मैं कैसे हँसू? / सुशांत सुप्रिय

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मैं कैसे हँसूँ? चौदह वर्षों तक मेरा सबसे अच्छा दोस्त रहा मेरा पालतू कुत्ता 'जैकी' मर चुका है। मेरे बेटे मुझे छोड़ कर दूर चले गए हैं। जिन लोगों पर मैं भरोसा करता था, वे ही मुझे धोखा दे रहे हैं। बाल्कनी में रहने वाले जिस कबूतर को मैं रोज़ सुबह दाना देता था, उसे इलाक़े की बिल्ली मारकर खा गई है। मेरे अकेलेपन की साक्षी मेरे कमरे में रहने वाली पूँछ-कटी छिपकली भी करेंट लगने से मर गई और पिछले कई दिनों से मूसलाधार बारिश हो रही है। मेरे शहर में यमुना ख़तरे के निशान से ऊपर बह रही है। सारे शहर पर बाढ़ का ख़तरा मँडरा रहा है। डॉक्टर कहते हैं—"आप लोगों से मिला-जुला कीजिए. लोगों के घर आया-जाया कीजिए. खुलकर हँसा कीजिए और खुश रहिए." पर मैं कैसे हँसूँ?

देश में जब बाढ़ नहीं आई होती तो सूखा पड़ा होता या सुनामी या भूचाल आया होता या नगर-निगम के नलों में कई दिनों तक पीने का पानी नहीं आता या दिन में दस घंटे बिजली नहीं होती या महँगाई बढ़ गई होती—सब्ज़ियाँ, दालें, तेल,

रसोई-गैस, पेट्रोल, किरासन तेल—सब की क़ीमतें आम आदमी की पहुँच से बाहर हो गई होतीं। कॉलेज से आने के बाद मैं देर तक अँधेरे को घूरता हुआ कमरे में अकेला पड़ा रहता। टी.वी. चलाता तो ख़बरें मुझे अवसाद से भर देतीं। तीर्थ-स्थानों पर हुई भगदड़ में दबकर दर्जनों तीर्थ-यात्री मारे जा रहे होते या ग़रीबों की झुग्गी-झोंपड़ियों और बस्तियों पर बुलडोज़र चल रहे होते या किसान क़र्ज़ तले दबकर आत्महत्याएँ कर रहे होते या अदालत में पेशी के लिए लाए गए दुर्दांत अपराधी पुलिस हिरासत से भाग रहे होते या अहिंदी-भाषी प्रदेशों में हिंदी-भाषियों को मारा-पीटा जा रहा होता।

कभी कहीं प्रेशर-कुकर या स्टोव या गैस का सिलिंडर फट गया होता या स्कूल-बस पुल तोड़ कर नदी में गिर गई होती या चालकों के सो जाने की वजह से बीच रात में दो रेल-गाड़ियों की टक्कर हो गई होती या कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया होता और इन हादसों में दर्जनों या सैकड़ों लोग मारे गए होते। कहीं आरक्षण के विरोधी हिंसा पर उतारू होते, कहीं आरक्षण के समर्थक रेल की पटरियाँ उखाड़ रहे होते और राष्ट्रीय राज-मार्गों को जाम कर रहे होते। जब यह सब नहीं हो रहा होता तो कहीं आतंकवादी बम-विस्फोट कर देते या फिर कहीं दो समुदायों में दंगा-फ़साद हो जाता।

इन ख़बरों से घबराकर मैं कभी बाल्कनी में आ कर खड़ा होता तो सामने वाली ख़ाली प्लॉट में पड़े कूड़े के ढेर पर भिखारी और कुत्ते एक साथ खाना ढूँढ़ते नज़र आते। जीवित लोगों को पूछने वाला कोई नहीं था जबकि मरे हुए लोगों के बुत बना कर चौराहों पर लगाए जा रहे थे, उनके गले में फूल-मालाएँ डाली जा रही थीं। यह सब देखकर मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सीने पर कोई भारी पत्थर पड़ा हुआ हो।

