मैं से माँ तक / अंकिता जैन / पूजा रागिनी
अंकिता जैन की पुस्तक "मैं से माँ तक" की पूजा रागिनी द्वारा समीक्षा
सबसे पहले तो अंकिता जी तथा उनकी इस यात्रा के हर सहयात्री को 'मैं से माँ तक' का सफ़र तय करने तथा उनकी इस यात्रा को शब्दों में पिरोकर किताब की शक़्ल में लोगों तक पहुँचाने के लिए शुभकामनाएँ।
इस किताब के कवर पेज पर ही लिखा है कि ये किताब अनुभव यात्रा है। जो कि मात्र अंकिता जी की ही नहीं, बल्कि तमाम स्त्रियों की है जिन्होंने किताब में अपने अनुभव बताये है या जिन्होंने नहीं भी बताएँ हैं लेकिन माँ बनने का सफ़र तय कर रही हैं। ये किताब उन स्त्रियों की है जो पहले इस उलझन में रहती हैं कि माँ बनने का सफ़र तय करें या नहीं। इस मनोदशा से ये किताब शुरू होती है। लड़कियों के सपने अपने कैरियर को लेकर कितने भी ऊँचें क्यों न हो, वह अपने अस्तित्व के लिए कितनी भी लड़ाई लड़ लें लेकिन माँ बनकर मिलने वाली सम्पूर्णता सबसे ऊपर होती है। आज की पीढ़ी में शायद इस सम्पूर्णता के मायने बदल गए हों लेकिन सम्पूर्णता चाहिए सबको, किसी को शादी करके, लेकिन बच्चा नहीं तो किसी को केवल बच्चे से, चाहे शादी न करना पड़े। 'मैं से माँ तक' का सफ़र चाहे स्त्री खुद से तय करना चाहे या अपनों के लिए करना पड़े दोनों ही स्थितियों में शुरुआती दौर मुश्किलों और आश्चर्यों से भरा होता है। हाँ लेकिन किताब के माध्यम से अंकिता जी ने ये भी बताया है कि कुछ समय बाद जब ममत्व का संचार होने लगता है तो ये यात्रा हर कसक को भुलाने लगती है। फिर ये समय उत्सव की तरह लगने लगता है और हर समय खुद से ज़्यादा आने वाले कि चिंता में बीतने लगता है।
इस किताब में अंकिता जी और उनकी कुछ सहयात्री अपने अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि वह जब माँ बनी उस समय माँ बनने के लिए तैयार नहीं थी। अभी उन्हें कैरियर सेट करना था। अभी और ऊँची उड़ान भरनी थी। लेकिन कभी सामाजिक दबाव तो कभी किसी अन्य दबाव जैसे कि भावनात्मक दबाव (सास मरने से पहले पोते का मुँह देखना चाहती हैं) के कारण ये कदम उठाना पड़ा। हालांकि बाद में सुहानी जैसी महिलाएँ अपने बच्चे के साथ खुश रहती हैं। हो सकता है कि हर स्त्री पर ये बात लागू न हो लेकिन लड़कियाँ इस परिस्थिति से तालमेल बिठा ही लेती हैं और 9 महीने के समय को जीने लगती हैं। लेकिन अगर कोई महिला तालमेल न बिठा पाए तो उसके बड़े उसकी मदद करें और अगर मदद भी न कर पाएँ तो उन्हें छोड़ दें। हर प्रकार के भावनात्मक दबाव से मुक्त कर दें। तब सामने वाली स्त्री शायद इस यात्रा पर चलने के लिए बेहतर रूप से तैयार हो पाए. हाँ उम्र को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है। लेकिन जब आप अपनी बेटी या बेटे को मनपसन्द कैरियर चुनने देते हैं तो ये निर्णय भी उनपर छोड़कर देखें शायद जबरदस्ती माता-पिता बनने वालों की स्थिति बेहतर हो।
