मैं ही आई हूँ बाबा / निर्देश निधि
(रमाकान्त स्मृति पुरस्कार 2019 से सम्मानित कहानी)
माँ बहुत बूढ़ी हो गई है । इस बार उसने मुझे यह कहकर बुलाया है कि ‘मेरी ज़िंदगी का अब कोई भरोस्सा नईं, आक्के मिला जा।’ मैं अपनी पुलिस अफ़सरी की नौकरी से तो खैर फारिग हो गई; पर डॉक्टर साहब यानी अपने पति के साथ मिलकर बुज़ुर्गों की देखभाल के लिए एक संस्था चलाने में काफी व्यस्त हूँ । आखिर माँ मेरी सबसे प्यारी बुजुर्ग है, सो उसके बुलावे पर सारी व्यस्तता को धता बताकर उससे मिलने चली आई हूँ। वो और मैं नीम की छाँव तले बान की खोड़ी खाट पर लेटे हैं। पसीने में प्राकृतिक हवा के झोंके, देह को कितना सुख देते हैं शब्दों में कह पाने की मेरी सामर्थ्य तो कतई नहीं है। इन हवा के झोंकों ने माँ को बुढ़ापे की थकान की चादर ओढ़ाकर हौले से गहरी नींद में सुला दिया है और मैं इनकी नशीली थपकियों में जागते हुए भी लगभग सो ही रही हूँ। मेरे इकलौते भाई बबलू की दो बेटियों सहित गाँव की कई लड़कियाँ अपनी - अपनी स्कूटियों पर आज़ाद पंछियों की तरह चहचहाती, हँसती - खिलखिलाती हुई कस्बे में स्थित अपने कॉलेज से लौटी हैं। इनकी चहचहाहट ने मुझ उनींदी को चैतन्य कर दिया। बुआ नमस्ते, बुआ जी नमस्ते करती हुई, एक दूसरे को छेड़ती – छाड़ती ये लड़कियाँ अपने - अपने घरों की ओर चली गईं। माँ अपनी बुढ़ापे की थकान के साथ हवा के ठंडे झोंकों के नशे में और भी गहरी नींद में डूबती जा रही है और मैं डूबती जा रही हूँ अपने अतीत की गहरी बावड़ियों में, नीचे तली तक। सोच रही हूँ कि इन लड़कियों की इस तरह स्कूटियों पर सवार होकर चहचहाने की आज़ादी के नेपथ्य में मेरा भी बहुत बड़ा योगदान रहा होगा। बिगड़ैल कही जाने वाली चुन्नी यानी मुझसे, गाँव परेशान था या मैं गाँव से यह मतभेद का विषय है। मैं ईमानदारी से, सही - सही, सब कुछ बताने जा रही हूँ और फैसला छोड़ती हूँ आपके हाथ। अतीत की बावड़ी में सबसे पहले मेरी आँखों में दादी आ खड़ी हुई है। दादी यूँ तो हम सारी बहनों को खूब लाड़ - प्यार करती; पर जब उसकी सहेलियाँ हमारे घर में पाँच लड़कियाँ और एक लड़का होने को उल्टा लिंगानुपात बतातीं, तो उसके चेहरे पर उदासी और चिंता की लकीरें साफ - साफ दिखाई देने लगतीं। और वह दो - चार घंटे या उस पूरे दिन, हम बहनों से बात न करती। मैं चुटकी लेती, “क्यों दाद्दी आज फेर सहेल्लियों सै मंतर लेक्के आई है क्या, जो मुँह फुलाओ घूम रई, ज़रा बात न कर रई आज तो। ए दाद्दी आज कौन सी कू हाथ लग गई थी तू, सरोज चाच्ची कू या; पर धान्नी ताई कू, बता तो सई।”
मेरे इस प्रश्न से सहेलियों द्वारा भड़काया जाना नेपथ्य में चला जाता और उसके होठों पर बरबस ही एक निश्छल मुस्कान तैर जाती, जिसे वह मुझसे छिपाने का पुरजोर प्रयास करती। यानी जो दादियाँ पोती के पैदा होते ही उसे चाक्की के पाटों तले दबाकर कह देतीं थीं, “जा, जाक्के सोयना (सुंदर) सा भैया भेजिए।”
उन दादियों की अपेक्षा हमारी दादी कुछ तो अपने मन को साध पाई थी; पर इतना भी नहीं कि दूसरी औरतें उसे भड़काएँ और वह आत्मविश्वास के साथ कह सके कि, “क्यों, मेरी पोतियाँ किसके पोतों से कमतर दिखती हैं या क्या फर्क है लड़के और लड़कियों में?”
