मैं और मेरी कहानी / भाग 6 / प्रकाश मनु
मेरी बहुचर्चित लंबी कहानियों में ‘मिसेज मजूमदार’ भी है, जिसमें एक बंगाली स्त्री की विचित्र क़िस्म की रुक्षता और निर्ममता है, जिससे पड़ोस का परिवार करीब-करीब आक्रांत हो उठता है। उसे मिसेज मजूमदार एक ऐसी मोटी खाल वाली स्त्री लगती है, जिसके भीतर करुणा और संवेदना का नामोनिशान नहीं है। तिस पर उसकी अजीब-सी सनकें और कर्कशता उसे मोहल्ले में लगभग सभी की घृणा का पात्र बना देती है। पर कहानी के अंत में उसकी दीनता और असहायता की जो अचीन्ही छवियाँ उभरती हैं, उससे एक और ही मिसेज मजूमदार सामने आती है, जो सचमुच करुणा की पात्र हैं।
कहानी का अंत आते-आते मिसेज मजूमदार के दुख, करुणा और असहायता का चित्रण करते हुए, ख़ुद मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी और किस पीड़ा और वेदना से भरकर मैंने डबडबाई आँखों से उसे आखिरी छोर तक पहुँचाया था, इसकी याद आज फिर मुझे भावुक बना रही है।
‘गंगा चौकीदारनी की कथा’ भी एक ऐसे स्त्री पात्र पर लिखी गई कहानी है, जिसको दर्जनों बार बहुत पास से देखा। हर बार कुछ न कुछ अलग और बदला हुआ उसका रूप। कुछ-कुछ अबूझ, रहस्यपूर्ण और मायावी भी। लेकिन कुछ ऐसा भी था, जो कभी नहीं बदला और उसी के भीतर से उसकी तरह-तरह की शक्लें और अक्स प्रकट हो जाया करते थे। हर बार कुछ-कुछ विमूढ़ और हतप्रभ करते हुए। पर उसकी कथा में एक ऐसी अबूझ करुणा का बारीक-सा धागा है, जो निरंतर चलता जाता है और उसके साथ ही नए-नए पड़ावों से गुजरती गंगा चौकीदारनी की कथा नई-नई भंगिमाओं में आगे बढ़ती जाती है और एक ‘अंतहीन अंत’ तक पहुँचती है।
यों उस स्त्री की ज़िन्दगी में बहुत पड़ाव आए, अच्छे-बुरे सब तरह के। पर हर हाल में उसकी दीनता प्रकट हुए हुए बिना न रहती और मेरी यह लंबी कहानी कमोबेश उसी से बावस्ता है और उसी ने मन में यह कहानी लिखने की तड़प पैदा की।
‘तुम कहाँ हो नवीन भाई’, ‘प्रतिनायक’ और ‘अंधी गुफा का मसीहा’ कहानियाँ साहित्यिक दुनिया के भीतरी अँधेरों की कहानियाँ हैं और अपने कुछ अलग और विशिष्ट ढंग से उन शक्लों को उजागर करती हैं, जो शायद बहुतों के लिए अनजानी और विस्मयजनक होंगी। थोड़ी चौंकाने वाली भी। स्वयं मेरे लिए इन कहानियों को लिखना बेहद तकलीफ भरी, काली अँधेरी सुरंग से गुजरने जैसा मर्मांतक अनुभव था। जो दुनियादारी में कामयाब हैं, वे कैसे साहित्य और कलाओं की दुनिया में भी झटपट सफलताओं के शिखर पर पहुँचते हैं और जीवन भर ख़ुद से और हालात से जूझने वाले लेखक के हिस्से यहाँ भी उपेक्षा, असफलता और नाकामयाबी ही आती है। यह चीज एक मनुष्य और कहानीकार के रूप में बार-बार मुझे विदग्ध करती है। तब भीतर से जो एक अज्ञात कराह और हाहाकार-सा फूटता है, उसे शब्दों का जामा पहनाना निस्संदेह बहुत दारुण पीड़ा भरे अनुभवों को फिर-फिर जीना था।
जाहिर है, यह तकलीफ बहुत तोड़ने वाली थी और इन कहानियों को बहुत अंदर तक टूट-फूटकर ही लिखा गया। लिहाज़ ा इन कहानियों को पढ़ना आज भी मुझे भीतर-बाहर से थरथरा देता है।
‘तुम याद आओगे लीलाराम’ मेरी आत्मकथात्मक कहानी है, जिसमें गर्दिश के दिनों की ऐसी तकलीफें हैं, जिन्हें कभी किसी से कहा या बाँटा नहीं जा सका। मेरे समय और जीवन का बहुत कुछ जो अभी तक अनकहा है, वह न जाने कैसे इस कहानी में खुद-ब-खुद ढलता चला गया और यह ऐसी कहानी है, जिसके बारे में मैं कह सकता हूँ कि इसमें आपको मेरी आत्मकथा के बहुत करुण पन्ने फड़फड़ाते मिलेंगे। मेरी आत्मकथा का यह भाग अभी सामने आया नहीं है, पर ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ में कुरुक्षेत्र के दिनों के दारुण कष्टों की तसवीर आप शायद बहुत विश्वसनीय रूप से देख पाएँगे।
‘तुम याद आओगे लीलाराम’ कहानी ही है, आत्मकथा नहीं। पर बेशक वह मेरी आत्मकथा से बहुत सटकर निकलती कहानी है। मेरे जीवन का यह वह दौर था, जब बहुत रोना आता था और आप रो भी नहीं पाते थे। अंदर-अंदर रुदन दबाकर जीना और इस हालत में भी मजबूती से क़लम पकड़े रहना, यह उस दौर की एक ऐसी खब्त है, जिसे मैं ताजिंदगी नहीं भूल सकता। उन दिनों इस हालत में भी जो कुछ लिखा गया, वह एक जलती भट्ठी के बीच बैठकर लिखने से कम न था।
अपने उस गर्दिशों भरे दौर को याद करता हूँ तो मानसिंह की काफ़ी याद आती है। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध के दौरान हिन्दी विभाग के पीयन भाई मानसिंह का प्यार, अपनत्व और दिलासे भरा साथ हमें निरंतर मिला। हमें, यानी मुझे और सुनीता को। रात-दिन काम और काम के बीच मानसिंह ने कड़क चाय पिलाकर हमें जीवंत रखा था। इससे भी अधिक उसके किस्से और कहानियाँ की अविरल वाग्धारा ने, जिनमें जीवन बोलता था। कहने को मानसिंह पीयन ही था। ज़्यादा पढ़ा-लिखा भी नहीं। पर उसकी चेतना मुझे बहुतेरे कथित भद्र जनों और दिन-रात किताबें घोकने वालों पढ़ाकुओं से कहीं अधिक उजली नज़र आई।
ऐसे मानसिंह की एक उजली-सी छवि मेरी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ में कहीं उतर आई है। कहानी में आते-आते बहुत कुछ बदल गया है। पर वह बुनियादी तौर से मानसिंह के चरित्र का विकास ही है और कहानी में मानसिंह को पहचानना मुश्किल नहीं है।
हिंदी के जाने-माने लेखक और प्रोफेसर शशिभूषण सिंहल भी उन दिनों कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में ही थी। कोई तीन बरस पहले ‘साहित्य अमृत’ में यह कहानी छपी तो उनका फ़ोन आया। कहानी की देर तक प्रशंसा करने के बाद उन्होंने कहा, “मानसिंह को हमने भी देखा तो था। पर उसका चरित्र इतना बड़ा है, यह तो मनु जी, पहली बार आपकी कहानी पढ़कर ही पता चला।”
अब मैं उनसे क्या कहता और कैसे समझाता कि अगर वे मेरी जगह खड़े होकर देखते, तभी समझ सकते थे कि मानसिंह क्या था। उनकी नज़र में वह एक पीयन था और मेरी नजरों में सोने के दिल वाला एक खरा इनसान। देखने के अलग-अलग ‘फ्रेम ऑफ रेफरेंस’ ने सब कुछ बदल दिया।
आज मानसिंह नहीं है, पर उसके लिए मन में जो गहरी कृतज्ञता का भाव है, उसे शब्दों में कैसे व्यक्त करूँ, मैं नहीं जानता। आज वह जिंदादिल शख़्स नहीं है, पर उसकी स्मृति को तो मैं प्रणाम कर ही सकता हूँ। उसकी निकटता में मैंने जीवन के जो गहरे पाठ पढ़े, उन्हें आज भी भूला नहीं हूँ और शायद कभी भूलूँगा भी नहीं।