यह इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक था जब देश के अय्याश वर्ग के पास अथाह सम्पत्ति थी और वह ऐश कर रहा था जबकि मेहनतकश वर्ग भूखा मर रहा था।

मेरे पड़ोसी के. डी. सिंह एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में उच्च पद पर काम करते थे। उन्हें हर महीने लाखों रुपए वेतन में मिलते थे। उनके यहाँ तीन-तीन लक्ज़री कारें और एस. यू. वी. थे। उनके यहाँ आए दिन पार्टियाँ होती रहती थीं, जो देर रात तक चलती थीं। उनके घर में जैसे दिन-रात शराब की नदियाँ बहती थीं। उनके बच्चे पानी की जगह चिल्ड-बीयर पी कर बड़े हो रहे थे।

दूसरी ओर इलाक़े के कपड़े इस्त्री करने वाला था जो एक कमरे की खोली में रहता था। उसकी पत्नी हमेशा बीमार रहती थी। पौष्टिक आहार नहीं मिलने की वजह से उसके स्तनों का दूध सूख गया था और उसका नवजात शिशु बीमार पड़कर अकाल-मृत्यु के ग्रास में चला गया था। । बहती नाक वाले उसके बाक़ी दोनों बच्चों को भरपेट खाना नहीं मिलता था और वे कभी स्कूल नहीं जाते थे।

मेरे दूसरे पड़ोसी संजीव प्रताप अपने घर पर कुछ ही घंटों के लिए आते

थे। लोगों का कहना था कि वे दरअसल अपनी पहली बीवी के साथ कहीं और रहते थे। मेरे पड़ोस के मकान में उनकी दूसरी बीवी और दूसरी बीवी से हुआ उनका एक बच्चा रहता था। वे यह दोहरा जीवन शान से जी रहे थे। उस मकान का बूढ़ा मालिक कई बार प्रताप साहब को मकान ख़ाली करने का नोटिस दे चुका था पर प्रताप साहब की जान-पहचान इलाक़े के गुंडों से भी उतनी ही प्रगाढ़ थी जितनी इलाक़े के पुलिसवालों से थी। अपने 'कांटैक्ट्स' की वजह से वे न तो मकान का किराया दे रहे थे न ही मकान ख़ाली कर रहे थे बल्कि मकान पर क़ब्ज़ा जमाकर उसे हड़पने की तैयारी में थे।

मैं कॉलेज में उन लड़के-लड़कियों को शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया गया था जिन्हें मेरे द्वारा दी जाने वाली शिक्षा हास्यास्पद लगती थी। वे लड़के और लड़कियाँ चमचमाती लम्बी गाड़ियों में से निकलकर कॉलेज में महज़ समय व्यतीत करने के लिए आते थे। उनके माँ-बाप उद्योगपति, व्यापारी या राजनेता थे जो कॉलेज को तगड़ी 'डोनेशन' देते थे। कॉलेज के मैनेजिंग कमेटी के कई सदस्य उनके माँ-बाप की जेब में थे। वे परीक्षा में धड़ल्ले से नक़ल करते थे और उनका नाम हर साल 'मेरिट-लिस्ट' में होता था। इन लड़कों के आदर्श गाँधीजी जैसे महापुरुष नहीं थे बल्कि फ़िल्मों में क़मीज़ उतार कर देह-प्रदर्शन करने वाले सलमान खान और लक्स साबुन का प्रचार करने के लिए 'पूल' में सिने-तारिकाओं से घिरे नंगे बदन वाले शाहरुख़ ख़ान सरीखे अभिनेता थे। लड़कियाँ फ़िल्मों में हॉट और बोल्ड दृश्यों में दिखने वाली सन्नी लिओनी, मल्लिका शेरावत और राखी सावंत को अपना आदर्श मानती थीं, मदर टेरेसा को नहीं।