हाँ कभी- कभार यह ज़रूर कह आती, “अरी हाँ मेरी पाँच- पाँच पोत्ती हैं तो क्या, थारे घर तो माँगती- खात्ती ना फिर रईं। उनके हिस्से का भतेरा दे रया राम जी हमैं।”
मैं पूरे गाँव में मुँहफट होने के लिए कुख्यात थी, कभी- कभी गाँव की औरतों को मैं खुद ही करारा जवाब थमाकर आ जाती। एक बार दादी के मना करते- करते प्रधानी ताई तक को कहकर आ गई थी कि “पाँच - पाँच हैं तो क्या होया, तुम्हारे घर कुछ माँगने आ रए हैं हम? हुंह....आई बड़ी। थारे टुन्नू, मुन्नू और इस रहटल रमेस जैसे लौंडों सै तो हम सैरी बहनें अच्छी हैं।”
प्रधान्नी ताई उस दिन सीधी चली आईं थीं मेरी माँ को लताड़ने; क्योंकि उनके अनुसार मेरी “बेवकूफ” माँ ने एक तो पाँच-पाँच लड़कियाँ पैदा कीं, ऊपर से मुझे ‘लड़कियों की तरह’ रहना नहीं सिखाया था। आकर बोलीं थीं, “चुन्नी नाम की ये बिगड़ैल पतुरिया क्या गुल खिलागी बस देखते ई जाओ। इस पै ना किसी की रोक है, ना टोक, एक दिन नाम रोस्सन करैगी, थारे साथ - साथ पूरे गाँव का बी।”
माँ ने उस दिन मुझे बहुत डाँटा था। सच कहूँ तो माँ और दादी की डाँट-डूँट से मुझे कोई; पर हेज भी नहीं रह गया था, ना कोई असर ही होता था क्योंकि वे दोनों तो मुझे हर बात पर ही डाँटती थीं। फिर भी एक बड़ी और तीन छोटी बहनों का तो मैं कहती नहीं; पर मैं घर में रहती उसी शान से, जिससे मेरा इकलौता भाई बबलू रहता।
कई बरस पहले मोटरसाइकिल चलाते वक्त बाबा की किसी भैंसा- बुग्गी वाले से टक्कर हो गई थी। उनके दाहिने पैर के टखने में गंभीर चोट लगी थी जिसकी वजह से उनका वह पाँव सामान्य नहीं हो सका था और उसका एंगल मोटरसाइकिल के ब्रेक पर ठीक नहीं बैठता था। मोटरसाइकिल चलाते वक्त कई बार उन्हें चोट लगते - लगते बची थी, अतः धीरे - धीरे उनका मोटरसाइकिल चलाना छूट गया था। इसीलिए बाबा ने बबलू को उसके बालिग होने से पहले ही मोटरसाइकिल चलाना सिखा दिया था। अतः वह बबलू की ही हो गई थी, जिसे झाड़ती- पोंछती मैं थी; पर बबलू कभी धेला भर अहसान न मानता, क्योंकि उसे अपने घर का इकलौता बेटा होने का पूरा - पूरा एहसास था। वह हर समय खुद के लड़का होने के नाते विशिष्ट होने का रोब झाड़ता रहता, उससे बेहद प्यार होने के बावजूद मुझे उसकी यही बात भीतर तक भेद देती और मैं तिलमिला उठती। एक दिन यूँ ही बहस करते हुए वह मुझसे कह बैठा, “मेरी बराबरी कल्लेगी तू? मैं तो मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर सब चलाऊँ हूँ , घर- बजार के दस काम करूँ। तू चला लेगी मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर? जोत लेगी खेत, कर लागी बजार के काम ?”
“हाँ हाँ चला लूँगी मोटरसाइकिल- ट्रैक्टर, इनै चलाने में कौन सी फारसी की आँख है, कोई दे तो मुझे चलाने कू।” मैंने थोड़ा खिसियाते हुए कहा था बबलू से। खिसियायी यूँ कि इस तरफ तो कभी ध्यान ही नहीं गया था कि बबलू मुझसे दो बरस छोटा होकर भी फर्राटे से बाबा की मोटरसाइकिल और ट्रैक्टर चलाता, खेत जोतता था।
“लेल्ले, यो रक्खी चाब्बी ठा ले। ताले में थोड़ई रक्खी, लेज्जा। देक्खें भला चला भी लेगी। गिरने- पड़ने, हाथ- पैर टूटने की ज़िम्मेदारी तेरी अपनी, मुझे मतना कहिए कुछ।”
बबलू ने अकड़कर चुनौती दी। मैंने चुनौती गंभीरता से ली थी और दृढ़ता से कहा था,“हाँ- हाँ मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है, तुझे ठेक्का ना दे रई बबलू ठेकेदार।”
अपनी जिम्मेदारी खुद लेने का सुख तो मैं न जाने कैसे बचपन में ही जान गई थी। बबलू के द्वारा दी गई इस चुनौती के बाद मेरे लिए दोनों वाहन चलाना तुरंत सीखना आवश्यक हो गया था। बस थोड़ा डर गिरने, हाथ - पैर टूटने का लगा तो; पर इतना नहीं कि वो डर मुझे प्रयास करने से रोक पाता। मैंने दादी- दादा, माँ-बाबा, गाँव वाले सबसे लुक- छिपकर धड़कते दिल से बबलू के ही साथ बाबा की मोटरसाइकिल पर हाथ साफ करना शुरू कर दिया। गिरी भी, चोट भी खाई; पर मरी नहीं। मेरा न मरना ही मेरे हार ना मानने का संकेत था। शुरुआती दिनों में मेरे साथ बबलू भी गिरा, गनीमत थी कि चोट लगने से बच गया; पर फिर वो मेरे पीछे कभी नहीं बैठा। मुझे उससे बिल्कुल शिकायत नहीं थी। मेरे लिए यही काफी था कि उसने घर में किसी को बताया नहीं था कि मैं मोटरसाइकिल चलाना सीख रही थी। इस ना बताने के बदले उसके हिस्से के लगभग सभी भारी- भरकम काम मैं ही करती थी। मैं मोटरसाइकिल को बिना स्टार्ट किए, चुपचाप खींचकर ले जाती, कोई देख लेता तो कह देती बबलू मँगा रहा है। पश्चिम के खेतों की तरफ घने झूँडों (काँस) से घिरे कच्चे रास्ते पर पहुँचकर उसे स्टार्ट करती, कपड़े भी कुछ इस तरह के पहनती कि जल्दी से कोई पहचान न पाए। आंशिक रूप से, किसी फटके से अपना चेहरा भी ढके रखती। मोटरसाइकिल को पूरी तरह चलाना सीखने में मुझे अधिक देर नहीं लगी।
