मैं बचा हूँ तो बचा है मनुष्य / अरुण होता

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समकालीन हिंदी कविता का इतिहास-फलक अत्यंत विस्तृत है। मुक्तिबोध नागार्जुन से लेकर एकांत श्रीवास्तव एवं भरत प्रसाद तथा निशांत तक की कविताओं में असंख्य पदचिह्न प्राप्त होते हैं। 1970 ई. से लेकर आज तक लगभग 40 वर्षों के काव्य-संसार को समकालीन हिंदी कविता के नाम से अभिहित किया जाता है। इस कालावधि में रची गई कविताएँ विविध रंग, रूप एवं स्वाद की हैं। समकालीन हिंदी कविता की विभिन्न प्रवृत्तियाँ हैं। उन प्रवृत्तियों पर चर्चा पुनरुक्ति ही होगी।

भक्तिकालीन एवं प्रगतिवादी काव्य को छोड़कर हिंदी काव्य में आम आदमी लगभग उपेक्षित ही रहा है। आम आदमी न केवल साहित्य में बल्कि समाज में भी हमेशा अवांछित रहता है। परंतु वस्तुस्थिति यह है कि आम आदमी के सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं होता। 'अपनी केवल धार' (1980), 'सबूत' (1989), 'नए इलाके में' (1996) और 'पुतली में संसार' (2006) के कवि अरुण कमल ने इस आम आदमी को सबसे कमजोर बताया है। उनके शब्दों में -

'बिलकुल निहत्था, पर हाथ बिना ऊपर उठाए

मैं हत्यारों से मिलने जाना चाहता हूँ

जाना चाहता हूँ उसकी तरफ से

जो सबसे कमजोर है।'1

अरुण कमल के सबसे कमजोर आदमी को संजय चतुर्वेदी ने छोटे आदमी कहा है। कवि संजय चतुर्वेदी इन छोटे आदमियों को एक-ब-एक खड़े होने का आग्रह करते हैं, ताकि हत्यारों तथा अत्याचारियों की क्रूर लीला समाप्त हो -

'खड़े हो छोटे आदमी खड़े हो

एक दूसरे का हाथ पकड़कर

नहीं तो बड़े आदमी का युग

कभी नहीं होगा समाप्त।' 2

आम आदमी को कवयित्री निर्मला गर्ग मामूली आदमी के नाम से जानती हैं। इस मामूली आदमी की मामूली सी इच्छाएँ अधूरी रह जाती हैं। पिछले बीस-तीस वर्षों से वह इन्हीं अपूर्ण इच्छाओं की अतृप्ति से पीड़ित है। कवयित्री के शब्दों में -

'कभी पहाड़ पर जाऊँगा

तो पहनूँगा उजली कमीज

मामूली आदमी की यह एक

गैर-मामूली इच्छा है

आज से बीस-तीस वर्ष पहले

यह मामूली इच्छा ही रही होगी

आज से बीस-तीस वर्ष बाद

यह मामूली आदमी की जेब से

बाहर छूट चुकी होगी

मामूली आदमी घिरा होगा तब

ऐसी ही अनगिनत

गैर मामूली इच्छाओं से।' 3

मामूली आदमी की विडंबनाओं तथा अभिशापित जीवन पर प्रकाश डालते हुए हेमंत कुकरेती की एक कविता का शीर्षक है - 'बादल घिरने पर इन दिनों' अपने अधिकारों से वंचित नागरिक की व्यथाओं के बादल घिरे रहते हैं। ऐसी स्थिति में अधिकारों से वंचित नागरिक की दुविधाग्रस्त जिंदगी, उसके पारिवारिक जीवन की अशांति, स्नेहिल वातावरण की कमी को रेखांकित करते हुए हेमंत कुकरेती कहते हैं -

'कल्याणकारी राज्य में अपने हकों से वंचित नागरिक

गटर में ढूँढ़ रहे थे ठिकाना

कैसा समाज बना रही थी राजनीति कि

परिवार में रिश्तों का नाम लेन-देन था

शराब की दुकानों पर भी नहीं थी बराबरी।' 4

यह कैसे समाज की रचना हो रही है जहाँ प्रेम के रिश्ते व्यवसायीकरण के आधार पर बन रहे हैं। मानवीय संबंधों तथा संवेदनाओं के क्षरण को कवि ने अपनी आलोच्य कविता में रेखांकित किया है।

कवि दिनकर ने कहा था 'श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं। माँ की हड्डी से चिपक-ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।' यह स्थिति आज की तारीख में भी यथावत है। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भूखे जन की पीड़ा पर प्रकाश डालते हैं और वर्ग संघर्ष का रेखांकन करते हुए कहते हैं -

'जब सधी हुई चम्मचों से चख रहे थे लोग

छप्पन व्यंजन

हरिया के हाथों से छूटकर गिर पड़ी भरी प्लेट

और इस तरह पकड़ा गया हरिया

भरपेट भोजन करते।' 5

आम आदमी कोल्हू के बैल की तरह जीवन जी रहा है। दिनभर जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद उसे आधा पेट भोजन नहीं मिल पाता। कठिन से कठिन परिश्रम करता है परंतु जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाता है।