यह वह समय था जब लोग महँगी विदेशी शराब की बोतलें 'गिफ़्ट' में दे कर अपने रुके हुए काम करवा रहे थे। लोग हर वैध-अवैध ढंग से ज़्यादा-से-ज़्यादा धन कमाने के पीछे पागल हुए जा रहे थे। समाज में धन और पद की क़द्र थी, गुण और बुद्धिमत्ता की नहीं। जो सच्ची बात कहने का साहस करते उन्हें या तो नौकरी से निकाल दिया जाता या उनके ऊपर किसी सिफ़ारिशी गधे को बैठा दिया जाता। दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार रोज़मर्रा की बातें हो गई थीं।

मैं कॉलेज में पूरी लगन और निष्ठा से अध्यापन-कार्य करता था पर मेरे काम को कभी सराहा नहीं जाता था; उलटे माइक्रोस्कोप ले कर उसमें काल्पनिक ग़लतियाँ ढूँढी जाती थीं। कॉलेज के प्रिंसिपल महोदय चाहते थे कि कॉलेज की ड्यूटी के अलावा मैं उनके घर के काम-काज भी करूँ—कभी उनके लिए अपने पैसों से बाज़ार से सब्ज़ी, फल और मिठाई वग़ैरह ख़रीदकर दे जाऊँ तो कभी स्कूल जानेवाली उनकी बच्चियों की फ़ीस अपनी जेब से दे आऊँ। उन्हें यह ग़लतफ़हमी भी थी कि वे एक बहुत अच्छे कवि और कथाकार भी थे। वे चाहते थे कि मैं उनके महान व्यक्तित्व और कृतित्व का महिमामंडन करने वाली पुस्तक लिखूँ!

प्रिंसिपल साहब अंग्रेज़ी शराब के शौक़ीन भी थे, जबकि मैं शराब बिल्कुल नहीं पीता था। हर शाम उनके यहाँ पीने-पिलाने वाले शराबी प्राध्यापकों का जमावड़ा लगता था। मांस और मदिरा के सेवन के बीच यहाँ षड्यंत्र रचे जाते थे, गुणी किंतु सींधे-सादे प्राध्यापकों की राह में काँटे बिछाने की साज़िश की जाती थी।

चूँकि मुझे मदिरा सेवन करने वाली इस मंडली का सदस्य बनना मंज़ूर नहीं था, चूँकि मैं झूठी प्रशंसा करने वाली किताब नहीं लिख सकता था, चूँकि मैं अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे ख़र्च करके प्रिंसिपल साहब को गिफ़्ट्स नहीं दे सकता था, इसलिए मेरे सारे अन्य गुण उनकी नज़र में अवगुण थे। उनकी निगाह में मैं किसी काम का नहीं था, मैं ग़लत युग में भटक आया एक 'मिसफ़िट' था। मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी यह थी कि मैं किसी का चमचा नहीं बन सकता था। मेरे रक्त में चापलूसी और चाटुकारिता नहीं घुली थी। कोई मेरी पीठ ठोककर मुझे रीढ़हीन नहीं बना सकता था।

और इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के भारत में यह सब एक बड़ी अयोग्यता थी, सफलता की राह में भारी रुकावट थी।

मेरे एक मित्र का बेटा किसलय पिछले आठ सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों में एड-हॉक पदों पर हिन्दी पढ़ा रहा था। हालाँकि वह हिन्दी और भाषाविज्ञान में प्रथम श्रेणी में एम.ए. था और हिन्दी में पी. एच. डी. भी था, पर उसके पास वह योग्यता नहीं थी जो कॉलेज में स्थायी पद पर नियुक्ति के लिए सबसे ज़रूरी थी—वह किसी अकादमिक मठाधीश का चमचा नहीं था, उसके पास 'कांटैक्ट्स' नहीं थे, वह उच्च पदों पर आसीन गधों के सामने 'हाँ, सर' , 'जी, सर' करते हुए अपनी विलुप्त पूँछ नहीं हिला सकता था और न ही वह साक्षात्कार के लिए आए आचार्यों को महँगे तोहफ़े दे सकता था।

