मैं घर लौटा / सुरंगमा यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के काव्य में मानवीय संवेदनाएँ

('मैं घर लौटा' के विशेष संदर्भ में)

रामेश्वर काम्बोज जी ने काव्य, व्यंग्य, लघुकथा, बाल साहित्य, समीक्षा, व्याकरण तथा संपादन आदि के द्वारा साहित्य को समृद्ध किया है। परम्परागत काव्य शैलियों के अतिरिक्त आपने जापानी काव्य विधाओं-ताँका, चोका, सेदोका तथा हाइकु में न केवल प्रचुर मात्रा में रचना की, वरन् अनेकानेक रचनाकारों को प्रोत्साहित और प्रकाशित भी किया।

उन्होंने साहित्य को जीवन की वास्तविकता के साथ जोड़ा। उनके काव्य संग्रह 'मैं घर लौटा' में संकलित कविताओं से यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है। आम जन के जीवन से सम्बंघित सुख-दुः।ख की सुन्दर अभिव्यक्ति इस संग्रह में मिलती है। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण आपने कभी व्यक्तिगत लाभ-हानि पर विचार नहीं किया। उनकी सर्व प्रमुख विशेषता है कि उनके जीवन और उनकी रचनाओं में अत्यधिक सामंजस्य है। जीवन के यथार्थ को उन्होंने निकट से देखा और समय की नब्ज़ को पहचाना। उनकी रचनाएँ कोरी कल्पना मात्र नहीं हैं; बल्कि यथार्थ के ठोस धरातल पर लिखी गयी हैं, इसी कारण वे मन को छूती हैं। यूँ तो उनकी रचनाओं में जीवन-दर्शन, प्रेम निरूपण, प्रकृति सौंदर्य, जीवन-संघर्ष, रिश्ते-नाते, सुख-दुःख, सफलता-असफलता, आशा-निराशा का सुंदर चित्रण हुआ है; परंतु इन सबसे बढ़कर आम आदमी के प्रति चिंता, सच्ची सहानुभूति तथा उनके प्रति होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का संकल्प भी नज़र आता है। उनकी यही संकल्प शक्ति उन्हें मानवतावादी कवि की श्रेणी में ला खड़ा करती है।

आज आदमी एक अजीब से वातावरण में जी रहा है। भीड़ से घिरा है पर अकेला है। विश्वास जैसे भावों का स्थान असुरक्षा ने ले लिया है। अपनी दुर्बलताएँ खोखली मुसकान के पीछे छिपाए आदमी, आदमी की तलाश में भटक रहा है; परंतु दूर-दूर तक उसे अपनी खोज पूरी होते दिखायी नहीं देती-

अधर पर मुस्कान दिल में डर लिये

लोग ऐसे ही मिले पत्थर लिये। (पृ0 43)

सम्बंधों का आज कोई मूल्य नहीं रह गया। दूसरे के दुःख में दुःखी और सुख में सुखी होने का भाव तिरोहित हो गया है। मनुष्य बहुरूपिया और क्रूर हो गया हो गया है। कवि ने निःसंकोच इस बात को स्वीकारा है-

मुस्कान को सह ले भला

कब, किसे मंजूर है?

आँसुओं को कौन पोंछे?

लोग बेहद क्रूर हैं।

बन गये सम्बंध अब

टूटा किनारा / याद रखना। (पृ0 163)

समाज में हर ओर विषमता फैली हुई है। एक वर्ग ऐसा है जिसके पास कोई अभाव नहीं, फिर भी तृप्ति और संतोष उससे कोसों दूर है। दूसरी ओर ऐसी विवशता है कि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ भी उपलब्ध नहीं। कवि का संवेदनशील मन समाज की विषमता देखकर कराह उठता है-

मिल सका कुछ को नहीं दो बूँद जल

और कुछ प्यासे रहे सागर लिये। (पृ0 43)