आखिर मोटरसाइकिल जैसी फट-फट करके दहाड़ने वाली चीज़ को कितने दिन छिपाकर चलाया जा सकता था! मेरी सारी सावधानी और चतुराई रखी रह गई तब, जब जल्दी ही एक दिन हमारे गाँव के प्रधान ताऊ जी मुरली सिंह ने मुझे मोटरसाइकिल चलाते हुए देख लिया। प्रधान ताऊ जी के तो सामने से गुजरते हुए भी गाँव की सारी लड़कियाँ डरती थीं। बहुएँ तो उनकी; पर छाईं से भी छिप- छिपाकर ही गुजरतीं। ऐसे ताऊ जी को गाँव की एक लड़की मोटरसाइकिल चलाती दिख गई थी। बस, फिर क्या था। सीधे हमारे घर चले आए थे, बाबा को आगाह करने। “अभी तक गाँव की इज्ज़त बनी होई है जिले सिंह। इस लौंडिया कू इतना भी आसमान मैं मत उड़ाओ भई कि यो खुद तो मुँह के बल गिरईं और गिरे भी थारेई (तुम्हारे) ऊप्पर। पढ़ाने- लिखाने की मनाही तो ना थी भई; पर अब तो हद्दी हो गई, गाँव के लौंडो की तरो थारी मोटरसाइकल लियो घूम रई थी।”
बाबा ने विरोध किया, “चुन्नी को न किसी और को देख लिया होगा भाई जी आपने, इसै तो आत्ती ना मोटरसाइ....... ” “मैंन्ने खुद अपनी आँक्खों सै देक्खा है जिले सिंह, इतनी खराब ना है मेरी नज़र।”
प्रधान ताऊ जी बाबा की बात बीच में ही काटकर थोड़ी तल्खी से बोले थे। बाबा उत्तर में चुप ही रह गए थे;क्योंकि करने को तो मैं कुछ भी कर सकती थी, बाबा यह तो जानते ही थे।
“गौर करियो, कुछ ऊँच- नीच हो गई तो गाँव की लौंडियो के ब्याह होने मुश्किल होज्जांगे। मैं रोज़- रोज़ ना आनेका हूँ याद दिलानै।”
प्रधान ताऊ जी चेतावनी देकर चले गए थे। उस दिन उनके भाषण पर चुप रह जाने से अपमानित होकर बाबा ने मुझसे तो कुछ नहीं कहा था; पर माँ पर बहुत गुस्सा किया, मुझे बिगड़ने देने के लिए। उस रात उन्होंने खाना नहीं खाया था। अगर कोई डाँट दे तो गलती करने वाला अपनी गलती फिर भी छोटी मान लेता है परंतु, अगर डाँटने वाला अपने आप को सज़ा दे, तो फिर गलती करने वाले का पछतावा बड़ा हो जाता है। बाबा जब भी किसी बात पर नाराज़ होते तो खाना ना खाकर हमारे पछतावे को बड़ा कर देते; पर ना जाने क्यों उस दिन मुझे कोई अपराध लगा नहीं था अपना और मैं उस रात बाबा के खाना न खाने के बावजूद अपने पछतावे का स्वरूप उतना भी पसरा हुआ नहीं देख पाई थी, जितना हर बार होता था। इतना तो मुझे विश्वास ही था कि मोटरसाइकिल चलाना सीख लेना खून का अपराध तो था नहीं कि मुझे फाँसी दे दी जाती या किसी ठाकुर की बेटी का अपने ही गोत्र के लड़के से प्रेम करने जैसा ‘संगीन अपराध’ भी तो नहीं था, जिसकी वजह से खाप पंचायतें मुझे मौत की सज़ा सुना देतीं। कुछ भी हो; पर उस दिन के बाद बाबा की भृकुटियाँ मेरी तरफ हमेशा के लिए तन गईं थीं। मेरे और उनके बीच वार्तालाप न के बराबर ही रह गया था।
माँ ने उस दिन मुझे खाना दिया तो थोड़ी- सी ना- नुकर की थी मैंने, फिर लगा कि माँ कहीं वापस ही न ले जाए अतः मैंने थाली उनके हाथ से ले ली और छककर खाना खाया।
“देख कैसी खा रही है गपड़ – गपड़, ज़रा- सा पछतावा न है मन मैं। पछतावा तो क्या, चेहरे पै ज़रा सी सिकन तक बी न। बाबा नै रोट्टी न खाई यो पता है तो बी ।” जीजी ने फबती कसी।
“जिज्जी मुझे न पता था कि बाबा ने रोट्टी ना खाई, अन्नईं मैं एक टुकड़ा बी न खात्ती।” मैंने पूरी मासूमियत के साथ अनभिज्ञता प्रकट की जिस पर मुझे खुद ही हँसी आ गई, तो मैंने मुँह छुपा लिया। इसपर जीजी खीझ कर बोलीं, “जित्ती रोट्टी बची है उत्ती छोड़ दे, खा मेरे सिर की कसम कि तुझे पता न है कि बाबा नै रोट्टी न खाई ।” “...” हँसी दबाते- दबाते मैंने ना में गर्दन हिलाई।
“तेरे झूँट्टों पै एक दिन आसमान गिर पड़ेगा चुन्नी, गिरेगा भी तेरे ही ऊप्पर, यो बी देख लिये।” कौन जाने जीजी मुझे ये चेतावनी दे रही थी, या बददुआ।
“तेरे सिर की ‘खसम’ जिज्जी ना पता।” जीजी को क्या पता कि कसम की जगह खसम बोलकर मैंने झूठी कसम खा लेने पर उन्हें मर जाने से बचा लिया था। मेरे द्वारा जबरन छीन ली गई आज़ादी से ईर्ष्या, कुंठा ज़रूर रही होगी जीजी में, तभी तो माँ से बात- बात पर मुझे प्रताड़ित करवाकर संतुष्टि पाती। जैसे, “माँ देक्खो यो चुन्नी बिस्तर पै कमर के बल सीद्धी सो रई।”
माँ इसी बात पर मुझ पर गुसियाने लगतीं, “चुन्नी करवट लेक्के सो, कमर मोटी होज्जागी, कुछ तो लौंडियों सी रह जा।”
“अरी माँ, तू जिज्जी समेत अपनी चारों लौंडियों कीई करवा ले कमर पतली, उनईं बना ले कामनी, मुझै तो तू बखस ई दे, मुझै ना चईए पतली कमर। और हाँ, मैं दूसरी लौंडियो की तरो क्यों रऊँ, दूसरी लौंडिए मेरी तरो क्योन्ना रहमैं भई? जब पाँचवीं कक्षा के बाद मेरा भी स्कूल जाना बंद किया जाने लगा तो एक दिन मैंने अपने मुँहफट होने का फायदा उठाकर दादा जी से कहा कि, “वैसे तो तुमनै स्कूल के लियो अपनी गाढ़ी कमाई की पाँच बीघे ज़मीन दान मैं देद्दी और अपनी ई पोत्ती कू उसमैं पढ़न कोयना देत्ते। तो बनाया ई क्यों था स्कूल? पाँच बीघे का पैदा गेहूँ आद्धे बरस तक सैरे खानदान का पेट न भरता भला।”
“चुप रह मुँहफट्टो, समझ रया हूँ किसके जुमले उछाल रई है तू मेरे ऊप्पर?” दादा जी ऐसा बोलकर दालान की तरफ चले गए। दादी जब भी दादा जी पर भड़कतीं उन्हें यही ताना मारतीं, “पाँच बीघे ज़मीन फालतू में दान कर दई जब अपने ई बाल्लक ना पढ़ने थे, इस कुच्चा लगे स्कूल में। मेरे बालक की ज़मीन और कम कर दई नास पिट्टे नै।” जब बूढ़ी दादी, दादा जी को इतना कसा हुआ ताना मार सकती थी, तो मैं नई उमर की लड़की मोटरसाइकिल चलाना क्यों नहीं सीख सकती थी जी? तर्क तो चाक चौबन्द था ।
जीजी को तो पाँचवीं कक्षा के बाद घर ही बैठा लिया गया था; पर मेरे लिए बाबा न जाने कैसे इतने उदार हो गए थे कि मुझे आगे भी स्कूल जाने दिया गया। हालाँकि मेरे नाम बहुत शिकायतें थीं, कि फलाँ के बाग से आम तोड़ लाई, या फलाँ के खेत से गन्ने चुरा लाई, कि फलाँ के खेत से चने के साग का सफाया कर दिया या, फलाँ के कपास के डोडे तोड़ - तोड़ छितराकर हथेली पर रखकर यूँ ही फूँक मार - मार रुई हवा में उड़ा दी, फलाँ के बच्चे को इतना खिझाया कि वो रोता- रोता ही चुप ना हुआ या किसी से चिढ़ गई तो उसकी बुग्गी के टायरों की हवा निकाल दी, या किसी के सारे डंगर ही खूँटे से खोल दिये। क्या पता मुझे ये सब शैतानियाँ क्यों सूझती थीं, जो कि अक्सर बाबा के एक टाइम खाना न खाने का कारण बनतीं। मैं अपने मन में यही सोचकर संतोष कर लेती,“क्या होया जो बाबा एक टैम की रोट्टी ना खानेके, कल तो खाई लेंगे न। एक-आध टैम उपवास भी ठीक ही रहवै।” पर इस विचार को मैंने शब्दों में ढालने का खतरा कभी मोल नहीं लिया।
मैं पढ़ती जी लगाकर और फालतू के वो काम, जिन्हें सिर्फ मुझे इसलिए नहीं करना था कि मैं लड़की थी, उन्हें करती और भी ज़्यादा जी लगाकर। ज़ाहिर है मैं रोज़ किसी न किसी बात पर घर के किसी न किसी सदस्य से डाँट खाती; पर मैं ठहरी चिकने घड़े की भी दाहिनी, बूँद भर पानी भी न टिक सके तो बातों के घाव तो मुझपर क्या ही टिकते। मेरे इस चिकनेपन पर जीजी मेरे लिए यह कहावत लगभग रोज़ ही बोलती, “जिसकी उतर गई लोई, उसका क्या करेगा कोई।”
मेरी डाँट पड़ने के बाद, जिस दिन वह ये कहावत नहीं बोलती तो मैं ख़ुद ही उसके बिलकुल पास जाकर उसके कान में ज्ञान से भरी यह कहावत दोहरा देती, जिस पर वह आग-बबूला हो उठती और एक ब्रांड न्यू डाँट मुझे पड़वाने की जुगत भिड़ाती।
बाबा को कोई गुस्सा किए चार-पाँच दिन बीत गए थे। रात को खाने के बाद हम छहों बहन-भाई आपस में हँसी-मज़ाक कर रहे थे। मैं ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से हँस रही थी, बाबा बैठक से उठकर भीतर आए और आकर मुझपर क्रोधित हुए, "चुन्नी... सारे गाँव मैं आवाज़ जा रही है तेरे हँसने की, क्या कैंगे लोग, बेशऊर! जो हँसना ई है तो ज़रा धीरे हँस ले। लौंडिये तो ये दूसरी बी हेंई (यहीं) हैं, इनमैं सै तो किसी के हँसने की आवाज़ बैठक तक बी ना जा रई। तू ई अनोक्खी है बस...?"
मुझे डाँटकर बाबा चले गए। बाबा के जाते ही मैंने छोटी बहन बबीता की तरफ़ मुँह किया और अपने सीने पर हाथ मारकर बोली, "यो मेरा घर है, मैं कब हँसू कब ना, कित्ती ज़ोर सै हँसूं कित्ती धीरे, मैं ख़ुद तय करूँगी, क्यों बबीता?" और ज़ोर का ठहाका लगाया। बाबा लौटकर आए। इस बार मेरी खाट के पायताने आकर खड़े रहे और मेरे ढीठपने पर न जाने क्या सोचकर बिना कुछ कहे ही लौट गए।
एक मजे की बात यह हुई कि गाँव वाले अपनी लड़कियों को मुझसे इस तरह दूर रखते जैसे मैं कोई आवारा लड़का थी और उन्हें अपने साथ भगाकर भी ले जा सकती थी। गाँव वाले तो क्या मेरी अपनी माँ, मेरी छोटी बहनों बबीता, निम्मो और रिंकी को मुझसे अलग रखने लग गई थी। सरोज चाच्ची की आशा ही थी जो मेरी कक्षा में पढ़ती थी और कभी-कभी मेरे साथ आने का साहस करती थीपर जबसे मैंने मोटरसाइकिल चलाना सीखा, उसका भी मेरे साथ आना बंद करा दिया गया। सरोज चाची यानी उसकी माँ ने बोल दिया, "देख चुन्नी, आसा की तरफ़ तो तू देखियेयी मत। उसके बाबा तेरे बाबा की तरो न हैं जो अपनी लौंडिया कू आवारागर्दी करने कू छुट्टा छोड़ दें।"
"मतलब मेरे बाबा खराब हैं चाच्ची? और मैं आवारा कैसे हो गई, ज़रा बताओ तो?" मैंने अपने अंदाज़ में पूछा था।
