मैडम टुसौड्स म्यूजियम में राज कपूर / जयप्रकाश चौकसे

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मैडम टुसौड्स म्यूजियम में राज कपूर
प्रकाशन तिथि :21 जनवरी 2016


लंदन में मैडम टुसौड्स का म्यूजियम है, जहां लोकप्रिय व्यक्तियों से मिलते-जुलते उनके मोम के पुतले रखे जाते हैं। टिकिट खरीदकर देखने वाले दर्शकों से अच्छी-खासी आय होती है। विगत तीन दशकों से भारतीय फिल्म सितारे भी इसके लिए चुने गए हैं। ज्ञातव्य है म्यूजियम के विशेषज्ञ आकर व्यक्ति की मांस-पेशियों के अनेक चित्र लेते हैं ताकि विश्वसनीय पुतले बन सकें। ज्ञातव्य है कि वहां अमिताभ बच्चन, एेश्वर्या राय, सलमान खान और शाहरुख खान इत्यादि के पुतले हैं। सारी चयन प्रक्रिया मौजूदा लोकप्रियता पर टिकी है। जब से उन्होंने भारतीय सितारे शामिल करने का निर्णय लिया तब आर्थिक उदारवाद के कारण भारत में सितारे उसके अनुरूप गढ़े गए। म्यूजियम की हुकूमतों को भारतीय कथा फिल्मों का इतिहास नहीं मालूम, इसी कारण शांताराम, बिमल रॉय, गुरुदत्त, मेहबूब खान और राज कपूर उनके द्वारा अनदेखे रहे।

एक सप्ताह पूर्व ही आरके स्टूडियों से राज कपूर के पुतले को म्यूजियम में लगाने की इजाजत मांगी गई है। इस निर्णय के पीछे व्यावसायिक ढंग से संचालित संस्था में यकायक राज कपूर के प्रति प्रेम जागना संभव नहीं है। इसका एकमात्र कारण यह हो सकता है कि अपनी मृत्यु के 28 वर्ष बाद भी राज कपूर लोकप्रिय बने हुए हैं। उनकी लोकप्रियता का आधार सिनेमैटिक गुणवत्ता उतनी नहीं है, जितनी उनकी कथाओं में आम आदमी का प्रस्तुतीकरण मानवीय करुणा के साथ किया जाना है, क्योंकि हर काल-खंड का 'स्थायी भाव' अवाम की कठिनाई ही रही हैं। कई बार बतर्ज 'मैट्रिक्स' फिल्म शृंखला के लगता है कि आम आदमी की जीवन ऊर्जा इस निर्मम व्यवस्था की गिज़ा तो नहीं हैं, उसकी रीचार्जेबल बैटरीज तो नहीं है। हम कैसे-कैसे इस्तेमाल किए जाते हैं, यह हम जानते ही नहीं। कुछ वर्ष पूर्व अरविंद अडिगा ने आश्चर्य व्यक्त किया था कि मैट्रिक फेल राज कपूर के सिनेमा में चार्ल्स डिकेन्स क्यों धड़कता है। कदाचित अडिगा नहीं जानते कि आम आदमी के दर्द को महसूस करने के लिए चार्ल्स डिकेन्स पढ़ना जरूरी नहीं है। उसके लिए सिर्फ संवेदनशील हृदय चाहिए। यह कल्पना रोचक हो सकती है कि मैडम टुसौड्स के म्यूजियम में आधी रात के बाद जब दर्शक नहीं होते तो क्या ये मोम के पुतले आपस में बतियातें है? सलमान का पुतला एेश्वर्या राय के पुतले से क्या यह कहता होगा 'हम दिल दे चुके सनम।' कुछ लोग एेश्वर्या राय के यथार्थ स्वरूप को पोर्सलीन गुड़िया मानते हैं। शायद मोम अधिक जीवंत है ठंडे प्राणहीन पोर्सलीन से। ऐसे किसी भी तंदूर के बारे में यह कहना गलत होगा कि राख के नीचे कोई शोला नहीं दहकता।

फ्रांस की मैडम टुसौड्स के शिखर की पृष्ठभूमि फ्रांस की क्रांति थी जो मई 1789 से जून 1794 तक पूरे विश्व की दिशा तय कर गई। अगर इस क्रांति ने विश्व को स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरेपक्षता के महान गणतांत्रिक मूल्य दिए तो दूसरी और क्रांति का यह काला पक्ष भी रहा कि फ्रांस के राजा-रानी के प्रति वफादारी के नाम पर 38 हजार लोगों को सरेआम आम चौराहे पर कत्ल किया गया और बाद के गहन शोध से ज्ञात हुआ कि मात्र तीन हजार लोग राजा-रानी के साथ थे। ऐसा अन्याय भी हुआ कि एक परिवार के घर क्वीन मैरी एन्टीनिनो का स्कार्फ मिलने पर मार दिया गया। वे निर्दोष चीखते रहे कि एक जुलूस में रानी का स्कार्फ उड़कर उनके पास आया था। हर क्रांति में घुन के साथ गेहूं पिस जाता है।

मैडम टुसौड्स महारानी मैरी एंटोनेट की व्यक्तिगत ड्रेस डिजाइनर थीं और वेक्स मॉडलिग उनके परिवार का व्यवसाय था। रानी के साथ इससे भी कम निकटता उन्हें क्रांतिकारियों का सहज निशाना बनाता है और जलते हुए फ्रांस से वे किस तरह भागकर लंदन आईं और उन्होंने लंबे संघर्ष के बाद अपना म्यूजियम बनाया ये एक रोचक कथा है।

मैडम टुसौड्स माइकल मोरान को उपन्यास है, जिसके अधिकांश पात्र यथार्थ में उस दौर में फ्रांस और लंदन में रहते थे। इस तरह की विश्वसनीयता इतिहास प्रेरित उपन्यासों में कम ही मिल पाती है। भारतीय मिख्खू ने क्वीन मैरी एंटोनेट पर बड़े कमाल का उपन्यास लिखा है। माइकल मोरान और भिख्खू की रचनाएं पाठक को यह अहसास देती हैं कि आप सचमुच फ्रांस की क्रांति के चश्मदीद गवाह हैं। यह आश्चर्य की बात है कि इस पर फ्रांस में भी फिल्म नहींबनी।

गौरतलब है कि हर क्रांति समुद्र मंथन की तरह होती है, जिससे जहर भी निकलता है और अमृत भी। दानवों से अमृत पात्र बचाने के प्रयास में जहां उसकी बूंदें पड़ी वहां कुंभ का आयोजन होता है। इन पंक्तियों के लिखे जाते समय कपूर परिवार से सूचना मिली की शशि कूपर को आंख का कैंसर हो गया है। मृत्यु तो आवश्यंभावी है, इसलिए उस पर विजय पाने वाला अमृत एक आदर्श कल्पना है। जहर सत्य है। अब हर कोई महाराज शिव की तरह गरल को गले में थाम तो नहीं सकता। गरल को थामना या साधना जीवन है।