जनता का हक़ मारकर ऐशो-आराम की जिदगी बिताने वाले ये लोग इंसान की शक्ल में भूखे भेड़िये हैं, जो अपनी भूख शांत करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। किसी के प्राणों का इनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है-

बीहड़ से चल / हर घर तक / आ चुके हैं भेड़िये /

हैं भूख से / व्याकुल बहुत / इनको तनिक न छेड़िये /

लपलपाती / जीभ खूनी / ज़हर-भरे इनके वचन /

हलाल इनके हाथ से / जनता हुई है / आजकल /

काटते रहेंगे हमेशा / लूट-डाके की फसल /

याद रखना-उतार लेंगे / लाश का भी / ये कफ़न। (पृ056)

गरीब, और गरीब होता जा रहा है, अमीर और अमीर हो रहा है। राजनीति में शह और मात का खेल खुलकर खेला जा रहा। स्वार्थ, लिप्सा और षड्यंत्र नग्न घूम रहे हैं। अवसरवादिता उत्पात मचा रही है। वोट की राजनीति के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं। श्वेत वस्त्रधारी इस तरह अपने काले कारनामें छिपाने की कोशिश करते हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है। जनता के सामने वोट माँगते समय इनकी दीनता और सरलता सत्ता पाते ही कैसे क्रूरता में बदल जाती है, ये किसी से छुपा नहीं है-

हार पहनाकर जिन्हें हम खुश हुए

वे खड़े हैं हाथ में खंज़र लिये। (पृ0 43)

ऐसे मानवता के शत्रुओं की सच्चाई कवि ने बड़ी निर्भीकता से उजागर की है-

केवल दो रोटी की भूख, फिर भी हैं हलकान

भूखों तक का कौर छीने, दिखलाते हैं शान। (पृ0107)

दूसरों के अधिकारों का हनन करके अपनी तिजोरियाँ भरने वाले तथा अन्य के श्रम का मूल्य न समझने वालों को चुनौती देते हुए वे कहते हैं-

धमकियों से क्यों डराते हो हमें

घूमते हम सर हथेली पर लिये। (पृ0 43)

आम आदमी के प्रति गहरी सहानुभुति उन्हें उच्च वर्ग के अत्याचारी, अन्यायी, शोषक पूँजीपतियों के प्रति आक्रोश से भर देती है; क्योंकि यह वर्ग, मजदूरो, किसानों तथा निर्बलों का रक्त चूसकर ही सम्पन्न बनता है। वे उच्च वर्ग की शोषणपरक मानसिकता पर गहरी चोट करने के साथ ही उपेक्षित वर्ग का समर्थन करते हैं। उनकी कविता 'इस धरती पर' सामाजिक-आर्थिक विषमता पर तीखा व्यंग्य करती है। उनका मानना है कि जीवन भर छल कपट से कमाई हुई दौलत सच्चा सुख नहीं दे सकती। नोटों के बिस्तर बनवाने वाले एक घड़ी सुख की नींद के लिए तरसते ही रह जाते हैं। उन्होंने इन पूँजीपतियों को चेतावनी भी दी है कि एक दिन तुम्हारा साम्राज्य ध्वस्त हो जाएगा-

हमने माना नोटों के / बिस्तर तुम बिछवा सकते हो। /

पर क्या इन नोटों से तुम / नींद घड़ी भर लाओगे? /

किया आचमन धोखे का / मंत्र कपट के ख़ूब पढ़े। /

माना ऊँचे अंबर में / कटी पतंग से ख़ूब चढ़े। /

तेज हवा का झोंका जब / जिस पल भी रुक जाएगा। /

बिना डोर की पतंग को / धरती पर ले आएगा। (पृ0 52)

पीड़ा और शोषण का क्रम लंबा है। विकास का कितना भी ढिंढोरा पीटा गया हो; परंतु आम आदमी की समस्याएँ ख़त्म होने के बजाए बढ़ती जा रही हैं। कवि के मन में आम आदमी की पीड़ा को लेकर दुःख है साथ ही उत्तरदायी लोगों के प्रति आक्रोश भी है। वे इन क्रूर मानसिकता वाले लोगों के आगे कदापि झुकना नहीं चाहते-

