मैत्रेयी की मुश्किलें / दयानंद पाण्डेय
मैत्रेयी दत्ता के पिता ने दो विवाह किये थे और उन की मां ने भी। पर मैत्रेयी दत्ता ने तीन विवाह किये और तीनों ही असफल रहे। मैत्रेयी दत्ता अब कहां है, नागेंद्र नहीं जानता। लेकिन यह जरूर जानता है कि वह जहां भी कहीं होगी दुख के दरिया में सुख के सपने संजोती अनजाने में ही अपने लिये कांटे बो रही होगी। हालां कि वह अपनी कोशिश में फूल बो रही होगी। पर यह उस की अदा कहिये, नसीब कहिये, फितरत या अभाग कि वह बोती गेंहूं थी लेकिन जब काटने का समय आता तो उस के हिस्से कंटीले भड़भाड़ आ जाते। और गजब यह कि इस भड़भाड़ से भी वह तेल निकालने की फिराक में पड़ कांटों के खेत में इस कदर उलझ जाती कि ढेरों बबूल, ढेरों नागफनी भी उस की राह में आ खड़े होते, फिर वह तन-मन पर घाव ले कर ही शांत हो पातीं।
मैत्रेयी दत्ता का जैसे यह दस्तूर बन गया है। नियति बन गई है। क्यों कि मैत्रेयी दत्ता भावुक बहुत है और डिमांडिंग भी बहुत। किसी भी के साथ संबंधों में वह इस कदर पजेसिव हो जाती है कि अगले के लिये वह किसी तंदूरी भट्ठी की आंच बन जाती है। इतनी गहरी आंच कि आप बर्दाश्त न कर पायें और दूर भागने लगें। लेकिन पास भी आएं। क्यों कि रोटी भी सेंकनी है। कई बार ऐसा भी होता कि जैसे आप भड़भूजे के पास भूजा भुनवाने जायें। भूजा भड़भूजा भून रहा हो। फिर भी भड़भूजे की मंड़ई में भाड़ के पास आप भी बैठे-बैठे उस की आग की तासीर में भुनते रहें और उठ कर बाहर इस लिए न जायं कि बाहर भी धूप तेज हो और कि भूने जाने वाले अपने अनाज पर नज़र भी रखनी हो कि कहीं फेर-बदल न हो जाए दूसरे के अनाज से। या कि भड़भूजा कुछ अनाज आप का मार न ले ! कि कहीं आप की बारी न चली जाये, और दूसरे का नंबर लग जाये ! अजीब विवशता होती है भड़भूजे के भाड़ के पास बैठने की। मैत्रेयी दत्ता किसी भड़भूजे के ऐसी ही भाड़ सरीखी है। उस का पजेसिवनेस ऐसे ही भाड़ में तबदील होता जाता है। क्रमशः। और अगला अफना कर, अपनी बारी, अपना अनाज छोड़ कर बाहर तेज धूप में भाग जाता है न लौट कर आने के लिये। भले ही मैत्रेयी दत्ता गाती रहे, ‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ/आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ।’ गाती रहे और अकुलाती रहे।
हालां कि नागेंद्र कभी भागा नहीं मैत्रेयी दत्ता से। उस के पजेसिवनेस से कई बार आजिज जरूर आया, हद से ज्यादा आजिज आया। सोचा कई दफा कि अब इस औरत से पिंड छुड़ा ले, दो-चार बार कोशिश भी की लेकिन वह अचानक पानी की तरह आती, फूलों-सी महकती, चिड़ियों-सा चहचहाती, किसी समर्पिता की तरह ऐसे
समर्पित हो जाती गोया कुछ हुआ ही न हो। नागेंद्र लाख रूठे, लाख ऐंठे वह अपने मनुहार, प्यार और इसरार में सान कर ऐसे गूंथने लगती गोया पानी डाल कर आटा गूंथ रही हो। और फिर नागेंद्र के ‘रास्ते’ पर आते ही उसे ऐसे रूंधने लगती जैसे कुम्हार अपने चाक पर माटी रूंध रहा हो। मैत्रेयी दत्ता फिर पजेसिव हो जाती।
नागेंद्र उस से कहता भी कि, ‘मुझ पर इतना दावा तो मेरी बीवी भी नहीं करती।’ वह एक क्षण के लिये चुप लगा जाती। ऐसे जैसे उस के आस-पास कोई हो। लगभग निष्क्रिय। पर वह एक झटके से उबरती और तुरंत सक्रिय हो जाती। अचानक वह अपने पुराने आशिकों के बारे में बतियाने लगती। ऐसे जैसे एकालाप कर रही हो। पर नागेंद्र भी पास है उस के इस एहसास के लिये वह उस के बालों में उंगलियां फिराती रहती। बतियाते-बतियाते अचानक मनुहार करते हुये पूछने लगती, ‘आप तो मुझे नहीं छोड़ देंगे, जिदंगी भर मेरा साथ निभाएंगे न ?’
‘मेरी ओर से तो कोई दिक्कत नहीं है। तुम अपनी ओर से सोच लो।’ नागेंद्र जोड़ता, ‘देखना, तुम्हें मैं नहीं, तुम मुझे छोड़ोगी !’
‘मैं क्यों छोड़ूंगी ?’ मैत्रेयी अकुलाती हुई पूछती।
‘क्यों कि चुपके-चुपके वाले अवैध संबंधों में औरत ही मर्द से कतराती है, मर्द नहीं।’
‘तो संबंधों को वैध बना दीजिए न !’
‘कैसे ?’
‘शादी कर लीजिए मुझे से !’
‘पर मेरी शादी तो हो चुकी है। दो बच्चे हैं मेरे।’
‘तो क्या हुआ ?’ मैत्रेयी नागेंद्र को लगभग फुसलाती हुई बोलती, ‘‘मैं दीदी के साथ निभा लूंगी।’
‘वो तो ठीक है। पर क्या ‘दीदी’ भी तुम्हें निभाने को तैयार होगी ?’
‘मैं उन्हें भी मना लूंगी।’
‘यह ‘मनाना’ कहानियों, फिल्मों में हो जाता है, असल जिंदगी में नहीं।’ नागेंद्र जोड़ता, ‘कम से कम मेरी बीवी किसी कीमत पर मानने से रही।’
‘तो मैं कहीं अलग रह लूंगी। आप आते-जाते रहियेगा। लेकिन आप शादी कर लीजिये। मैं आप से खर्चा भी नहीं मांगूंगी।’
‘क्यों रखैल बन कर जिदंगी जीना चाहती हो। तुम दोस्त बन कर जिदंगी में रहो यही ठीक है।’
‘रखैल बनने को कहां कह रही हूं।’ वह तरेरती हुई बोली।
‘चोरी से की गयी ऐसी शादियों में औरत की हैसियत रखैल से भी गयी बीती होती है।’ नागेंद्र बोला, ‘देखो दोस्ती तक तो ठीक है, आगे और मत उलझो-उलझाओ। कोई कायदे का कुंवारा लड़का देख सुन कर शादी करो यही ठीक रहेगा तुम्हारे लिये भी, हमारे लिये भी और समाज के लिये भी।’
‘जो इतनी ही हानिकारक हो जायेगी समाज के लिये हमारी आप की शादी तो चलिये मैं शादी ही नहीं करूंगी।’
‘अब यह तुम्हारा अपना फैसला है। मैं इस में क्या कर सकता हूं भला? पर यह जान लो अकेली औरत को हमारा समाज जीने नहीं देता है।’
‘अकेली कहां हूं ?’ वह पूरे अधिकार के साथ बोली, ‘आप तो मेरे साथ हैं ही।’
नागेंद्र चुप लगा गया।
एक दिन अचानक मैत्रेयी बिस्तर में नागेंद्र से कहने लगी, ‘‘मैं पांवों में बिछिया पहनती हूं, आप ने कभी पूछा नहीं इस के बारे में ?’’
‘मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया तुम्हारे पांव के बिछिया पर।’ नागेंद्र उस की हिप सहलाते हुये लापरवाही से बोला और चुप रह गया। पर मैत्रेयी चुप नहीं रही। बोली, ‘पूछेंगे नहीं मैं बिछिया क्यों पहनती हूं ?’
‘इस में पूछना क्या है ?’ कह कर वह फिर चुप रह गया।
वह भी चुप रही। थोड़ी देर बाद कुनमुनाई। कहने लगी, ‘अच्छा मेरा ब्रेस्ट बहुत टाइट नहीं है इस पर आप का ध्यान नहीं गया ?’
‘क्यों ?’
‘कभी पूछा नहीं आप ने ?’
‘जानता हूं हैबीचुअल हो। इस में पूछने की क्या बात है ?’
‘निप्पल को भी ले कर आप ने कभी कुछ नहीं पूछा ?’
‘तुम कहना क्या चाहती हो ?’ नागेंद्र उकता कर बोला।
‘कुछ नहीं बस यूं ही !’
बात ख़त्म हो गयी।
फिर वह दोनों बार-बार मिलते रहे। बेबात लड़ते-झगड़ते रहे। मैत्रेयी पूरे अधिकार सहित नागेंद्र को हांकती रही। गोया वह उस का दोस्त नहीं उस के रथ में जुता हुआ घोड़ा हो। कभी-कभार वह नागेंद्र के घर पर आती। और ऐसे अधिकार से बैठती गोया उस का अपना ही घर हो। कई बार तो वह उस से लगभग सट कर बैठ जाती, ऐन उस की बीवी के सामने। बीवी कुढ़ कर रह जाती। पर उस की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तब वह नागेंद्र की बीवी-बच्चों के लिये गिफ्ट वगैरह भी ले आती। कई बार कपड़े-लत्ते भी। हद तो तब हो गयी जब वह नागेंद्र के लिये भी कुछ कपड़े ले आयी। उस की बीवी खुल कर कुढ़ी। एक दिन नागेंद्र से कहने लगी, ‘यह क्यों हमारे घर आती है, कपड़े लत्ते लाती है और आप से सट कर बैठ जाती है। और मेरे ही सामने ! क्यों ? क्या लगती है वह आप की ?’
नागेंद्र किसी तरह पत्नी को समझा-बुझा कर शांत करता। पर वह शांत नहीं होती।
शांत होने वाली बात ही नहीं थी यह।
और तब तो और हद हो गयी जब एक दिन मैत्रेयी नागेंद्र की अनुपस्थिति में उस के घर गयी गिफ्ट में सोने की चेन ले कर। उस की पत्नी के लिये। और ‘दीदी-दीदी’ कहती हुई उसे पहना आयी।
नागेंद्र की लंबी क्लास हुई।
अंततः नागेंद्र को मैत्रेयी से कहना पड़ा कि वह उस के घर न आया करे। कुछ दिनों तक वह सचमुच नहीं आयी और बीच-बीच में जब मिलती तो कहती रहती, ‘मैं शादी नहीं करूंगी।’ इस बीच वह नागेंद्र को अपने घर ले जाने लगी। मां भाई, भाभी सब से मिलवाती। बेझिझक। और नागेंद्र से अपेक्षा करती कि जब वह उस के घर आये तो जैसे दामाद लोग ससुराल आते हैं, वैसे आया करे। उस के बार-बार टोकने पर एक दिन नागेंद्र बोला, ‘पर दामाद जैसा बन के तो मैं अपनी ससुराल में भी नहीं जाता। और फिर तुम्हारा घर मेरी ससुराल भी नहीं है!’
‘सुसराल आप की है मेरा घर।’ वह अपने भाइयों को इंगित करती हुई कहती, ‘और यह सब आप के साले हैं।’
‘शादी कब हुई हमारी ?’
‘आप मत करिये शादी। पर मैं ने आप को दिल से अपना हसबैंड मान लिया है।’ कह कर उस ने झुक पर नागेंद्र के दोनों पैर छू लिये।
नागेंद्र हतप्रभ रह गया।
अब वह जब भी मिलती नागेंद्र के पैर जरूर छूती। मिलते समय भी, बिछड़ते समय भी।
नागेंद्र बार-बार यह सब करने से उसे मना करता। कहता कि, ‘प्यार और सम्मान दिल से होता है, दिखावे से नहीं। और फिर तुम पढ़ी-लिखी, नौकरी करने वाली एक समझदार औरत हो।’
‘मेरे पैर छूने से आप का मान घटता हो तो बता दीजिये। बाकी मैं दिखावा नहीं करती हूं। जो भी करती हूं दिल से करती हूं, सम्मान से करती हूं।
मुझे आशीर्वाद दे सकते हों तो दे दिया कीजिये। नहीं भी दे सकते हों तो मत दीजिये। मुझे कोई ऐतराज नहीं।’
‘तुम्हारी इस भावुकता का मेरे पास कोई जवाब नहीं है।’ कह कर नागेंद्र निरुत्तर हो जाता।
लेकिन वह ऐसे समर्पित रहती जैसे पानी नदी को और नदी सागर को। उस की भावुकता की, उस के प्यार की यह पराकाष्ठा थी। जो कभी-कभी नागेंद्र के लिये असह्य हो जाती। पर वह कहीं सुना हुआ एक गाना गाने लगती, ‘दिल डंसता है, न प्यार डंसता है, अंखियों को तेरा इंतजार डंसता है।’ वह जैसे तड़प कर गाती, ‘साजन न हो घर में तो सिंगार डंसता है।’ उस की तड़प यहीं नहीं ख़त्म होती और गाती, ‘साजन नहीं तो ससुराल जाऊं कैसे, डोली डंसती है, कहार डंसता है।’ उस का यह गाना नागेंद्र को कहीं गहरे भेद जाता। बिंध जाता वह। जैसे कोई हिरनी शिकारी के तीर से बिंध जाये। उसे हिरनी वाला वह लोकगीत याद आ जाता जिस में राजा दशरथ अपने बेटे राम के लिये एक हिरन का शिकार तय करवाते हैं। शिकार के पहले हिरनी भागी-भागी जाती है माता कौशल्या के पास। उन से अनुनय-विनय करती है कि वह उस के हिरन को न मरवायें। पर कौशल्या हिरनी की बात नहीं मानतीं और कहती हैं कि मेरे बेटे के जन्म दिन पर इसी हिरन का मांस पकेगा। यह तय हो चुका है। हतप्रभ हिरनी कहती है कि अच्छा चलिये मांस आप पका लीजिये पर मेरे हिरन की खाल ही मुझे लौटा दीजिये। उस खाल को ही लटका कर रखूंगी और संतोष कर लूंगी। मेरे हिरन की याद मेरे लिये बची रहेगी। लेकिन कौशल्या हिरनी की इस प्रार्थना को भी अस्वीकार कर देती हैं। यह कहते हुये कि हिरन के खाल से तो मैं खंजड़ी बनवाऊंगी जिसे मेरा बेटा बजायेगा। और वह सचमुच हिरन की खाल से खंजड़ी बनवा देती हैं जिसे उन का बेटा जब तब बजाता रहता है। और जब-जब खंजड़ी बजती है हिरनी व्याकुल हो जाती है, अपने हिरन के लिये पागल हो जाती है ! तो क्या मैत्रेयी भी अपने किसी हिरन की याद में तो नहीं तड़पती रहती है ? तड़पती रहती है और गाती रहती है, ‘साजन नहीं तो ससुराल जाऊं कैसे/डोली डंसती है, कहार डंसता है !’
क्या पता ?
