मैं लेखक कैसे बना / अमृतलाल नागर
अपने बचपन और नौजवानी के दिनों का मानसिक वातावरण देखकर यह तो कह सकता हूँ कि अमुक-अमुक परिस्थितियों ने मुझे लेखक बना दिया, परंतु यह अब भी नहीं कह सकता कि मैं लेखक ही क्यों बना। मेरे बाबा जब कभी लाड़ में मुझे आशीर्वाद देते तो कहा करते थे कि "मेरा अमृत जज बनेगा।" कालांतर में उनकी यह इच्छा मेरी इच्छा भी बन गई। अपने बाबा के सपने के अनुसार ही मैं भी कहता कि विलायत जाऊँगा और जज बनूँगा।
हमारे घर में सरस्वती और गृहलक्ष्मी नामक दो मासिक पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती थीं। बाद में कलकत्ते से प्रकाशित होनेवाला पाक्षिक या साप्ताहिक हिंदू-पंच भी आने लगा था। उत्तर भारतेंदु काल के सुप्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य लेखक तथा आनंद संपादक पं. शिवनाथजी शर्मा मेरे घर के पास ही रहते थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र से मेरे पिता की घनिष्ठ मैत्री थी। उनके यहाँ से भी मेरे पिता जी पढ़ने के लिए अनेक पत्र-पत्रिकाएँ लाया करते थे। वे भी मैं पढ़ा करता था। हिंदी रंगमंच के उन्नायक राष्ट्रीय कवि पं. माधव शुक्ल लखनऊ आने पर मेरे ही घर पर ठहरते थे। मुझे उनका बड़ा स्नेह प्राप्त हुआ। आचार्य श्यामसुंदरदास उन दिनों स्थानीय कालीचरण हाई स्कूल के हेडमास्टर थे। उनका एक चित्र मेरे मन में आज तक स्पष्ट है - सुबह-सुबह नीम की दातुन चबाते हुए मेरे घर पर आना। इलाहाबाद बैंक की कोठी (जिसमें हम रहते थे) के सामने ही कंपनी बाग था। उसमें टहलकर दातून करते हुए वे हमारे यहाँ आते, वहीं हाथ-मुँह धोते फिर चाँदी के वर्क में लिपटे हुए आँवले आते, दुग्धपान होता, तब तक आचार्य प्रवर का चपरासी 'अधीन' उनकी कोठी से हुक्का, लेकर हमारे यहाँ आ पहुँचता। आध-पौन घंटे तक हुक्का, गुड़गुड़ाकर वे चले जाते थे। उर्दू के सुप्रसिद्ध कवि पं. बृजनारायण चकबस्त के दर्शन भी मैंने अपने यहाँ ही तीन-चार बार पाए। पं. माधव शुक्ल की दबंग आवाज और उनका हाथ बढ़ा-बढ़ाकर कविता सुनाने का ढंग आज भी मेरे मन में उनकी एक दिव्य झाँकी प्रस्तुत कर देता है। जलियाँवाला बाग कांड के बाद शुक्लजी वहाँ की खून से रँगी हुई मिट्टी एक पुड़िया में ले आए थे। उसे दिखाकर उन्होंने जाने क्या-क्या बातें मुझसे कही थीं। वे बातें तो अब तनिक भी याद नहीं पर उनका प्रभाव अब तक मेरे मन में स्पष्ट रूप से अंकित है। उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड की एक तिरंगी तस्वीर भी मुझे दी थी। बहुत दिनों तक वो चित्र मेरे पास रहा। एक बार कुछ अंग्रेज अफसर हमारे यहाँ दावत में आनेवाले थे, तभी मेरे बाबा ने वह चित्र घर से हटवा दिया। मुझे बड़ा दुख हुआ था। मेरे पिता जी आदि पूज्य माधव जी के निर्देशन में अभिनय कला सीखते थे, वह चित्र भी मेरे मन में स्पष्ट है। हो सकता है कि बचपन में इन महापुरुषों के दर्शनों के पुण्य प्रताप से ही आगे चलकर मैं लेखक बन गया होऊँ। वैसे कलम के क्षेत्र में आने का एक स्पष्ट कारण भी दे सकता हूँ।
सन 28 में इतिहास प्रसिद्ध साइमन कमीशन दौरा करता हुआ लखनऊ नगर में भी आया था। उसके विरोध में यहाँ एक बहुत बड़ा जुलूस निकला था। पं. जवाहर लाल नेहरू और पं. गोविंद बल्लभ पंत आदि उस जुलूस के अगुवा थे। लड़काई उमर के जोश में मैं भी उस जुलूस में शामिल हुआ था। जुलूस मील डेढ़ मील लंबा था। उसकी अगली पंक्ति पर जब पुलिस की लाठियाँ बरसीं तो भीड़ का रेला पीछे की ओर सरकने लगा। उधर पीछे से भीड़ का रेला आगे की ओर बढ़ रहा था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि दो चक्की के पाटों में पिसकर मेरा दम घुटने लगा था। मेरे पैर जमीन से उखड़ गए थे। दाएँ-बाएँ, आगे पीछे, चारों ओर की उन्मत्त भीड़ टक्करों पर टक्करें देती थी। उस दिन घर लौटने पर मानसिक उत्तेजनावश पहली तुकबंदी फूटी। अब उसकी एक ही पंक्ति याद है : "कब लौं कहो लाठी खाया करें, कब लौं कहौं जेल सहा करिये।"
