मैं और मेरी कहानी / भाग 4 / प्रकाश मनु

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पर बात तो कहानियों की हो रही थी।

मुझे याद है बचपन में अक्षर-ज्ञान के बाद जब क, ल और म को मिलाकर क़लम बना लेने का जादू मैंने जाना, उस दिन मेरी दुनिया में जैसे सबसे बड़ा चमत्कार हुआ था। कहीं भी अक्षर दिखाई देते, दीवार पर, अख़बार में, किताबों में, या दुकानों के आगे लगे बड़े-बड़े साइनबोर्डों पर, तो मैं उन्हें मिलाकर पढ़ने लगता। एक अतृप्त प्यास, जो एक बार भड़क गई, तो शांत होने का नाम ही नहीं ले रही थी। पढ़ना पढ़ना और पढ़ना...! इसके अलावा कुछ सूझता ही न था। लगता था, मैं पागल हो गया हूँ, अक्षर पागल...। एक अजब-सा दीवानी।

मुझमें पढ़ने-लिखने की रुचि देखी तो श्याम भैया मेरे लिए चंद्रशेखर आज़ाद , भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस की जीवनियाँ ले आए। मैंने उन्हें पढ़ा तो मन में एक अलग-सी भावना पैदा हुई। जीवन में कुछ कर गुजरने की भावना और यह भी कि कोई बड़ा उद्देश्य सामने हो तो आप अपना पूरा जीवन हँसकर दे देते हैं, देवता के चरणों में रखे गए किसी फूल की तरह और जब आप अपने को समूचा दे देते हैं, तो आप बड़े भी हो जाते हैं। एक महत्तर दुनिया का अंश। यह कितने आनंद की बात है। सचमुच, कितनी बड़ी बात!...

फिर एक दिन श्याम भाईसाहब मेरे लिए वे जो पुस्तक लाए, उसने तो मेरी ज़िन्दगी ही बदल दी। वह प्रेमचंद की कहानियों की किताब थी। किताब का नाम था, ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’। उसमें ‘ईदगाह’, ‘दो बैलों की कथा’ समेत कई कहानियाँ बड़ी रुचि और आनंद से पढ़ गया। पर जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी तो मैं हक्का-बक्का। सचमुच अवाक! मैंने अपने आप से कहा, “अरे, यह तो मेरे श्याम भैया की कहानी है। भला पेमचंद को कैसे पता चली...?”

उस दिन और कुछ हुआ हो या नहीं, पर मैंने कहानी की ताकत ज़रूर जान ली। एक की लिखी कहानी किसी जादू-मंतर से सबकी कहानी हो जाती है। एक के दिल में कुछ उमड़ता हो और वह उसे वैसे ही ज़िंदा और दमदार शब्दों में ढाल दे, तो जितने भी उसे पढ़ते हैं, सबके दिल में वही घुमड़ता है। मुझे लगा, “अरे, यह तो दुनिया का सबसे बडा जादू है। महान करिश्मा! और यह साहित्य में घटित होता है, कहानी में। वाह, कैसा कमाल है?”

बाद में प्रेमचंद की और कहानियाँ पढ़ीं। उनके उपन्यास ‘गबन’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’ पढ़े, ‘गोदान’ पढ़ा, शरत, रवींद्रनाथ के उपन्यास पढ़े। उन दिनों हिंद पाकेट बुक्स से हिन्दी साहित्य की बड़ी अच्छी किताबें आती थीं। एक-एक रुपए में संक्षिप्त रूपांतरण मिल जाते थे। कोई-कोई दो रुपए में। तब यह भी समझ न थी कि प्रेमचंद हिन्दी के हैं, शरत, रवींद्र, बंकिम बंगला के। इसकी शायद कोई ज़रूरत भी न थी। सवाल तो कहानी का था, कहानी जो दिल को छूती है, हर किसी के दिल को छूती है—सभी सीमाओं से परे। दुनिया के तमाम देशों की सरहदों से परे। कहानी में भी कहानी थी, उपन्यास में भी कहानी थी। मैं पढ़ता था और रोता था, रोता था और पढ़ता था।