नागेंद्र सोचता है और जरा आगे जा कर सोचता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैत्रेयी के लिये नागेंद्र भी हिरन की खाल सरीखा है, और हिरन नहीं न सही, उस की खाल तो है। या कि कहीं कोई खंजड़ी बजती है तो वह व्याकुल बेसुध उस के पास भागी चली आती है। इस रूपक को सोच कर ही वह डर जाता है।
बुरी तरह।
मैत्रेयी नागेंद्र को फोन करती है। पूछती है, ‘क्या कर रहे हैं ?’
‘कुछ ख़ास नहीं। क्यों ?’
‘बाहर मौसम कैसा है देखा ?’
‘हां, आंधी तूफान जैसा है। लगता है बारिश भी होगी। बादल भी बहुत घने हैं।’
‘तभी तो आप को फोन किया है।’
‘क्या बात है !’ नागेंद्र चहका।
‘मैं आप से अभी मिलना चाहती हूं।’
‘इतने ख़राब मौसम में ?’
‘नहीं इतने अच्छे मौसम में।’
‘क्या बेवकूफी की बात कर रही हो !’
‘बेवकूफी की नहीं सुंदर बात। बड़ी प्यारी बात !’ वह बड़े इसरार से बोली, ‘मना मत कीजियेगा प्लीज !’
‘अच्छा बोलो कहां ?’ नागेंद्र उकता कर बोला। क्यों कि वह समझ गया था कि मैत्रेयी अब किसी भी हाल में उसे छोड़ने वाली नहीं है।
‘कहिये तो आप के घर आ जाऊं ?’
‘क्या बेवकूफी की बात करती हो !’
‘अच्छा, मेरे घर के पास वाले रेलवे क्रासिंग पर मिलिये। मैं वहीं मिलती हूं।’ वह बोली, ‘रेलवे क्रासिंग, मतलब रेलवे क्रासिंग !’
‘और कहीं कोई ट्रेन आ गयी तो ?’
‘तो कट जाइयेगा। पर मिलियेगा रेलवे क्रासिंग पर ही।’ वह अब पूरी तरह पजेसिव फार्म में आ गयी थी।
‘ठीक है भई, पहुंचता हूं।’
वह बोला, ‘पर ऐसा न हो कि पहुंच कर टापता रह जाऊं और तुम्हारा गाना गाऊं कि अंखियों को तेरा इंतजार डंसता है।’
‘ऐसा नहीं होगा, आप पहुंचिये। मैं फोन रखती हूं।’
नागेंद्र पहुंचा रेलवे क्रासिंग पर। और सचमुच बिना किसी की परवाह किये बीच रेल क्रासिंग पर खड़ा हो गया। आंधी पूरे शबाब पर थी। इक्का-दुक्का मोटी-मोटी बूंद भी टपकने लगी थीं। जो जहां था, दुबका हुआ था। पर नागेंद्र धूल में नहाता क्रासिंग पर ऐसे खड़ा था गोया स्टेच्यू !
धूल में नहाई मैत्रेयी आयी। मुसकुराई। पांव छुये। लग रहा था जैसे उस से चिपट जायेगी। पर चिपटी नहीं बोली, ‘जहां मन हो वहां ले चलिये। बस भीड़-भाड़ में नहीं। ले गया वह हजरतगंज के एक रेस्टोरेंट में जहां भीड़ नहीं थी। सिर्फ दो जोड़े थे अपने ही में खोये। मस्त। बिजली चली गयी थी। हल्का हल्का अंधेरा था। कैंडिल लाइट वाली रोशनी थी। जो जोड़े में आने वालों की मुफीद पड़ती थी। और बाहर बारिश शुरू हो चली थी। वह चिपटती हुई खुसफसाई, ‘कितना अच्छा लग रहा है। है ना !’ नागेंद्र उसे महसूसता हुआ चुप ही रहा। वह बुदबुदाती रही, बतियाती रही। उस की तारीफों के पुल बांधती रही। अचानक बुदबुदाना छोड़ कर वह बोली, ‘एक काम करेंगे ?’
‘क्या ?’ अब की वह बुदबुदाया।
‘मुझे अपने साथ इस बारिश में भिगो दीजिये !’
‘क्या ?’
‘हां, इस बारिश में आप के साथ भीगना चाहती हूं।’
‘क्या बच्चों जैसी जिद करती हो।’
‘तो आइये मेरे लिये थोड़ी देर बच्चे बन जाइये !’
‘लोग क्या कहेंगे ?’
‘कुछ नहीं कहेंगे। कहेंगे भी तो प्यार कहेंगे और सभी मजा लेंगे।’
‘यह जिंदगी है, समाज है, फिल्म नहीं है।’
‘कुछ नहीं यही जिंदगी है। बाकी सब बकवास !’ कह कर वह उठ खड़ी हुई। वेटर को पैसे दे कर वह लगभग उस के साथ रेस्टोरेंट से बाहर आ गया। बारिश में भीगने के लिये।
सड़क पर दोनों अनायास भीगते हुये चले। लगभग सट कर। गनीमत थी कि सड़क भारी बारिश के चलते लगभग खाली थी। अगर कुछ था तो चारों तरफ पानी ही पानी।
एक लंबी हिच के बाद नागेंद्र भी रोमांटिक हो गया। फिर दोनों भींगते हुये गुनगुनाने लगे फिल्मी गाने। फिल्मी गानों के कई-कई मुखड़े। बरखा रानी जरा जम के बरसों से लगायत ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर से। गाते-गाते वह अचानक बोली, ‘आप मेरे सागर में समा क्यों नहीं जाते ?’
नागेंद्र कुछ बोला नहीं और भरी सड़क पर उसे बाहों में भर कर चूम लिया। चूम लिया भरी बारिश में तो वह जरा छिटकी। बोली, ‘बड़े बेशर्म हैं आप !’ और इतराती हुई लगभग छम-छम करती हुई आगे-आगे चलने लगी। तेज-तेज।
‘क्या बेवकूफी कर रही हो ?’
‘क्या ?’
‘मदारी की बंदरिया की तरह आगे-आगे मत चलो। साथ-साथ चलो।’ वह बोला, ‘जिस को नहीं देखना होगा, वह भी देखने लगेगा। कम से कम तमाशा तो मत बनो।’
‘मैं तो चाहती हूं कि पूरी दुनिया मुझे देखे आप के साथ !’
‘और हमें बेशर्म कहती हो ?’ यह कहते ही वह छम-छम करती चाल थाम कर नागेंद्र के साथ चलने लगी। बोली, ‘अब पानी में छप्प-छप्प कर के चलने का मन हो रहा है।’ नागेंद्र ने उस की ओर देखा और मुस्कुराया। पर वह चालू रही, ‘जानते हैं आप अगर हम को-आप को इस तरह गुलजार या जावेद अख़्तर जैसा कोई शायर देख ले तो एक बढ़िया रोमांटिक गाना लिख दे। नोंक-झोंक वाला।’ वह फिर मुसकुराया। उस ने गौर किया कि बारिश में तरबतर उस की साड़ी और ब्लाऊज से छन कर उस की ब्रा और पेंटी तो साफ दिख ही रही थी जहां-तहां उस की गोरी और मादक देह भी। उस की चाल, उस का अंदाज और उस का व्यवहार और मादक था। अचानक वह इसरार पर आ गयी कि, ‘मेरे घर चलिये।’
‘इस तरह भीगा हुआ देख कर तुम्हारे घर के लोग क्या सोचेंगे ?’
‘सोचेंगे क्या दामाद का वेलकम करेंगे !’
‘हरदम बेवकूफी की सूझती है तुम्हें ?’
‘कुछ नहीं बस चलिये !’
‘अच्छा अगर तुम्हारे घर में मौका पा कर मैं कुछ कर बैठूं तो बेशर्मी की ताजपोशी मत्त करना !’
‘ठीक है लेकिन मौ्का देख कर।’
नागेंद्र जब मैत्रेयी के साथ उस के घर पहुंचा तब भी बारिश थमी नहीं थी। अंधेरा हो चला था और बिजली गुल थी। खैर, घर में पहुंच कर यह हुआ कि हाथ-मुंह धोया जाये। हाथ-मुंह धोने के लिये इमर्जेंसी लाइट लिये मैत्रेयी
ही नागेंद्र को बाथरूम तक ले गयी।
और बाथरूम में पहुंचते ही नागेंद्र ने मैत्रेयी के साथ बेशर्मी कर दी। बाद में हाथ मुंह धोया।
बाद के दिनों में हो यह गया कि जहां-तहां जिस-तिस से वह नागेंद्र का परिचय करवा देती। नागेंद्र के दोस्तों से भी बिना किसी संकोच मिलती। अपनी कुछ सहेलियों में तो उस ने बाकायदा नागेंद्र के साथ अपनी होने वाली शादी का शगूफा छोड़ना शुरू कर दिया। उस की दो तीन सहेलियों ने तो नागेंद्र को बेझिझक जीजा जी कहना शुरू कर दिया। नागेंद्र मैत्रेयी की इस मूर्खता से परेशान रहने लगा। एक दिन उस ने मैत्रेयी से इस का कड़ा प्रतिवाद किया। समझाया उसे। पर वह कुछ नहीं बोली। नागेंद्र ने और तफसील में जाते हुये उस से कहा कि, ‘मूर्ख दोस्तों से बेहतर है बुद्धिमान दुश्मन !’
पर मैत्रेयी पर इस का कोई असर नहीं पड़ा।
नागेंद्र मैत्रेयी के इस रुख को ले कर बहुत परेशान रहने लगा। उस ने मैत्रेयी से कन्नी काटनी शुरू कर दी। लेकिन वह चींटे की तरह चिपकी रही।
जब कुछ दिनों तक वह उस से मिलने से घबराता तो वह उस के घर आ धमकती। कभी उस की उपस्थिति में तो कभी अनुपस्थिति में। नागेंद्र की पत्नी फिर बिलबिलाने लगती, ‘क्यों आती है यह हमारे घर। आखि़र आप के और उस के बीच क्या पक रहा है? उस को आप से क्या काम रहता है ? उस को कोई दूसरा मर्द नहीं मिलता है क्या जो आप से चींटे की तरह चिपकी रहती है ? कि यह शादी क्यों नहीं कर लेती ?’ आदि इत्यादि। पर नागेंद्र, ‘क्या बेवकूफी की बातें करती रहती हो ?’ जैसे संक्षिप्त संवाद से मामले को ख़त्म कर देता। ज्यादा प्रतिवाद नहीं करता। बात बढ़ाने से कोई फायदा भी नहीं था। और वह घर की शांति की कीमत पर यह सब कुछ करना भी नहीं चाहता था।
कि अचानक एक और घटना घट गयी।
मैत्रेयी की एक सहेली ने जीजा जी, जीजा जी कहते-कहते नागेंद्र पर डोरे डालने शुरू कर दिये। नागेंद्र ने पहले तो उस की नोटिस नहीं ली। गलतफहमी समझ कर टाला। पर वह जब ज्यादा ही लिफ्ट लेने लगी तो उसे ने उसे लिफ्ट दे दी। दो सिटिंग के बाद तीसरी सीटिंग में उस ने आहिस्ता से उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया। वह कुछ बोली नहीं। न मुसकुराई। न ना-नुकुर की। एक दिन उस ने गोमती में बोटिंग का प्रस्ताव रखा तो वह मान गयी। बीच बोटिंग में नागेंद्र ने उसे बांहों में भर कर चूम लिया। वह झिझकी और उस से दूर हो गयी।
दूसरे दिन मैत्रेयी का फोन आया कि, ‘आप मेरी सहेलियों को क्या समझते हैं ?’
‘क्या बेवकूफी की बात करती हो ?’ नागेंद्र भड़कता हुआ बोला।
‘नहीं बताइये !’ वह जोर दे कर बोली।
‘क्या बतांऊ ?’
‘आप मेरी सहेलियों को क्या समझते हैं ?’
‘मैं समझा नहीं।’ नागेंद्र बात समझते हुये भी टालते हुये बोला।
‘हाथ में हाथ ले लेते हैं, बोटिंग कराते हैं और बेशरमों की तरह चूम लेते हैं।’ मैत्रेयी फुंफकारती हुई बोली, ‘और कहते हैं मैं कुछ समझा नहीं।’
‘ओफ्फो !’
‘नहीं बताइये क्या समझते हैं आप मेरी सहेलियों को ?’
‘तुम्हारी सहेलियां मुझे क्या समझती हैं ?’ नागेंद्र तड़क कर बोला और फिर तुरंत ही नरम पड़ते हुये बोला, ‘तुम्हीं बता दो न !’
‘बहुत बेशर्म हैं आप !’ कह कर उस ने फोन रख दिया।
फिर बहुत दिनों तक मैत्रेयी ने नागेंद्र को न फोन किया, न मिली। नागेंद्र ने भी उस से संपर्क नहीं किया। अलबत्ता मैत्रेयी की उस सहेली को फोन कर लंबा ऐतराज जताया। कहा कि, ‘मैत्रेयी से यह सब बताने की जरूरत क्या थी ? और अगर इतनी ही छुई-मुई बनना था तो मेरे पीछे क्यों पड़ी ? और फिर जब हाथ में हाथ लिया था तभी भड़क कर बता देती कि आप बहुत बड़ी सती सावित्री हैं! पर नहीं आप तो बोटिंग के लिये भी राजी हो गयीं। क्यों भई ?’
‘इस लिये जीजा जी कि आप का टेस्ट लेना था !' सहेली भड़कने के बजाये नरमी से बोली।
‘क्या मतलब ?’
‘मैत्रेयी ऐसा ही चाहती थी। जो भी कुछ हुआ, जैसे भी हुआ, मैत्रेयी के कहे पर हुआ।’
‘क्या ?’
‘जी जीजा जी !’
‘एक बात सुन लीजिये !’ नागेंद्र भड़कता हुआ बोला, ‘अव्वल तो मुझे जीजा जी कहना अभी तुरंत से बंद कीजिये। दूसरे, उस मूर्ख मैत्रेयी को बता दीजिये कि मैं ब्रह्मचारी नहीं हूं। मर्द हूं और लंपट किस्म का मर्द हूं। विवाहित होने के बावजूद अगर उस के साथ हमबिस्तरी कर सकता हूं तो बाकी और औरतों से भी राखी नहीं बंधवाई है जो मेरा टेस्ट लेने की नौबत आ गयी।’ वह रुका और बोला, ‘टैस्ट चैप्टर जो क्लोज हो गया हो तो आप का फिर से स्वागत है।’
‘क्या बात कर रहे हैं आप जीजा जी !’
‘कुछ नहीं बात हजम न हुई हो तो हाजमोला खा लीजियेगा।’ कह कर नागेंद्र ने फोन रख दिया।
दिन बीतते रहे, न मैत्रेयी ने नागेंद्र से संपर्क किया न उस की सहेली ने।
अचानक एक दिन रास्ते में मैत्रेयी दिखी। नागेंद्र ने उस की ओर रुख भी किया लेकिन मैत्रेयी ने मुंह मोड़ लिया। मैत्रेयी की आंखों में घृणा थी। नागेंद्र परेशान हो गया। परेशान हुआ मैत्रेयी की आंखों में अपने लिये घृणा देख कर। परेशान हुआ उस की बेरुखी से।
कुछ दिन बाद नगेंद्र ने मैत्रेयी को फोन किया। कहा कि, ‘मिलना चाहता हूं।’
‘लेकिन मैं अब नहीं मिलना चाहती।’ वह सख़्ती से बोली और फोन काट दिया।
नागेंद्र और परेशान हो गया।
हफ्ते भर बाद एक शाम मैत्रेयी ने नागेंद्र को फोन किया। बोली, ‘अभी भी नाराज हैं ?’