दरबारों में हाज़िर होकर / गीत नहीं हम गाने वाले।

चरण चूमना नहीं है आदत / ना हम शीश झूकाने वाले।

मेहनत की सूखी रोटी भी / हमने खाई थी गा-गाकर। (पृ041)

आधुनिक सभ्य समाज की विसंगतियों और विद्रूपताओं से साक्षात्कार करने वाले कवि ने उन पर गहरी चोट की है। 'बचकर रहना' एक ऐसी ही कविता है, जिसमें नगरीय संस्कृति में व्याप्त जहरीलेपन को उजागर किया गया है। तथाकथित सभ्य मनुष्य सर्प से भी अधिक विषैला हो गया है, जो अपने ही जैसे मनुष्यों को डसने अर्थात हानि पहुँचाने का अवसर तलाशता रहता है-

चारों ओर रेंगते विषधर / बचकर रहना।

इनसे बढ़कर मानुष का डर / बचकर रहना।

भले लोग ही बसे यहाँ है / इन भवनों में।

रोज़ फेंकते हैं ये पत्थर / बचकर रहना।

ज़हर बुझी है इनकी वाणी / कपट कवच है।

छल प्रपंच है इनका बिस्तर / बचकर रहना। (पृ0137)

ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण करने वाले श्रमिक ना तो समाज में सम्मान पाते हैं, ना रहने के लिए घर, और ना भर पेट भोजन। देश और समाज के वास्तविक निर्माता भूखे, पिछड़े और दीन-हीन बने रहने के लिए अभिशप्त हैं। सुख-चैन भूलकर जीवन भर परिश्रम करने के बाद भी अभाव झेलना इनकी नियति है। 'ये घर बनाने वाले' कविता में कवि की संवेदना का रूप देखिए-

बेघर सदा रहे हैं, ये घर बनाने वाले।

तारों की छत खुली है, धरती बनी बिछौना

इस बेरहम शहर में (पृ0165)

आज के समय में अतिभौतिकतावाद का बोल बाला है। बढ़ता मशीनीकरण, पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण, नैतिक मूल्यों का विघटन, स्वार्थ-लिप्सा, भ्रष्टाचार की व्याप्ति, शिक्षा का व्यवसायीकरण, वर्चस्ववादिता, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई, ढोंग-दिखावा आदि के कारण मानवीय संवेदनाएँ मरती जा रही हैं। समाज का यह रूप देखकर सहृदय साहित्यकार व्यथित हो रहा है। क्या हमने इसी दिन के लिए आज़ादी प्राप्त की थी? आज आज़ादी के मायने ही बदल गये हैं। 'आज़ादी है' कविता में कवि ने समाज की कुत्सित मानसिकता का सटीक चित्रण किया है-

सज्जन रोता, आफत ढोता-आज़ादी है

नोट बिछाए, नींद न आए-आजादी है

गुण्डे छूटें, जीभर लूटें-आजादी है

छीना चन्दा, अच्छा धन्धा-आजादी है

नफ़रत पलती, बस्ती जलती-आजादी है

पेट कटे हैं, खेत लुटे हैं-आजादी है (पृ047)

वर्तमान स्थिति का यथार्थ चित्रण करने के लिए कवि ने कई जगह व्यंग्य का सहारा भी लिया है। तीक्ष्ण व्यंग्य हृदय को झिंझोड़ देता है। 'कहाँ चले गये गिद्ध' कविता की बानगी देखिए-

कहाँ चले गए हैं गिद्ध?

