मैं का त्याग ही संन्यास! / ओशो

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प्रवचनमाला

मैं किसी गांव में गया। वहां कुछ लोग पूछते थे, क्या ईश्वर है? हम उसके दर्शन करना चाहते हैं!

मैंने उनसे कहा, ईश्वर ही ईश्वर है- सभी कुछ वही है। लेकिन जो 'मैं' से भरे हैं, वे उसे नहीं जान सकते। उसे जानने की शर्त, स्वयं को खोना है।

एक राजा ने परमात्मा को खोजना चाहा। वह किसी आश्रम में गया। उस आश्रम के प्रधान साधु ने कहा, जो तुम्हारे पास है, उसे छोड़ दो। परमात्मा को पाना तो बहुत सरल है। वह राजा सब कुछ छोड़ कर पहुंचा। उसने राज्य का परित्याग कर दिया और सारी संपत्ति दरिद्रों को बांट दी। वह बिलकुल भिखारी होकर आया था।

लेकिन, साधु ने उसे देखते ही कहा, मित्र, सभी कुछ साथ ले आये हो? राजा कुछ भी समझा नहीं सका। साधु ने आश्रम के सारे कूड़ा-करकट फेंकने का काम उसे सौंपा। आश्रमवासियों को यह बहुत कठोर प्रतीत हुआ, लेकिन साधु बोला, सत्य को पाने के लिए वह अभी तैयार नहीं है और तैयार होना तो बहुत आवश्यक है!

कुछ दिनों बाद आश्रमवासियों द्वारा राजा को उस कठोर कार्य से मुक्ति दिलाने की पुन: प्रार्थना करने पर प्रधान ने कहा, परीक्षा ले लें।

फिर दूसरे दिन जब राजा कचरे की टोकरी सिर पर लेकर गांव के बाहर फेंकने जा रहा था, तो कोई व्यक्ति राह में उससे टकरा गया।

राजा ने टकराने वाले से कहा, महानुभाव! पन्द्रह दिन पहले आप इतने अंधे नहीं हो सकते थे!

साधु ने यह प्रतिक्रिया जानकर कहा, क्या मैंने नहीं कहा था कि अभी समय नहीं आया है! वह अभी भी वही है!


कुछ दिन बाद पुन: कोई राजा से टकरा गया। इस बार राजा ने आंख उठाकर उसे देखा भर, कहा कुछ भी नहीं। किंतु आंखों ने भी जो कहना था, कह ही दिया।

साधु ने सुना तो वह बोला, संपत्ति को छोड़ना कितना आसान, स्वयं को छोड़ना कितना कठिन है!

फिर तीसरी बार वही घटना हुई।

राजा ने राह पर बिखर गये कचरे को इकट्ठा किया और अपने मार्ग पर चल गया, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो! उस दिन वह साधु बोला, वह अब तैयार है। जो मिटने को राजी हो, वही प्रभु को पाने का अधिकारी होता है।

सत्य की आकांक्षा है, तो स्वयं को छोड़ दो। 'मैं' से बड़ा और कोई असत्य नहीं। उसे छोड़ना ही संन्यास है। क्योंकि, वस्तुत: मैं-भाव ही संसार है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)