‘आप कहाँ हैं जित्ते सर’ में मेरे मलोट के दिनों के अनुभव हैं और जो मुझे थोड़ा निकट से जानते हैं, वे जित्ते सर की चिंताओं और कशमकश में कहीं न कहीं ख़ुद मेरी व्यथा और बेचैनी ढूँढ़ ही लेंगे। कहानी का करुण अंत एक लेखक की उस त्रासदी को सामने रखता है, जिसमें एक ईमानदार, धुनी और जेनुइन लेखक अंत में एकदम अकेला होता जाता है। पूरी दुनिया में अकेला और बेतरह प्रेम करने वाले कुछ निकटस्थ जनों और अंतेवासी लोगों के सिवा कोई नहीं जान पाता कि वह कैसी परिस्थितियों में निरंतर टूटता चला गया। हालाँकि उसकी खुद्दारी, ज़िद और स्वाभिमान तब भी कम नहीं होता। उसे टूट-टूटकर मरना पसंद है, पर बहुत से दुनियादार लेखकों की तरह दूसरों की शर्त पर जीना और सफल होना नहीं।
‘एक और मोचीराम’ मेरी लंबी कहानियों में शायद सबसे अलग है, जिसमें मोचीराम का चरित्र खासा दिलचस्प भी है, ज़िन्दगी और जिंदादिली से लबरेज भी। इस कहानी के बारे में सिर्फ़ इतना कहना है कि जिस मोचीराम की यह कहानी है, उसकी भीतरी-बाहरी शक्लें मैंने बहुत करीब से देखी हैं। वह सिर्फ़ एक जूते ठीक करने वाला इनसान नहीं था, सच में एक कलाकार था, अभिनेता भी। इस कहानी में वह थोड़ा-थोड़ा उभरा है।
यों ‘एक और मोचीराम’ सिर्फ़ लंबी कहानी ही नहीं है, बल्कि उसमें एक सुर है, भीमसेन जोशी जैसा शास्त्रीय संगीत का एक अलग-सा और गहरा-गहरा-सा सुर, जिसके आरोह-अवरोह और आलोपों में कहीं न कहीं मेरी अपनी ज़िन्दगी और परिवेश की कशमकश भी जुड़ गई है। लिहाज़ ा इस कहानी में भी स्वभावतः मेरी आत्मकथा के पन्ने बिखरे हुए नज़र आ सकते हैं।
अंत में इधर लिखी गई अपनी ताज़ा कहानी ‘भटकती ज़िन्दगी का नाटक’ की चर्चा करने का मन है। मेरे बहुत प्रिय कवि विष्णु खरे जब हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष बने, तो उन्होंने ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ का कहानी विशेषांक निकालने की योजना बनाई। इस विशेषांक के लिए उन्होंने आग्रहपूर्वक कहानी माँगी तो मैंने उन्हें बताया कि “मेरे पास अधलिखी कुछ कहानियाँ हैं। उनमें से एक कहानी मैं जल्दी ही पूरी करके भेजता हूँ।”
विष्णु जी का आग्रह, “प्रकाश जी, कहानी आज ही चाहिए।”
उनके आग्रह की अवहेलना भला मैं कैसे कर सकता था? लिहाज़ ा सुबह से लेकर रात कोई बारह बजे तक इस कहानी से जूझता रहा। तब कहीं यह पूरी हुई। रात में ही मैंने विष्णु जी को कहानी भेजी और आश्चर्य, रात में ही उन्होने इसे पढ़ भी लिया और सुबह पाँच बजे मैं उठा तो देखा, मोबाइल में उनका संदेश था। कहानी उन्हें बेहद पसंद आई थी और बड़ी प्रमुखता से उन्होंने इसे ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ में छापा।
तब से दर्जनों फ़ोन इस इस पर प्रशंसा के आ चुके हैं और इनमें नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकले तीन नाट्यकर्मी भी हैं। थोड़े-थोड़े अंतराल बाद उनके फ़ोन आए और तीनों ने ही इस कहानी के नाट्य रूपांतरण की अनुमति देने की गुज़ारिश की। वे इसे रंगमंच पर लाने के लिए उत्सुक थे।
मेरे जीवन का यह पहला और विलक्षण अनुभव था कि किसी एक कहानी की नाट्य संभावनाएँ इतने संभावनाशील रंगकर्मियों को लगभग एक साथ ही नज़र आई। मेरी कई कहानियों में खासा नाटकीय तत्व है, यह तो मैं जानता था, पर वे रंगकर्मियों को भी इस क़दर मोह लेंगी, मैंने सोचा न था।