विश्व की इन महान और विलक्षण कृतियों में बीच-बीच में मनुष्य के भावनात्मक सम्बंधों के इतने करुण प्रसंग थे कि बिना रोए मैं पढ़ ही नहीं सकता था। हालाँकि कुछ समझ में आता था, कुछ नहीं। पर जो समझ में आता था, उसके सहारे जो चीज नहीं समझ में आती थी, उसके भी अर्थ खुलते जाते थे और हाथ में किताब लिए मैं जान लेना चाहता था कि आगे क्या हुआ, आगे क्या, आगे क्या...?

कई बार तो पढ़ते-पढ़ते ऐसे करुण प्रसंग आ जाते कि आँखों से लगातार गंगा-जमुना बहती। एक हाथ में किताब पकड़े, दूसरे से मैं आँसू पोंछता जाता और आगे पढ़ता जाता। पढ़ते-पढ़ते कई बार ज़ोर से रोना छूट जाता, पर तब भी किताब के पन्ने पलटता जाता, क्योंकि यह जाने बिना निस्तार न था कि आगे क्या हुआ, आगे...?

उन दिनों घर में बिजली न थी। लालटेन जलाई जाती। पर पूरे घर में दो-तीन ही लालटेनें होती थीं। तो मैं जो छत पर पढ़ रहा होता, अकसर रात की स्याही गहराने तक, जब तक अक्षरों का अनुमान लगा सकता था, पढ़ता...पढ़ता और पढ़ता ही रहता, क्योंकि कहानी का डंक मुझे चुभ गया था और जितना अधिक पढ़ता, नशा और गहराता जाता। उसकी गिरफ्त और-और तेज होती जाती।

और शायद यही क्षण थे, जब जाने-अनजाने में मैं लेखक हुआ। भले ही उसका पता थोड़ा आगे चलकर लगा हो।

पर बात तो कहानियों की हो रही थी।...

मुझे याद है बचपन में अक्षर-ज्ञान के बाद जब क, ल और म को मिलाकर क़लम बना लेने का जादू मैंने जाना, उस दिन मेरी दुनिया में जैसे सबसे बड़ा चमत्कार हुआ था। कहीं भी अक्षर दिखाई देते, दीवार पर, अख़बार में, किताबों में, या दुकानों के आगे लगे बड़े-बड़े साइनबोर्डों पर, तो मैं उन्हें मिलाकर पढ़ने लगता। एक अतृप्त प्यास, जो एक बार भड़क गई, तो शांत होने का नाम ही नहीं ले रही थी। पढ़ना पढ़ना और पढ़ना...! इसके अलावा कुछ सूझता ही न था। लगता था, मैं पागल हो गया हूँ, अक्षर पागल...। एक अजब-सा दीवानी।

मुझमें पढ़ने-लिखने की रुचि देखी तो श्याम भैया मेरे लिए चंद्रशेखर आज़ाद , भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस की जीवनियाँ ले आए। मैंने उन्हें पढ़ा तो मन में एक अलग-सी भावना पैदा हुई। जीवन में कुछ कर गुजरने की भावना और यह भी कि कोई बड़ा उद्देश्य सामने हो तो आप अपना पूरा जीवन हँसकर दे देते हैं, देवता के चरणों में रखे गए किसी फूल की तरह और जब आप अपने को समूचा दे देते हैं, तो आप बड़े भी हो जाते हैं। एक महत्तर दुनिया का अंश। यह कितने आनंद की बात है। सचमुच, कितनी बड़ी बात!...