"चुन्नी जा बस। मैं तेरे जैसी मूँफट के मूँ ना लगना चाहती, जो छोटा देक्खे न बड़ा, गाँव के लौंडों की तरह आवारा बनी घूमती रै बस।"
"गाँव के सैरे लौंडे बुरा मान जाँगे चाच्ची, सबी कू आवारा बता रई हो, सोच लो।"
सरोज चाची ने अपने सिर पर पड़ा पल्ला मेरी तरफ़ वाले अपने मुँह पर भी डाल लिया। इस तरह आशा का साथ भी छूट गया। अब मेरी कोई दोस्त नहीं थी। वैसे भी मैं गाँव की या कक्षा की चट्टी-बट्टियों को अपने सामने समझती ही कुछ नहीं थी। एक बार कक्षा में अंग्रेज़ी के मास्टर जी ने जीनियस का अर्थ बताने के बाद यह कहा था कि जीनियस का कोई दोस्त नहीं होता। बस मैंने यही बात गाँठ बाँध ली थी।
मज़ा तो तब आया जब मैं अच्छे नंबरों से पास हुई और आशा गच्चा खा गई, मतलब फेल हो गई उसे प्रेम जो हो गया था एक गधे टाइप लड़के से। घर में जब उसके फेल होने का कारण पता चला तो उसका स्कूल जाना बंद करा दिया गया। मैं अपने पास होने के लड्डू जान-बूझकर, चाच्ची के घर ख़ुद देकर आई। मुझे देखकर चाच्ची का खून खौल गया या खिसिया गईं या दोनों ही, ठीक-ठीक पता न चला। मैंने चाच्ची से कह भी दिया, "चाच्ची आशा कू किसी लड़के से प्रेम ई तो हो गया था, ऐसा कोई पाप तो कर ना दिया था इन्नै, तुमनै तो इस बिचारी की पढ़ाई छुड़ा दई लो बताओ।"
आशा मुझे देखकर कोट्ठे में घुस गई। मैं लड्डू देकर आशा के घर से चली तो मेरी तहेरी भाभी ने अपनी दुवारी में मनिहार बैठा रखा था। मुझसे बोलीं, "चुन्नी आओ चूड़ी पहर लो।"
"चूड़ी? मैं क्यों पहर लूँ चूड़ी, तुमी सज लो इन्हें पहर–पहर। बेड़ी-हथकड़ी तो तुम ख़ुद पहरो हो अपने शौक सै, फेर कहो हाय रे हमैं तो दास्सी बना लिया हमारे आदमियों नै। है कोई इलाज़ तुमारा?" मैंने भाभी से चुटकी ली।
"कुछ बी पहर लो, कुछ बी कल्लो रहोगी तो लौंडिया ही, लौंडा तो बनने सै रहीं।" भाभी तभी-तभी पहनी मीने वाली लाल सुर्ख फिरोजाबादी चूड़ियों से भरी अपनी गोल कलाई नचाकर बोलीं और खी-खी कर हँसीं। सारी भाभियाँ मुझसे ऐसे ही हँसी-ठट्ठा करतीं जैसे वे अपने देवरों से करतीं।
"हाँ तो मुझै बनना भी ना है लौंडा, रहना तो मैं लौंडियाई ही चाहूँ; पर तुम जैसी तो ना कम सै कम।" कहकर मैं चलने लगी तो वहाँ पहले से खड़ी मेरी छोटी बहन निम्मों पूछने लगी, "जिज्जी मैं पैर लूँ चूड़ी?"
"कुछ ढंग का काम मत सोचिए, बस चुढ्ले पैर के सज ले, घर चल सीद्धी।" मैंने कसकर उसका हाथ पकड़ा और लगभग घसीटते हुए घर की तरफ़ चली।
"निम्मों ये तुमैं बी ना छोडने कीं किसी करत की, इनसै अलग रए करो।" भाभी ने निम्मों को सम्बोधित करते हुए मुझ पर तंज़ कसा, जिसका मैंने कोई जवाब नहीं दिया। मैं निम्मों को डाँटती-फटकारती लेकर घर पहुँची, तो देखा सरोज चाच्ची हमारे घर पहुँचकर मेरी तथाकथित बत्तमीजी पर माँ से झगड़ रही थीं। वे माँ से ख़ूब लड़ीं और मेरे पास होने के लड्डू हमारे आँगन में ही पटक गईं। फिर मेरे साथ क्या हुआ बार-बार क्या बताऊँ, ख़ुद समझ जाओ बस। उस दिन जीजी की लाख मिन्नतों के बाद भी माँ ने बाबा की तरह खाना नहीं खाया और बोलीं, "इस चुन्नी कूई दिया, योई खा ले लेगी सबके हिस्से का, वैसै भी जीने लायक तो हमें यो छोडने की ना है, खाकैई क्या करेंगे।" खैर ये बात भी अगले दिन आई-गई हो गई।
मैंने सबकी अनुपस्थिति में ट्रैक्टर को घेर में ही कभी-कभी आगे-पीछे करना तो सीख ही लिया था। फिर बबलू के पीछे-पीछे चली जाती खेतों तक और उससे माँग कर थोड़ा-थोड़ा चलाना भी सीख लिया। इतना तो हो ही गया था कि छोटे-मोटे खेत ठीक से जोतने लगी। बबलू किसी को इस शर्त पर कुछ नहीं बताता था कि मैं उसके हिस्से के भारी-भारी काम कर दिया करूँ। उस दिन भी खेत जोता था, अगर देखें तो ये काम भी बबलू के हिस्से का ही तो था। तब बाबा ने बहुत–बहुत-बहुत अधिक गुस्सा किया था, बोले थे कि "यो चुन्नी मुझै धोरे-नेढ़े (आस-पास) में मुँह दिखाने लायक न छोड़नेकी, या तो इसै समझा लो या मैं संखिया (ज़हर) खाए लूँ हूँ, आज; पर धान जी की बैठक पै जो मेरी खिल्ली उड़ी है न, उसके बाद घर आने सै बेहतर था कि मैं कहीं जोहड़े-बावड़ी मैं डूब कै मर जात्ता।"
उस दिन बाबा का भयानक गुस्सा देखकर एक बार को मेरा आत्मविश्वास डोलने लगा था। मुझे लगा कि शायद मैं ही ग़लत राह पकड़ रही थी; पर उस दिन दादी और माँ ने अप्रत्याशित रूप से मेरा साथ दिया।
"अरे ऐसा क्या हो गया भैया जो इतना गरज रया है, ऐसा क्या कर दिया आख़िर इसनै?" दादी ने थोड़ी दृढ़ता से बोला था।
"माँ इन्नै ट्रेक्टर चलाना बी सीख लिया। तुझे क्या पता खेत जोत कै आई है, सब मुझपै लानत धर रहे हैं कि अब लौंडियों की कमाई खावगा जिलेसिंह। ?"
"हाँ तो क्या बात है, लौंडिए भी म्हारी हैं, खाँगे हम इनकी कमाई। तेरी मदद ही करी है, कोई बदनाम्मी तो करा ना दई इसनै तेरी और गाँव वालो कू जान दे चूल्हे मैं, इन्है खुस रखने का ठेक्का ना ले रखा हमनै" दादी तेज आवाज़ में बोलीं। मैं दादी को आँखें फाड़कर देखती ही रह गई।
"हर बखत जो देख चुन्नी केई पीच्छे पड़ा रै।" मैं हैरत में रह गई थी कि माँ ने मेरा पक्ष लेने का प्रयास किया। अपनी माँ को तो बोलने दिया था; पर मेरी माँ के बोलने पर ... से बाहर हो गए थे बाबा। ख़ूब ज़ोरों से चीखे थे,
"बेवकूफ औरत तू सारा दिन घर में पड़ी-पड़ी करै क्या है, जो इन लौंडियों कू बी ना संभाल सकती।" खैर माँ को घर में सिर्फ़ पड़ी रहने की फुरसत तो हारी-बीमारी में भी मुश्किल से ही मिली होगी कभी; पर इस वक़्त बाबा को यह बताना! तौबा-तौबा।
उस दिन मुझे लगा कि मेरे बाबा के भीतर के पुरुष का आत्मसम्मान कितना कमजोर था, जो मेरे मदद करने मात्र से भुरभुरे का—सा बिखरा जा रहा था। उस दिन बाबा ने फिर खाना नहीं खाया था; पर मुझे उस दिन माँ के द्वारा बोले गये एक ही वाक्य ने समझा दिया था कि वह किस क़दर मेरे पक्ष में खड़ी थी।
अगली सुबह बहुत डरी-सहमी थी हमारी। मैं कुट्टी कटवाते वक़्त दादी से बोली थी, "यार दाद्दी कुट्टी मैं काट सकूँ, नाज़ की भारी-भारी बोरी मैं ठा सकूँ, खेत सै न्यार मैं ला सकूँ, बिटौड़े मैं रखवा सकूँ और भी आदमियों जैसे हज़ार काम मैं कर सकूँ, बबलू के हिस्से के लगभग सैरे काम मैं कर सकूँ, बस ना चला सकूँ तो मैं मोटरसाइकिल-ट्रैक्टर ही न चला सकूँ, ना जा सकूँ तो बजार ही न जा सकूँ, मतलब यो कि मैं घर सै बाहर निकलने का कोई काम ना कर सकूँ और कुछ बी ना बस बात यो है कि लौंडियों कू निकलन ई मत दो घर सै, अन्नई दास्सियों के अकाल पड़ जाँगे।"
"..." दादी ई... चुप रहीं। मैं फिर बोली,
"तो आज सुन ले फेर, जो मैं वह न कर सकूँ तो काटने की मैं कुट्टी बी ना हूँ, ना ठाऊँ नाज़ की बोरी और जी ना लाऊँ न्यार और बबलू के हिस्से का तो कोई काम मैं करने की ना हूँ आज सै, करवइए ये सब बी अपने फरजंद बबलू सैई।"
पहले दिन बाबा की बोलती बंद कर देने वाली दादी उस दिन मुझसे कुछ नहीं बोली। बबलू के हिस्से का काम ना करने वाली बात पर दादी थोड़ी डर गई। क्योंकि अगर लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से अशक्त प्राणी का नाम होता है तो, हमारे घर में बबलू ही सबसे अधिक मात्रा में लड़की था। खैर बात टल गई थी किसी तरह और फिर से सब सामान्य हो गया।
एक बात और बताऊँ, मुझे गाँव, पड़ोस या स्कूल का कोई लड़का कभी पसंद ही न आया, मुझे तो पसंद था हीरो धर्मेंदर। मैं जाड़ों में दादी के साथ उसी के कोट्ठे में सोती, सो उसी कमरे में धर्मेंदर का बड़ा—सा पोस्टर ख़ुद बाज़ार से लाकर चिपका लिया था। दादी ने कहा था, "ए बेट्टी यो किसकी तसबीर लगा लई तैन्ने, गैर मर्दों की तसबीर ना लगाए करते अपने कोट्ठे मैं, हटा दे इस उत्ते कू।"
"यो गैर मरद दीख रया तुझे, उत्ता दीख रया। अरी जा दाद्दी। यो गैर ना है, यो सिवजी का बेट्टा है सिवजी का। सुबह-साम उसके साथ इसके बी हाथ जोड़े कर दाद्दी।" मैंने शिवजी की पक्की पुजारन अपनी दादी के बाएँ कंधे पर लगभग झूलते हुए कहा।
"अरी रह जा चुन्नी रह जा, कल की लौंडिया हमैं चला रई बताओ, यो सिवजी का लौंडा बतावै, गनेस जी कातके जी हैं उनके तो।"
"गनेस जी कातके जी कू लेक्के बैट्ठी है और बाल्लक ना हुए होने के सिवजी के। सैरे देक्खें तैन्ने?" मेरी इस अनर्गल बकवास पर और क्या बोलती बेचारी दादी, चुप ही हो गई और धर्मेंदर जी अपनी किलर मुस्कान और तगड़ी भुजाओं के साथ कमरे में आबाद रहे।
घर वालों, गाँव वालों, किसी की डाँट-फटकार का मुझ पर कभी कोई ख़ास असर हुआ नहीं था, परंतु एक घटना ऐसी हुई कि मेरे मेरुदंड में कंपकंपी छूट गई। उस दिन बहुत ही गर्मी थी, सारा गाँव सूरज के द्वारा उड़ेली गई पकी आग को अपने घरों में बैठकर या पेड़ों की छाँव में लेटकर, कच्ची कर रहा था। मैं अपना मोटरसाइकिल चलाने का आत्मविश्वास पक्का कर रही थी। मैं हमेशा की तरह मोटरसाइकिल खींचकर पछाँ वाले खेतों की तरफ़ झूँडों से घिरे कच्चे रास्ते पर ले गई। गर्मी के मारे, दूर-दूर तक जंगल में कोई मालिक तो क्या, कोई नौकर या मज़दूर तक दिखाई न दे रहा था। अभी स्टार्ट की ही थी मोटरसाइकिल कि दो काले भुसांड, लफंगे लड़के न जाने कहाँ से मेरे रास्ते में आ खड़े हुए। उनमें से एक बोला, "अकेल्ली–अकेल्ली कहाँ घूम रई है जानेमन, चल तुझै हम सैर करा कै लाँगे। इकलब्बी होज्जा, गाड्डी चलान दे हमैं, यो तेरा काम ना है।"