‘मैं क्यों नाराज होने लगा ?’
‘मुझ से मिलेंगे ?’
‘कब ?’
‘अभी !’
‘कहां ?’
‘मेरे घर आ जाइये !’
‘धत् तुम्हारे घर आ कर क्या करूंगा ?’
‘क्यों ?’
‘आखि़र सब लोग होंगे !’
‘आप सुधरेंगे नहीं !’ वह बोली, ‘जब भी मिलेंगे बस उसी काम के लिये!’
‘तो आखि़र किस लिये मिलना चाहती हो तुम ?’
‘बैठेंगे। बतियायेंगे आप से। आप को कुछ खिलाये-पिलायेंगे।’ वह इठलाती हुई बोली, ‘चुपके-चुपके आप को देखेंगे, देख कर आंखों की भूख मिटायेंगे, आप की बातों का रस लेंगे, ख़ामोश महसूस करेंगे आप को। कभी-कभी ऐसा भी तो होना चाहिये। क्यों ?’
‘बातें बहुत मत बनाओ।’ वह बोला, ‘मैं पहुंच रहा हूं थोड़ी देर में।’
नागेंद्र जब पहुंचा तो दरवाजा मैत्रेयी ने ही खोला। खुले बालों और आरेंज नाइटी में उस की देह की मादकता और आंखों में छलकते इसरार के बावजूद नागेंद्र निःशब्द रहा। मैत्रेयी ने झुक कर उस के पैर छुये।
‘खुश रहो !’ वह बुदबुदाया। उसे ड्राइंग रूम में बैठा कर खुद किचेन में चली गयी। कुछ फल और सिकंजी लिये हुये वह लौटी।
‘घर में कोई और नहीं है क्या ?’
‘नहीं सब लोग एक शादी में गये हैं। देर रात या सुबह तक लौटेंगे।’
‘तुम क्यों नहीं गयीं ?’
‘कहां ?’
‘शादी में !’
‘आप से मिलना जो था !’
‘बड़ी शैतान हो ! गरज यह कि सारी रात न सही, आधी रात तो अपनी है।’ कह कर उस ने उस के गाल पर चिकोटी काटनी चाही। पर उस ने जबरिया रोक दिया। बोली, ‘अभी यह सब नहीं। अभी पूजा करनी है।’ सो वह रुक गया पूजा के नाम पर।
बड़ी देर तक वह पूजा करती रही। लोहबान वगैरह सुलगा कर निकली। पूरा घर लोहबान, अगरबत्ती की गंध-सुगंध से भर गया। वह खुद भी लोहबान-लोहबान हो रही थी।
ख़ैर, पूजा घर से निकल कर उसे ने उसे प्रसाद दिया और फिर पैर छू कर हाथ माथे पर लगा लिया। सोफे पर बैठते-बैठते बोली,‘‘चाया पियेंगे या फिर सिंकजी बना दूं ?’
‘सिकंजी ही बना दो।’
वह सिकंजी बना कर लायी और धम्म से उस की गोद में बैठती हुई बोली, ‘आज बड़े शरीफ हो गये हैं ?’
वह कुछ बोला नहीं चुप ही रहा। वह भी चुप हो गयी। बड़ी देर तक वह उस के बालों में उंगलियां फिराती रही। फिर निःशब्द ही दोनों बिस्तर में आ गये। चरम क्षणों के गुजरने के बाद भी दोनों चुप रहे। थोड़ी देर बाद नागेंद्र ने ही चुप्पी तोड़ी। बोला, ‘मेरा टेस्ट लेने की क्या जरूरत आ पड़ी। तब जब कि तुम जानती हो कि मैं कोई ब्रह्मचारी नहीं हूं। एकनिष्ठ भी नहीं हूं।’
‘कड़वी बातों को इस वक्त भूल जाइये। कुछ अच्छी बातें कीजिये।’
‘इस में कड़वा क्या है ?’
‘कड़वा यह है कि मैं आप को खोना नहीं चाहती हूं।’ वह जरा रुकी, नागेंद्र की छाती में समाती हुई, सांसें भरती हुई बोली, ‘क्यों कि अपनी जिंदगी में बहुत कुछ खो चुकी हूं। खो-खो कर जिंदगी नरक बना चुकी हूं। अब और नहीं बनाना चाहती।’
‘मैं कुछ समझा नहीं।’
‘आप मुझे कुंवारी समझते हैं ?’ अचानक वह उठ कर बैठती हुई बोली।
‘तुम कुंवारी हो नहीं तो कैसे कुंवारी समझूं ?’
‘मेरा मतलब है आप मुझे अनमैरिड समझते हैं ?’
‘वो तो तुम हो। इस में समझने न समझने की क्या बात है ?’
‘लेकिन मैं मैरिड हूं।’
‘क्या बोल रही हो ?’ नागेंद्र घबराया हुआ बोला, ‘यही फालतू आरोप लगाने के लिये यहां बुलाया है ?’ कहते हुये वह भी उठ कर बैठ गया।
‘नहीं घबराइये नहीं। मैं आप से अपने विवाह की बात नहीं कर रही हूं।’
‘तो ?’ निश्चिंत होता हुआ नागेंद्र पलंग से पीठ लगा कर बैठ गया।
‘मेरी दो शादियां हो चुकी हैं।’
‘क्या ?’ नागेंद्र हतप्रभ हो उस का चेहरा हाथ में लेते हुये बोला।
‘जी !’
‘पर कब ?’
‘मैं तब इंटर में पढ़ती थी। किताबों की एक दुकान पर वह मिला था। लव ऐट फ़र्स्ट साइट जिसे कहते हैं, शायद वही हुआ। मैं तब टीनएजर थी भी।’ मैत्रेयी जरा तफसील में आती हुई बोली, ‘बाद में पता चला वह किताब की दुकान उसी की थी। फिर मैं अक्सर जाने लगी। बाद के दिनों में रोजाना। दो बार, तीन बार। बिना मिले चैन नहीं आता। बात घर तक पहुंची। दोनों घरों के लोग खि़लाफ हो गये। मेरे घर में कुछ ज्यादा ही खि़लाफत हुई। मुझ पर सख्ती बढ़ा दी गयी। लेकिन मौका देख कर मैं घर से भाग निकली। उस ने मुझसे मंदिर में शादी कर ली, अपने घरवालों की मर्जी के खिलाफ। इस शादी में उस के दो चार दोस्त भी आये और कोई नहीं। अब हम दोनों अपना-अपना घर छोड़ कर एक किराये के मकान में रहने लगे। लेकिन पंद्रह-बीस रोज में ही उस की मम्मी आयीं। समझा-बुझा कर हम दोनों को घर ले गयीं। एक बढ़िया-सा रिसेप्शन दिया। रिसेप्शन में मेरे घरवालों को भी बुलाया। पर कोई आया नहीं। फिर भी मेरी जिंदगी प्यार से कटने लगी। धीरे-धीरे मैं ने घर का सारा काम संभाल लिया। लेकिन जल्दी ही मुझे लगा कि मैं घर की बहू नहीं नौकरानी हो गयी हूं। शुरुआत सास के तानों से हुई काम काज को ले कर। फिर बात दहेज तक आ गयी। सास-ससुर दोनों कहने लगे कि मेरे बेटे को फांस कर इस ने दहेज खा लिया। ननदें भी सुर में सुर मिलाने लगीं। मेरी हालत अब नौकरानी से भी गयी गुजरी हो गयी। मैं ने अजय से यह सारी बातें दबी जबान बतानी शुरू कीं।’
‘यह अजय कौन ?’ बात बीच में काटते हुये नागेंद्र ने पूछा।
‘मेरा प्रेमी, मेरा पति !’
‘अच्छा-अच्छा !’
‘पर अजय मेरी बातों को जैसे सुनता ही नहीं था। सास, ससुर, ननद सब की डाह बढ़ती जा रही थी।’ वह तकलीफ में आती हुई बोली, ‘सोचिये कि ननदों के पीरिएड्स वाले कपड़े तक मैं धोती। तमाम मुश्किलों के बावजूद मैं सब कुछ खुशी-खुशी निभाती गयी। क्योंकि मैं अजय से बेइंतहा प्यार करती थी। पर दहेज का दंश दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। इस फेर में बात बेबात कब मेरी पिटाई भी शुरू हो गयी मैं जान ही नहीं पायी। अंततः खुल्लमखुल्ला दहेज की मांग होने लगी। कहा जाने लगा कि जाओ, घर से इतना पैसा लाओ, यह सामान लाओ, वह सामान लाओ। और अब कभी-कभी अजय भी अपने मां-बाप की शह पर मेरी पिटाई करने लगा। सास कहने लगीं कि तेरी मां तो रोजगार करती है।’
‘मतलब ?’
‘बदचलन है।’ मैत्रेयी के घाव हरे होते जा रहे थे। यह सब बताते-बताते उस की आंखें ऐसे बह रही थीं गोया कोई नदी बह रही हो। वह बोली, ‘सास कहती थीं कि तेरी मां खुद भी रोजगार करती है और तुझ से भी रोजगार करवाती है।’
‘आखि़र वह ऐसा किस आधार पर कहती थी ?’
‘दरअसल मेरी किस्मत ही खराब है। बचपन में ही पिता चल बसे। वैसे भी मेरी मां उन की दूसरी पत्नी हैं। पहली पत्नी से मेरे पिता के दो बेटे हैं जो हमारे परिवार से अलग रहते हैं। इसी शहर में। एक बेटी भी थी। जिसे उस के ससुराल वालों ने कुछ साल पहले मार डाला। मेरी मां की भी यह दूसरी शादी थी। मेरी मां की पहली शादी इस लिये असफल हो गयी क्योंकि उस का पति शराबी-जुआरी था। पेट भर खाने को मां तरस जाती थी। मां की उस पहली शादी से भी मेरे दो भाई हैं। मां के साथ ही रहते हैं। तो जब बच्चों समेत मां भूखों मर रही थी तो एक आदमी ने उस की मदद करनी शुरू की। वह आदमी जो मकान मालिक था। और विधुर था। मां मेरी उस की किरायेदार थी। मां की मदद करते-करते उस ने मेरी मां से अपेक्षाएं करनी शुरू कर दीं। अतंतः मेरी मां ने पहले पति को छोड़ दिया और अपने मकान मालिक के साथ कुछ दिनों के लिये शहर छोड़ दिया। लोगों ने उड़ा दिया कि दो बच्चों की मां अपने मकान मालिक के साथ भाग गयी। जब कि मां भागी नहीं थी। सिर्फ अपने शराबी-जुआरी पति से पिंड छुड़ाया था। और अंततः दोनों ने सार्वजनिक रूप से विवाह कर लिया। एक दूसरे के बच्चों को स्वीकारते हुये। दरअसल मेरे पिता मेरी मां से उम्र में काफी बड़े थे। कम से कम पंद्रह-बीस बरस का फासला रहा होगा। तो कानाफूसी भी बहुत हुई। इस कानाफूसी में मां की बदनामी ज्यादा हुई। पर शायद यह बदनामी पेट की भूख से ज्यादा छोटी थी। शराबी-जुआरी पति के अत्याचारों से ज्यादा छोटी थी। मेरी मां और उस के इस नये पति के बीच सामाजिक तौर पर सिर्फ एक स्वीकृति थी कि दोनों एक ही जाति के थे। बदनामी को पाटने में यह एक फैक्टर बड़े काम आया। तो भी मेरे पिता मेरी मां के साथ बारह-पंद्रह साल का दांपत्य गुजारने के बाद चल बसे। मैं छोटी ही थी। मुझे याद है वह मुझे बहुत प्यार करते थे। मेरा बड़ा ख़्याल रखते थे। वह होते तो शायद मेरा यह बुरा हाल न होता।’ वह जरा रुकी और नागेंद्र की छाती से लगती हुई बोली, ‘दरअसल मुझे लगता है कि बिना बाप की बेटी और बिना पति के औरत की समाज में, परिवार में बड़ी दुर्दशा होती है। कम से कम मेरी तो हो ही रही है। क्योंकि अगर मेरे पिता होते तो शायद मेरी बर्बादी इस तरह तो न हुई होती। और जो पति ने साथ दिया होता तो शायद इस तरह दर-बदर न होती। आज हालत यह है कि मुहल्ले के लोग, रिश्तेदार लोग मेरी मां से, मेरे भाइयों से जब-तब पूछते रहते हैं कि कब तक बिठाये रखोगी घर में बेटी को। और यह सभी खिसिया कर निरुत्तर रहते हैं तो एकाध सवाल मुझ तक भी बर्छी की तरह बिंधे आते हैं कि कब तक मायके की रोटी तोड़ोगी ? तो मैं यह सहारा, यह विकल्प आप जैसे किसी सुलझे पुरुष में ढूंढ़ती रहती हूं। पर यह तलाश मृगतृष्णा में तब्दील होती जाती है।’
‘तुम ने अजय से अपनी टूटी शादी का डिटेल्स नहीं बताया ?’
‘क्या आप के डिटेल्स में आ गयी हूं इस लिये घबरा रहे हैं ?’
‘नहीं ऐसी बात नहीं।’
‘असल में अजय मेरी जिंदगी का ऐसा नासूर है कि मैं उस से कभी छुट्टी नहीं पा सकती।’ वह बोली, ‘जितना प्यार मैं ने उस से किया, किसी से नहीं किया, न कर पाऊंगी। पहला प्यार था न ! सो भूल भी नहीं पाऊंगी। लेकिन हकीकत यह भी है कि जितनी नफरत मैं उस से करती हूं, किसी और से यह नफरत भी नहीं कर पाऊंगी। कहूं कि मेरी जिंदगी को उस ने ताजमहल भी बनाया और सलीब पर लटकाया भी।’ कह कर मैत्रेयी चुप हो गयी।
नागेंद्र भी चुप रहा।
‘क्या करूं वह मंजर आंखों से जाता ही नहीं। वह घाव दिल का, जिंदगी का भरता ही नहीं, जहन्नुम का वह जहर घटता ही नहीं।’ थोड़ी देर बाद मैत्रेयी खुद ही नदी की तरह बहने लगी, ‘मैं अजय के बच्चे की मां बनने वाली थी। तमाम अत्याचारों के बावजूद खुशी से झूमती हुई। दहेज की लपटों और तपिश में झुलसते हुये भी खुशी में चूर। एक दोपहर मेरे ससुर आये। घर में मैं अकेली थी। सास ननदों को ले कर कहीं गयी हुई थीं। अजय दुकान पर था। मैं ने खाना परोसा। खाना खाते-खाते उन्होंने अपने पास बुला कर बैठा लिया। मेरे ऊपर हो रहे अत्याचारों से मुझे निजात दिलाने का आश्वासन देने लगे। अचानक उन की उमड़ आयी सहानुभूति को मैं समझ नहीं पायी। आंखें बंद किये उन की सहानुभूति को तौल ही रही थी कि मेरे ससुर ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया। मैं अफनाई। पर उन की पकड़ से छूट नहीं पायी। मैं ने पूरी ताकत भर उन के कमर के हिस्से पर अपने दोनों पैर चला दिये। वह छटपटा कर गिर पड़े। मैं ने एक स्टूल उठा कर उन के सिर पर दे मारा। उन का सिर फट गया। खून बहने लगा तो जल्दी-जल्दी पट्टी बांधने लगी। इसी बीच सास आ गयी। बिना पूछे-ताछे दोनों ननदें और सास मिल कर मुझे मारने लगीं। अजय को दुकान से बुलवाया गया। फिर सब मिल कर मुझे बुरी तरह मारने लगे। अड़ोस-पड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए। ससुर ने आरोप लगाया मेरे बेटे को तो फंसा ही लिया था, अकेला पा कर मुझ पर भी डोरे डाल रही थी। समझाया कि मेरी बहू हो तो मेरा सिर फोड़ दिया। यह सब सुन कर पड़ोसी बिदक कर चले गये। रात भर मेरी रह-रह कर लातों -जूतों से पिटाई होती रही। अजय को मैं ने समझाने की कोशिश की। पर वह कुछ सुनने को तैयार नहीं था। पिटाई का नतीजा सामने था। मुझे ब्लीडिंग शुरू हो गयी। मैं समझ गयी कि मेरा बच्चा खतरे में है। मैं ने सास को बताया, अजय को बताया। कहा कि अस्पताल ले चलो। पर सास बोलीं, अस्पताल जा कर क्यों कलमुंही यहीं मर। जाने किस का पाप ले कर मेरे घर आ गयी है। मैं छटपटाती रही पर कोई अस्पताल नहीं ले गया। दो दिन हो गये थे। मैं अधमरी हो गयी। रात में जब सब लोग सो गये तो मैं घर से निकल भागी। पहुंची अपने घर। घर में सब अभी तक नाराज थे। पर मां से मेरी दुर्दशा देखी नहीं गयी। वह मुझे अस्पताल ले गयी। उसी रात मेडिकली मेरा एबॉशर्न किया गया। मेरी जान बच गयी। बाद में मैं ने मां को सारा किस्सा विस्तार से बताया। मां ने भाइयों से बताया। तय हुआ कि अजय और उस परिवार वालों के खि़लाफ दहेज का मुकदमा लिखवाया जाये। मैं ने विरोध किया। पर मां और भाइयों ने मेरी एक न सुनी। मुकदमा लिखवा दिया गया। अजय और उस के पूरे घर को पुलिस पकड़ कर थाने ले आयी। मेरे घर वाले भी पूछताछ के लिये थाने ले जाये गये। भाइयों ने मुझे घर में ही बंद कर दिया और मां को ले कर थाने चले गये। मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। इसी बैचेनी में मैं छत पर गयी और छत से नीचे कूद गयी।’
‘क्या ?’
