मैग्मा / / सुकेश साहनी
आँखों पर तेज रोशनी पड़ती है, एक पल के लिए कुछ दिखाई नहीं देता। प्रकाश के स्रोत की ओर नजरें गड़ाकर देखता हूँ। धीरे-धीरे सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है-एक बड़ा-सा गोला है, जो अपने-आप में किसी लट्टू की तरह घूमता हुआ चक्कर लगा रहा है। इस गोले का केंद्रीय भाग ठोस न होकर पिघला हुआ है, पिघले भाग के तापमान का अनुमान इसी से हो जाता है कि यह भाग खौल रहा है, अंगारे-सा दहक रहा है। इसी भाग से प्रकाश फूट रहा है।
एकाएक उस गोले से नंगा आदमी निकलकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। गोले से फूटते प्रकाश में उसका शरीर जगमग कर रहा है। ऐसा लगता है, मानव उसका शरीर क्वाट्र्ज का है और प्रकाश उसके भीतर से फूट रहा है। उसके सीने वाले भाग में उस गोले जैसा खौलता द्रव पदार्थ है। मुझे लगता है कि मैंने इस तरह का दृश्य पहले भी कहीं देखा है। दिमाग पर जोर डालता हॅूं तो याद आता है कि बरसों पहले जियोलॉजिकल स्टडी टुअर के दौरान इलेक्ट्रिक फरनेस में देखने का अवसर मिला था, जिसमें उच्च तापमान में लोहे को पिघलाया जा रहा था। भट्ठी में पिघला लोहा सोने-सा दमक रहा था, लेकिन उस पिघले लोहे को अधिक देर तक नंगी आँखों से देखना संभव नहीं था। कुछ ही पलों में हम पसीने से नहा गए थे... ठीक वैसा ही दृश्य है, पर इस गोले और आदमी के भीतर के पिघले द्रव को लगातार देख पा रहा हूँ।
सामने खडे आदमी का चेहरा किसी बच्चे जैसा है। लगता है, इसे अच्छी तरह जानता हूँ... पर उसका नाम-पता याद नहीं आता।
गोले की सतह दर्पण-सी चमक रही है।
बडा-सा मैदान है। जहाँ तक नजर जाती है ... रेत-ही-रेत है... पेड पौधौं का नामोनिशान तक नहीं है ... कोई जीव जन्तु भी दिखाई नहीं देता...रेत पर नंगे आदमी के पैरों की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही है। जहाँ-जहाँ उसके पैर पडते हैं, नन्हीं घास उग आती है। वह एक जगह जमीन में गड्ढा खोदता है, वहाँ से फव्वारे के रूप में पानी फेट पड़ता है। जगह-जगह नन्हें पौधे दिखाई देने लगते हैं। वह पौधे को छूता है... पौधा पेड़ में तब्दील हो जाता है। पेड़ को छूता है... पेड़ फलों से लद जाता है। वह किसी बैले डांसर की तरह इधर से उधर थिरक रहा है। देखते ही देखते वह रेगिस्तानी भाग भरे-पूरे जंगल में बदल जाता है। उस आदमी के सीने का खौलता द्रव वहाँ के सभी प्राणियों में दिखाई देने लगता है, ठीक किसी सेल (कोशिका) के न्यूकलिअस की तरह।
सोचता हूँ इस नंगे आदमी और उसके सीने की आग को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए. पूरी दुनिया में धूम मच जाएगी, एक-एक फोटोग्राफ लाखों का बिकेगा।
कैमरे को आँख से लगाकर लेंस को फोकस करता हूँ ...हरा-भरा जंगल तो दिखाई देता है, पर नंगा आदमी गायब हो जाता है। फिर कोशिश करता हँ ... इस बार कोई दूसरा दिखाई देता है, उसने ठीक मेरे जैसा सूट पहन रखा है। मुझे निराशा घेर लेती है, क्योंकि उसके सीने में वह आग दिखाई नहीं देती। मैं कैमरा एक ओर रख देता हँ।
उस आदमी के सीने की आग के प्रति मन में विचित्र-सी प्यास जाग जाती है। सोचता हँ—वह आदमी नंगा था, जंगल के दूसरे जीव जंतु भी नंगे थे। क्यों न अपने कपड़े उतार कर देखूँ ...शायद मेरे भीतर भी वैसी ही आग हो।
मन में आशा बंधती है।
मैं एक-एक कर अपने कपडे़ उतारने लगता हूँ, पर कपड़े हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे है, प्याज के छिलकों की तरह एक के बाद एक निकलते आ रहे हैं। जल्दी ही थक जाता हँ। सोचता हँ कि मुझे कपड़े उतारने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, बल्कि उस नंगे आदमी को ही खोजना चाहिए.
जंगल में भटक रहा हूँ... जहाँ-जहाँ मेरे पैर पड़ते हैं, वहाँ-वहाँ की घास जलकर राख हो जाती है। जिस चीज को छूता हूँ मिट्टी हो जाती है। पानी पीने के लिए जिस जल-स्रोत की ओर हाथ बढ़ा़ता हूँ, वह सूख जाता है। घबराकर मैं रोने लगता हूँ।
कंधे पर स्नेहिल स्पर्श से मैं चैक पड़ता हूँ। सिर उठाकर देखता हँ—मुझसे थोडी़ दूरी पर वह खड़ी है। उसके बाल चांदी-से चमक रहे हैं, चेहरे पर वात्सल्य है। उसके सीने में भी खौलता हुआ द्रव है।
"तुम रो क्यों रहे थे?" वह पूछती है।
"वो मैं..." मैं सँभलकर जवाब देता हूँ "शायद मैंने कोई बुरा सपना देखा था।"
वह कुछ नहीं कहती, एकटक मेरी ओर देखती है। उसके चेहरे पर गहरी उदासी है, बहुत देर तक हममें कोई बात नहीं होती।
"आओ, मैं तुम्हारे सीने में फिर से खौलते द्रव (मैग्मा1) की आग भर दूँ।" वह अपनी बाँहें मेरी ओर फैला देती है।
मैं डरकर पीछे की ओर खिसकता हूँ।
यहीं जाग जाता हूँ। कमरे में नाइट बल्ब की धुंधली रोशनी है। दिल की धड़कन अभी तक असामान्य है। सीने में अजीब-सी सुलगन है। कमरा काफी गर्म है।
सपने में अपने रोने की बात याद कर राहत-सी महसूस करता हूँ। कहते हैं—सपने में रोना शुभ होता है। उठकर एयरकंडीशनर की गति बढ़ा देता हूँ कमरा बिल्कुल पहले जैसा हो जाता है ... एकदम 'ठंडा' ।
[मैग्मा1-पृथ्वी के भीतर सदैव पिघली अवस्था में रहने वाला द्रव पदार्थ, बहुत-सी प्रक्रियाओं के लिए उत्तरदायी। यही द्रव जब धरती की सतह पर निकल आता है, तो लावा कहलाता है।