हिंदी के वरिष्ठ कवि विजेंद्र की एक लंबी कविता है 'तस्वीरन अब बड़ी हो चली'। इसमें कवि ने एक युवा होती किशोरी की पीड़ा और त्रासदी को रूपायित किया है। गरीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण आदि की जीवंत तस्वीर तस्वीरन पेश करती है। वह केवल एक युवती नहीं बल्कि लाखों युवतियों की मूक-व्यथा को साकार करती है -

कोई नहीं जानता

फूलों को चुनते-चुनते

जुग बीता

जिनका

वे उनकी गंध नहीं ले पाए

गजरे गूँथे

हार बनाए

तब जाके घर में

ये दाने आए।

आज की सामाजिक / राजनीतिक व्यवस्था में यदि आम आदमी के अधिकारों का हनन हो तो वह शोषण के विरुद्ध आवाज कहाँ उठा पाता है?

कवि एकांत की लंबी कविता समय के सुरों से वनवासियों के जीवन-संग्राम को अभिव्यक्त करती है -

'दुखता रहता है जीवन

दुखते पाँव

और दुखते हुए जीवन के साथ

ये चलते रहते हैं

रास्ता बनाते हुए

नदियों में डूब गई जो सभ्यताएँ

क्या उनमें ये मनुष्य थे?' 6

सभ्यता का विकास निरंतर हो रहा है। परंतु सभ्यता में ऐसे आम आदमी का कोई स्थान नहीं है। पूँजीवादी सभ्यता में ऐसे अनुपयोगी पुर्जों की भला क्या पहचान हो सकती है?

कहते हैं कि भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की आँधी ने सारे संसार का काया पलट कर दिया है। परंतु कैसा परिवर्तन? कौन से नए रूप सामने आ रहे हैं। मानवता एवं भाईचारा के स्थान पर बाजार का प्रभुत्व किसने चाहा था? मानवीय संबंधों को कॉमोडिटी में बदलने की ख्वाहिश किसकी थी? बाजारवाद ने हमें कुछ दिया तो उसका सौ गुना हमसे छीन भी लिया है। उसके वर्चस्व ने आम आदमी को असुरक्षा एवं अनिश्चयता के चक्रव्यूह में उलझाए रखा है। आम आदमी की पीड़ा और उसके द्वंद्व के उकेरते हुए एकांत श्रीवास्तव कहते हैं -

'किस बात पर हँसूँ किस बात पर रोऊँ किस बात पर समर्थन किस बात पर विरोध जताऊँ हे राजन! कि बच जाऊँ।'7

आम आदमी सर्वदा उपेक्षित रहता है। चाहे देश का निर्माण हो अथवा किसी महत्वपूर्ण परियोजना को सफलीभूत करना हो, सभी कामों में आम आदमी की सक्रिय भागीदारी रहती है। आम आदमी काम करता है परंतु विशिष्ट व्यक्ति का नाम होता है। सैनिक युद्ध करता है परंतु जीत शासक की होती है। इतिहास में भी केवल शासक / राजा का नाम होता है। आम आदमी का वहाँ कोई स्थान नहीं है। उसे कभी-कभार दयातिरेक में फुटकल अथवा इत्यादि के अंतर्गत रख दिया जाता है। ऐसी स्थिति की व्यंजना करते हुए राजेश जोशी लिखते हैं -

'कुछ लोगों के नामों का उल्लेख किया गया जिनके ओहदे थे बाकी सब इत्यादि थे इत्यादि तादाद में हमेशा ही ज्यादा होते थे इत्यादि ही करने को वे सारे काम करते थे जिनसे देश और दुनिया चलती थी इत्यादि हर जगह शामिल थे पर उनके नाम कहीं भी शामिल नहीं हो पाते थे।'8

समकालीन कविता में गहरी संवेदनशीलता है। आम आदमी, बंधुवा मजदूर, बाल मजदूर के प्रति कवि की संवेदनशीलता अत्यंत मार्मिक है। बंधुवा बाल मजदूरों की समस्या पर राजेश जोशी की एक कविता है - 'बच्चे काम पर जा रहे हैं' जो हमारी व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती हैं -

'कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं सुबह सुबह बच्चे काम पर जा रहे हैं हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना लिखा जाना चाहिए इसे एक सवाल की तरह काम पर क्यों जा रहे हैं, बच्चे?' 9

समकालीन हिंदी कविता में आम आदमी के प्रति यह संवेदनशीलता निरंतर गतिशील प्रतीत होती है। आलोकधन्वा की 'बूनो की बेटियाँ' हो अथवा गोबिंद प्रसाद की 'कोई ऐसा शब्द दो' अथवा हेमंत कुकरेती की 'प्यासे को देते नहीं पानी' हो, सबमें मनुष्य की तलाश जारी है। हाशिये का जीवन जीने के लिए मजबूर प्रतिकूल सामाजिक अवस्था से निष्कासित आम आदमी की व्यथा-कथा से समकालीन कविता की जनोन्मुखी प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। हेमंत की कविता का निम्न अंश दृष्टव्य है -