फिर एक दिन श्याम भाईसाहब मेरे लिए वे जो पुस्तक लाए, उसने तो मेरी ज़िन्दगी ही बदल दी। वह प्रेमचंद की कहानियों की किताब थी। किताब का नाम था, ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’। उसमें ‘ईदगाह’, ‘दो बैलों की कथा’ समेत कई कहानियाँ बड़ी रुचि और आनंद से पढ़ गया। पर जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी तो मैं हक्का-बक्का। सचमुच अवाक! मैंने अपने आप से कहा, “अरे, यह तो मेरे श्याम भैया की कहानी है। भला पेमचंद को कैसे पता चली...?”

उस दिन और कुछ हुआ हो या नहीं, पर मैंने कहानी की ताकत ज़रूर जान ली। एक की लिखी कहानी किसी जादू-मंतर से सबकी कहानी हो जाती है। एक के दिल में कुछ उमड़ता हो और वह उसे वैसे ही ज़िंदा और दमदार शब्दों में ढाल दे, तो जितने भी उसे पढ़ते हैं, सबके दिल में वही घुमड़ता है। मुझे लगा, “अरे, यह तो दुनिया का सबसे बडा जादू है। महान करिश्मा! और यह साहित्य में घटित होता है, कहानी में। वाह, कैसा कमाल है?”

बाद में प्रेमचंद की और कहानियाँ पढ़ीं। उनके उपन्यास ‘गबन’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’ पढ़े, ‘गोदान’ पढ़ा, शरत, रवींद्रनाथ के उपन्यास पढ़े। उन दिनों हिंद पाकेट बुक्स से हिन्दी साहित्य की बड़ी अच्छी किताबें आती थीं। एक-एक रुपए में संक्षिप्त रूपांतरण मिल जाते थे। कोई-कोई दो रुपए में। तब यह भी समझ न थी कि प्रेमचंद हिन्दी के हैं, शरत, रवींद्र, बंकिम बंगला के। इसकी शायद कोई ज़रूरत भी न थी। सवाल तो कहानी का था, कहानी जो दिल को छूती है, हर किसी के दिल को छूती है—सभी सीमाओं से परे। दुनिया के तमाम देशों की सरहदों से परे। कहानी में भी कहानी थी, उपन्यास में भी कहानी थी। मैं पढ़ता था और रोता था, रोता था और पढ़ता था।

विश्व की इन महान और विलक्षण कृतियों में बीच-बीच में मनुष्य के भावनात्मक सम्बंधों के इतने करुण प्रसंग थे कि बिना रोए मैं पढ़ ही नहीं सकता था। हालाँकि कुछ समझ में आता था, कुछ नहीं। पर जो समझ में आता था, उसके सहारे जो चीज नहीं समझ में आती थी, उसके भी अर्थ खुलते जाते थे और हाथ में किताब लिए मैं जान लेना चाहता था कि आगे क्या हुआ, आगे क्या, आगे क्या...?

कई बार तो पढ़ते-पढ़ते ऐसे करुण प्रसंग आ जाते कि आँखों से लगातार गंगा-जमुना बहती। एक हाथ में किताब पकड़े, दूसरे से मैं आँसू पोंछता जाता और आगे पढ़ता जाता। पढ़ते-पढ़ते कई बार ज़ोर से रोना छूट जाता, पर तब भी किताब के पन्ने पलटता जाता, क्योंकि यह जाने बिना निस्तार न था कि आगे क्या हुआ, आगे...?

उन दिनों घर में बिजली न थी। लालटेन जलाई जाती। पर पूरे घर में दो-तीन ही लालटेनें होती थीं। तो मैं जो छत पर पढ़ रहा होता, अकसर रात की स्याही गहराने तक, जब तक अक्षरों का अनुमान लगा सकता था, पढ़ता...पढ़ता और पढ़ता ही रहता, क्योंकि कहानी का डंक मुझे चुभ गया था और जितना अधिक पढ़ता, नशा और गहराता जाता। उसकी गिरफ्त और-और तेज होती जाती।

और शायद यही क्षण थे, जब जाने-अनजाने में मैं लेखक हुआ। भले ही उसका पता थोड़ा आगे चलकर लगा हो।