यह वह समय था जब हर जगह घाघ मठाधीश बैठे थे जो योग्य लोगों को आगे नहीं आने दे रहे थे। जो काम कर रहे थे, उन्हें सराहा नहीं जा रहा था। जो नतीजे दे रहे थे, उनकी पदोन्नति नहीं हो रही थी। धर्म और जाति के आधार पर ही व्यक्ति की योग्यता आँकी जा रही थी। हॉकी में तो ओलम्पिक खेलों में हमारी दुर्गति हो रही थी, पर योग्य आदमी से जलना और उसे कुचलना जैसे हमारा ' राष्ट्रीय

खेल ' बन गया था। यदि यह खेल ओलम्पिक्स में शामिल होता तो इसमें हम अवश्य ही स्वर्ण-पदक ले आते!

डॉक्टर कहते हैं—"यूँ उदास मत रहा कीजिए. आपको हँसना चाहिए. जब भी आप अकेलापन और अवसाद महसूस करें, घर से बाहर निकल जाइए. पार्टियों में जाइए. लोगों से मिलिए-जुलिए. मित्र बनाइए ।" पर मैं कैसे हँसूँ?

कॉलेज में कभी मेरा सबसे अच्छा दोस्त रहा मेरे ही विभाग का शुक्ला विभागाध्यक्ष बनने के लोभ में मुझसे 'भितरघात' कर रहा था। वह प्रिंसिपल, अन्य

अध्यापकों और छात्रों को मेरे विरुद्ध भड़का रहा था। उसकी हर मुसीबत में मैंने तन-मन-धन से उसका साथ दिया था पर आज अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए वही मेरा शत्रु बन बैठा था।

दुनिया में एक जीव जो मुझसे बेइंतहा प्यार करता था, वह मेरा पालतू कुत्ता 'जैकी' था। उसका-मेरा पिछले चौदह वर्षों का साथ था। वह मुझे खुद से भी ज़्यादा प्यार करता था। वह मुझे बिना किसी स्वार्थ के चाहता था। उसने मुझे कभी धोखा नहीं दिया था। उसका मेरे प्रति प्यार छलावा या दिखावा नहीं था। वह मेरे लिए सगे-सम्बंधियों से बढ़ कर था। कुछ दिन पहले दस-पंद्रह दिनों तक बीमार रहने के बाद वह चल बसा था। उसके जाने के बाद मैं बिल्कुल अकेला रह गया था।

पत्नी कई साल पहले मुझे छोड़ गई थी। उसके लिए विदेशी एन. जी. ओ.

में उसका कैरियर और उसकी नौकरी मुझ से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण थी। उसका परिवार उसकी महत्त्वाकांक्षा की राह में रुकावट था। इसलिए उसने मुझे और बच्चों को वर्षों पहले त्याग दिया था। मैंने अकेले ही दोनों बच्चों को पाला-पोसा था। पर उनके लालन-पालन में शायद मुझसे ही कोई कमी रह गई थी। हालाँकि कहने के लिए वे दोनों मेरे बेटे थे पर वे दोनों अमेरिका और आस्ट्रेलिया में जा कर बस गए थे। वे अपने-अपने बीवी-बच्चों के साथ अपनी-अपनी दुनिया में गुम हो गए थे। उनके राडार पर पिता नाम के इस शख़्स की उपस्थिति अब दर्ज़ नहीं होती थी।

