मैं करीना कपूर लग रही हूं ना ? / जयप्रकाश चौकसे

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मैं करीना कपूर लग रही हूं ना ?
प्रकाशन तिथि : 04 अक्तूबर 2013


एक विज्ञापन फिल्म में दिखाया गया है कि घर में दावत के लिए पत्नी तैयार हो रही है और पति चाहता है कि वह जल्दी तैयार हो। उनके बीच की बातचीत का आशय कुछ इस तरह है- पति कहता है कि सजने-संवरने के प्रयास से वह करीना की तरह तो नहीं हो जाएगी। पत्नी पति की ओर पलटती है, वह शॉट करीना कपूर का है और पति आश्चर्य से कहता है कि उसकी पत्नी करीना कपूर की तरह लग रही है। अगले शॉट में करीना आईने में अपने अक्स से कहती हैं 'करीना कपूर लग रही हूं ना'। इस लघु विज्ञापन फिल्म से भारत में सितारों के लिए जुनून का अनुमान होता है। श्रेष्ठि वर्ग के लोग भी सितारों पर मोहित हैं। यही कारण है कि अपने विवाह और अन्य उत्सवों में मुंहमांगे पैसे देकर सितारों को आमंत्रित किया जाता है। सितारों की ग्लैमर वाली छवियां अवचेतन में इस तरह अंकित हो जाती हैं कि अपनी पत्नी में व्यक्ति अपना प्रिय सितारा देखने लगता है या देखना चाहता है। इस तरह प्रिय छवियां मनुष्य को यथार्थ से दूर ले जाती हैं। यह सोच सिनेमा की देन नहीं है, क्योंकि सदियों पूर्व वात्स्यायन ने अपनी किताब 'कामसूत्र' में इस तरह की कल्पना की बात पति-पत्नी के बारे में लिखी है। आम जीवन में भी इस तरह की छवियां मनुष्य के मन में उभरती हैं। कुछ पिता पुत्र के जन्म के समय पुत्र में अपने आदर्श को देखने लगते हैं और अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं, जिनके साथ निराशाएं भी बढ़ जाती हैं। इस तरह की बातें विभिन्न रूपों में सामने आती हैं, मसलन हरिवंशराय बच्चन स्वप्न में अपने पिता को रामायण का मास पारायण पाठ पढ़ते देखते हैं, जिसमें राम जन्म का विवरण है। उसी समय उनकी पत्नी तेजी को प्रसव पीड़ा होती है और अगले दिन वह अमिताभ को जन्म देती हैं तो सारी उम्र हरिवंशजी को विश्वास रहा कि उनका यह पुत्र विशेष है और यह बात वे अपने पुत्र को भी कहते रहे। अमिताभ बच्चन पर इसका दबाव रहा या नहीं, परंतु उन्होंने अभिनय क्षेत्र में बहुत नाम कमाया। अब कलयुग में राम होना तो संभव नहीं था। यह संभव है कि हरिवंश राय उनमें राम की छवि देखते रहे हों। हमारे दैनिक जीवन में पूजा-प्रार्थना के समय भी एकाग्रता की सबसे बड़ी शत्रु विविध छवियां हैं जो एकात्म के क्षण को असंभव बना देती हैं। मनुष्य हमेशा छवियों से घिरा रहता है।

दक्षिण के प्रसिद्ध फिल्मकार एसएस वासन ने 1944 में फिल्म बनाई थी 'दासी अपरंजी'। यह कथा पुराने सामंतवादी जमाने की एक अत्यंत सुंदर नगर-वधू की है, जिसके महल में कपड़े धोने एक धोबी आता है, जो प्राय: दासियों से पूछता है कि उसे नगर-वधू के साथ समय बिताने के लिए कितना धन जुटाना होगा। उसकी यह लालसा और धन एकत्रित करने के प्रयास हास-परिहास का विषय बन गए। नगर-वधू को ज्ञात हुआ तो उसने भी झरोखे से उस धोबी को देखा। कुछ दिनों बाद धोबी ने इस तरह की बात करना बंद कर दिया तो जिज्ञासावश दासियों के पूछने पर संतुष्ट-से दिख रहे धोबी ने बताया कि शिद्दत से याद करने पर नगर-वधू उसके स्वप्न में आती है और अब उसके साथ समय बिताने के लिए धन जोडऩे की आवश्यकता नहीं। अगले दिन नगर-वधू ने राजा के दरबार में धोबी के खिलाफ मुकदमा कायम किया कि उस धोबी को स्वप्न में साथ बिताने के लिए उसे तीन हजार स्वर्ण मुद्राएं देनी होंगी। राजा को इस अजीब मुकदमे से हतप्रभ देख रानी ने उनसे आज्ञा लेकर दरबार में विशाल आईने के सामने तीन हजार स्वर्ण मुद्राएं रखीं और नगर-वधू से कहा कि वह दर्पण में मुद्रा की छवि को अपना मेहनताना समझकर ले सकती है।

कमाल की बात है कि यह सारगर्भित कथा वासन साहब ने १९४४ में बनाई है। याद आता है उन्नीसवीं सदी में दार्शनिक बर्गसन का कथन कि बीसवीं सिनेमा का कैमरा मनुष्य मस्तिष्क की ही अनुकृति है। हम जीवनभर अपने दिमागी कैमरे से असंपादित रीलों का ढेर अवचेतन में लगा देते हैं और ये छवियां ही हमारे सोच पर भारी रहती हैं। सिनेमा में एक ही शॉट कई बार लिया जाता है और उनमें से श्रेष्ठ को संपादक चुन लेता है, जिसे ओ.के. शॉट कहते हैं और अस्वीकृत 'एन.जी.' कहलाते हैं। मनुष्य जीवन इन 'एन.जी.' को अलग नहीं कर पाता।

वी. शांताराम की फिल्म 'नवरंग' में भी कवि नायक सारी उम्र यह समझ नहीं पाता कि कल्पना में देखी प्रेरक नारी उसकी पत्नी ही है। राज कपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' का नायक कल्पना में देखे सौंदर्य को यथार्थ की कुरूपता में देखते ही पागल-सा हो जाता है। सिनेमा की तरह राजनीति में भी छवियां ही प्रचारित हैं और बेची जाती हैं। मनुष्य अपने जीवन में छवियों से ठगा जाता है और राजनीत में भी यही होता है। कोई कभी अपने असली स्वरूप में प्रगट नहीं होता। यह भी संभव है कि करीना कपूर स्वयं दर्पण में अपनी छवि से कहे कि 'क्या मैं ही करीना कपूर हूं'। तर्क के पत्थर से कहां सारे दर्पण टूटते हैं? छवियों के पार मनुष्य को उसके अपने स्वतंत्र रूप में स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए।