मैं हूँ यहीं / सुषमा गुप्ता
कँटीली चुभती तेज़ धूप के लम्बे से दिन से थक-हारकर या जाने उकताकर लड़की ने ख़ुद को घर में घुसते ही लॉबी पर रखे सोफे पर ढेर कर लिया। चश्मा उतारा, बाल खोले, कानों की बालियाँ भी निकालकर साइड टेबल पर रख दीं।
आँखें बंद करके सुकून की साँस लेनी चाही, तो महसूस हुआ अभी भी कुछ भारी—सा बाक़ी है। शाम ढलते पास के गुलमोहर के पेड़ पर कोयल कूकी, तो भीतर कुछ उछला। तब ध्यान आया कि भारी—सा क्या है।
उसने मजबूरी के सख्त हाथों से मन खींचकर बाहर निकाला। सोचा साइड टेबल पर रख दूँ पर उस पर, तो पहले ही बहुत बोझ रखा था।
उसने मन को ठीक सामने सैंटर टेबल पर सजा दिया। अचानक उसे लगने लगा मन का लाल चटक रंग, नई टेबल पर दाग न छोड़ दे। वह रसोई से पानी का पारदर्शी जग ले आई और मन उसमें छोड़ दिया। मन का क्या है, वह वहाँ भी तैरने लगा। वह मुग्ध हो देखने लगी। थकान दर्द सब भूल गई। समय का आभास न रहा।
तभी दरवाजे की घंटी बजी। वह ख़ुद से बोली, "ओह! यह तो रात हो चली। अम्मा ने सिखाया था रात को चाँद आता है। उससे पूरा का पूरा मिलना।"
उसने पानी से भीगा मन जग से निकाला। पोंछा और वापस यथास्थान ठूँस दिया। मुस्कुराई ... दरवाज़ा खोला और बोली,
मैं हूँ यहीं ...
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