मैं भूत बनना चाहता हूँ / राजकिशोर
जब मैंने सुना कि अमिताभ बच्चन भूतनाथ का अभिनय करने के लिए तैयार हो गए हैं, मेरी खुशी की सीमा नहीं रही। चन्द्रकांता और चन्द्रकांता संतति मैंने बचपन में खूब चाव से पढ़ा था। उनके ऐयारों के सामने आज के जासूस पानी भरते हैं। उन ऐयारों का एक नैतिक स्तर हुआ करता था। जो ऐयार इस संहिता की परवाह नहीं करता था, उसे ऐयार समाज में नफरत की निगाह से देखा जाता था। भूतनाथ भी मैंने पढ़ा था, पर उसकी स्मृति बहुत कमजोर है। यह जानने के लिए कि क्या भूतनाथ में अदृश्य होने की क्षमता थी, मुझे आदरणीय राजेन्द्र यादव की मदद लेनी पड़ी। इसलिए नहीं कि मैं भी उन्हें ऐयार मानता हूँ। या खुदा, ऐसे नापाक खयालों से मुझे कोसों दूर रख। यह मुमकिन नहीं, तो दूसरी तरह के नापाक खयाल मेरे भेजे में डाल दे। वहाँ और भी बहुत-से नापाक खयाल पालथी मारे बैठे होंगे। अच्छी संगत रहेगी। यादव जी से मैंने इसलिए पूछा कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी है। इतनी अच्छी कि उन्हें यहाँ तक याद है कि हंस का प्रकाशन उन्होंने किस उद्देश्य से शुरू किया था।
यादव जी ने प्रथम श्रत्वा ही बता दिया कि भूतनाथ में अदृश्य होने की क्षमता नहीं थी। यह जान कर गहरी निराशा हुई। मैंने सोचा था कि नाम भूतनाथ है, तो वह भूतों के किसी गुट का हेड होगा। लेकिन वह तो बस नाम का ही भूतनाथ निकला। इसका मतलब यह है कि पहले भी ऐसे नाम रखे जाते थे जो यथार्थ से मेल नहीं खाते थे। तौबा, तौबा। इस मामले में हमने रत्ती भर भी प्रगति नहीं की है। खैर, मैं मानता हूँ कि प्रगति किसी पर थोपी नहीं जानी चाहिए, जैसे आज देश पर थोपी जा रही है। कोई चाहे तो प्रगति करे और न चाहे तो न करे। अब माता-पिताओं ने अपने बच्चों का नामकरण करने में प्रगति करना स्वीकार नहीं किया है, तो उन्हें दोषी कैसे ठहरा सकते हैं।
पर मैं भी जिद का पक्का हूँ। कायर नहीं हूँ कि कोई बात कहूँ और किसी ने उसे चुनौती दे दी, तो बात पलट दूँ। नेता भी नहीं हूँ कि कह दूँ कि मेरे बयान को ठीक से समझा नहीं गया। दसअसल, मैं तो भूतनाथ बनना चाहता था, पर संवाददाताओं ने नासमझी के कारण भूत लिख दिया। मुश्किल यह है कि देश की विकास दर चाहे जितनी बढ़ गई हो, आज भी भूतनाथ ही बना जा सकता है। बड़े-बड़े दार्शनिकों ने इस समस्या पर विचार किया है। उनके अनुसार, होने और बनने में फर्क है। आप हो सकते हैं, बन नहीं सकते। जैसे, प्रतिभाएँ होती हैं, बनाई नहीं जा सकतीं। इसी तरह, भूत होते हैं, बनते नहीं हैं।
दरअसल, भूत का मामला बहुत ही जटिल है। आजकल कहा जाता है कि यथार्थ बहुत ही संश्लिष्ट और बहु-स्तरीय होता है। अंग्रेजी में ऐसा कहते हैं, तो हिन्दी में भी ऐसा ही कहना होगा। वैसे, आज तक, नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी के सैकड़ों भाषण सुनने के बाद भी मेरी समझ में यह नहीं आ पाया कि इस दुनिया में कौन-सी चीज संश्लिष्ट और बहु-स्तरीय नहीं है। मैंने तो आदर्श को भी संश्लिष्ट ही पाया है। भूत होने का मामला भी इतना जटिल है कि आज तक इसका कोई फॉर्मूला नहीं जाना जा सका है। जो लोग कहते हैं कि अतृप्त आत्माओं को प्रेत योनि मिलती हैं, वे सरासर झूठ बोलते हैं। अगर इसमें थोड़ी भी सच्चाई होती, तो इस दुनिया में जितने इनसान हैं, उससे कई-कई गुना अधिक संख्या में भूत होते। मेरे जानते, हर आदमी में मृत्यु के क्षण तक कुछ न कुछ अतृप्ति रह जाती है। गांधी जैसा स्थितिप्रज्ञ व्यक्ति भी जिस वक्त मरा, पता नहीं कितनी कामनाएँ उसके मन में उमड़ रही होंगी। विभाजन के बाद का खून-खराबा खत्म नहीं हुआ था। उनका उत्तराधिकारी नेहरू उनसे उलटी राह पर चल रहा था। गांधीवादियों ने अपने हाथों से अपनी नसबन्दी कर ली थी। ऐसी स्थिति में गांधी जैसा व्यक्ति पूर्णकाम कैसे मर सकता था? बकौल अंकल गालिब, मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों।
तो? आप क्या सोचते हैं कि मैं भूत बनने का इरादा छोड़ने जा रहा हूँ? जी नहीं, धुन का पक्का हूँ। भूत होकर ही मानूँगा। इसके लिए कई दिशाओं में सोच रहा हूँ। एक दिशा यह है कि कोई एनजीओ बनाऊँ और किसी विदेशी संस्थान से अनुदान लेकर भूतों के बारे में रिसर्च करने का प्रोजेक्ट हासिल कर लूँ। और कहीं से नहीं तो दीनदयाल शोध संस्थान से पैसा मिल ही जाएगा। दूसरी दिशा यह है कि टीवी चैनलों के प्रोड्यूसरों से दोस्ती गाँठूँ। वे बात-बात में दो-चार भूतों से मिलवा देंगे। एक तीसरा तरीका यह है कि जहाँ-जहाँ बिजली नहीं पहुँची है, वहाँ-वहाँ के दौरे करूँ। सुना है, उन इलाकों में भूतों की अच्छी आबादी है। चौथा तरीका यह है कि मैं अपने को भूत घोषित कर दूँ, जैसे रजनीश अपने को भगवान बताने लगे थे। कृपया ध्यान दें कि चौथे तक आते-आते मेरा स्तर गिर गया। मैं फ्रॉड करने पर उतर आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि भूत-वूत का सारा मामला ही फ्रॉड है? आप भी देखिए, मैं भी पता लगाता हूँ। उदय प्रकाश ने कहा है कि मैं इधर से कविता को बचाने में लगा हूँ, तुम भी उधर कोशिश करते रहो।