बड़े-बूढ़े चिन्तित हैं

X x-x x x

अब सब जगह नज़र आने लगे हैं गिद्ध

अब गिद्ध नंगे नहीं रहे

वे पहने हैं तरह-तरह के परिधान

अब नज़र आ रहे हैं गिद्ध-

अँधेरी गलियों से बहुमंज़िला इमारतों तक में

तरह-तरह के भेस में (पृ0 75)

आज व्यक्ति क्षणिक स्वार्थ के लिए अपना बहुमूल्य समय-शक्ति व्यर्थ गँवा रहा। मानव मन में एक विचित्र-सा तूफान उठ रहा है। क्षणिक लाभ की कसौटी पर मान्यताओं को परखा जा रहा है। व्यक्तित्त्व का ह्नास हो रहा है। कर्णधारों के पाँव भी डगमगा रहे हैं। कीचड़ भरे रास्तों पर आदमी बेहिचक बढ़ता जा रहा है। कुछ लोगों द्वारा बोया गया घृणा-द्वेष का बीज अब हरा-भरा वृक्ष बन गया है, जिसकी घनी छाया मन पर अँधेरा कर रही है। अब एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का करुण-क्रन्दन भी विचलित नहीं करता। क्या ऐसे रास्ते पर चलना समाज के लिए कल्याणकारी है? कवि के अंतरमन से आह निकलती है, आख़िर कुछ लोगों की करनी का दण्ड सब क्यों भुगतें-

उपवन मत जलाओ कुछ शूल के लिए।

यों कोई शहर बेहतर नहीं होता। ।

X x-x x x x

नाग पालकर वे चाहते रहे अमन।

ज़िन्दगी का इलाज़ ज़हर नहीं होता। ।

हो चुके हैं लोग अब इतने बेहया।

चीख पुकार का भी असर नहीं होता। । (पृ0116)

शक्ति का बोलबाला है। आज के दौर में जो शक्तिशाली है, वही श्रेष्ठ है। निर्बलों को सच कहने का भी अधिकार नहीं है। यदि वे कहना भी चाहें तो उनकी ज़ुबान बंद कर दी जाती है। 'सच की ज़ुबान' कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

सच की नहीं होती ज़ुबान

वह काट ली जाती है

बहुत पहले-

अहसास होते ही

कि व्यक्ति

किसी न किसी दिन

सच बोलेगा

किसी बड़े आदमी का राज़ खोलेगा। (पृ0174)

इस संग्रह की एक कविता 'पुरबिया मजदूर' बहुत ही संवेदनात्मक है। यह पाठक के अन्तर मन को झकझोर देती है। इस कविता में मजदूरों की दशा का यथार्थ चित्रण हुआ है। मज़दूर रूखा-सूखा भोजन पोटली में बाँधकर, पेट भरने के सुनहरे सपने लेकर शहर की ओर निकल पड़ता है। ये मज़दूर किसी तरह जनरल बोगी में ठुँसकर, सीटों के नीचे पैरों में लेटकर अपनी यात्रा पूरी करते है। यह दृश्य लंबी दूरी की ट्रेन की जनरल बोगी में देखा जा सकता है और तो और किसी की जेब कट जाए, तो भी उसी निरपराध को दण्ड मिलता है; क्योंकि उसका सबसे बड़ा दोष उसकी ग़रीबी है। बेचारा जैसे-तैसे शहर पहुँचकर हाड़ तोड़ मेहनत करता है, फिर भी ठगा जाता है कभी, बिचौलिए से, तो कभी ठेकेदार से। वह सदा निरीह और बेबस ही बना रह जाता है। हमारी व्यवस्था, हमारी सोच उसे उठने ही नहीं देती। काम्बोज जी की यह कविता एक शब्द-चित्र है, जो संवेदना को जगाकर पूरा दृश्य आँखों के सामने खड़ा कर देती है-

