मैं और मेरी कहानी / भाग 9 / प्रकाश मनु

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आज ये सतरें लिखते समय मुझे बेहद याद आ रहे हैं अपने कथागुरु सत्यार्थी जी, जिन्होंने पहलेपहल मेरी कहानियों को सुनकर दीवानगी की हद तक उनकी प्रशंसा की थी। मेरे भीतर अपनी कहानियों को लेकर आत्मविश्वास जगाने का काम सबसे पहले सत्यार्थी जी ने ही किया था और बिना कुछ कहे, मुझे किस्सागोई के उस तार से जोड़ दिया था, जिससे मेरे तीनों बहुचर्चित उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा-सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ तो सिरजे ही गए, एक के बाद एक कहानियों का अनंत सिलसिला भी चल निकला।

सत्यार्थी जी उन्हें सुनते तो आनंदित होते और मीठे शब्दों की ऐसी थपकियाँ देते, जिससे भीतर की सारी टूटन, व्यग्रता और थकान काफूर हो जाती और मैं एक अलग ही दुनिया में पहुँच जाता, जहाँ कहानियों की बारिश में भीगने का एक विरल और कुछ-कुछ अलौकिक-सा अहसास मुझे हुआ।

अपने मित्र और वरिष्ठ कथाकारों डा. माहेश्वर, श्रवणकुमार और वल्लभ सिद्धार्थ, की भी इस समय बहद याद आ रही है, जिन्होंने मुझे और मेरे भीतर बैठे कथाकार को अपने अनन्य प्रेम से नहलाया। इनमें वल्लभ जी के विलक्षण उत्साह भरे फ़ोन तो अब भी आ जाते हैं। डा. माहेश्वर और श्रवणकुमार अब नहीं रहे। पर मेरे भीतर तो वे अब भी उसी जीवंतता और जिंदादिली के साथ मौजूद हैं। हिंदुस्तान टाइम्स में उनके साथ हुई अनवरत मुलाकातें याद आती हैं, तो मन भीगता है। जब हम तीनों होते तो कहानियों, कहानियों और बस कहानियों की बारिश होती और हमारे शब्दों की दीवानगी हवाओं पर भी तारी होने लगती।

वे अजब कशिश भरे दिन थे, जब बहुत कहानियाँ लिखी गईं और लिखूँ या न लिखूँ, हर वक़्त कहानियों की एक दुनिया मेरे साथ चलती थी। मेरे अंदर-बाहर उसी का पसारा था, बल्कि हर पल वह मेरे साथ-साथ साँस लेती थी।

बहुत से जाने-अनजाने पाठकों ने फ़ोन पर या चिट्ठियों के जरिए गहरी तन्मयता के साथ मेरी इन लंबी और कुछ अलग लय-सुर में लिखी गई कहानियों की बड़ी शिद्दत से चर्चा और तारीफ की। पाठकों के ऐसे दीवानगी भरे फ़ोन अब भी आ जाते हैं और मेरा वह दिन कुछ अलग-सा हो जाता है। उनके शब्दों का आवेग मन को रोमांच से भर जाता है। इनमें से एक उम्रदराज पाठक, जो पिछले चालीस बरसों से बड़ी उत्कटता से कहानियों को जी रहे थे—ने मेरी एक लंबी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ की चर्चा करते हुए, गुलेरी जी की ‘उसने कहा था’ कहानी से उसकी तुलना की और उसे हिन्दी की कुछ महानतम कहानियों में शुमार किया तो कुछ देर के लिए मैं अवाक-सा रह गया।

बरसों तक उनके फ़ोन आते रहे और हर बार वे कुछ नए अंदाज़ में, मगर उसी शिद्दत से मेरी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ की चर्चा करते रहे। उनका कहना था कि “मनु जी, आपकी कहानी ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ पढ़ने के बाद इधर पढ़ी हुई तमाम कहानियों मुझे बहुत फीकी और बेजान लगती हैं। बार-बार ‘तुम याद आओगे लीलाराम’ उनके आगे आकर खड़ी हो जाती है। कोई महान कहानी तो ऐसी ही होती है। उससे मन को इतनी तृप्ति मिल जाती है कि बहुत अरसे तक फिर कुछ और पढ़ने का मन ही नहीं करता।