‘नहीं-नहीं आत्महत्या के इरादे से नहीं। थाने जाने के लिये।’ वह बोली, ‘छत से कूदने पर काफी चोट आयी। पर रिक्शा ले कर मैं थाने गयी। जा कर मैं ने अजय और उस के परिवार वालों के खि़लाफ लगे मुकदमे को वापस ले लिया। अजय और उस का परिवार तुरंत छूट गया। मैं ने अजय को फिर से थाने में ही समझाने की कोशिश की। पर उस ने मेरी ओर देखा तक नहीं। वह लोग बिना मुझ से बात किये, बिना मेरी ओर देखे थाने से चले गये। लुटी-सी रह गयी मैं, मेरी मां और मेरे भाई। मेरे एक भाई ने पुलिस वालों से कहा भी कि यह प्यार में अंधी हो गयी है,आप लोग फिर मुकदमा लिखिये और इन सालों को बंद कीजिये।'
पर पुलिस वालों ने सारा कुछ मेरे बयान पर छोड़ दिया। और मैं ने अजय और उस के परिवार वालों के खि़लाफ कोई बयान देने से साफ इंकार कर दिया। मां आजिज आ कर माथा पीटती हुई बोली, ‘जब अपना ही सिक्का खोटा है तो कोई क्या कर सकता है।’ फिर मुझे लंगड़ाते हुये देख कर पूछा कि, ‘मैत्रेयी तुम यहां आयीं कैसे ?’ मैं ने बताया कि, ‘छत से कूद कर।’ तो वह फिर माथा पीट बैठी। बोली, ‘हाय राम ! ऐसा इश्क तो लैला ने भी नहीं किया होगा।’ पुलिस वालों से भी वह मुख़ातिब हुईं। इस पर पुलिस वाले मुसकुरा कर रह गये। खैर, मां भाइयों से कह सुन कर मुझे थाने से ही अस्पताल ले गयीं। एक्सरे वगैरह हुआ तो पता चला दोनों पैर और दायें हाथ में फ्रेक्चर है। मैं अस्पताल में भर्ती हो गयी। दो दिन बाद प्लास्टर लगा दिया गया। भाई सब फिर-फिर थाने जाते रहे। अजय और उस के पिता बुलाये जाते रहे। और अंततः अजय और उस के पिता ने मेरी शादी से ही इंकार कर दिया। और मुझे बदचलन, मनचली और और मेंटल डिक्लेयर कर दिया !’ भाइयों ने पुलिस पर जब ज्यादा जोर दिया तो पुलिस ने मेरी शादी का सुबूत मांगा। अब भाई बिचारे सुबूत कहां से देते।’
‘क्यों रिसेप्शन की फोटो रही होंगी। वह पंडित रहा होगा जिसने मंदिर में शादी करवाई थी। फिर रिसेप्शन में आये हुये मुहल्ले के लोग, नाते-रिश्तेदार!’
‘वह सब लोग तो अजय के ही लोग थे न !’ वह टूटती हुई बोली, ‘मेरे लोग कहां थे ?’
‘यह तो हद थी।’ नागेंद्र बुदबुदाया।
‘खैर, जब मैं अस्पताल से घर लौटी तो एक अच्छी बात यह हुई कि घर में मुझे पुरानी वाली हैसियत फिर से मिल गयी। मैं फिर से अब सब की बेबी बन गयी।’
‘बेबी ?’
‘हां, घर में बचपन से ही मुझे सभी बेबी कहते हैं।’
‘अब भी ?’
‘हां !' वह मुसकुराई। पर बोलना बंद नहीं किया। कहने लगी, ‘मुझे एक बड़ी ताकत मिली बेबी के इस पुनर्जन्म से। मैं ने जो पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी फिर से शुरू की। सब कुछ भूल-भाल कर दिन-रात मैं पढ़ाई में लग गयी।’ वह बोली, ‘आज उस पढ़ाई का ही नतीजा है कि इतना सब कुछ हो-हवा जाने के बाद में भी बड़े स्वाभिमान से इस परिवार में, इस समाज में खड़ी हूं। डिग्री कालेज की लेक्चररशिप उस वक्त मेरा सब से बड़ा टारगेट थी।’
‘ये लेक्चरशिप ही क्यों ?’
‘क्यों कि अजय का बाप यहीं पढ़ाता था। और मैं मानती हूं कि मेरी जिंदगी को जहन्नुम बनाने वाला अकेला वही शख़्स जिम्मेदार है।’ वह बोली, ‘हालां कि इस डिग्री कालेज की लेक्चररशिप के लिए मुझे कुछ कंप्रोमाइज करने पड़े।
‘क्या ?’
‘पैसे भी खर्च किये और दो लोगों को देह भी सौंपी।’ वह बोली, ‘पर मुझे इस का कोई मलाल नहीं है। बल्कि मुझे इस बात का संतोष है और तसल्ली भी कि अजय के बाप को मैं जितना अपमानित और जितना घायल कर सकती थी इसी नौकरी से किया। शिखंडी जैसे भीष्म पितामह की जान लेने का सबब बनी, अजय के बाप की बर्बादी का सबब वैसे ही मैं बनी। मैं ने स्टाफ में अजय से अपनी शादी को छुपाया नहीं, बल्कि हवा दी बड़ी खामोशी से। हालत यह हो गयी कि वह मुझे देखते ही रास्ता बदल लेता। मेरी जलती हुई आंखों के आगे वह अपनी आंखें झुका लेता। बात जब ज्यादा बढ़ी तो वह लंबी छुट्टी पर चला गया। वापस लौटा तो शकुनी की तरह बिसात बिछाये। कुछ स्टूडेंट्स को मेरे खि़लाफ भड़काने की जैसे उस ने मुहिम चला दी। मैं ने बड़ी ख़ामोशी से उस के इस वार को खाली जाने दिया। और अहिस्ता से औरत होने का फायदा उठाते हुये कुछ स्टूडेंट्स को अपने मोह जाल में बांध लिया। वही स्टूडेंट्स जो उस की शह पर मेरे पीछे पड़े हुये थे उस के खि़लाफ इस बात की शिकायत कर बैठे। अजय के बाप को नोटिसें मिलने लगीं। नोटिसों का अंबार लग गया। एक दिन आजिज आ कर स्टाफ रूम में वह मेरे पैरों पर गिर पड़ा। कहने लगा, ‘मैत्रेयी मुझे माफ कर दो। चाहो तो घर वापस चली चलो। पूरी मर्यादा से रहना। कोई कुछ नहीं कहेगा। बस यह नौकरी छोड़ दो। घर चलो।’ पर मैं फिर भी कुछ नहीं बोली। ख़ामोशी से उस की सारी बातें पी गयी। ऐसे जैसे उस ने कुछ कहा ही नहीं, मैं ने कुछ सुना ही नहीं। वह फिर बोला, ‘बहू मुझे बचा लो ! मेरी इज्जत, मेरी पगड़ी ऐसे मत उछालो।’ मैं फिर भी ख़ामोश रही। दूसरे दिन से वह फिर लंबी छुट्टी पर चला गया। मेडिकल लीव पर। एक दिन पता चला कि उसे हार्ट अटैक हो गया है। स्टाफ के सब लोग उसे अस्पताल में देखने गये। मैं नहीं गयी। अजय की मां मेरे पास आयी। माफी मांगती हुई कहने लगी, ‘घर चलो मेरी बेटी और उन को माफ कर दो।’ मैं ने पूछा, ‘क्यों बुढ़िया, अब दो-दो बहुएं कैसे रखेगी?’
‘दो-दो बहुएं ?’
‘हां, अजय ने अब तक दूसरी शादी कर ली थी।’
‘अच्छा-अच्छा !’
‘और जब बुढ़िया नहीं मानी तो मैं ने साफ कह दिया कि मैं ने अजय का सिंदूर कब का धो दिया। अब कुछ बाकी नहीं रहा। और मैं नहीं गयी। और अंततः एक दिन ख़बर आयी कि अजय का बाप मर गया। मैं फिर भी नहीं गयी। पर मेरा आतंक अजय के परिवार पर ऐसा छाया कि अजय के बाप की जगह कोई आश्रित कालेज में नौकरी करने नहीं आया। तब जब कि मैं जानती हूं कि अजय की दुकान अब नहीं चलती और वह बेहद आर्थिक तंगी में हैं।’
‘लगता है तुम्हारी आह लग गयी।’
‘आह बहुत छोटा शब्द है।’ कह कर वह फिर चुप लगा गयी।
‘और दूसरी शादी कब की ?’
‘वह दूसरी शादी, शादी शायद कम थी, देह की जरूरत शायद ज्यादा थी।’ वह बोली, ‘डोरे उसी ने डालने शुरू किये। वह मेरी पहली शादी से अनभिज्ञ था। मैं भी खाली थी। जी उचटा हुआ था। मिलती-जुलती रही। पर जब वह देह पर दस्तक ज्यादा देने लगा तो मैं ने उसे थाहने के लिये कहा, ‘शादी के बिना यह सब कुछ नहीं।’ वह मान गया। ले जा कर अपने भइया-भाभी से मिलवाया। वह भी मान गये। पर उस के माता-पिता राजी नहीं हुये। अंततः उस ने भी मंदिर वाली शादी प्रपोज की और कहा कि मम्मी-पापा के राजी होते ही बाकायदा शादी करूंगा। तब तक हम लोग अपने-अपने घरों में रहेंगे। लेकिन मिलते-जुलते रहेंगे। मैं दुबारा झांसे में आ गयी। अपने घर वालों को बिना बताये शादी कर ली और उस से मिलती-जुलती। उस को अपने देह सौंप दी। वह निश्चिंत हो गया। मैं जब शादी की बात करती तो वह मेरी देह की बात करता, मेरी देह की बुनावट की बात करता कि तुम्हारे ब्रेस्ट लूज क्यों हैं, वजाइना ऐसी क्यों है ? कि बड़ी खेली खायी लगती हो। अंततः एक दिन उस के सवालों से आजिज आ कर अजय से शादी वाली बात विस्तार से बता दी। तब से ही वह मुझ से कतराने लगा। बहुत कुरेदा तो एक दिन कहने लगा, ‘शादीशुदा से कैसे शादी कर सकता हूं।’ मैं ने उस से स्थितियों की दुहायी दी। पर वह जब तब मिलता रहता, देह की भूख मिटाता रहता पर शादी के नाम मात्र से बिदक जाता।’
‘उस से प्रिगनेंट नहीं हुई ?’
‘आप से हुई क्या ?’
‘नहीं।’ उस ने पूछा, ‘कुछ जुगाड़ कर रखा है ?’
‘तो ? बातों -बातों में ताजमहल बनवाने वाले बहुतेरे मिलते हैं पर साथ निभाने वाले मर्द शायद इस समाज में नहीं हैं।’
‘बुरा न मानना।’ नागेंद्र बोला, ‘तुम्हारी जिंदगी में अब तक कितने मर्द आ गये होंगे ?’
‘आप कायदे से तीसरे और बेकायदे से पांचवें हैं।’ वह बोली, ‘दो तथाकथित पतियों तथा दो अन्य के बारे में आप को बता चुकी हूं।’
‘पर ऐसा कैसे हुआ कि बिना शादी का वादा किये ही तुम मेरे साथ हमबिस्तर होने लगीं ?’
'यह शायद उम्र की मेच्योरिटी है !’ वह बोली, ‘पर मैं आप से शादी की बात करती तो रहती हूं।’
‘यह जानते हुये भी कि मैं शादीशुदा हूं ?’
‘हां !’
‘पर क्यों मेरा परिवार तोड़ना चाहती हो ?’ वह बोला, ‘और अपनी जिंदगी जहन्नुम करना चाहती हो ?’
‘पर ऐसे कब तक चलता रहेगा ?’ वह बोली, ‘मैं अब जिस तिस के साथ तो सो नहीं सकती। और मर्द के बिना रह भी नहीं सकती। आखि़र बायलाजिकल नीड भी तो कुछ होती है ! भावनात्मक सुरक्षा भी मुझे चाहिये ही चाहिये।’
‘ये तो है !’
‘अब काफी समय हो गया है। आप को चलना चाहिये।’
‘ठीक बात है।’ कह कर वह उठने लगा।
‘आज आप के सामने अपनी जिंदगी की पूरी किताब खोल दी है। कभी इस का मिसयूज मत कीजियेगा और मुझे समझने की कोशिश कीजियेगा।’
‘बिल्कुल।’ कह कर वह कपड़े पहनने लगा।
चलते-चलते नागेंद्र ने मैत्रेयी को हल्के से चूम लिया।
रास्ते भर वह मैत्रेयी के दुख, उस के संघर्ष और मुश्किलों के बारे में सोचता रहा। उस के साथ पूरी सहानुभूति के बावजूद वह उस की मदद कर पाने में अक्षम पा रहा था। दो दिन बाद मैत्रेयी जब नागेंद्र से मिली तो असहज और अशांत। नागेंद्र ने सबब पूछा तो बोली, ‘कुछ नहीं ऐसे ही है।’ थोड़ी देर बाद पूछने लगी, ‘आप जाने मुझे क्या-क्या समझ रहे होंगे ?’
‘क्यों ?’
‘बदचलन, चरित्रहीन, आवारा या ऐसे ही कुछ !’
