मैं और मेरी कहानी / भाग 5 / प्रकाश मनु
अलबत्ता अपनी कोई चालीस बरस लंबी कथा-यात्रा पर निगाह डालता हूँ तो मन में संतोष के साथ ही एक विस्मयजनक आह्लाद का भाव उपजता है। इसलिए भी कि मेरी कहानियाँ कहानी के बने-बनाए रास्ते पर चलने से एकदम शुरू से ही इनकार करती रही हैं। यह दीगर बात है कि जब ये कहानियाँ छपकर आईं—चाहे पत्र-पत्रिकाओं में या मित्रो विजयकिशोर मानव और देवेंद्रकुमार के साथ निकाले गए साझे संग्रह ‘दिलावर खड़ा है’ में, तो इन्हें सराहने वाले पाठक कहाँ-कहाँ मिले, उनकी अलग-अलग ढंग की उत्तेजक प्रतिक्रियाएँ कैसी थीं, इसकी चर्चा शायद ख़ुद एक कहानी बन जाए।
हाँ, इन प्रतिक्रियाओं में एक बात आश्चर्यजनक रूप से मिलती-जुलती और साझी थी कि इनमें से सभी को लगा था कि ये कहानियाँ एकदम सच्ची हैं। इन कहानियों के पात्र एकदम सच्चे हैं और ये कहानियाँ मेरी आत्मकथा के अनलिखे पन्नों में से चुपके-चुपके निकलकर आई हैं।
बहुत-से मित्रो और पाठकों ने तो इन कहानियों को मेरे जीवन में सच-सच इसी रूप में घटित हुआ मानकर, उन पात्रों के बारे में और भी बहुत-सी बातें दरियाफ्त करनी चाहीं। मसलन, “मनु जी, अरुंधती क्या आपको फिर कभी मिली?... क्या वह अब भी उसी तरह दुख और अकेलेपन का बोझ ढो रही है?” “सुकरात क्या सचमुच उसी तरह कुरुक्षेत्र में रेल की पटरियों पर कटा हुआ पाया गया था, जैसा आपने लिखा है?... क्या आपको उसके बारे में कुछ और पता चला कि वह क्यों इतने गुस्से में हरदम गालियाँ बकता रहता था और कहाँ से आया था?”...
ऐसे और भी सवाल। कुछ बेहद तीखे भी और कुछ बेहद दिलचस्प! इनमें से बहुतों के जवाब में सिर्फ़ हँसकर रह जाना ही काफ़ी था, क्योंकि उन्होंने इन कहानियों के नायक को हटाकर पूरी तरह मुझे वहाँ फिट कर दिया था और अब वे हर चीज की कैफियत मुझसे चाहते थे। जबकि सच तो यह है कि वे आत्मकथात्मक कहानियाँ भले ही हों—और मेरी आत्मकथा के पन्ने किसी न किसी शक्ल में वहाँ ज़रूर फड़फड़ा रहे थे—पर ये कहानियाँ पूरी तरह आत्मकथा न थीं, हो भी नहीं सकती थीं। तो भी ये कहानियाँ पाठकों को एकदम सच्ची और जीवन में ठीक-ठीक ऐसे ही घटित होती हुई लगीं, इसे इन कहानियों की एक अलग खासियत तो मान ही सकता हूँ।
मेरे कथा-गुरु दिग्गज कथाशिल्पी देवेंद्र सत्यार्थी ने शुरुआती दौर की लिखी मेरी ‘यात्रा’ कहानी सुनने के बाद जिस तरह मुग्ध और अभिभूत होकर आशीर्वाद दिया था और कहानियाँ लिखने की अपनी ही लीक पर चलते रहने का जो बल दिया था, उसे भूल पाना असंभव है। साथ ही उन्होंने कहानी को लेकर कबीर की उलटबाँसी की तरह जो बड़ी कमाल की बात कही, वह मुझे आज भी कहानी के बड़े से बड़े शास्त्रीय सिद्धांतों से बड़ी लगती है कि—“याद रखो मनु, कहानी सिर्फ़ तुम ही नहीं लिखते, बल्कि कहानी भी तुम्हें लिखती है। इसीलिए कहानी लिखने के बाद तुम वही नहीं रहते, जो कहानी लिखने से पहले थे।”
जितना-जितना इस कथन के बारे में सोचता हूँ, उतना ही भीतर उजाला-सा होता जाता है। जैसे कुछ अंदर की गहरी, बहुत गहरी सच्चाइयाँ सामने आ रही हों। कोई बड़ी बात कही जाती है, तो कैसे चीजों के नए-नए अर्थ खुलते हैं, यह मैंने सत्यार्थी जी के इस कथन के साथ-साथ बहुत बार भीतरी नदी की यात्राएँ करते हुए जाना।
ईशावास्योपनिषद् का एक प्रसिद्ध मंत्र है, जो मुझे किशोर वय से ही बहुत आकर्षित करता रहा है—
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम,
तत् त्वम् पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रष्टये।
अर्थात—सत्य का मुख सोने के पात्र से ढका हुआ है। हे तेजस्वी सूर्य, मुझ सत्य और धर्म के साधक के लिए तू आवरण हटाकर, मुझे सत्य के दर्शन करा।