जब मैं छब्बीस साल का था, माँ तब घर की सीढ़ियों से गिरकर असमय ही चल बसी थीं। मैंने तब नई-नई नौकरी करनी शुरू ही की थी। माँ जल्द-से-जल्द मेरी शादी कर देना चाहती थीं। उन्हें बहुत अरमान था कि मेरा बच्चा उनकी गोद में खेलता। लेकिन उनके अरमान अधूरे रह गए. माँ के सिर में गहरी चोट लगी थी। वे चार दिनों तक अस्पताल में कोमा में पड़ी रही थीं। तब सारा दिन बारिश होती रहती थी। डॉक्टरों ने उन्हें 'वेंटिलेटर' के सहारे जीवित रखा हुआ था। माँ को अभी जीना था। उन्हें बहुत कुछ देखना था। पर ऐसा नहीं हो सका। मेरी प्रार्थना अशक्त हो गई. वे मुझे अकेला छोड़ गईं ...

आप जिन को चाहते थे, जिनसे प्यार करते थे, वे आप से दूर चले जाते थे—या तो किसी वजह से उनकी मौत हो जाती थी या आपके और उनके बीच कोई ग़लतफ़हमी हो जाती थी जो दूर होने की बजाए बढ़ती ही जाती थी। सारे रिश्ते-नाते स्वार्थ से प्रेरित थे। आप जिनसे उम्मीद लगाते थे, उन्हीं से धोखा खाते थे। अधिकांश रिश्ते-नाते जैसे अपना काम निकालकर आपको ठेंगा दिखा देने की हृदयविहीन और अवसरवादी परियोजना का अटूट हिस्सा थे।

कॉलेज में लड़कों का छात्रावास अनुशासनहीनता और गुंडागर्दी का गढ़ बन गया था। जब छात्रावास के 'वार्डन' तिवारीजी लड़कों को नियंत्रित नहीं कर पाए तो उन्होंने 'वार्डन' का पद छोड़ दिया। कोई प्राध्यापक इस काँटों के ताज को पहनने के लिए आगे नहीं आया। जब प्रिंसिपल ने मुझे यह ज़िम्मेदारी सौंपने की मंशा ज़ाहिर की तो मैंने इसे स्वीकार कर लिया।

मैंने छात्रावास में अनुशासनहीनता समाप्त करने का भरसक प्रयत्न किया। पर गुंडा तत्वों को कॉलेज के प्राध्यापकों के विभिन्न गुटों के समर्थन के साथ-साथ राजनीतिक समर्थन भी प्राप्त था। कई बाहरी तत्व भी छात्रावास में अपना दबदबा बनाए हुए थे। छात्रावास में अचानक तलाशी लेने पर वहाँ से तलवारें और देसी कट्टे बरामद किए गए. जब मैंने दोषी छात्रों के विरुद्ध कार्यवाही करनी चाही तो प्रिंसिपल साहब ने मुझे मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की सलाह दी।

और ऐसे माहौल में छात्रावास में आया एक नया लड़का 'रैगिंग' का शिकार हो गया। गुंडा तत्वों ने उसे इतना पीड़ित किया कि उसने सीलिंग-फ़ैन से लटककर आत्म-हत्या करने की कोशिश की। सौभाग्यवश उसे बचा लिया गया। जब मैंने दोषी लड़कों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही करनी चाही तो प्रिंसिपल ने एक बार फिर उन लड़कों की पहुँच ऊपर तक होने की बात कहकर मामले को दबा देना चाहा। इसके विरोध में मैंने छात्रावास के 'वार्डन' के पद से इस्तीफ़ा दे दिया।

यह वह समय था जब सही काम करने वाले व्यक्ति के सामने तरह-तरह की बाधाएँ उत्पन्न की जाती थीं, जबकि ग़लत काम करने वालों को पूरी छूट थी। आलम यह था कि पुलिसवाले थानों में ही औरतों से बलात्कार कर रहे थे। बाहुबली और माफ़िया डॉन जेलों के भीतर से ही मोबाइल फ़ोन के ज़रिए अपना काला साम्राज्य चला रहे थे। खाने-पीने के सामान में धड़ल्ले से मिलावट की जा रही थी। काला-बाज़ारियों और भ्रष्टाचारियों की दसों उँगलियाँ घी में थीं।