हाथ-रिक्शा खींचेगा,

तपती सड़क पर घोड़े-सा दौड़ेगा

बहुतों को पीछे छोड़ेगा

और अपने तन से

लहू की एक-एक बूँद फींचेगा

पथराए पैरों को ढोकर

सँभालकर दमे से उखड़ती साँसें

मिर्च-नमक के साथ सत्तू फाँकेगा

अपनी सारी उम्र को

हरहे जानवर की तरह हाँकेगा

मुल्कभर की सारी पीड़ा

अपने ही भाग्य में टाँकेगा।

काम्बोज जी ने यह कविता 1989 में लिखी थी। तब से अब तक तीस वर्ष बीत जाने के बाद भी क्या मजदूरों की दशा में कोई परिवर्तन हुआ है? अब इस समय जब देश कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी से जूझ रहा है, देश में लॉकडाउन किया गया। इस संकट की भी सबसे अधिक मार झेलने के लिए यदि कोई अभिशप्त है, तो वह है मज़दूर। जिस शहर के लिए उसने खून-पसीना बहाया, वह उसके लिए पराया ही रहा। प्रवासी मज़दूर कहकर पराया कर देने वाले शहर में आज उसके लिए रोटी नहीं है। क्या करे? कहाँ जाए? अंततः पैदल ही गाँव की ओर निकल पड़ता है। विडम्बना देखिए ट्रेन की जो पटरियाँ मुसाफिर को गंतव्य तक पहुँचाती हैं, उन्होंने कई भूखे-थके, बेबस मजदूरों को दुनिया के पार पहुँचा दिया। इनके लिए कोई शोक भी नहीं करता। काम्बोज जी की यह कविता इतने वर्षों बाद भी वर्तमान परिस्थितियों में कितनी प्रासंगिक है, जो आज घटित हो रहा है, उसका यथातथ्य चित्रण इस कविता में हुआ है। बानगी देखिए-

सभी शहरों ने इसको

बेदर्दी से चूसा है

फिर भी यह पराया रहा हर शहर में

किसी ने इसको अपना नहीं कहा

अपना खून पिलाकर भी

यह न तो उन शहरों का रहा

न अपने देस का,

न पत्नी का, न बच्चों का।

ये पचास-साठ भी मर जाएँ

तो ख़बर नहीं बनते

किसी का दिल नहीं दहलता इनके मरने पर

कोई जाँच नहीं होती (पृ0129)

कवि का मन मजदूरों की इस दयनीय दशा से अत्यन्त क्षुब्ध है। लेकिन फिर भी उन्हें यह विश्वास है कि जो दूसरों के लिए मुश्किलें खड़ी करेगा, एक न एक दिन स्वयं ही उनमें फँसेगा-

कुछ तो इस धरती पर केवल, खून बहाने आते हैं।

आग बिछाते हैं राहों पर, फिर ख़ुद भी जल जाते हैं। (पृ-100)

कवि, समाज में नारी की लाचार स्थिति को देखकर भी आहत हो जाता है। हर युग में नारी अपमानित होती रही है। बड़े-बड़े धर्मराजों ने नारी सम्मान की धज्जियाँ उड़ाई हैं। अग्निपरीक्षा के बाद भी परित्यक्ता का जीवन बिताया है उसने। देवराज के छल का दण्ड भी उसी ने भोगा। आज तो स्थितियाँ और भी भयावह हो गयी हैं। नारी समझ नहीं पा रही है कि उसके प्रति समाज की सोच क्यों नहीं बदल रही है? वह यदि किसी तरह बाहर के दानवों से बच भी जाए, तो रिश्तों का लिबास पहने भेड़ियों से ख़ुद को कैसे बचाए? विधवा नारी की स्थिति तो और भी दयनीय है, समाज उसे जबरदस्ती साध्वी बना देते हैं। व्यवस्था और सत्ता बदलने से क्या हमारे संस्कार बदल जायेंगे? जब तक संस्कार और सोच नहीं बदलेगी स्थितियाँ जस की तस रहेंगी-

नारी

कहाँ नहीं हारी

अस्मत की बाजी

दाँव पर लगाते रहे

सभी सिंहासन

सभी पण्डित, सभी ज्ञानी

X x-x x x

रिश्ते भी जब भेड़िये बन जाएँ

तब किधर जाएँगे?