आश्चर्य, सत्यार्थी जी की बात पर विचार करता हूँ तो ईशावास्योपनिषद् का यह मंत्र मुझे बार-बार याद आता है। पर यह तो किसी सत्यसाधक का आत्मकथन है। तो क्या कहानी का सत्य भी सृष्टि के महासत्य से अलग नहीं? और वह क्यों हो! आख़िर कहानी भी तो एक सृष्टि ही है न। एक विलक्षण कथासृष्टि...! तो क्या उसका सत्य भी हिरण्मयेन पात्र से ढका रहता है और कथागुरु देवेंद्र सत्यार्थी सरीखा कोई बड़ा शख्स, कोई बड़े कद का कथाकार अपने किसी बड़े अनुभव को शब्दों में बाँधता है, तो वह परत-दर-परत खुलने लगता है।
इससे पहलेपहल यह भी जाना कि कोई कहानी भी, अगर वह सच में कहानी है, तो अपने आप में एक खोज है। भाषा और अनुभव के स्तर पर एक बड़ी खोज और वह सबसे पहले तो ख़ुद लेखक को ही समृद्ध करती है। शायद इसीलिए कहा था मेरे गुरु और कथाशिल्पी सत्यार्थी जी ने कि कहानी लिखने के बाद आप ठीक-ठीक वही नहीं रहते, जो कहानी लिखने से पहले थे। आप भीतर-बाहर से बहुत कुछ बदल चुके होते हैं।
कुछ भी हो, सत्यार्थी जी के इस महा कथन ने मुझे बहुत सारी विलक्षण अंतर्यात्राओं से जोड़ दिया और हर यात्रा मेरे लिए कुछ बड़ी और गहन उपलब्धियाँ लेकर आई।
इसी तरह सत्यार्थी जी ने मुझे कहानी के एक और विराट सत्य का दर्शन कराते हुए कहा, “अगर तुममें कहानी को देखने की दृष्टि है, तो तुम देखोगे मनु, तुम्हारे सब ओर कहानियाँ ही कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। बस, उन्हें तुम्हारी क़लम के स्पर्श की प्रतीक्षा है। तुम उन्हें प्यार से उठाओ और लिखना शुरू कर दो। वे देखते ही देखते तुम्हारे सामने हँसते-बोलते, चहचहाते या फिर उदास रंगों वाले जीवित संसार में बदल जाएँगी।”
बेशक सत्यार्थी जी की यह बात भीतर उत्साह पैदा करती थी और लगातार मुझमें एक आत्मान्वेषण चल पड़ा था।
हालाँकि सत्यार्थी जी से भी बहुत पहले वल्लभ जी ने मेरे कथा-संसार को बड़े प्रेम से सींचा था। बड़े ही पढ़ाकू और उस्ताद कहानीकार वल्लभ सिद्धार्थ, जिनकी कहानियों की उन दिनों धूम थी, मुझ पर छा गए थे।...असल में जिन दिनों मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध कर रहा था, वल्लभ जी अकसर हमारे विश्वविद्यालय में आया करते थे और हम रिसर्च स्कालर्स के छात्रावास, टैगोर हॉस्टल में ही वे ब्रजेश भाई के साथ रुकते थे। तब पहलेपहल उन्हें जाना और उनकी कहानियों के जरिए ही बहुत यात्राएँ भीतर-बाहर की हुईं। घंटों उनके रचनात्मक संग-साथ से अंदर बहुत कुछ प्रकाशित होता चला गया।
कहानियाँ लिखता तो पहले से ही था, पर वल्लभ जी से मिलने के बाद खुद-ब-खुद बहुत कुछ बदलता चला गया और फिर कुछ अरसा बाद तो अंदर से कहानियों का जैसे एक सोता ही फूट पड़ा। मेरा शोध पूरा होने के बाद भी, जब मैं कुरुक्षेत्र में किराए के मकान में रहता था, वल्लभ जी से निरंतर मुलाकातें होती रहीं और मेरी कहानियों को वे खासी रुचि से देखते थे। अपनी विस्तृत राय भी बताते।
याद पड़ता है, बरसों बाद—जब मैं हिंदुस्तान टाइम्स में आ चुका था, फिर तेजी से कहानियाँ लिखने का सिलसिला चला। मेरा पहला कहानी-संग्रह ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ छपा, तो मैंने वह वल्लभ जी को भिजवाया। कुछ अरसे बाद संग्रह की शीर्षक कथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ पढ़कर उन्होंने जो पत्र लिखा था, उसे पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा था। उन्होंने लिखा था, ‘अंकल को विश नहीं करोगे’ उन्हें इस बुरी तरह बेचैन करने वाली पाँच-सात कहानियों में से एक है और—“मनु, तुमने कम से कम एक ‘बड़ी’ कहानी लिखी है!”