‘क्या बात कर रही हो ?’
‘तो फिर ?’
‘मैं तो तुम्हारे संघर्ष, तुम्हारी बहादुरी के बारे में सोच रहा हूं।’
‘चलिये भगवान का शुक्र है कि कोई तो मुझे समझने वाला मिला।’
‘अब तुम्हें बिना मांगी एक राय भी दे दूं। अगर बुरा न मानो तो ?’
‘बताइये।’
‘तुम किसी ऐसे व्यक्ति से शादी कर लो जो विधुर हो या तलाकशुदा हो। पर समझदार हो और खुले दिमाग का हो। क्यों कि कुंवारे लड़के तो सवाल खड़ा करेंगे ही। और तुम फिर झटका खाओगी।’
‘हैं ना आप !’ वह बोली, ‘समझदार ! आप से ही शादी करना चाहती हूं।’
‘यह तो संभव नहीं है।’
‘तो आप ही मेरे लिये कोई दुल्हा ढूंढ दीजिये !’
‘मैं कहां से ढूंढूं ?’
‘चलिये अख़बारों में विज्ञापन दे दीजिये !’
‘नहीं विज्ञापनी शादियां तो और गड़बड़ होती हैं।’ वह बोला, तुम आपसी समझदारी से तय करो ज्यादा अच्छा रहेगा।’
‘कहो मैत्रेयी कैसी हो ?’ रेस्टोरेंट में अचानक एक व्यक्ति नागेंद्र के पीछे से मुखातिब हुआ।
‘अच्छी हूं।’ मैत्रेयी हंसती हुई बोली, ‘तुम कैसे हो ?’
‘अरे सुनील तुम ?’ नागेंद्र उछलते हुये बोला।
‘नमस्कार नागेंद्र जी।’ कहते हुये वह बोला, ‘आप कैसे हैं ?’
‘ठीक ही हूं।’ नागेंद्र बोला, ‘तुम बताओ। बहुत दिन बाद दिख रहे हो।’
‘बस भाई साहब ऐसे ही है।’ कहते हुये वह बोला, ‘मुझे जरा एक जगह पहुंचना है।’
‘अच्छा-अच्छा !’
‘आप जानते हैं इसे ?’ सुनील के जाने के बाद मैत्रेयी ने नागेंद्र से पूछा।
‘हां, भई।’ नागेंद्र बोला, ‘मेरे एक दोस्त ने मिलवाया था इस से छोटी मोटी बैठकी में। यह गाने बहुत अच्छे गाता है। पर तुम कैसे जानती हो ?’
‘मैं जब म्यूजिक क्लासेज में जाती थी तब यह मेरा ब्याय फ्रेंड था। बहुत घूमी हूं, इस के साथ।’ उस ने जोड़ा, ‘यह भी तब वहां गाने सीखने आता था।’
‘अच्छा-अच्छा !’ नागेंद्र चुहल करता हुआ बोला, ‘इस से इश्क नहीं किया?’
‘इश्क न हुआ सब्जी की दुकान हो गयी।’ वह बोली, ‘बस ब्वाय फ्रेंड था। मतलब फ्रेंड। सिर्फ फ्रेंड !’
कुछ दिन बाद एक दिन सुनील रास्ते में मिल गया। अर्थपूर्ण ढंग से मुसकुराया। नमस्कार के साथ ही बोला, ‘भाई साहब वो लैपटाप टाइप आइटम के साथ कैसी गुजर रही है ?’
‘कौन टाइप आइटम ?’
‘लैपटाप टाइम आइटम !’
‘ये लैपटाप का मतलब ?’
‘अब भाई साहब उड़िये नहीं।’ वह बोला, ‘मैत्रेयी की बात कर रहा हूं। वो लैपटाप ही तो है। ब्रीफकेस की तरह हाथ में लिये रहिये। जहां चाहिये खोल कर काम शुरू कर दीजिये। बस थोड़ा महंगा आइटम है।’
‘क्या बेवकूफी की बात कर रहे हो ?’ नागेंद्र जरा बिदकता हुआ बोला।
‘सॉरी भाई साहब ! आप तो बुरा मान गये।’ सुनील बोला, ‘मैं तो मजाक कर रहा था।’
‘देखो वह तुम्हारी भी दोस्त है।’ नागेंद्र बोला, ‘और दोस्तों के बारे में ऐसी लूज टाक नहीं करते।’
‘सारी भाई साहब !’ वह बोला, ‘पर क्या करें मैत्रेयी की इमेज ही कुछ ऐसी है। हम तो जब लौंडे थे तब से जानते हैं। तब कंप्म्यूटर नहीं आया था चलन में सो उसे बर्गर टाइप, चाउमिन टाइप कई नाम दे रखे थे। अब कंप्यूटर का चलन है और वह भी डिग्री कालेज की लेक्चर है सो लैपटाप कहने लगे।’
‘अच्छा छोड़ो।’ नागेंद्र बात बदलते हुये बोला, ‘भई तुम्हारा वह गाना भूलता नहीं कि बागों में पड़े झूले, तुम हमको भूल गये, हम तुम को नहीं भूले।’
‘कभी बैठकी हो जाये, फिर सुना देंगे।’ सुनील बोला, ‘और भी गाने सुना देंगे।’
इसी शाम जब मैत्रेयी मिली तो नागेंद्र ने सुनील से रास्ते में हुई मुलाकात का जिक्र किया और मजा लेते हुये बताया कि, ‘तुम पहले बर्गर, चाउमिन थीं अब लैपटाप हो गयी हो।’ तो वह भड़की, ‘क्या कहना चाहते हैं आप?’
‘यह मैं नहीं सुनील कर रहा था।’
‘ओह सुनील !’ वह मुसकुराती हुई बोली, ‘वह तो है ही मजाकिया। शुरू से ही वह सब के एक से एक एडजेक्टिब्स गढ़ता रहता है। लेकिन मेरे बारे में इतनी चीप, इतनी घटिया एडजेक्टिब्स !’ वह रुकी और बोली, ‘अब की मिला तो उस के बाल नोच लूंगी।’
लेकिन अब शहर में मैत्रेयी और नागेंद्र का एक साथ, घूमना फिरना सब की नजर में आ गया था। नागेंद्र के घर में मैत्रेयी को ले कर कलह भी बढ़ गयी थी। बात यहां तक बढ़ी कि नागेंद्र की पत्नी ने मैत्रेयी के साथ आपत्तिजनक स्थिति में एक जगह देख लिया। वहां तो वह कुछ नहीं बोली पर घर आने पर जिरह के लंबे तार बिछा बैठी। नागेंद्र ने उसे समझाया, ‘ऐसा कुछ नहीं है, सब तुम्हारे मन का भ्रम है।’
‘मेरे मन का भ्रम नहीं है।’ नागेंद्र की बीवी चीख़ी, ‘सब कुछ मैं ने अपनी आंखों से देखा है !’
‘सपने में देखा होगा !’ नागेंद्र बिदकता हुआ बोला, ‘तुम्हारे पास इस एक विषय के अलावा कोई और विषय नहीं है।’
‘नहीं है।’ वह बोली, ‘मैं ने आप लोगों की एक-एक बातें सुनी हैं। क्या है उस कलमुंही में जो आप उस की इतनी तारीफ करते हैं ?’
‘कहां बातें सुन ली भाई !’
‘उस दिन उस गेस्ट हाऊस में जब नये साल का जशन मना रहे थे आप दोनों।’
‘तुम कैसे पहुंच गयी वहां ? इतनी दूर ?’ नागेंद्र हकबकाया। फिर संभलते हुये बोला, ‘सब तुम्हारे मन का भ्रम है। ऐसा कुछ नहीं है।’
लेकिन नागेंद्र की पत्नी भ्रम में नही थी। उस की दुनिया उजड़ गयी थी।
उठते-बैठते, सोते-जागते बस यही बात ! खाना-पीना उस से बिसर गया था। आधी रात को अचानक उठ कर वह बड़बड़ाने लगती, ‘मैत्रेयी तुम यह ठीक नहीं कर रही हो !’ वह बुदबुदाती, ‘मैत्रेयी तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’
नागेंद्र यह सब सुनता तो पत्नी को डपटता हुआ कहता, ‘सो जाओ !’ लेकिन वह बड़बड़ाती रहती।
‘पता नहीं कहां से मैत्रेयी का भूत तुम्हारे सिर पर सवार हो गया है !’ कह कर नागेंद्र बेख़बर हो जाता।
अचानक एक रात नागेंद्र की पत्नी ने जहर खा लिया। बच्चों ने बताया कि मम्मी की तबीयत अचानक बिगड़ गयी है। नागेंद्र पत्नी को ले कर अस्पताल भागा। डॉक्टरों ने देखते ही बताया कि प्वाइजनिंग है। पट्टे-वगैरह बांध कर, गले में नली डाल कर उलटियां करवा-करवा कर पेट खाली करवाया। फिर भी देह जगह-जगह नीली पड़ गयी थी। खैर, तीन दिन की मशक्कत के बाद नागेंद्र की पत्नी की जान बच गयी थी। नागेंद्र ने दिन-रात एक कर दिया पत्नी की सेवा में। पर पत्नी होश में आते ही फिर ‘मैत्रेयी के भूत’ में लिपट गयी। डॉक्टरों ने पूछा भी कि, ‘ये मैत्रेयी कौन है ?’ होशियार डॉक्टर्स तो समझ गये कि माजरा क्या है ? पर एक नादान टाइप डॉक्टर नागेंद्र की पत्नी से सहानुभूति जताते हुये पूछ बैठा, ‘मैत्रेयी को बुलवा दें ?’ सुनते ही नागेंद्र की पत्नी ने उसे खींच कर थप्पड़ मार दिया। घबरा कर उस डॉक्टर ने साइकिक ट्रीटमेंट की बात शुरू कर दी। खैर, नागेंद्र ने मैत्रेयी से किनारा कर लिया। क्यों कि परिवार की कीमत पर उसे कोई मैत्रेयी नहीं चाहिये थी। मैत्रेयी के फोन आते भी तो वह बड़ी सख़्ती से टाल जाता। इस बीच उस से फोन पर कहा भी कि, ‘तो मैं किसी और से दोस्ती कर लूंगी!’
‘कर लो न ! पर मुझे बख़्शो !’
‘औरतों के मसले पर सभी मर्द कायर क्यों होते हैं ?’ कह कर बोली, ‘मैं फिर कभी फोन नहीं करूंगी।’
‘मत करना !’
लेकिन एक शाम अचानक वह एक अधेड़ व्यक्ति के साथ नागेंद्र के घर आ गयी।
नागेंद्र घर पर नहीं था। उस की पत्नी पहले तो हड़बड़ाई पर जब मैत्रेयी के साथ एक और व्यक्ति को देखा तो किसी तरह जब्त किया। उस व्यक्ति से पूछा,
‘आप इन के फादर हैं ?’
‘नहीं तो ?’ वह व्यक्ति अचकचाते हुये बोला, ‘दोस्त हूं।’
‘फिर तो अच्छी बात है।’ नागेंद्र की पत्नी घर के अंदर भागी-भागी गयी और वह सोने की चेन ला कर मैत्रेयी को देती हुई बोली, ‘अब यह चेन ले जा कर इन की बीवी को दे देना।’
‘पर दीदी यह तो आप की है।’ मैत्रेयी डरती हुई बोली।
‘मेरी जो चीज है, वही मेरे पास रहने दो।’ वह भड़कती हुई बोली, ‘ख़बरदार जो अब यहां आयी या मेरे पति से बात भी की !’ वह और भड़की, ‘तमाशा मत बनो, अब निकल जाओ यहां से !’
लेकिन यह सब कुछ जो घटा नागेंद्र की पत्नी ने उस से नहीं बताया। पत्नी ने तो जिक्र तक नहीं किया इस वाकये का। कुछ दिन बाद यह सब कुछ मैत्रेयी ने ही बताया नागेंद्र से। और यह सब बताते-बताते वह रो पड़ी। दिलचस्प यह कि यह सारी बात उस ने उस व्यक्ति के सामने ही बताई जिस के साथ वह नागेंद्र के घर गयी थी। बात बताते-बताते वह पहले तो रो पड़ी फिर नागेंद्र से लिपट गयी। उस व्यक्ति के सामने ही।
यह व्यक्ति मैत्रेयी का नया दोस्त था। उम्र में मैत्रेयी से लगभग ड्यौढ़ा। मैत्रेयी ने ही बताया कि, ‘मिलेट्री में इंजीनियर हैं और कि मैं इन्हें बचपन से जानती हूं।'
‘क्या साथ-साथ पढ़े थे ?’ नागेंद्र ने तंज करते हुये पूछा।’
‘नहीं-नहीं। मेरी वाइफ की दूर की रिश्ते में है यह।’
‘अच्छा-अच्छा !’ कह कर नागेंद्र ने फिर तंज कसा। क्यों कि इस खूसट व्यक्ति का मैच कहीं से भी मैत्रेयी के लायक नहीं था। और तो और उस की हरकतें भी बड़ी उबाने वाली थीं। जैसे कि जब मैत्रेयी नागेंद्र से लिपटी रो
रही थी तब रूमाल ले कर यह उस की आंखें पोंछ रहा था। गोया मैत्रेयी औरत नहीं, छोटी-सी बच्ची हो! खैर, चलते-चलते उस ने मैत्रेयी से कहा, ‘चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं।’
‘आप क्यों तकलीफ करते हैं ?’ वह बोली, ‘ये मुझे छोड़ देंगे न !’
‘और जो मेरा मन हो तुम्हें साथ ले चलने का ?’ नागेंद्र ने उस व्यक्ति को लगभग सुनाते हुये कहा।
‘अच्छा चलिये !’ मैत्रेयी खिलखिलाती हुई बोली। रास्ते में एक दूसरे रेस्टोरेंट में वह फिर से मैत्रेयी को ले कर बैठ गया। बात-बात में उस व्यक्ति के बारे में दरियाफ्त करते हुये पूछ बैठा, ‘क्या इस से शादी करने जा रही हो?’
‘अरे, आप ने कैसे जान लिया ?’ वह सकुचाती हुई बोली।
‘उमर जानती हो इस की ?’ मैत्रेयी की खुशी सोखते हुये नागेंद्र बोला।
‘अब उम्र और जाति के टोटके में पड़ने की हैसियत नहीं रही मेरी।’
‘हमारे तुम्हारे संबंध भी जानता है यह ?’
‘सब कुछ !’
‘कैसे ?’
‘मैं ने ही बताया।’ वह बोली, ‘नये पुराने सारे संबंध बता दिये हैं।’
‘हां।’
‘तलाक देगा ?’
‘कह तो रहा है।’
‘क्यों किसी का परिवार तबाह करने पर तुली हो ?’
‘उस का परिवार पहले ही से तबाह है।’
‘कैसे ?’
‘उस की अपनी बीवी से नहीं पटती !’
‘बच्चे हैं ?’
‘हां, दो बेटियां हैं।’
‘कितनी बड़ी ?’
‘शादी के लायक हो गयी हैं।’ वह बोली, ‘बल्कि बड़ी बेटी की शादी के बाद ही हम शादी करेंगे।’
‘क्यों ?’
‘तब तक इसका तलाक भी हो जायेगा !’
‘बेटी की शादी और तलाक दोनों एक साथ ?’
‘हां !’
‘हिन्दू विवाह अधिनियम में तलाक लेने में जिंदगी गुजर जाती है और तलाक नहीं मिलता। पता है तुम्हें ?’