इस किताब के माध्यम से अंकिता जी ने अपने अनुभव साझा करते हुए गर्भपात की समस्या, कारण और निजात के लिए भी बताया है। साथ ही साथ ये भी बताया है कि गर्भपात के दुख से निपटने में आपका जीवनसाथी किस प्रकार मदद कर सकता है। पति भले ही पत्नी के शारीरिक कष्ट को नहीं बाँट सकता है लेकिन मानसिक रूप से उसका साथ देकर उसकी पीड़ा को कम ज़रूर कर सकता है क्योंकि सम्वेदना कभी भी स्ववेदना से बड़ी नहीं होती लेकिन स्ववेदना कम ज़रूर कर सकती है।
इस किताब में अंकिता जी और उनसे जुड़े लोगों ने वह सब बताया है जो उन्होंने अपने 'मैं से माँ' बनने तक के सफ़र में महसूस किया है। ये अनुभव यात्रा अपने आप में कितनी पूर्ण है। ये कहना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है, हाँ ये किताब अपने आप में अद्भुत ज़रूर है। ये किताब भावनात्मक पहलू को उजागर करते हुए कभी रुलाती है तो कभी आश्चर्य से भर देती है। इस किताब को कोई भी लड़की या लड़का जो माता-पिता बनने की राह में अग्रसर हो या फिर बहन-ननद, देवरानी-जिठानी, सास-ससुर, माता-पिता, जिसका कोई भी अपना इस यात्रा की तैयारी कर रहा हो या इस यात्रा से गुजर रहा हो उन्हें कम से कम एक बार ज़रूर पढ़नी चाहिए. ये किताब मात्र अंकिता जी की अनुभव से पिरोई हुई नहीं है बल्कि उनसे प्रश्न पूछते उत्तर पाते बहुत से लोगों के अनुभव से गुँथी हुई एक सामाजिक किताब है। कोई पुरुष यदि पिता बनने जा रहा है तो उसे ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए. अगर पहली यात्रा होगी तो ये किताब डगमगाने पर सम्हालेगी और अगर दूसरी बार की यात्रा होगी तो जीवनसंगिनी को समझने में जो भी भूल हुई होगी उसे सुधारने का मौका मिल जाएगा क्योंकि ये किताब इस स्थिति को बेहतर तरीके से बताती है कि पत्नी की उल्टी साफ करना उसकी स्थिति से गुजरने से कहीं ज़्यादा आसान है। उसपर से पत्नी जी अगर आपका पति आपको कम समझ रहा है तो उसे शांति से समझाएँ क्योंकि माँ बनकर जहाँ एक स्त्री पहले से ज़्यादा मजबूत होती है वहीं पुरुष पहले से कमजोर हो जाता है। वो अपने बच्चे की जिम्मेदारी अपने कंधों पर महसूस करने लगता है। उसकी भी बौखलाहट बढ़ने लगती होगी। इस किताब में कुछ पुरुषों ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया है कि काश मैं भी अपनी पत्नी की तरह अपने बच्चे को अपने अंदर रख सकता। कुछ पुरुष बताते हैं उन्हें लगता है कि यही वह समय है जब एक औरत बिना कुछ किये पुरुष को बता देती है कि वह कितनी ताकतवर है।