वह कविता तीसरे दिन दैनिक आनंद में छप भी गई। छापे के अक्षरों में अपना नाम देखा तो नशा आ गया। बस मैं लेखक बन गया। मेरा खयाल है दो-तीन प्रारंभिक तुकबंदियों के बाद ही मेरा रुझान गद्य की ओर हो गया। कहानियाँ लिखने लगा। पं. रूपनारायण जी पांडेय 'कविरत्न' मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही रहते थे। उनके यहाँ अपनी कहानियाँ लेकर पहुँचने लगा। वे मेरी कहानियों पर कलम चलाने के बजाय सुझाव दिया करते थे। उनके प्रारंभिक उपदेशों की एक बात अब तक गाँठ में बँधी है। छोटी कहानियों के संबंध में उन्होंने बतलाया था कि कहानी में एक ही भाव का समावेश करना चाहिए। उसमें अधिक रंग भरने की गुंजाइश नहीं होती।
सन 1929 में निराला जी से परिचय हुआ और तब से लेकर 1939 तक वह परिचय दिनोंदिन घनिष्ठतम होता ही चला गया। निराला जी के व्यक्तित्व ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। आरंभ में यदा-कदा दुलारेलालजी भार्गव के सुधा कार्यालय में भी जाया-आया करता था। मिश्र बंधु बड़े आदमी थे। तीनों भाई एक साथ लखनऊ में रहते थे। तीन-चार बार उनकी कोठी पर भी दर्शनार्थ गया था। अंदरवाले बैठक में एक तखत पर तीन मसनदें और लकड़ी के तीन कैशबाक्स रक्खे थे। मसनदों के सहारे बैठे उन तीन साहित्यिक महापुरुषों की छवि आज तक मेरे मानस पटल पर ज्यों की त्यों अंकित है। रावराजा पंडित श्यामबिहारी मिश्र का एक उपदेश भी उन दिनों मेरे मन में घर कर गया था। उन्होंने कहा था, साहित्य को टके कमाने का साधन कभी नहीं बनाना चाहिए। चूँकि मैं खाते-पीते खुशहाल घर का लड़का था, इसलिए इस सिद्धांत ने मेरे मन पर बड़ी छाप छोड़ी। इस तरह सन 29-30 तक मेरे मन में यह बात एकदम स्पष्ट हो चुकी थी कि मैं लेखक ही बनूँगा।
काशी में उन दिनों अनेक महान साहित्यिक रहा करते थे। वहाँ भी जाना-आना शुरू हुआ। साल में दो चक्कर लगा आता था। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के दर्शन पाकर मैं स्फूर्ति से भर जाता था। शरत बाबू हिंदी मजे की बोल लेते थे। मुझसे कहने लगे, "स्कूल कॉलेज में पढ़ते समय बहुत से लड़के कविताएँ-कहानियाँ लिखने लगते हैं, लेकिन बाद में उनका यह अभ्यास छूट जाता है। इससे कोई लाभ नहीं। पहले यह निश्चय करो कि तुम आजन्म लेखक ही बने रहोगे।" मैंने सोत्साह हामी भरी। शरत बाबू ने अपना एक पुराना कि़स्सा सुनाया। 18-19 वर्ष की आयु में उन्होंने लेखक के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी। क्रमशः उनकी दो-तीन किताबें छपीं और वो चमत्कारिक रूप से प्रसिद्ध हो गए... तब एक दिन रास्ते में शरत बाबू को अपने कॉलेज जीवन के एक अध्यापक मिल गए। उनका नाम बाबू पाँच कौड़ी (दत्त, दे या बनर्जी) था। वे बांग्ला साहित्य के प्रतिष्ठित आलोचक भी थे। अपने पुराने शिष्य को देखकर उन्होंने कहा : "शरत, मैंने सुना है कि तुम बहुत अच्छे लेखक हो गए हो लेकिन तुमने अपनी किताबें पढ़ने को नहीं दी।" शरत बाबू संकुचित हो गए, विनयपूर्वक बोले : "वे पुस्तकें इस योग्य नहीं कि आप जैसे पंडित उन्हें पढ़ें।" पाँच कौड़ी बाबू बोले : "खैर, पुस्तकें तो मैं कहीं से लेकर पढ़ लूँगा, पर चूँकि अब तुम लेखक हो गए हो इसलिए मेरी तीन बातें ध्यान में रखना। एक तो जो लिखना सो अपने अनुभव से लिखना। दूसरे अपनी रचना को लिखने के बाद तुरंत ही किसी को दिखाने, सुनाने या सलाह लेने की आदत मत डालना। कहानी लिखकर तीन महीने तक अपनी दराज में डाल दो और फिर ठंडे मन से स्वयं ही उसमें सुधार करते रहो। इससे जब यथेष्ठ संतोष मिल जाए, तभी अपनी रचना को दूसरों के सामने लाओ।" पाँच कौड़ी बाबू का तीसरा आदेश यह था कि अपनी कलम से किसी की निंदा मत करो।