महानगरों में गठे हुए बदन वाले युवक 'गिगोलो' का काम कर रहे थे। वे बिगड़ी रईसज़ादियों को बड़ी धन-राशि के बदले यौन-सेवा मुहैया करा रहे थे।

'वाइफ़ स्वैपिंग' की पार्टियों में कार की चाबियों की अदला-बदली करके एक रात के लिए पत्नियों की अदला-बदली हो रही थी। पति-पत्नी बिना किसी नैतिक ऊहा-पोह के ऐसी पार्टियों में 'लाइफ़' को 'एन्जोय' कर रहे थे। ऐसे माँ-बाप की संतानें शराब पीकर अंधाधुँध कारें चला रही थीं और सड़क पर पैदल चलने वालों को मौत की नींद सुला रही थीं। लोग सड़क-दुर्घटना में घायल पड़े व्यक्ति को मरता हुआ छोड़ कर आगे बढ़ जा रहे थे। अदालतों में रुपए के दम पर गवाह ख़रीदे जा रहे थे। धन और पद का दुरुपयोग करने वाले मदांध लोग इंसाफ़ का गला घोंटकर बाइज़्ज़त बरी होते जा रहे थे। जिनके चेहरों पर कालिख़ पुती हुई होनी चाहिए थी, उनके चेहरे रक्ताभ थे। जिनके हाथों में हथकड़ियाँ होनी चाहिए थीं, उनके हाथों में दौलत और सफलता की कुंजियाँ थीं। ऐसे ही लोग जंगल उजाड़ रहे थे। नदी-नाले गंदे कर रहे थे। बड़े-बड़े बाँध बनाने के नाम पर सैकड़ों को विस्थापित कर रहे थे। हवा, पानी और मिट्टी को विषाक्त करते जा रहे थे। जो किसी भी दृष्टि से—न मन से, न वचन से, न कर्म से—सम्मानित थे, वे असल में सम्माननीय लोगों की इज़्ज़त उतारने में लगे थे। धर्मांध कट्टरपंथियों द्वारा दलितों और अल्पसंख्यकों को मारा-पीटा जा रहा था, उनकी हत्या की जा रही थी। गाय और देशभक्ति की आड़ में साम्प्रदायिक एजेंडा लागू किया जा रहा था। उधर सीमा पर तनाव बढ़ता जा रहा था और युद्धोन्माद को हवा दी जा रही थी।

लोग काम पर जा रहे थे पर शाम को घर वापस नहीं आ रहे थे। कुछ सड़क-दुर्घटनाओं में मारे जा रहे थे, कुछ की हत्याएँ हो रही थीं। कुछ को पुलिस उठा कर ले जा रही थी और वे उसके बाद दोबारा कभी दिखाई नहीं दे रहे थे। एक दिन कॉलेज में मेरी कक्षा का मेधावी छात्र मणिपुर का इरोम सिंह ग़ायब हो गया। पता नहीं, उसे ज़मीन खा गई या आसमान निगल गया। किसी ने बताया कि उसे पुलिस उठाकर ले गई थी।

पहले तो पुलिसवालों ने यह मानने से इंकार कर दिया कि उनका इस मामले से कोई लेना-देना है। बाद में दबाव बढ़ने पर पुलिस ने दावा किया कि दो दिन पहले उसने एक मकान पर छापा मारकर उत्तर-पूर्व के आतंकवादियों के एक गिरोह को नष्ट कर दिया। पुलिस ने दावा किया कि इस मुठभेड़ में जवाबी गोलीबारी में इरोमसिंह नाम का एक ख़तरनाक आतंकवादी मारा गया। पुलिस ने उसके पास से चीन में बनी एक रिवॉल्वर और कुछ राष्ट्र-विरोधी साहित्य बरामद करने का भी दावा किया।

