड़ा लिखना भी उन्होंने शुरू कर दिया था। एक दिन कसाई की दुकान पर कीमा कूट रहे थे, तो बगल से गुजरते, किसी शख़्स ने बड़ा तीखा और काटने वाला व्यंग्य किया, “देखो, सरस्वती तक कीमा कूटा जा रहा है...!”
मटियानी जी तिलमिलाए। इतना गुस्सा आया कि लगा, दीवार से सिर दे मारें। भीतर गहरी छटपटाहट। उस रात सोने से पहले वे देर तक दीवार में अपना सिर मार-मारकर पुकारते रहे, “हे सरस्वती माँ, मुझे चाहे जितने दुख, चाहे जितनी तकलीफें देना, पर मुझे लेखक बनाना!...मैं बस, लेखक ही बनना चाहता हूँ, कुछ और नहीं।”
जितनी-जितनी उनकी ज़िन्दगी में मुसीबतें आतीं, उतनी ही उनके भीतर यह पुकार गहरी होती जाती। तरुणाई में उनके मुंबई प्रवास की तकलीफदेह कहानी पता नहीं कितनों ने पढ़ी है। पर वह एक समूची दिल दहला देने वाली गाथा है। उन्हें लगता, अच्छा है कि दुख और संकट मुझ पर टूट पड़े और एक के बाद एक तकलीफें आईं। अच्छा है कि मुझे भूखा रहना पड़ा और मैंने पुलिस के डंडे तक खाए। पर अच्छा है...! इसलिए कि जितनी ज़्यादा तकलीफें आएँगी, उतनी ही मेरे शब्दों में गहरी पुकार आएगी और मैं और-और अच्छा लिखूँगा।
और सच ही, मटियानी जी की कहानियों का असर कितना गहरा होता है, दिलों में उनकी कैसी गहरी गूँज पैदा होती है, यह आप देश के हर हिस्से में मौजूद उनके हजारों पाठकों से जान सकते हैं। प्रेमचंद के बाद हिन्दी का शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार हो, जिसकी कहानियों को इतने पाठक मिले। पर क्या हम भूल सकते हैं कि मटियानी जी ने किन हालात में लिखा और वे क्या चीजें थीं, जो उन्हें लेखक बना रही थीं?
मैं जब मटियानी जी से उनकी कहानी सुन रहा था, उनके लेखक होने की कहानी, तो मुझे बचपन में माँ से सुनी कहानियाँ याद आ रही थीं। फिर-फिर अधकू याद आ रहा था। एक हाथ, एक पैर वाला अधकू, जिसने बड़े-बड़ों को चुनौती दी और अपनी दुनिया बदलकर दिखा दी।...मैं भी तो शरीर से दुबला-पतला-सा ही था। तिनके जैसा। पर मन बड़ा था। इसलिए अधकू मुझ पर छा गया। बाद में लिखना शुरू किया तो सोचता था कि लिखूँगा तो चीजें बदलेंगी। कुछ थोड़े से लोग तो होंगे जो पढ़ेंगे और अंदर तक महसूस करेंगे। बहुत ज़्यादा नहीं, तो दो-चार ही सही। बहुत है। किसी एक ने भी उसी भाव से पढ़ा, जो भाव कहानी लिखते समय आपके भीतर जनमा था, तो यही बहुत है।
और ऐसा होता है...! यही शायद सच्चाई की ताकत है। यही लेखन की ताकत और सार्थकता भी है।