अपने गुरु की ये तीन बातें मुझे देते हुए शरत बाबू ने चौथा उपदेश यह दिया कि यदि तुम्हारे पास चार पैसे हों तो तीन पैसे जमा करो और एक खर्च। यदि अधिक खर्चीले हो तो दो जमा करो और दो खर्च। यदि बेहद खर्चीले हो तो एक जमा करो और तीन खर्च। इसके बाद भी यदि तुम्हारा मन न माने तो चारों खर्च कर डालो, मगर फिर पाँचवाँ पैसा किसी से उधर मत माँगो। उधार की वृत्ति लेखक की आत्मा को हीन और मलीन कर देती है।
मैं यह तो नहीं कह सकता कि इन चारों उपदेशों को मैं शतप्रतिशत अमल में ला सकता हूँ, फिर भी यह अवश्य कह सकता हूँ कि प्रायः नब्बे फीसदी मेरे आचरण पर इन उपदेशों का प्रभाव पड़ा है।
सन 30 से लेकर 33 तक का काल लेखक के रूप में मेरे लिए बड़े ही संघर्ष का था। कहानियाँ लिखता, गुरुजनों से पास भी करा लेता परंतु जहाँ कहीं उन्हें छपने भेजता, वे गुम हो जाती थीं। रचना भेजने के बाद मैं दौड़-दौड़कर पत्र-पत्रिकाओं के स्टाल पर बड़ी आतुरता के साथ यह देखने को जाता था कि मेरी रचना छपी है या नहीं। हर बार निराशा ही हाथ लगती। मुझे बड़ा दुख होता था, उसकी प्रतिक्रिया में कुछ महीनों तक मेरे जी में ऐसी सनक समाई कि लिखता, सुधारता, सुनाता और फिर फाड़ डालता था। सन 1933 में पहली कहानी छपी। सन 1934 में माधुरी पत्रिका ने मुझे प्रोत्साहन दिया। फिर तो बराबर चीजें छपने लगीं। मैंने यह अनुभव किया है कि किसी नए लेखक की रचना का प्रकाशित न हो पाना बहुधा लेखक के ही दोष के कारण न होकर संपादकों की गैर-जिम्मेदारी के कारण भी होता है, इसलिए लेखक को हताश नहीं होना चाहिए।
सन 1935 से 37 तक मैंने अंग्रेजी के माध्यम से अनेक विदेशी कहानियों तथा गुस्ताव फ्लाबेर के एक उपन्यास मादाम बोवेरी का हिंदी में अनुवाद भी किया। यह अनुवाद कार्य मैं छपाने की नियत से उतना नहीं करता था, जितना कि अपना हाथ साधने की नीयत से। अनुवाद करते हुए मुझे उपयुक्त हिंदी शब्दों की खोज करनी पड़ती थी। इससे मेरा शब्द भंडार बढ़ा। वाक्यों की गठन भी पहले से अधिक निखरी।
दूसरों की रचनाएँ, विशेष रूप से लोकमान्य लेखकों की रचनाएँ पढ़ने से लेखक को अपनी शक्ति और कमजोरी का पता लगता है। यह हर हालत में बहुत ही अच्छी आदत है। इसने एक विचित्र तड़प भी मेरे मन में जगाई। बार-बार यह अनुभव होता था कि विदेशी साहित्य तो अंग्रेजी के माध्यम से बराबर हमारी दृष्टि में पड़ता रहता है, किंतु देशी साहित्य के संबंध में हम कुछ नहीं जान पाते। उन दिनों हिंदीवालों में बांग्ला पढ़ने का चलन तो किसी हद तक था, लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य हमारी जानकारी में प्रायः नहीं के बराबर ही था। इसी तड़प में मैंने अपने देश की चार भाषाएँ सीखीं। आज तो दावे से कह सकता हूँ कि लेखक के रूप में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए मेरी इस आदत ने मेरा बड़ा ही उपकार किया है। विभिन्न वातावरणों को देखना, घूमना, भटकना, बहुश्रुत और बहुपठित होना भी मेरे बड़े काम आता है। यह मेरा अनुभवजन्य मत है कि मैदान में लड़नेवाले सिपाही को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए जिस प्रकार नित्य की कवायद बहुत आवश्यक होती है, उसी प्रकार लेखक के लिए उपरोक्त अभ्यास भी नितांत आवश्यक है। केवल साहित्यिक वातावरण ही में रहनेवाला कथा लेखक मेरे विचार में घाटे में रहता है। उसे निस्संकोच विविध वातावरणों से अपना सीधा संपर्क स्थापित करना ही चाहिए।
(1962 , टुकड़े-टुकड़े दास्तान में संकलित)