‘नहीं।’
‘तो जान लो !’ नागेंद्र बोला, ‘अच्छा इस की बीवी क्या करती है ?’
‘वह भी मिलेट्री में ही है। दोनों साथ ही काम करते हैं।’ मैत्रेयी ने जोड़ा, ‘दोनों ने लव मैरिज की थी।’
‘और अब तुम से लव कर रहा है !’
‘हां।’ वह बोली, ‘इन्होंने मुझे पहले भी प्रपोज किया था।’
‘कब ?’
‘अजय से शादी के पहले ही।’ वह बोली, ‘यह तब से ही मुझे चाहते हैं। और इतना सब कुछ जान लेने के बाद भी इन को फर्क नहीं पड़ा है।’
‘इस सब कुछ के बावजूद तुम इस व्यक्ति से शादी न करो यही अच्छा होगा। तुम्हारे लिये भी, इस की फेमिली के लिये भी और इस के लिये भी !’
‘आप मेरे दोस्त हैं कि दुश्मन ?’
‘दोस्त !’
‘तो मेरी गृहस्थी जमने के पहले ही क्यों उजाड़ने पर तुले हैं ?’
‘सॉरी !’ नागेंद्र खीझता हुआ बोला, ‘चलो तुम्हें घर छोड़ दूं।’
दोनों घर पहुंचे तो देखा कि वह व्यक्ति मैत्रेयी के ड्राइंग रूम में बैठा चाय पी रहा है।
‘हद है !’ नागेंद्र मैत्रेयी से बुदबुदाया, ‘मैं जा रहा हूं।’ कह कर वह मुड़ गया। मैत्रेयी रोकती रही, पर वह रुका नहीं।
इस घटना के बाद मैत्रेयी और नागेंद्र महीनों नहीं मिले। न कोई बात हुई।
एक दिन एक औरत का फोन आया। बोली, ‘मैं मिसेज मेहरा बोल रही हूं।’
‘माफ कीजिये। मैं ने आप को पहचाना नहीं।’
‘ठीक कह रहे हैं नहीं जानते। फिर मुझे पहचानेंगे कैसे आप ?’ वह औरत बोली,
‘आप मैत्रेयी को जानते हैं ?’
‘हां, जानता तो हूं। क्यों क्या हुआ ?’
‘आप को कुछ नहीं पता ?’
‘हां भई, नहीं पता ?’ नागेंद्र किंचित चिंतित होता हुआ बोला, ‘वह ठीक तो है ?’
‘हां, वह तो ठीक है।’ वह औरत बोली, ‘पर मैं ठीक नहीं हूं।’
‘क्या मतलब ?’
‘आप रियली कुछ नहीं जानते ?’
‘पहेलियां मत बुझाइये मैडम !’ नागेंद्र खीझता हुआ बोला, ‘साफ-साफ बताइये कि आप कहना क्या चाहती हैं?’
‘आप को बताना चाहती हूं कि....।’ वह औरत रुक गयी।
‘क्या ?’
‘कि मैत्रेयी ने शादी कर ली है।’
‘अच्छा !’ नागेंद्र उत्सुक हुआ, 'कब और किस से ?’
‘तीन चार महीने हो गये।’ कहते हुये उस औरत की हिचकियां बंध गयीं।
‘तो इस में इस तरह रोने की क्या बात है ?’
‘उस ने मेरे हसबैंड से शादी कर ली है।’
‘क्या ?’ नागेंद्र चौंका। फिर संभलते हुये पूछा, ‘क्या आप के हसबैंड मिलिस्ट्री में इंजीनियर हैं ?’
‘हां। पर आप कैसे जानते हैं ?’
‘एक बार मैत्रेयी ने ही मिलवाया था।’
‘अच्छा ! क्या बताया था ?’
‘नहीं बस यूं ही रुटीन !’ बात टालते हुये नागेंद्र बोला।
‘तो आप ने कैसे कह दिया कि मिस्टर मेहरा से ही मैत्रेयी ने शादी की होगी ?’
‘बस अंदाजा लगा लिया।’ नागेंद्र बोला, ‘खैर छोड़िये इसे। पहले आप मुझे यह बताइये कि मेरा नाम और फोन नंबर किस ने बताया आप को ?’
‘देखिये प्यासा कुआं और पानी ढूंढ ही लेता है।’
‘फिर भी कुछ तो बतायेंगी !’
‘यह सब आप को मिलने पर ही बताऊंगी।’
‘क्यों अभी क्या दिक्कत है ?’
‘दिक्कत है तभी तो !’ कह कर वह औरत फिर रोने लगी।
‘चलिये जब आप सहज और शांत हो जाइयेगा तब बताइयेगा।’
‘वो तो मैं नहीं हो पाऊंगी।’ रोती हुई वह बोली।
नागेंद्र चुप रहा। चुप ही चुप उस औरत की तकलीफ का अंदाजा लगाता रहा। तभी वह बोली, ‘मिलने आ जाऊं आप के घर ?’
‘नहीं-नहीं मेरे घर नहीं।’ नागेंद्र घबराता हुआ बोला, ‘एक नई मुसीबत खड़ी हो जायेगी।’
‘तो आप मेरे घर आ जाइये।’ वह बोली, ‘मैं आप को अपने घर का पता बताती हूं।’
‘नहीं-नहीं आप अपने घर का पता मत बताइये।’ नागेंद्र बोला, ‘और अभी मैं आप से मिल भी नहीं पाऊंगा। अभी कुछ काम में बिजी हूं।’ वह बहाना बना गया।
‘तो कब समय मिलेगा आप को ?’
‘आप चार पांच रोज बाद फोन कीजिये।’ वह बोला, ‘तब बताऊंगा।’
चार रोज बाद मिसेज मेहरा का फिर फोन आया। नागेंद्र फिर टाल-मटोल करने लगा। क्यों कि वह बेवजह इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था। लेकिन मिसेज मेहरा जब बिलकुल पीछे पड़ गयीं तो उस ने एक रेस्टोरेंट का पता बताते हुये कहा कि, ‘शाम छः बजे वहीं मिलिये।’ वह रुका और बोला, ‘मैं आप को जानता तो हूं नहीं, न आप मुझ को। तो पहचानेंगे कैसे ?’
‘इसी लिये तो मैं घर पर आने को कह रही थी।’
‘नहीं-नहीं।’ वह बोला, ‘घर पर ठीक नहीं रहेगा। आप ऐसा कीजिये अपनी साड़ी और बैग का कलर बता दीजिये और अपनी हाइट भी।’
‘उमर नहीं पूछी आप ने ?’ मिसेज मेहरा हंसी। बोलीं, ‘मैं छप्पन-सत्तावन वर्ष की हूं। सामने का एक दांत टूटा है। चश्मा भी लगाती हूं। बादामी रंग की प्लेन साड़ी में काला बैग लिये रेस्टोरेंट के बाहर ही मिलूंगी।’ वह बोलीं, ‘बाई द वे आप अपने बारे में बतायेंगे ?’
‘हां, मैं सैंतीस-अड़तीस वर्ष का हूं। चश्मा नहीं लगाता हूं। दांत भी नहीं टूटे हैं। सफेद पैंट और हलके गेहूंए रंग के टी-शर्ट में आऊंगा। पैरों में चप्पल होंगी। बैग नहीं रखता हूं।’ नागेंद्र ने मिसेज मेहरा के ही टोन में बात कर के उन्हें फिर से हंसा दिया।
‘काफी फनी मूड में है ?’ वह बोलीं, ‘तो ठीक है छह बजे मिलती हूं।’ कह कर फोन उन्हों ने रख दिया।
नागेंद्र जब रेस्टोरेंट पहुंचा तो मिसेज मेहरा पहले से खड़ी मिलीं। उसे देखते ही हाथ जोड़ लिया। ऐसे लगा जैसे कितने दिनों से उसे जानती हैं। नागेंद्र ने भी हाथ जोड़ते हुये पूछा, ‘आप मिसेज मेहरा हैं ?’
‘जी, नागेंद्र जी !’
दोनों रेस्टोरेंट में जा कर बैठ गये। नागेंद्र ने ही पूछा, ‘आप क्या लेंगी?’
‘सिर्फ चाय !’
‘कुछ और नहीं ? कोई स्नैक्स ?’
‘जी नहीं।’ फिर बात मिसेज मेहरा ने ही शुरू की। बात बच्चों से शुरू की, कि आप के कितने बच्चे हैं। नागेंद्र ने बताया कि दो बच्चे हैं। मिसेज मेहरा ने बताया मेरे भी दो बच्चे हैं। पर मेरे बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं। मिसेज मेहरा बोलीं मैं ने तो इसी साल एक बेटी की शादी की है। नागेंद्र ने बताया कि मेरा एक बेटा तो अभी स्कूल भी नहीं जाता। जब कि बड़ा वाला के॰ जी॰ में है। अचानक मिसेज मेहरा ने प्वाइंट बदला ! बोली, ‘आप को पता है कि मैत्रेयी भी प्रिगनेंट है ?’
‘क्या ?’ नागेंद्र चौंका, ‘इतनी जल्दी ?’
‘क्यों ?’ इस में चौंकने की क्या बात है ?’
‘शादी हुये कितने दिन हो गये ?’
‘यह तो मुझे पता नहीं कि शादी कब की इन लोगों ने पर तीन महीने पहले पता चला। लेकिन मैत्रेयी के पेट में पांच-छह महीने का पाप है।’
‘क्या मतलब ?’
‘मिस्टर मेहरा और मैत्रेयी में इस बात को ले कर आज कल झगड़ा जो चल रहा है !’
‘इस में झगड़ा करने की क्या बात है ?’
‘मिस्टर मेहरा कहते हैं कि यह उन का बच्चा नहीं है।’
‘फिर किस का है ?’
‘मिस्टर मेहरा का डाउट आप पर है।’ एक-एक शब्द को तौलती हुई मिसेज मेहरा नागेंद्र की आंखों में आंखें डालती हुई बोलीं।
‘क्या बात कर रही हैं आप ?’ नागेंद्र भड़का, ‘क्या यही बेहूदी बात करने के लिये आप मुझ से मिलना चाहती थीं?’
‘नहीं-नहीं नागेंद्र जी, आप गुस्सा मत होइये।’ मिसेज मेहरा ने पैंतरा बदला, ‘यह तो मिस्टर मेहरा का डाउट है।’
‘देखिये मिसेज मेहरा यह मिस्टर मेहरा का डाउट हो या आप का !’ नागेंद्र तैश में आता हुआ बोला, ‘एक तो मैं मैत्रेयी से डेढ़ साल से अधिक समय से मिला नहीं। दूसरे मैत्रेयी से मेरे इस तरह के संबंध भी नहीं थे।’
‘देखिये नागेंद्र जी, आप झूठ मत बोलिये मिसेज मेहरा बोलीं, ‘मैत्रेयी के पेट में पल रहा पाप भले आप का न हो पर मैत्रेयी से आप के बायलाजिकल रिलेशंस रहे हैं यह तो मैत्रेयी ने भी एक्सेप्ट किया है।’
‘और वो भी आप से ?’
‘नहीं मिस्टर मेहरा से।’
‘और मिस्टर मेहरा ने आप को बताया ?’
‘नहीं, अपनी एक भाभी ने।’
‘क्या मनगढ़ंत कहानी ले कर आ गयी हैं आप ?’
‘मेरी समस्या को, मेरी तकलीफ को समझिये नागेंद्र जी।’ नागेंद्र का हाथ अपने हाथ में ले कर मिसेज मेहरा रोने लगीं।
नागेंद्र ने गौर किया कि रेस्टोरेंट के तमाम लोगों की नजर उन दोनों पर थी। गनीमत थी कि दोनों की उम्र में भारी फासला था सो तमाशे जैसी स्थिति नहीं थी।
‘आप मुझ से आखि़र चाहती क्या हैं ?’ नागेंद्र फाइनली डिसीजन पर आ गया।
‘यही कि मिस्टर मेहरा को मैत्रेयी से मुक्ति दिलवाने में हमारी मदद करें।’ ‘कैसे ?’
‘यही तो मैं समझ नहीं पर रही हूं।’ वह बोली, ‘पर यह जो मैत्रेयी के पेट में बच्चा है, वहीं से कोई रास्ता निकल सकता है।’
‘क्या मतलब ?’
‘देखिये नागेंद्र जी यह बच्चा मिस्टर मेहरा का तो हो नहीं सकता !’
‘इतना कानफिडेंट कैसे हैं आप ?’
‘उन की सेक्सुअल कैपिसिटी मैं जानती हूं।’ वह बोलीं, ‘फिर इस उमर में आदमी एक दो सेक्स कर भी लेता है तो भी वह बाप बनने भर का तो नहीं।’
‘क्या मतलब ?’
‘मिस्टर मेहरा मेरे हसबैंड हैं। मैं उन के सारे प्लस-माइनस जानती हूं।’
‘तो फिर आप को छोड़ कर मैत्रेयी के चक्कर में कैसे पड़ गये मिस्टर मेहरा यह क्यों नहीं जान पायीं आप ?’
‘यहीं तो मेरी किस्मत फूट गयी।’ वह बोलीं, ‘आप को पता है हम ने भी लव मैरिज की थी। और यह मैत्रेयी मेरे मायके से रिलेटिव है। इस डाइन को मेरा ही घर मिला था डंसने को !’ कह कर मिसेज मेहरा फिर रोने लगीं।
‘खै़र, बताइये कि आप मुझ से क्या चाहती हैं ?’
‘मैत्रेयी को समझाइये कि बच्चा एबार्ट करवा ले ?’
‘क्या ?’
‘हां।’
‘आप एक औरत हैं। फिर भी इस तरह की बात कर रही हैं ?’ नागेंद्र बोला, ‘इतने लेट से एबॉर्शन के लिये कोई डॉक्टर तैयार नहीं होगा। दूसरे, तैयार अगर हुआ भी तो मैत्रेयी की जान को खतरा है।’
‘अच्छा है न !’ वह किसी घाघ की तरह बोलीं, ‘इसी में मर-खप जायेगी। छुट्टी मिल जायेगी डाइन से।’
‘आप पर सौतिया डाह सवार है।’ नागेंद्र बोला, ‘फिर मैत्रेयी किसी के समझाये से ऐसा करेगी भी क्यों ?’
‘आप की बात नहीं टालेगी ?’
‘क्यों नहीं टालेगी ?’ नागेंद्र बोला, ‘इतना जानती हैं मेरे और मैत्रेयी के बारे में तो यह भी जान लीजिये कि मैं ने मैत्रेयी को मिस्टर मेहरा से शादी के लिये भी मना किया था। पर वह मेरी बात टाल गयी और आप देख रही हैं
कि उस ने शादी कर ली है।’
‘अच्छा तो आप जानते थे कि वह मिस्टर मेहरा से शादी करने जा रही है तो मुझसे क्यों नहीं बताया ?’
‘क्या बताता ? कैसे बताता ?’ वह बोला, ‘मैं आप को जानता तो था नहीं। अरे, मैं तो मिस्टर मेहरा तक को नहीं जानता था। मैत्रेयी को जानता था, उसी ने अपना यह इरादा जब बताया तो मैं ने तुरंत उसे मना किया। तो वह कहने लगी कि इन्होंने तो पंद्रह साल पहले भी मुझे प्रपोज किया था।’
‘हां, इन लोगों का चक्कर पहले भी चला तो था। तब यह छोटी-सी थी।’ मिसेज मेहरा फिर रोने लगीं, ‘पर मुझे क्या पता था कि बुढ़ौती में मिस्टर मेहरा शादी पर आमाद हो जायेंगे। और ये मेरी सौत हो जायेगी। आंसू पोंछती हुई वह बोलीं, ‘बताइये डिग्री कालेज में लेक्चरर है और ऐसी हरकत कर रही है। स्टूडेंट्स पर कैसा असर पड़ेगा ?’
