मैं और वह / सुकेश साहनी
घर छोड़ने के बाद मैं चौराहे पर खड़ा था। वह भी मेरे साथ था। अब हमें कोई एक रास्ता चुनना था।
"मुझे तो यह पहला रास्ता ठीक लगता है, इसी से चलें?" मैंने उससे पूछा। घर से भागने के मेरे फैसले के पीछे भी उसकी अहम् भूमिका रही थी।
"नहीं, यह तो बहुत बीहड़ रास्ता है," उसने कहा, "आगे कठिन चढ़ाई है। इस रास्ते चलकर हम कहीं नहीं पहुँचेंगे।"
"तो फिर इस दूसरे रास्ते से चलते हैं।" मैंने कहा।
"नहीं, इस रास्ते पर विधर्मियों के मोहल्ले पड़ते हैं, आए दिन दंगे होते रहते हैं। जिसे जान से हाथ धोना हो, वहीं इस रास्ते से जाए।" उसने सचेत किया।
"क्यों न इस तीसरे रास्ते से चलें?" मैंने उस सड़क की ओर इशारा किया जिसपर बहुत से लोग आ जा रहे थे।
"यह रास्ता तो किसी काम का नहीं," उसने निराशा से सिर हिलाते हुए कहा, "इस पर आगे चलकर मैला ढोने वालों की बस्तियाँ पड़ती हैं। साक्षात नरक है! इस रास्ते चलकर हम भूखे-प्यासे ही मर जाएँगे।"
तब मैंने चौथे रास्ते पर चलने का प्रस्ताव रखा।
"ये रास्ता तो सबसे खतरनाक है," उसने कहा, "इस पर मायावी औरतों का एकाधिकार है। वह आदमियों को जादू के बल पर भेड़-बकरी बनाकर खूँटे से बाँध लेती हैं और फिर जिंदगी भर मनचाहे तरीके से इस्तेमाल करती हैं।"
"तो फिर?" मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा।
" सड़कों की ख़ाक छानते हुए खुद को फालतू में थकाना जरूरी है क्या? उसके होठों पर रहस्यमयी मुस्कान थिरकी।
"क्या मतलब?"
"यहीं ठहर जाएँ तो कैसा रहे?" बाई आँख दबाकर वह हँसा।
मैंने गौर किया-हमारे ऊपर पिलखन की ठंडी छाँव थी, नजदीक ही धर्मार्थ प्याऊ पर बैठी खूबसूरत युवती ठंडा पानी पिला रही थी। सामने वाली सड़क पर गुरुद्वारा था, जहाँ अनगिनत लोग लंगर छक रहे थे।
ये सब देखकर मुझे उसपर इतना प्यार आया कि मैंने उसे गले लगा लिया।
उसी दिन से मैं और वह एक हो गए।
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