मेरा क्या काम है ये लफंगा मुझे बताएगा, यह सुनकर बहुत गुस्सा आया; पर वह दो थे, दो से निपट लेने का दुस्साहस मैंने नहीं किया। समंदर की उद्दंड लहरों—सा डर मेरे पेट में हिलोरें मारने लगा; पर मैंने उसे जबरन दबाते हुए उनमें से एक से कहा, "तू बतावैगा मुझै क्या काम मेरा है क्या ना, चल हट जा सामने सै, वरना चढ़ा दूँगी मोटरसाइकिल तेरे ऊप्पर।"
मेरे ऐसा बोलने पर दूसरे ने ऊपर चड़ने को लेकर बहुत ही गंदी फबती कसने के साथ ही मेरे सीने पर ज़ोर से हाथ मारा। अब डर पर गुस्सा हावी हो गया था; पर करती क्या इसके सिवा कि मैंने रेस दी और क्लच छोड़ दिया, मोटरसाइकिल एक झटके के साथ चली और उस मारने वाले से टकराई; पर मोटरसाइकिल सहित मैंने ख़ुद को इतना तो साध ही लिया था कि दोनों को गिरने से बचा लिया। मैं समझ गई, जिस बात की तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं था। मुझे लेकर, वही बाबा का सबसे बड़ा डर रहा होगा।
मैं बाबा से पूछना चाहती थी कि इन भेड़ियों की वज़ह से अपनी आज़ादी पसंद बच्चियों को कैदी बनाना कहाँ की बुद्धिमत्ता है, या उनका मन मारना कहाँ की चतुराई है? मारना ही है तो उन भेड़ियों को मार डालो न बाबा जो तुम्हारी बच्चियों से भी ज़्यादा ख़ौफ़ तुम्हारे अंदर भरते हैं। जिनकी वज़ह से अपनी बच्चियों को बाहर भेजने से पहले तुम्हारी रूह काँपती है।
बिना किसी सम्बंध वाला भी मर्द ही हमें बताएगा कि क्या काम हमारा है और क्या नहीं। मैं अपने सीने पर उस लफंगे के हाथ मारने से बहुत आहत हुई थी, रह-रहकर क्रोध उमड़े जा रहा था, मन कर रहा था कि उसका खून ना भी करूँ तो कम से कम उसका वह हाथ तो तोड़ ही दूँ जिससे उसने मारा था।
फिर यह सोचकर तसल्ली कर ली कि सीने को विशेष दर्जा मत दे चुन्नी, वह भी शरीर का एक हिस्सा भर ही है दूसरे हिस्सों की तरह। इसे इज्जत-विज्जत, अस्मिता–वस्मिता से मत जोड़, बढ़ी चल। कुछ भी हो, अपनी हार तो नहीं मानी थी मैंने उस दिन, यही सोचा कि दो पुरुष तो अकेली मुझपर क्या, अकेले किसी पुरुष पर भी भारी ही पड़ते। सो यह मुक़ाबला बराबरी का था ही नहीं। झूठ नहीं बोलूँगी, इस घटना का खौफ़ महीनों रहा था मुझमें। खौफ़ से भी अधिक उन दोनों के हाथ पैर न तोड़ पाने का मलाल रहा था। उस दिन यह तो अच्छा ही हुआ था कि वह दो थे, नहीं तो मुझपर खून का मुकदमा होना तो तय ही था। खुदा ना खास्ता उनमें से अगर कोई एक होता तो मेरे गुस्से से बचकर नहीं ही जा सकता था। कुछ दिनों तक मैंने सुनसान दुपहरियों से बचना शुरू कर दिया था। बबलू थोड़ा व्यंग्य से कहता,
"क्या होया, आजकल तेरी उड़ान थम कैसै गई चुन्नी?"
"मेरी मर्ज़ी उड़ूँ या थमूँ, तू क्या ले?" मैं कहकर टाल देती।
कुछ इसलिए भी यह घटना मुझमें देर तक रही क्योंकि इसके विषय में घर में किसी को भी बता नहीं सकी थी मैं। मैं जानती थी न कि बताने पर मुझे ही घर में क़ैद कर दिया जाता। उन लफंगों को कोई न खोजता। फिर यह सोचा कि जो घटना जब घटनी होती है वह घटती ही है, डरना छोड़कर अपनी राह पकड़ चुन्नी। मैं हर परिस्थिति में मरने-मारने के लिए तैयार हो, पूर्णतः निडर होकर उबरी। संभवतः उस निडरता का ही सिला मिला कि फिर कभी ऐसी कोई घटना मेरे साथ तो नहीं ही हुई।
जबसे बाबा को चोट लगी थी, तबसे वे पैदल भी सामान्य रफ़्तार से नहीं चल पाते थे। कई बार, कोई भी साधन न मिलने पर बेचारे बाबा को शहर जाने के लिए घर से चार कोस दूर पैदल ही जाकर ट्रेन पकड़नी पड़ती। बाबा की जान को सौ मुसीबतें थीं, यह मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता था, पूरे घर में। अब उनकी जान को एक सौ एकवीं मुसीबत जीजी के ब्याह के लिए लड़का देखना भी शामिल हो गई थी। दादा जी कहीं न जाते, क्योंकि हमारी तो कोई बुआ ना थीं, सो उन्हें कभी किसी के द्वार जाना ही ना पड़ा था। बाबा गाँव-गाँव टक्कर खाते फिरते कहीं लड़का बड़ा ज़्यादा, कहीं छोटा ज़्यादा, कहीं दहेज की माँग ज़्यादा, कहीं पढ़ा-लिखा कम और कहीं खेती-बाड़ी ही कम, कहीं सब अच्छा तो लड़का देखने-भालने में निबल। ऐसी ही कोई एक टक्कर खाकर उस दिन शाम को पाँच वाली ट्रेन से लौटना था बाबा को, जो अक्सर अपने समय से काफ़ी देरी से पहुँचती, अतः स्टेशन से गाँव आने वाली जो इक्का-दुक्का सवारियाँ होतीं वह भी जा चुकी होतीं और बाबा को चार कोस की पदयात्रा करनी पड़ जाती। इस बार मैंने बाबा को यह कष्ट न करने देने का फ़ैसला किया। क्योंकि जब बाबा गए थे तब बबलू को बुखार था। तो बड़े मरे मन से बोलकर गए कि इसका बुखार उतर जाए तो भेज देना स्टेशन शाम को इसे; पर उसका बुखार उतरा नहीं था, वैसे भी उसे माँ ने अपने लाड़-प्यार से इतना नाज़ुक बना दिया था कि एक दिन आया बुखार उसे हफ्ते भर की कमजोरी दे जाता। उसे इतना लाड़-प्यार करने पर मैं माँ से शिकायत करती कि "माँ तू मुझे तो न करती इसकी बराबरी का प्यार।"