‘स्टूडेंट्स कहां यह सब बातें जान पाते हैं ?’
‘मैं बताऊंगी न !’ मिसेज मेहरा बोलीं, ‘पोस्टर छपवा कर कालेज की दीवारों पर चिपकवा दूंगी।’
‘पर ऐसे करेक्टर डैमेज करने वाले पोस्टर कोई प्रेस वाला छापेगा नहीं।’
‘तो मैं हाथ से लिख कर या कंप्यूटर प्रिंट ही चिपका दूंगी। पर अब इस को जीने नहीं दूंगी।’
‘आप मैत्रेयी को छोड़िये। पहले मिस्टर मेहरा को समझाइये।’ नागेंद्र बोला, ‘घर की बात घर में ही रहने दीजिये। सड़क पर मामला ले जाने से आप की भी छीछालेदर होगी। इस मामले को मिल बैठ कर सुलझाइये तो ज्यादा बेहतर होगा।’
‘तब तक मैत्रेयी का बच्चा पैदा हो जायेगा। सब समझना-समझाना बेकार हो जायेगा।’
‘तो रास्ता क्या है ?’
‘यही तो आप से मैं पूछ रही हूं।’
‘आप मैत्रेयी के घर वालों से मिलीं ?’
‘मिली।’ मिसेज मेहरा बोलीं, ‘मैत्रेयी के घर वालों ने मिल-जुल कर ही तो मिस्टर मेहरा को फंसाया है। और मैत्रेयी की मां क्या बताऊं मेरी रिलेटिव है, पहले मिस्टर मेहरा को खुद लाइन मारती थी, अब बेटी को गले बांध दिया।’
‘क्या बात कर रही हैं आप ?’ नागेंद्र हकबकाया, ‘वह तो बेचारी सीधी सादी वृद्धा हैं। कम से कम उन की उम्र की परवाह कीजिये ! सत्तर-पचहत्तर की होंगी।’
‘तो मिस्टर मेहरा ही कौन से जवान हैं ?’ वह बोलीं, ‘जब मिस्टर मेहरा यंग थे और मैत्रेयी की मां अधेड़ तब की बात कर रही हूं।’
‘खै़र, इन सब बातों में कुछ नहीं रखा। आप प्रेजेंट टाइम की बात कीजिये।’
‘वो तो ठीक है। पर आप मैत्रेयी का फेवर बहुत ले रहे हैं।’
‘नहीं ऐसी बात तो नहीं है। मैं तो बस सही बात आप के सामने रख रहा हूं।’
‘एक राय दीजिये !’ वह फुसफुसायीं, ‘क्या मैं पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दूं?’
‘मिया बीवी के मसले पुलिस नहीं निपटा सकती।’
‘तो ?’
‘इस के लिये कोर्ट है। फेमिली कोर्ट है।’
‘वहां तो बहुत टाइम लगेगा।’ वह बोली, ‘फिर मुझे डाइवोर्स तो लेना नहीं है।’
‘आप मिस्टर मेहरा को सीधे समझाइये और कहिये कि नहीं मानेंगे तो ऑफिस में कंपलेंट कर दूंगी। आप के कंपलेंट पर उन की नौकरी चली जायेगी।’
‘यह सब मैं कर चुकी हूं।’ वह बोली, ‘पर मेरा हसबैंड बड़ा घाघ है। वह जानता है कि मैं ऑफिस में कंपलेंट नहीं कर सकती।’
‘क्यों ?’
‘क्यों कि मैं भी वहीं नौकरी करती हूं। मेरी रेपुटेशन भी ख़राब होगी।’
‘तो ?’
‘बस आप पुलिस का बंदोबस्त करवा दीजिये !’ वह बोलीं, ‘मिस्टर मेहरा बहुत ही डरपोक आदमी हैं, डर जायेंगे।’
‘पर मैं पुलिस का बंदोबस्त कैसे करवा सकता हूं ?’
‘आप इतने बड़े एडवोकेट हैं। पुलिस आप के कहने से नाचेगी !’
‘नहीं मैं बहुत छोटा एडवोकेट हूं। मैं जानता हूं कि पुलिस मेरे कहने से नहीं नाचेगी।’ वह बोला, ‘मैं ज्यादा से ज्यादा किसी कोर्ट में कोई केस फाइल कर सकता हूं। पर इस मामले में तो मैं यह भी नहीं कर सकता हूं।’
‘क्यों ?’
‘आप बेहतर समझ सकती हैं।’
‘आप फिर मैत्रेयी का फेवर कर गये।’
‘नहीं, इस वक्त तो सच पूछिये तो मैं आप का फेवर कर रहा हूं।’
‘फेवर कर ही रहे हैं तो आप सिर्फ इतना-सा और कर दीजिये कि किसी तरह यह साबित कर दीजिये, लीगली; कि मैत्रेयी बदचलन है।’
‘वह कैसे ?’
‘आप अपने संबंधों को ही सामने रख कर उसे बदचलन बता सकते हैं।’
‘मतलब आप के हवन के लिये मैं अपनी हथेलियां जला लूं ?’
‘थोड़ी-सी सेक्रीफाइस मेरे लिए कर दीजिए न !’
‘मिसेज मेहरा, आप अपने स्वार्थ में इतनी अंधी हो गयी हैं कि आप की अक्ल काम नहीं कर रही। जिससे मेरे कोई ऐसे वैसे संबंध कभी रहे ही नहीं, आप कह रही हैं कि उस के संबंध बता कर बदलचन साबित करने में आपकी मदद कर दूं ?’
‘आप तो अब वकीलों की तरह बात कर रहे हैं !’
‘वकीलों की तरह बात सुननी हो तो मेरे चैंबर में आ जाइएगा। पूरी फीस लेकर।’ कह कर वह उठ खड़ा हुआ यह कहते हुए कि, ‘यहां का बिल फिलहाल आप भर दीजिएगा।’
‘सुनिए तो नागेंद्र जी !’ मिसेज मेहरा घबरा कर बोलीं। नागेंद्र के इस अप्रत्याशित व्यवहार के लिए वह तैयार नहीं थीं। उस के पीछे-पीछे वह भागीं। पर नागेंद्र ने हाथ जोड़ लिए और रेस्टोरेंट से बाहर आ गया।
‘मैत्रेयी तुमने यह क्या किया ?’ रास्ते में आ कर नागेंद्र बुदबुदाया।
हड़बड़ी में उस ने बिना क्लच लिए गेयर बदलने की कोशिश की तो गेयर बाक्स टूटते-टूटते बचा। घर आकर उस ने मैत्रेयी के घर फोन मिलाया। फोन उस के छोटे भाई ने उठाया तो नागेंद्र ने पूछा, ‘मैंत्रोयी कहां है ?’
‘वह तो बनारस में है इन दिनों।’ उस ने पूछा, ‘क्यों क्या हुआ ?’
‘बनारस में क्या कर रही है ?’
‘ऐश कर रही है।’
‘सुना है उस की शादी हो गयी ?’
‘हां, भाई साहब !’
‘तुम लोगों ने हमें नहीं बताया ?’
‘असल में भाई साहब, सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि सबको ख़बर नहीं कर पाये हम लोग।’
‘ऐसी भी क्या जल्दी थी भई ?’
‘अब क्या बतायें भाई साहब ऐसे ही सब कुछ हो गया।’
‘खै़र, मैत्रेयी का कोई फोन नंबर है क्या ?’
‘है तो पर मेरे पास अभी नहीं है।’ वह बोला, ‘मैं आपको बाद में बता दूंगा।
‘ठीक है।’ कहकर नागेंद्र ने फोन रख दिया। वह समझ गया कि मैत्रेयी का भाई उस का अता-पता नहीं बताना चाहता। कुछ दिन बाद जब मिसेज मेहरा का फोन आया तो नागेंद्र ने उनसे पूछा कि, ‘क्या मैत्रेयी इन दिनों बनारस में है ?’
‘नहीं तो क्यों ?’
‘कुछ नहीं बस वैसे ही पूछा !’
‘उस की मां या भाई ने बताया होगा।’ मिसेज मेहरा बोलीं, ‘आजकल ऐसे ही वो सब हर किसी को मिसइनफार्म कर कनफ्यूज कर रहे हैं। किसी को बनारस, किसी को दिल्ली, किसी को कहीं बता रहे हैं। पर है तो वह यहीं लखनऊ में ही।’
‘चलिए उन की मर्जी !’
‘हमारी मदद कीजिए न नागेंद्र जी !’ फौरन मिसेज मेहरा अपने प्वाइंट पर आ गयी।
‘कैसी मदद ?’
‘वही पुलिस वाली !’
‘आप सीधे पुलिस में खुद क्यों नहीं चली जातीं !’
‘पुलिस बिना सिफारिश या पैसे के कुछ मानती भी है भला ? और फिर मैं ठहरी लेडीज !’
‘कुछ नहीं आप सीधे एस.एस.पी. से मिलिए। किसी सिफारिश या पैसे की जरूरत नहीं।’
‘फिर वह रिटेन अप्लीकेशन मांगेंगे !’
‘तो क्या हुआ ? वह तो कोई भी मांगेगा। और बिना अप्लीकेशन के ऐसे मामले में पुलिस कुछ करेगी भी नहीं।’
‘यही तो मैं नहीं चाहती !’
‘क्या नहीं चाहतीं ?’
‘रिटेन अप्लीकेशन देना !’
‘क्यों नहीं देना चाहतीं ?’
‘इस से मेरे हसबैंड फंस सकते हैं।’
‘आप चाहती हैं मुट्ठी भी तनी रहे और हाथ भी झुका रहे।’
‘जी बिलकुल यही।’ वह बोलीं, ‘मेरा मकसद अपने हसबैंड को परेशानी में डालना नहीं है।’
‘फिर ?’
‘मैं तो बस उन को थोड़ा बहुत डरा-समझा कर घर वापस ले आना चाहती हूं।’ वह बोलीं, ‘असली मकसद तो मेरा मैत्रेयी को सबक सिखाना है। कुछ लेडीज पुलिस वालों से उस की पिछाड़ी पर दस बीस डंडे लगवा कर उस को सोशली ह्यूमिलिएट करवाना भी है।’
‘आप के हसबैंड आज कल घर आते हैं कि नहीं ?’
‘आते हैं कभी-कभी। पर मैं बात नहीं करती। बेटी से ही बात कर के चले जाते हैं। बेटी भी ठीक से बात नहीं करती।’ वह बोलीं, ‘पर क्या बताएं वह इस उमर में अब बेशरम हो गये हैं।’
‘रह कहां रहे हैं आज कल ?’
‘अभी यही पता लगवा रही हूं। पर आज कल मैं ऑफिस में भी उन की लगाम कसवा रही हूं। कुछ सीनियर्स से अनआफिशियली कंपलेंट कर दी है।’
‘क्या रिटेन ?’
‘नहीं-नहीं।’ वह बोलीं। ‘वर्बली !’
‘एक बात कहूं आप से ?’
‘कहिए ?’
‘एडवोकेट हूं सो मेरे पास तरह-तरह के मामले सामने आते रहते हैं।’ वह बोला, ‘हालां कि आप मुझसे ज्यादा अनुभवी हैं फिर भी मेरा अनुभव यह कहता है कि ऐसे मामलों में पत्नियों द्वारा पतियों की जितनी ही सार्वजनिक स्तर पर कड़ाई, निंदा या दबाव बनाया जाता है मामला उतना ही बिगड़ता जाता है। पति के मन से पत्नी निरंतर दूर होती जाती है और अगर किसी दबाववश पति-पत्नी के आगे झुक भी जाता है तो भी वह प्रतिशोध की भट्ठी में जलता-कुढ़ता रहता है। पत्नी के साथ उस के सहज संबंध ताजिदगी नहीं बन पाते। और पति-पत्नी का संबंध सहज संबंधों वाला है। सहज संबंध नहीं होता है अगर पति-पत्नी के बीच तो लाख साथ-साथ रहें, जीवन नरक हो जाता है। इसी लिए मेरा मानना है कि पति-पत्नी के संबंध में किसी तीसरे को डालने वाले पति-पत्नी मूर्ख होते हैं और उन के बीच पड़ने वाले उन के शुभ चिंतक नहीं दुश्मन होते हैं। क्यों कि कोई भी संबंध किसी पंचायत या किसी कानून या किसी दबाव में सहज नहीं हो सकता। फिर पति-पत्नी का संबंध तो बेहद निजी संबंध है। किसी फूल, किसी सांस या किसी आस की तरह नाजुक संबंध है। थर्मामीटर के पारे जितना कोमल। और संबंधों की सांस टूटती है तो टूटकर गले की फांस बन जाता है वह संबंध। वह संबंध अभिशाप बन जाता है।’ वह लगभग सांस छोड़ते हुए बोला, ‘तो मिसेज मेहरा अपने संबंधों को इस फांस से बचाइए !’
‘पर कैसे ?’
‘चाहे जैसे !’ वह बोला, ‘पर बचाइए !’
‘आप पोएट्री भी करते हैं ?’
‘नहीं तो ?’
‘सोशियोलॉजिस्ट हैं ?’
‘नहीं। क्यों ?’
‘नहीं, बातें ऐसी कर रहे थे आप। लग रहा था जैसे पोएट्री सुना रहे थे। लग रहा था जैसे कोई लेक्चर दे रहे थे।’ मिसेज मेहरा बोलीं, ‘तभी तो मैत्रेयी आप से पट गयी होगी।’
‘क्या बात कर रही हैं मिसेज मेहरा ?’
‘नहीं मैं ठीक कह रही हूं।’ वह बोलीं, ‘पर हमारे मेहरा साहब को तो न लेक्चर देना आता है, न पोएट्री फिर कैसे पट गई मैत्रेयी उन से ?’
‘बुरा न मानिएगा मिसेज मेहरा !’ नागेंद्र चुहल करता हुआ बोला, ‘मिस्टर मेहरा ने आप को कैसे पटाया था ?’
‘आप भी क्या बात करते हैं ?’
‘जरुर उन्हें आप ने ही पटाया होगा।’’
‘आप को कैसे पता ?’
‘बस अंदाज लगाया। और देखिए सच साबित हो गया।’
‘कुछ नहीं। आप का अंदाज़ा बहुत ज्यादा सही नहीं है।’
'मतलब ?’
‘लोग कहते हैं और मैं भी कभी-कभी कहती हूं कि हमारी लव मैरिज है।’
‘हां, आप ने मुझ से भी कहा था।’
‘पर सच यह है कि मेरी लव मैरिज नहीं, मजबूरी की मैरिज थी।’
‘क्या ?’
‘हां, मिस्टर मेहरा इंजीनियर हैं और मैं क्लर्क।’ वह बोलीं, ‘और लैला मजनूं, हीर-रांझा और फिल्मों की बात छोड़िए। अब जो चलन है उस के हिसाब से लव अब बराबरी के लोगों में होता है। और कम से कम लव मैरिज तो बराबरी के लोगों में ही होती है। तो मैं थी क्लर्क, आज भी क्लर्क ही हूं जब कि मिस्टर मेहरा तब असिस्टेंट इंजीनियर थे, अब सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर हैं तो मुझ से क्या और क्यों लव करते ?’