'एक-एक करके सारे सूर्य सागर में दफन हो जाते हैं यह पहला सोमवार है या साल का आखिरी दिन समय को याद रखना कष्ट में होना है उससे छिपकर मैं रोज आता हूँ वह रोज बीत जाता है फिर भी मैं बचा हूँ तो बचा है मनुष्य' 10

'कविता में एक उमा की कहानी' शीर्षक कविता में कवि एकांत श्रीवास्तव एक तलाकशुदा नारी की बेबसी को व्यक्त करते हुए कहते हैं -

'मेरी और मेरी कविता की सदिच्छा बस इतनी है कि उमा को कहीं कोई छोटा-मोटा काम मिल जाए। और थोड़े से हरे पत्ते आ जायें एक झुलसे हुए पेड़ में सूखी नदी में उतर आए नए जल की धार।'11

भूमंडलीकरण आजादी का नहीं बल्कि गुलामी का भूमंडलीकरण है। सारा देश पूँजीवादी साम्राज्यवाद के चंगुल में फँस रहा है, अपसंस्कृति से आक्रांत हो रहा है। अपनी बहिरंगी चकाचौंध में चमकते देश की तुलना डिज्नी लैंड से करते हुए समकालीन हिंदी कविता की विश्वसनीय आवाज कात्यायनी याद दिलाती हैं कि ऐसे दुस्समय में सामान्य स्त्री की स्वतंत्रता की उम्मीद करना अनुचित है। कात्यायनी की 'एक आशंका' शीर्षक कविता का निम्न अंश दृष्टव्य है -

जल्दी ही देश में कई डिज्नी लैंड होंगे जल्द ही पूरा देश एक डिज्नी लैंड होगा क्या आशा करूँ कि उसके बाहर मेरा घर होगा?

साम्राज्यवाद ने हमारी संस्कृति को अमानवीय बनाया है। मानवीय नाते-रिश्ते वैभव के सामने ठिंगने-बौने प्रतीत हो रहे हैं। रजनी तिलक इस स्थिति का अहसास कराते हुए कहती है -

आज इस आधुनिक युग में गर्भ में ही कन्यावध होता है वहाँ से बच गए तो ससुराल में होता है उसका होम दहेज की आग में नारी इस युग की त्रासदी पतित संस्कृति की सुस्मिता सेन और ऐश्वर्य राय पूँजीवादी मकड़जाल का खिलौना।

सांप्रदायिकता की अग्नि में सारा देश प्रज्ज्वलित हो रहा है। यह भारत की ही नहीं, पूरे विश्व की एक प्रमुख समस्या है। इससे सर्वाधिक प्रभावित होता है आम आदमी। कवि मंगलेश डबराल के आम आदमी की स्थिति अत्यंत दयनीय है। आम आदमी के अंतर्गत मिस्त्री, कारीगर, कलाकार, मजदूर सभी समाहित हैं। मंगलेश डबराल के शब्दों में -

'और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो क्या छिपाए हुए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम कोई मजहब कोई ताबीज मैं कुछ कह नहीं पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था सिर्फ एक रंगरेज एक मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार एक मजदूर था।' 12

आम आदमी का वातावरण हिंसा का, अत्याचार का, शोषण का, भुखमरी का, गरीबी एवं विषमता का है। समकालीन कवियों ने इसकी ओर समाज का ध्यानाकर्षण कराने के साथ-साथ आम आदमी के बहाने संवेदनहीनता, संबंधहीनता पर भी अपनी चिंता जताई है। समाज में जी रहे या जीने के लिए विवश, हाशिए पर पड़े आम आदमी की समस्याओं, विसंगतियों और विडंबनाओं को समकालीन हिंदी कवियों ने आत्मीयता के साथ चित्रित किया है।

संदर्भ

1. अरुण कमल, नए इलाके में, पृ.23

2. चतुर्वेदी संजय, प्रकाश वर्ष, पृ.17

3. गर्ग निर्मला, कबाड़ी का तराजू, पृ.43

4. कुकरेती हेमंत, समकालीन भारतीय साहित्य, सितंबर-अक्टूबर, 2006

5. विश्वनाथ प्रसाद, स.भा.सा., सितंबर-अक्टूबर, 08

6. श्रीवास्तव एकांत, 'समय के सुरों से' पहल, 89, पृ. 140

7. श्रीवास्तव एकांत, अन्न हैं मेरे शब्द, पृ. 104

8. जोशी राजेश, दो पंक्तियों के बीच, पृ. 8

9. जोशी राजेश, 'बच्चे काम पर जा रहे हैं', समकालीन भारतीय साहित्य, जुलाई-सितंबर, 90)

10. कुकरेती हेमंत, 'प्यासे को देते नहीं पानी', समकालीन भारतीय साहित्य, अंक- 127, पृ. 137

11. श्रीवास्तव एकांत, 'एक उमा की कहानी' कथन, जनवरी-मार्च, 2000)

12. डबराल मंगलेश, गुजरात का विक्षोभ, पृ. 20-21