तो माँ ने एक दिन कह दिया था कि "तू बबलू कैसे होज्जागी, बबलू जैसे काम तो कर।"
जिस पर मैंने तुनककर उत्तर दिया था, "बबलू जैसे काम क्यों करूँगी मैं, मैं तो करूँगी अपने जैसे काम, तेरे बबलू सै अच्छे काम।"
यही बात याद कर मैं स्टेशन पहुँच गई थी मोटरसाइकिल लेकर बाबा को लेने। बाबा डाँटेंगे तो ज़रूर, यहाँ स्टेशन पर शायद न भी डाँटें। यही उथल-पुथल मची थी मन में। ट्रेन डेढ़ घंटा लेट पहुँची। जाड़ों के दिन थे ख़ासी रात ही हो गई थी। आखिरी डिब्बे से बाबा उतरे अपने सीधे पाँव को साधते हुए। उन्हें देखकर एक बार तो डर की लहर शरीर में दौड़ गई; पर, रोज़-रोज़ डाँट खाकर आख़िर डर की लहरें भी कितना ही डरा पातीं मुझे! डर के अतिरिक्त ख़ुद को थोड़ा तो गौरवान्वित भी अनुभव कर रही थी कि मैं बेटी होकर भी बाबा को स्टेशन से घर ले जाने आई थी, तब जबकि मुझे सब पीछे ही खींचते रहे थे। खैर बाबा थोड़ा आगे आए तो मैं रेलवे स्टेशन के वरांडे की मेहराब को सहारा देते, मोटे से गेरुआ खंबे के पीछे से निकली। थोड़ी डरती, थोड़ी झिझकती और बिना कुछ बोले, बिना उनसे आँख मिलाए उनके हाथ से थैला लेने को हाथ बढ़ाया। बाबा बिजली की मद्धम रौशनी में मुझे देखते ही चौंके, थैले वाला हाथ पीछे करते हुए, माथे पर बल लाकर, गुस्से भरी तीखी आवाज़ में बोले, "तू यहाँ क्या कर रही है?"
मैं वहाँ क्या कर रही थी यह तो वे जान ही गए होंगे, उत्तर देना ज़रूरी नहीं था। अतः उनके प्रश्न पर ध्यान दिये बिना उनका थैला उनके हाथ से ले लिया,
इस बार बाबा ने विरोध नहीं किया और कड़ककर बोले, "और कौन है तेरे साथ?"
"मैं ही आई हूँ बाबा।"
मैंने धीरे से बोला और थैला लेकर आगे चल दी, बाबा पीछे रह गए। जब तक बाबा पहुँचे, मैंने मोटरसाइकिल स्टार्ट कर ली थी। अब उनके पास मेरे पीछे बैठने के सिवा कोई चारा नहीं था।
किस्मत खराब कि गाँव में घुसते ही प्रधान ताऊ जी मिल गए। ओहो! इतनी सीत भरी रात में ये यहाँ क्या कर रहे हैं भला! मैंने रेस थोड़ी बढ़ा दी, बाबा ने भी उधर न के बराबर ही देखा। खैर हम घर आ गए थे। बाबा ख़ुद के पुरुष होकर भी बेटी की मदद लेकर घर पहुँचने पर अपमानित महसूस कर रहे थे या मुझ पर गर्व कर रहे थे मैं उनकी तरफ़ बार-बार देखकर भी ताड़ नहीं पाई थी। इस बार प्रधान ताऊ जी ने बाबा को ख़ूब भली-बुरी कही और मेरी वज़ह से बाबा को फिर से चुप रह जाना पड़ा; पर इस बार उन्होंने मुझे बहुत अधिक डाँटा नहीं और खाना भी खाया। मेरे लिए यह काफ़ी से बहुत ज़्यादा था।
मुझ बिल्ली के भाग्य से छींका तब टूटा, जब एक दिन मैं बबलू की मोटरसाइकिल पर सवार धुक-धुक-धुक करती अपने में मगन कुछ गुनगुनाती हुई शान से चली जा रही थी। सूरज पूरी तरह छिपा तो नहीं था; पर ठीक से पूरा-पूरा दीख भी नहीं रहा था। उस दिन गर्मी बहुत थी, हवा के नाम पर कोई एक पत्ता हल्के से भी तो नहीं हिल रहा था। अपने ट्यूबवैल वाले मोड़ पर पहुँची, तो देखा, सामने उम्र के छटवें दशक को कभी के पार कर चुके, लंबी-तगड़ी कद-काठी वाले प्रधान ताऊ जी, झूँडों से घिरी पुलिया पर बैठे पसीने-पसीने हुए ज़ोर-ज़ोर से खाँस रहे थे और खाँसते हुए बुरी तरह हाँफ रहे थे। मेरे अनुमान के अनुसार ताऊ जी में कुछ ख़ास दम लगा नहीं मुझे डाँटने का, अतः मैंने उनके पास तक पहुँचकर मोटरसाइकिल गाँव की तरफ़ घुमाकर रोक दी और अपना चेहरा उनकी विपरीत दिशा में घुमा दिया। ताऊ जी ने अपनी पोटली मेरे हाथ में पकड़ाई और चुपचाप मेरे पीछे बैठ गए। रास्ते भर ताऊ जी ने अपनी खाँसी रुक जाने पर भी एक शब्द तक ना बोला, मैंने तो बोलने के विषय में सोचा भी नहीं ख़ैर। मैंने जब उनके दालान पर लाकर उन्हें उतारा तो गाँव के कई लोगों के साथ, किसी विषय पर चर्चा करने के लिए मेरे बाबा भी वहाँ बैठे थे।
"आज तो बहुत गर्मी है भैया। ये बरचो चुन्नी... न आती तो... प्रधान ताऊ जी कुछ झेंपते हुए-से मेरे बाबा और उपस्थित बाक़ी सब लोगों से नज़रें चुराते हुए, वाक्य अधूरा छोड़कर अपने प्रधानी मूढ़े पर बैठ गए और मेरे बाबा अपने कंधे चौड़े कर अपनी कमर को ज़रा सीधी कर अपने साधारण मूढ़े; पर ...
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