मैं / पद्मजा शर्मा
विनय को मेरा लिखना-पढऩा नहीं सुहाता। क्योंकि उसके अनुसार इसमें खर्च रुपया होता है, आमदनी धेला भी नहीं है। उसे शिकायत है कि मेरे लिखने-पढऩे के कारण घर के कई छोटे-बड़े काम समय पर नहीं हो पाते।
एक सुबह आँख थोड़ी देर से खुली। मैं सीधे रसोई में गई. वहाँ बेटे के लिए टिफिन तैयार कर रही थी। बेटे को सुबह नहाने के बाद स्कूल ड्रेस नहीं पकड़ा सकी और न ही जूतों के पॉलिश कर सकी। तो जनाब भड़क उठे। मुझ पर बरसने का मौका मिलना चाहिए, सो हो गए शुरु-'तू बच्चे के जूतों पर पॉलिश नहीं करती। घर के कपड़े नहीं धोती। झाड़ू नहीं लगाती। पानी का गिलास तक पकड़ाने में दिक्कत होती है। आखिर करती क्या है। पन्ने काले करने से घर नहीं चलता है।' और इसी तरह देर तक कुछ न कुछ अंट शंट कहते रहे। मुझे उस समय बोलना मुनासिब नहीं लगा। बेटा स्कूल जो जा रहा था। मुझे समझ में यह नहीं आ रहा था कि जो आदमी खुद लिखता-पढ़ता है, वह मुझे क्यों नहीं लिखने-पढऩे देता? उसके अनुसार उसका लिखना-पढऩा अलग है। उसे इनाम-इकराम मिलते हैं। उसका नाम होता है। उसे बहुत से लोग जानते हैं। मुझे कौन जानता है? उसे इस पढ़ाई को सीढ़ी बनाकर कहीं न कहीं पहुंचना है और वह पहुँचने वाला है। जबकि मुझसे सदा यही सवाल होता है कि मैं कहाँ पहुंची? क्या पाया इस सबसे? मेरे खाते में आज तक कोई बड़ी उपलब्धि है? किसी प्रकाशक ने कोई किताब बिना पैसे छापी, आज तक?
क्या कहती कि हर काम पैसे के लिए नहीं होता। हर काम के लिए इनाम-इकराम मिलें यह भी क्या ज़रूरी है? आत्म संतुष्टि के लिए भी होते हैं कुछ काम। अपनी खुशी के लिये भी होते हैं कुछ काम। मुझे खुशी पाना होता है और वह मिल रही है।
एक दिन वह फिर भड़क गया मेरे पढऩे को लेकर। मैंने विनय को समझाने की कोशिश भी की कि मैं भी तुम्हारी तरह इंसान हूँ। मेरे भी सपने हैं, आकांक्षाएँ हैं, इच्छाएँ हैं। पर वह यह सब सुनकर लाल पीला हो गया। कहने लगा-'यहाँ स्त्री आजादी का झंडा फहराने की गलती मत करना। इस घर में रहना है तो मेरा हुक्म मानना पड़ेगा। घर के सारे काम करने पड़ेंगे और हाँ, अब से कोई सहयोगी नहीं रखा जाएगा, इस घर में। अपने शौक को गोली मार दो। तुम औरत हो औरत की तरह ही रहो।'
विनय के हिसाब से औरत की तरह रहना होता है-दिन भर खटना, झुकना, गिड़गिड़ाना, रोना। ज़्यादा हुआ तो टी.वी. देखना, सहवास करना और इसी तरह जीते रहना तब तक, जब तक वह मर नहीं जाती और मर्दपना होता है-औरत को गिराना, फिर गिरी औरत को उठाना, उठाकर फिर गिराना, मारना, उसकी अर्थी सजाना, उसे कंधा देना और जलाना।
दोनों के बीच अगर 'मैं' कॉमन फैक्टर होता है तो दोनों का सामना होने पर दोनों के 'मैं' समाप्त हो जाते हैं। मगर एक में 'मैं' है ही नहीं। इसलिए पुरुष का 'मैं' ख़्ात्म ही नहीं होता। क्या उसके 'मैं' को खत्म करने के लिए, अब दूसरे के 'मैं' को जिंदा हो जाना चाहिए?