क्या किसी दुराचारी, पिता, मामा, चाचा आदि को

घरों में घुसकर खोज पाएँगे? (पृ0120)

समाज की विद्रूपताओं और जीवन के झंझा देखते-झेलते हुए भी कवि में निराशा का भाव नहीं है, क्योंकि जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण सकारात्मक और आस्थावादी है। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ अदम्य उत्साह के साथ जीवन संघर्षों का सामना करने की प्रेरणा देती हैं। वास्तव में सत् साहित्य का पुनीत कर्त्तव्य भी यही है। दुःखी जनों को ढाँढस बँधाते हुए वे लिखते हैं-

दुःख के बादल आएँगे, छाएँगे, बरसेंगे।

यह जीवन की रीत है बन्धु, तुम मत घबराना। (पृ0106)

आशा, आस्था और विश्वास मनुष्य के सच्चे साथी होते हैं। ये मन के वे दीपक हैं, जो बाधाओं की बड़ी से बड़ी आँधी में भी जलते रहते हैं। लक्ष्य की प्राप्ति भी उन्हीं को होती है जो निराशा से लड़कर सदा प्रयत्नशील रहते हैं-

भोर मन की हारती कब, घोर काली रात से

न आस्था के दीप डरते, आँधियों के घात से।

मंज़िलें उसको मिलेंगी जो निराशा से लड़े,

चाँद-सूरज की तरह, उगता रहे ढलता रहे। (पृ0113)

अंधकार में दीप जलाने और दर्द में गीत गुनगुनाने का साहस कोई आशावादी ही कर सकता है-

अँधियारे के सीने पर हम, शत-शत दीप जलाएँ,

दिल में दर्द बहुत है माना, फिर भी कुछ तो गाएँ। (पृ0173)

जनवादी कवि होने के नाते वे चाहते हैं कि हर घर में खुशियों का उजाला फैले। धरा पर कहीं भी दुःख-निराशा और घृणा का अंधकार न रहे। हर ओर प्यार एवं विश्वास की रोशनी हो। मनुष्य अपनी अज्ञानता को गर्व के आवरण में छिपाने में अपनी शक्ति और समय बर्बाद न करे। मनुष्य मात्र का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा है-

प्यार का संसार फैले

आँगन गली हर द्वार फैले।

दीप तुम ऐसे जलाना।

छल-कपट का हर बंध टूटे

नफ़रतों का सब खेल छूटे

x x-x x

जो सभी अभाव दूर कर दे

अज्ञान का गर्व चूर कर दे

दीप तुम ऐसे जलाना। (पृ0115)

काम्बोज जी के मन में सर्व साधारण के प्रति असीम प्यार है। वे उनका मार्ग प्रशस्त कर दुःख भरे जीवन में सुख का नया सवेरा लाना चाहते हैं। जीवन पथ के कंटकों को उनके मार्ग से हटाकर फूल बिछाना चाहते हैं। उनकी अभिलाषा अंधेरी देहरियों पर दीपक जलाने की हैं-

मैं बार-बार आऊँगा

लेकर फूलों का हार

तुम्हारे द्वार।

जितने भी काँटे पथ में

बिखरे हुए पाऊँगा

आने से पहले मैं

ज़रूर हटाऊँगा।

मैं बार-बार आऊँगा। (पृ0 139)

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की रचनाएँ मानवीय संवेदनाओं तथा आस्थावादी चिंतन से ओत-प्रोत हैं, जो पाठक के मन को आन्दोलित तो करती ही हैं, पथ प्रदर्शन भी करती हैं।

मैं घर लौटा (काव्य-संग्रह): रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु', वर्ष -2015, पृष्ठ 184, मूल्य(सजिल्द) :360/- प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली,नई दिल्ली-110030 -0-