स्त्री होने के कारण माँ होना एक ऐसी यात्रा है जो जीवनपर्यंत चलती है। लेकिन ये किताब और इसमें बताए गए तमाम स्त्रियों के अनुभव माँ बनने की शुरुआती दौर की जटिलता को कम करने में मददगार हो सकते हैं। ये किताब एक माध्यम है जो आपको इस यात्रा से परिचित कराती है। हो सकता है आप अभी माँ बनी हों या बनने वाली हो या आपकी अनुभव यात्रा अंकिता जी की अनुभव यात्रा से थोड़ा अलग हो। तब भी इस किताब को पढ़ें क्योंकि ये किताब आपको उन परिस्थितियों को समझने और उनसे निपटने का आधार तो दे ही सकती है। आपकी इस यात्रा में जिस क्यों का जवाब आपको न मिला हो (चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक) वैज्ञानिक रूप से भी ये किताब उस क्यों को ढूंढने में मदद करती है। तमाम तरह के टर्म्स जिनको समझना मुश्किल होता है चाहे वह इम्प्लांटेशन ब्लीडिंग हो या फॉलिक एसिड की मात्रा, उन सबको भी समझने में और उनसे निपटने में मदद करती है ये किताब। जो लोग इस यात्रा में के सहभागी नहीं रहे हैं या जिन्हें अपनी माँ को और बेहतर ढंग से समझना हो वह भी इस किताब को पढ़ें। ताकि वह समझ सकें कि उनकी जन्मदात्री उन्हें इस धरती पर लाने के लिए किस प्रकार का शारीरिक, मानसिक, व सामाजिक दबाव झेला है। कई महीनों के रतजगे, कई बार उल्टी होने पर भी आप तक भोजन पहुँचे इसलिए खाना खाया, कई बार बिलावजह रोयीं, कई बार दर्द होने पर भी आपको कुछ दर्द न महसूस हो इसलिए चुप रही हैं, छाती की जकड़न से लेकर, इस्ट्रोजन टेस्टोस्टेरॉन जैसे हार्मोन्स की उठा पटक, बाथरूम से लेकर लेबर रूम तक के चक्कर न जाने कितने सोनोग्राफी से लेकर इंजेक्शन के दर्द और न भी न बयान की जाने वाली पीड़ा का परिणाम हो आप जो मुँह उठाकर पूछ लेते हो कि मम्मी आपने किया क्या है मेरे लिए?
और बेटे की चाह रखने वालों को ये किताब जवाब भी देती है जब अंकिता जी अपने पतिदेव से पूछती हैं कि आपको क्या चाहिए? तब उनके पतिदेव कहते हैं कि बस बेटी ही चाहिए. वंश कैसे चलेगा के जवाब में वह कहते हैं कि महाराणा प्रताप, या शिवाजी महाराज के वंशज का नाम बता सकती हो? जब महान व्यक्ति के वंशज का नाम नहीं मिलता तो मैं काहे अपने वंशज की चिंता करूँ। रही बात बुढापे के सहारे की तो हमारे माता-पिता ने अपने बच्चों में सहारा नहीं ढूंढा तो खुद्दार इंसान के बच्चे भी किसी में सहारा नहीं ढूंढते... अपने बच्चों में भी नहीं।
किताब के अंत में अपनी बात रखते हुए अंकिता जी बताती हैं कि वह कैसी माँ बनना चाहती हैं। वह अपनी माँ जितनी कुर्बान माँ नहीं बनना चाहती हैं। न तो व्यस्तता में अपने बेटे को भूलना चाहती हैं न अभ्यस्त होकर खुद को भूलना चाहती हैं। वह अपने बेटे को बेहतर इंसान बनाना चाहती हैं। जिसके लिए कोई भी काम स्त्री पुरुष के दायरे में न हो कि रसोई का काम माँ या बहन करे और बाहर का पिता या बेटा। बल्कि काम ज़रूरत के हिसाब से किया जाए. अंकिता जी चाहती हैं कि वह ऐसी माँ बने जो जितना अपने बच्चे के लिए जिये उतना ही खुद के लिए भी। 50 की उम्र तक पहुंचने पर खुद के लिए न जी पाने का मलाल नहीं चाहती। ये पाठकों एक लिए एक सुझाव भी है।
अंत में अंकिता जी और उनके साथ अपने अनुभव साझा करते सभी लोगों को शुभकामनाएँ। किताब के माध्यम से इस यात्रा की सजीवता बरकरार रखने के लिए धन्यवाद। अद्वैत के खुश और स्वस्थ जीवन के लिए दुआएँ।