मैं पुरूष होने पर शर्मिंदा हूं / अरण्य रंजन
मुखपृष्ठ » | पत्रिकाओं की सूची » | पत्रिका: युगवाणी » | अंक: जनवरी 2013 |
अरण्य रंजन
साल भर पहले आज के दिन घटी घटना ने मुझे इतना उद्वेलित किया था कि मै अपने पुरुष होने पर शर्मिंदगी महसूस करने लगा था. उसी उद्वेलन में मैंने अपने रोष और भावनाओ को इस लेख के माध्यम से कहने की कोशिश की थी. लेकिन आज भी देखता हूँ साल भर बाद कोई ऐसा बदलाव मुझे नहीं दिख रहा है की मै आश्वस्त हो सकूँ कि अब मेरी बेटी, बहन दामिनी जैसा दर्द, नहीं सहेंगी. ना सरकार और ना ही समाज अपने आधे हिस्से के प्रति उदार हो पाया है. पिछले साल भर के संघर्षों से एक कानून बना. लेकिन क्या कानून बनाना ही इस बात का समाधान है. समाज की उस सडी गली कीचड़ और गंदगी भरी मानसिकता जागरूक तबके में भी उसी तरह विद्यमान है जिस तरह से गाँव के बूढ़े पुराने लोगो खाप में है. तो आज हम किसका और क्यों विलाप प्रलाप करें. जब तक हम अपने अन्दर बैठे उस पुरुष को नहीं मार देते जो कभी शेर तो कभी भेडीया बनकर अपने समकक्ष अपने सहयोगी को अपमानित, शोषित और जान से मारने में ही अपना अस्तित्व समझता है. ..