लेकिन कॉलेज के उसके मित्र और हम अध्यापक यह जानते थे कि यह सब झूठ था। इरोमसिंह को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मारा गया था। वह आतंकवादी हो ही नहीं सकता था। वह अंतर-विश्वविद्यालय खेलों में दिल्ली यूनिवर्सिटी की हॉकी टीम का बेहतरीन सदस्य था। आगामी विश्व-कप प्रतियोगिता में उसका भारत की जूनियर हॉकी टीम में शामिल होना तय माना जा रहा था। उसे भारतीय रेलवे की ओर से टी. टी. के पद की पेशकश भी की गई थी। वह हम सब का प्यारा था। वह हमारे कॉलेज की शान था। मणिपुर से आए उसके पिता ने यह मानने से इंकार कर दिया कि उनका बेटा आतंकवादी था। "वह ऐसा नहीं था," वे बोले और फूट-फूट कर रोने लगे। जीवन से भरपूर एक हँसता-खेलता शख़्स जैसे एक षड्यंत्र के तहत अचानक हमसे छीन लिया गया था।

एक बार मैं बस से कहीं जा रहा था। लाल बत्ती पर बस रुकी। मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा था। अचानक एक छोटा-सा चूहा बगल में खड़े थ्री-व्हीलर में से निकलकर बीच सड़क पर आ गिरा। दिन में बारह-एक बजे का समय था। चूहा बीच सड़क पर भौंचक्का-सा पड़ा था। पीछे से और गाड़ियाँ भी आ रही थीं। चूहे ने सड़क पार करके बीच के फुटपाथ पर जाने की कोशिश की। शायद वह पीछे से आ रही गाड़ियों की चपेट में आने से बच भी जाता, पर तभी न जाने कहाँ से वहाँ पहुँचे एक कौए ने झपट्टा मारकर उस चूहे को चोंच में दबाया और उड़ गया। मेरे देखते-ही-देखते एक जीवन ऐसे ही ख़त्म हो गया।

... इरोम सिंह की याद में कॉलेज में आयोजित कार्यक्रम में मेरी तबीयत अचानक बिगड़ गई. मेरे हाथ-पैर काँपने लगे थे और मेरे सिर में सैकड़ों रेलगाड़ियों के पटरी पर धड़धड़ाने का शोर फैल गया था। इरोम सिंह आतंकवादी नहीं था। वह केंद्र सरकार का आलोचक ज़रूर था, लेकिन वह राष्ट्र-विरोधी नहीं था। लेकिन एक पूरा तंत्र झूठ को सच बनाने की क़वायद में लगा था। लोग तेज़ाबी बारिश से, ओज़ोन-छिद्र से डरते थे, जबकि मैं उपेक्षा की नज़रों से, अलगाव की टीस से डरता था। लोग कैंसर से, एड्स से, मृत्यु से डरते थे, जबकि मैं उन पलों से डरता था जब जीवित होते हुए भी मेरे भीतर कहीं कुछ मर जाता था।

आजकल मुझे अजीब से सपने आते हैं जिनमें भारत के झंडे पर साँप लिपटे हुए होते हैं, महात्मा गाँधी की मूर्ति पर दीमक लगी हुई दिखाई देती है, मदर टेरेसा की फ़ोटो फटी हुई नज़र आती है, जबकि पश्चिमी परिधानों में सजे राक्षस-राक्षसियाँ क़ब्रिस्तानों में नृत्य कर रहे होते हैं। अकसर सपनों में मुझे चिथड़ों में लिपटा एक बीमार भिखारी नज़र आता है जिसके बदन पर कई घाव होते हैं, जो बेतहाशा खाँस रहा होता है, दर्द से कराह रहा होता है और रो रहा होता है। फिर देखते-ही-देखते वह बीमार भिखारी मेरे देश के नक़्शे में बदल जाता है।

अब आप ही बताइए, मैं कैसे हँसूँ?