मैं चुप रहूँगा / राजकिशोर
लोग मुझे पत्थर का सनम कहने लगे हैं। उनका मानना है कि नंदीग्राम में हुई सरकारी हिंसा पर बयान नहीं देकर मैंने मार्क्सवाद के साथ थोड़ी-सी बेवफाई की है। बेफवाई थोड़ी-सी हो या ज्यादा, है तो बेवफाई ही। इसलिए मुझे उनकी समझ पर तरस आता है। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि बंगाल के लेखकों और बुद्धिजीवियों ने प्रतिवाद जुलूस निकाल कर क्या कर लिया? बताते हैं कि बुद्धिजीवियों के आह्वान पर उस जुलूस में 60 हजार लोग शरीक हुए थे। मैं ऐसे जुलूस को जनवादी जुलूस मानने से इनकार करता हूँ। पहली बात तो यह है कि जिन बुद्धिजीवियों के आह्वान पर जुलूस में शामिल होने के लिए सौ-पचास नहीं, 60 हजार लोग उमड़ पड़ें, वे वास्तविक बुद्धिजीवी नहीं हो सकते। यह तो भीड़वाद है। मैं भीड़वादी नहीं हूँ। जनवादी हूँ। जन का अर्थ भीड़ नहीं होता। भीड़ में जब जनवादी चेतना का संक्रमण होता है, तब वह जन हो जाती है। जनवाद उसी की रक्षा के लिए है। जानम, समझा करो।
फिर, इस बात का क्या सबूत है कि कोलकाता के उस प्रतिवाद जुलूस में साठ हजार लोग ही थे? भारतीयों में न केवल इतिहास चेतना नहीं है, बल्कि उनमें संख्या की चेतना भी नहीं है। सुनते हैं, सांख्य नाम का एक वैज्ञानिक दर्शन का विकास इसी देश में हुआ था। इसके बावजूद भारतीयों की सांख्य दृष्टि बहुत अधूरी है। वे एक-दो-तीन से ज्यादा नहीं जानते। इसीलिए उनकी बुद्धि नौ दो ग्यारह हो चुकी है। अखबारों में लिख दिया, साठ हजार और सभी ने कहना शुरू कर दिया, साठ हजार। अरे भाई, किसी ने गिनती की थी? मैं बुद्धिजीवी हूँ। लोगों की बात पर क्यों जाऊँ? कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। असली बात यह है कि दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे। अगर संख्या से ही फैसला होना है, तो मेरी पार्टी कोलकाता में पाँच लाख लोगों का जुलूस निकाल सकती है। लेकिन हम संख्या नहीं, गुण देखते हैं।
इसीलिए हम जनवादी लोग बूर्ज्वा लोकतंत्र की निंदा करते हैं। अकबर इलाहाबादी ने इस लोकतंत्र की निन्दा करते हुए कहा था कि यह एक ऐसा सिस्टम है जिसमें बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते। लेकिन हमारे आलोचक गिनने में लगे हुए हैं। वे रोज गिनते रहते हैं कि नंदीग्राम में कुल कितने लोगों की हत्या की गई। इनमें से कितनी हत्याएँ कॉमरेडों ने कीं, कितनी पुलिस ने की और कितनी सीआरपीएफ ने। वे यह नहीं गिनते कि कितने जनवादियों को कितने समय से नंदीग्राम से बाहर किया हुआ था। यह कोई बात हुई? असली जनवादी तो गाँव के बाहर शरणार्थी शिविरों में और जनवादियों के दुश्मनों का नंदीग्राम पर कब्जा! यह इतिहास नहीं, इतिहास का विपर्यय है। हम ऐसे विपर्ययों को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे। चाहे हमें जान देनी पड़े या जान लेनी पड़े। क्या कॉमरेड स्टालिन लाशों की गिनती करते थे? क्या कॉमरेड माओ ने यह नहीं कहा कि सत्ता बंदूक की नली में रहती है?
मैं दिल्ली में रहता हूँ। बुद्धिजीवियों के लिए आदर्श जगह। कस्बे का बुद्धिजीवी जिंदगी भर कस्बे का ही बुद्धिजीवी बना रहता है - खोसला के घोंसले में। राष्ट्रीय स्तर पर उसे न कोई जानता है न पहचानता है। हम दिल्लीवाले नील गगन की छाँव में रहते हैं। आदमी दिल्ली आया नहीं कि उसे अपने आप राष्ट्रीय स्तर का मान लिया जाता है। यही ठीक भी है। दिल्ली के हम बु़द्धिजीवियों को हमेशा देश-विदेश की घटनाओं पर निगाह रखनी होती है और समय-समय पर बयान जारी करना पड़ता है। खास तौर पर हम हिन्दी के बुद्धिजीवियों को। हमारे द्वारा जारी किए गए बयानों पर पूरे देश की निगाह टँगी रहती है। देश से मेरा मतलब है, मध्य प्रदेश (भोपाल), उत्तर प्रदेश (लखनऊ और कुछ हद तक इलाहाबाद) और बिहार (पटना और कुछ हद तक गया)। लोग बताते हैं कि कानपुर, बरेली, मुजफ्फरपुर और इंदौर में भी हमारे संयुक्त बयानों को महत्व दिया जाता है। लेकिन मैं विश्वासपूर्वक कुछ नहीं कह सकता। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि बयान को किसने पढ़ा और किसने नहीं पढ़ा। महत्वपूर्ण यह है कि बयान लिखा गया और जारी किया गया। इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वही-वही लोग वही-वही बयान क्यों जारी करते रहते हैं। फर्क इससे पड़ता है कि ठीक समय पर और ठीक नामों के साथ बयान जारी हुआ कि नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि बयानबाजी में भी जाति प्रथा है। जब बड़ों के नाम आते हैं, तो छोटों के नाम छोड़ दिए जाते हैं। लेकिन हम इस तरह की आलोचनाओं से भ्रमित होनेवाले नहीं हैं। मार्क्सवादी हम हैं कि वे? सचाई का ठेका हमने ले रखा है कि उन्होंने? कब क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, यह करनेवाले तय करेंगे या तमाशा देखनेवाले? राजनीति सरकस नहीं है। यह एक गंभीर कर्म है - इसे जनता के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
इसीलिए मैंने, मेरा मतलब है कि हमने, तय किया है कि हम दुनिया भर की चीजों पर बयान देंगे, हुसैन पर बयान देंगे, नरेन्द्र मोदी पर बयान देंगे, लेकिन नंदीग्राम पर चुप रहेंगे। तसलीमा पर भी हम चुप रहेंगे। मैं कहना यह चाहता हूँ कि चुप रहना भी एक बयान है, जैसे बहुत अधिक बोलने के पीछे एक भयावह किस्म की चुप्पी रहती है। मेरी चुप्पी साधारण चुप्पी नहीं है। यह एक ऐतिहासिक चुप्पी है। यह मूर्ख चुप्पी नहीं है, समझदार चुप्पी है। इसका मर्म जो नहीं समझता, वह भारत में मार्क्सवाद के चरित्र को नहीं समझ सकता।