वल्लभ जी की तरह ही मेरे बहुत-से कहानीकार मित्रो को यह कहानी इस क़दर प्रिय है कि बरसों बाद मिलने पर आज भी कहीं न कहीं, कभी न कभी इसकी चर्चा छिड़ ही जाती है। मेरे साहित्यिक मित्रो में श्रवणकुमार और डा. माहेश्वर भी इस कहानी की बहुत प्यार से चर्चा करते थे। श्रवणकुमार ने मेरी कहानी ‘एक सुबह का महाभारत’ का अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया था। फिर उन्हीं के संपादन में यह अंग्रेज़ी के एक कथा-संचयन में भी आई।
मेरी लंबी कहानी ‘टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की कहानी’, याद पड़ता है, डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार जैसे प्यारे लेखक-मित्रों के बीच हिंदुस्तान टाइम्स की कैंटीन में पढ़ी गई, तो कहानी सुनते हुए डॉ. माहेश्वर के आँसू छलछला आए थे। कहानी बीच में रोकनी पड़ी थी और एक अंतराल के बाद वह फिर शुरू हुई। इस लंबी कहानी के पूरे होते-होते रात घिर आई थी। मैंने डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार दोनों मित्रो से क्षमा माँगते हुए कहा, “माफ करें, कहानी बहुत लंबी थी। इस वजह से आपको देर हो गई।”
इस पर डॉ. माहेश्वर ने एक सीझी हुई हँसी के साथ कहा था, “दोस्त, यही तो तुम्हारी अदा है कि जिस चीज का भी वर्णन करते हो, तुम उसके इतने बारीक से बारीक डिटेल्स देते जाते हो कि सुनने वाला ताज्जुब में पड़ जाता है। कितने लेखक हैं, जिनमें अपने पात्रों के भीतर इतनी गहराई में उतरने का धीरज है, तो तुम अपनी कहानी के लंबे होने से क्यों परेशान हो? प्रकाश मनु ऐसी कहानियाँ नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा?”
इसी तरह ‘अरुंधती उदास है’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अपराजिता की सच्ची कहानी’, ‘कुनु’, ‘प्रतिनायक’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’—ये सभी अलग-अलग मूड्स की कहानियाँ हैं। कहीं न कहीं मेरी आत्मकथा के पन्ने इनमें फड़फड़ा रहे हैं और इन पर अब भी इतनी ऊष्माभरी और अलग-अलग क़िस्म की प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं, तो पता लगता है, एक लंबे अरसे तक ‘भूमिगत’ रही, अंदर ही अंदर बहती मेरी कथा-यात्रा अकारथ तो नहीं गई। यों यह बात अपनी जगह सही है कि ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यासों की जबरदस्त चर्चा के कारण मेरे बहुत-से निकटस्थ मित्रों-लेखकों का ध्यान इस ओर न जाता, तो यह कथा-यात्रा अभी तक भूमिगत ही रहती।
अलबत्ता इसे मैं अपनी ख़ुशकिस्मती ही मानता हूँ कि ज़िन्दगी की टूटन, तल्ख़ी और हादसों के बीच अलग-अलग शक्लों में सामने आई मेरी इन कहानियों पर समय-समय पर पाठकों की बड़ी आत्मीय और भावुक कर देने वाली प्रतिक्रियाएँ मिलती रहीं। बहुत-से पाठकों का कहना था, “आपकी कहानियों का अनौपचारिक अंदाज़ हमें पसंद है। आप अपने साथ बहा ले जाते हैं और एक बार पढ़ने के बाद आपकी कहानियाँ हमेशा के लिए हमारे साथ हो लेती हैं।”
ऐसे ही ‘एक सुबह का महाभारत’, ‘कुनु’, ‘नंदू भैया की कहानी’, ‘एक बूढ़े आदमी के खिलौने’ पढ़कर लिखे गए पत्रों में उस भावनात्मक संवाद के अक्स मिले, जिसमें आत्म और पर के बीच के फासले ग़ायब हो जाते हैं और कुछ अरसा पहले ‘साहित्य अमृत’ में छपी ‘जोशी सर’ कहानी पढ़कर जो भावुक कर देने वाले पत्र मिले, उनमें सभी का कहना था, “मनु जी, आपने हमारे बहुत प्यारे अध्यापक की याद दिला दी...!” कुछ ने तो बड़ी संजीदगी से अपने उन प्रिय अध्यापक के बारे में लिखकर भी भेजा, जिसे ‘जोशी सर’ कहानी पढ़कर उन्होंने बेतरह याद किया।