‘फिर ?’
‘फिर क्या ? मेरे पिता का देहांत हो गया था। मां बीमार, भाई छोटा था। मुझे यह नौकरी पिता की जगह ही मिली थी। कोई आगे पीछे नहीं था। तो खुद ही शादी तय करनी थी। और मिस्टर मेहरा सेक्स तो जानते हैं, लव नहीं जानते। ईंट, स्टील, सीमेंट, मजदूर, ठेकेदार, कमीशन, शराब, झूठ-फरेब, मक्कारी और जोड़-तोड़ वह जानते हैं पर लव नहीं जानते।’ बोलते-बोलते अचानक वह रोने लगीं। रोते-रोते बोलीं, ‘लव जानते तो मुझे यों ही छोड़ देते? लव तो वह मैत्रेयी से भी नहीं करते। बस सेक्सुअली उस को यूज कर रहे हैं।’
‘पर आप तो उस दिन मिस्टर मेहरा की सेक्सुअल कैपिसिटी पर सवाल खड़ा कर रही थीं ?’
‘वह तो मैं अब भी कर रही हूं।’ वह बोलीं, ‘किसी को नंगी चिपटा कर लेटे रहना सेक्सुअली सक्सेस तो नहीं है न ?’
‘आप न मानें पर एक तरह से है तो !’
‘चिपका कर लेटने भर से, अंगुली कर देने भर से कोई औरत प्रिगनेंट तो नहीं हो जाएगी ?’
‘हां, यह मैं मानता हूं।’
‘तो मैं यही बात कह रही थी।’ वह बोलीं, ‘आखि़र उमर हो गई है मिस्टर मेहरा की।’
‘ख़ैर, फिर कैसे पटाया आप ने ?’ बात बदलते हुए नागेंद्र ने पूछा।
‘पटाया क्या औरतें सभी मर्दों को पसंद होती हैं। मिस्टर मेहरा को भी हैं। औरतें उन की कमजोरी भी हैं। तो वह लव में तो नहीं पर सेक्सुअली मेरी ओर आकृष्ट थे। बिना बाप की बेटी। वह समझ रहे थे कि झांसे में आ जाऊंगी। पर मैं उन के झांसे में आने से बचती रही। मौका देख कर छू, पकड़ लेते, लिपट जाते। पर एक लिमिट के बाद मैं उन्हें एलाऊ नहीं करती थी। पर वह मुझे किसी भी कीमत पर पाना चाहते थे। मैं ने अंततः शादी की शर्त रख दी। और इस तरह हमारी ‘लव मैरिज’ हो गई।’
‘ओह !’
‘फिर बीच-बीच में इनकी जिंदगी में और भी कुछ औरतें आईं पर कैजुअली। आईं अपना उल्लू साधा और चलती बनीं। ऐसा इंजीनियरों के साथ होता है। जो पावर में होते हैं, जिन के पास पैसा होता है। मैं थोड़ा बहुत उफ्फ, हाय कर करा कर चुप हो जाती। पर अब की यह मैत्रेयी तो नागिन बन के मुझे डंस गई है।’ कह कर मिसेज मेहरा ने अपना पुराना सवाल फिर दुहराया, ‘आप ही बताइए मैं क्या करूं? कैसे पिंड छुड़ाऊं इस जहरीली नागिन से ?’
‘कुछ मत करिए आप चुपचाप रहिए।’ नागेंद्र बोला, ‘आप देखिएगा एक दिन मिस्टर मेहरा आप के पास खुद-ब-खुद वापस आ जाएंगे !’
‘कैसे आ जाएंगे ?’ वह आकुल हो कर बोली।
‘कहा न अपने आप !’
‘अपने आप कैसे ?’
‘मैत्रेयी से आजिज आ कर ।’ नागेंद्र बोला, ‘मैत्रेयी इतनी डिमांडिंग, इतनी सेक्सुअल, इतनी पजेसिव है कि मिस्टर मेहरा उस से एक न एक दिन आजिज आ कर आप के पास भाग आएंगे।’
‘सुना है मैत्रेयी झगड़ालू भी बहुत है !’
‘अब इस बारे में मैं नहीं जानता। पर अगर आप थाना, पुलिस या ऑफिस में कंपलेंट वगैरह करिएगा तो आप के संबंधों में कड़वाहट आ जाएगी, गांठ पड़ जाएगी, फिर वह कहां बल्कि कैसे आ पाएंगे आप के पास वापस ?
‘पर आ तो जाएंगे न अगर मैं यह सब न करूं तो ?’
‘मुझे तो ऐसा ही लगता है। आगे राम जाने !’
‘लेकिन अगर तब तक मैत्रेयी के बच्चा हो गया तो ?’
‘तो ?’
‘तो क्या ? फिर वह बच्चा खिलाने लगेंगे। बच्चे उन्हें बहुत अच्छे लगते हैं। और फिर उन्हें सन कांप्लेक्स भी है। और जो कहीं उसे बेटा हो गया तब तो मैं कहीं की नहीं रह जाऊंगी।’
‘क्या मतलब ?’
‘मेरे बेटा नहीं है न !’ वह बोलीं, ‘सिर्फ दो बेटियां ही हैं’ कह कर वह फिर रोने लगीं।
बात ख़त्म हो गई थी।
बहुत बाद में पता चला कि मिसेज मेहरा ने मैत्रेयी और मिस्टर मेहरा को जलील करने के लिए वो सारे काम किए जो उन्हें नहीं करने चाहिए थे। मैत्रेयी के कालेज में परचे बंटवाए यह सवाल करते हुए कि वह मां कैसे बनने वाली है ? कालेज की दीवारों पर भी यह परचे चिपकवाए साथ ही दीवारों पर उस के स्केच बनवाए।
यह आइडिया उन्होंने एक हिंदी फिल्म क्या कहना देख कर लिया जिस में फिल्म की नायिका को कुंवारी मां बनने को लेकर उस के कालेज में एक ड्रामा होता है। अब फिल्म थी। सारा कुछ पटकथा और निर्देशन के सांचे में था और इस से बड़ी बात कि सब कुछ अभिनय में था। पर मैत्रेयी के साथ सब कुछ उलट था। पटकथा, निर्देशन और अभिनय के बजाय जीवन था और अपने जीवन के इस पक्ष में वह पस्त हो गई। सब कुछ ऐसे घट रहा था और गोया इतिहास अपने को दुहरा रहा हो। मैत्रेयी ने जिस तरह अजय के पिता से इसी कालेज में प्रतिशोध लिया था और अंततः अजय के पिता हार्ट अटैक के शिकार को चल बसे थे और अब ठीक वैसे ही मिसेज मेहरा मैत्रेयी से प्रतिशोध ले रही थीं। और दिलचस्प यह कि मिसेज मेहरा यह सब कुछ खुल्लम-खुल्ला नहीं वरन् परदे के पीछे से कर रही थीं। और इस से भी ज्यादा दिलचस्प यह कि उन के इस परदे के पीछे से खेले जा रहे खेल में उन के साथ मैत्रेयी का पूर्व पति अजय भी था। पर गुप-चुप। यहां मैत्रेयी हार गई मिसेज मेहरा से। हालां कि उस का अजय के पिता की तरह हार्ट अटैक तो नहीं हुआ पर एक नैतिक सवाल ने उसे दबोच लिया। और ऐसा दबोचा कि उसे नौकरी से इस्तीफा दे कर ही चैन मिला। हालांकि चैन फिर भी नहीं मिला। मिसेज मेहरा ने आगे और भी कई बिसातें बिछा रखी थीं। मैत्रेयी के लिए। लगभग हर बिसात पर न सिर्फ वह हारती जा रही थी, बल्कि टूटती भी जा रही थी। और इस टूटन में, इस हार में मिस्टर मेहरा उस के साथ नहीं थे। साथ वह शुरू से ही नहीं थे। और जिस लड़ती हुई, जिस टूटती हुई औरत के साथ उस का पति ही
साथ नहीं आए, सो काल्ड पति ही सही नहीं आए तो उस औरत को कम से कम यह समाज तो नहीं ही जीने देता। जिस पति के बिना पर वह मां बनने वाली थी, जिस मां बनने के सवाल पर समाज उस से सवाल पूछ रहा था और बड़ी कड़ाई से पूछ रहा था, वही पति अब उस से आंखें चुरा रहा था।
तो क्या मां बनने का मैत्रेयी का फैसला जल्दबाजी भरा फैसला था ?
मैत्रेयी ऐसा नहीं मानती थी। तीन कारणों से। एक तो वह अपने इस अस्थाई विवाह को स्थाई बनाने की गरज से मां बनना चाहती थी। दूसरे, उस के मन में यह भी कहीं था कि अगर खुदा न खास्ता यह विवाह भी अगर उस का असफल रहा तो कम से कम उस की संतान चाहे बेटी हो चाहे बेटा उस के साथ तो रहेगी। उस का दांपत्य भले बार-बार असफल हो जाए पर उस का मातृत्व तो असफल नहीं रहेगा ? तीसरे, अब उस की उम्र हो रही थी। पैंतीस की हो चली थी सो मेडिकली भी अब उसे मां बनने में देरी नहीं करनी थी।
कालेज में जिस पहले दिन परचा बंटा मैत्रेयी के खि़लाफ मैत्रेयी ने तुरंत मिस्टर मेहरा को बताया और यह भी कि यह मिसेज मेहरा का बुना हुआ जाल है। पर मिस्टर मेहरा चुप लगा गये। न सिर्फ चुप लगा गये बल्कि उन के चेहरे पर भय की रेखाएं भी खड़ी हो गईं। दूसरे दिन कालेज की दीवार पर जब अपना प्रिगनेंट स्केच ‘नगर वधू’ शीर्षक से देखा मैत्रेयी ने तो मिस्टर मेहरा से साफ कहा कि अब यह उस के सम्मान का प्रश्न है और कि मिस्टर मेहरा उस के साथ कंधे से कंधा मिला कर उस के कालेज चलें और बहादुरी के साथ सब को बताएं कि मैत्रेयी की होने वाली संतान के वह पिता हैं और कि मैत्रेयी से उन्होंने विवाह किया है। पर मिस्टर मेहरा मैत्रेयी के साथ कालेज जाने से ही कतरा गए। यह कहते हुए कि, ‘लोग क्या कहेंगे ?’ और कि, ‘मेरी नौकरी ख़तरे में पड़ जाएगी।’
‘लोग क्या कहेंगे ?’ मैत्रेयी बिफरी, ‘अरे, लोग कह रहे हैं !’ वह बोली, ‘और आप को सिर्फ अपनी नौकरी की पड़ी है और यहां मेरी जिंदगी दांव पर लग गई है !’
मैत्रेयी लगातार मिस्टर मेहरा को समझाती-बुझाती रही। लेकिन मिस्टर मेहरा समझाने-बुझाने से आजिज आ कर मैत्रेयी का घर छोड़ कर अपनी पहली पत्नी के घर चले गए। मैत्रेयी अकेली पड़ गई। हार कर अंततः कालेज की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। पर लोगों के सवालों के जवाब नहीं दे पाई। उस का एक बार मन हुआ कि आत्महत्या कर ले। लेकिन अंततः उस के जीने की इच्छा जीत गई। और उस ने आत्महत्या नहीं किया। लेकिन इंतिहा यहीं नहीं थी। कालेज वाला काम मिसेज मेहरा ने मैत्रेयी की कॉलोनी में भी किया। परचे यहां भी सब के घरों में डलवा दिए। पर चूंकि कॉलोनी में लोगों ने मिस्टर मेहरा को मैत्रेयी के साथ बतौर मियां-बीवी रहते देखा था, कुछ लोगों के घरों में दोनों का आना-जाना था सो उस तरह के सवालों से तो जूझना नहीं पड़ा मैत्रेयी को पर रखैल, कुलटा, रंडी जैसे शब्दों को प्रकारांतर से सुनना पड़ा। लोगों की आंखों में अपने पति की उपेक्षा और नफरत देखनी पड़ी। और अंततः मकान मालिक का दबाव भी बन गया सो घर बदलना पड़ गया मैत्रेयी को। पर दूसरी कॉलोनी में भी मैत्रेयी का पीछा इन प्रश्नों और परचों ने नहीं छोड़ा। डिलीवरी टाइम भी नजदीक आ रहा था। हार कर मैत्रेयी ने शहर छोड़ दिया। इस शहर छोड़ने का कारण और सूचना मिस्टर मेहरा को जरूर दे दी लेकिन मिस्टर मेहरा को यह नहीं बताया कि वह कब और किस शहर जा रही है। क्यों कि लखनऊ में दोनों मकानों का पता अपनी पहली पत्नी को मिस्टर मेहरा ने ही दिया था और उस का जीवन नरक हो गया हो। लेकिन मिस्टर मेहरा माने नहीं और मैत्रेयी के पीछे पड़ गए। मैत्रेयी को उन्होंने भावनात्मक ढंग से बांधा और उस के साथ चलने को तैयार हुए। बोले, ‘आखि़र होने वाले बच्चे का पिता हूं। डिलिवरी के समय मुझे तुम्हारे साथ होना चाहिए।’ दूसरे शहर जा कर रहने-बसने का खर्च वगैरह भी उठाने का जिम्मा मिस्टर मेहरा ने ले लिया।
‘कहीं, फिर मुझे छोड़ कर चले गए आप तो ?’
‘मर जाऊंगा ! पर अब तुम्हारा साथ नहीं छोड़ईगा।’ वह बोले, ‘कोई चाहे कुछ भी कर ले।’ अंततः मैत्रेयी मान गई। पहले वह लखनऊ से कानपुर जाना चाहती थी पर अब जब मिस्टर मेहरा खर्चा-बर्चा उठाने को तैयार थे तो तय हुआ कि बरेली चला जाए।
मिस्टर मेहरा अपनी पहली पत्नी के लगाम कसने और घूम-घूम कर उन के द्वारा की जा रही अपनी चरित्र-हत्या से भी उकता चुके थे। सो वह भी लखनऊ छोड़ना चाहते थे। पहले राउंड में मिस्टर मेहरा अकेले बरेली गए। एक मकान किराए पर ले कर लौटे। मैत्रेयी को सामान सहित बरेली में शिफ्ट किया और फिर लंबी
छुट्टी ले कर पहली पत्नी को बताए बिना खुद भी बरेली चले गए।
मिसेज मेहरा को कानो-कान ख़बर नहीं हुई। मैत्रेयी के घर का पता चलवाया तो पता चला मैत्रेयी घर छोड़ गई। मैत्रेयी के मायके से भी कुछ पता नहीं चलवा पाईं मिसेज मेहरा। अंततः उन्होंने सब से बताना शुरू किया कि, ‘मैत्रेयी मिस्टर मेहरा को ले कर भाग गई।’ नागेंद्र को भी मिसेज मेहरा ने जब यह सूचना दी तो नागेंद्र को हंसी आ गई। बोला, ‘अभी तक तो सुनते थे कि मर्द-औरतों को ले कर भागते थे। अब एक औरत मर्द को भगा ले गई !’ नागेंद्र बोला, ‘भई पहली बार सुन रहा हूं।’ पर मिसेज मेहरा की दिलचस्पी नागेंद्र की इस चुहुलबाजी में नहीं थी। वह जरा नहीं पूरी जल्दी में थीं। और इस जल्दबाजी में ही वह नागेंद्र से मैत्रेयी का सुराग जानना चाहती थीं। नागेंद्र ने बताया कि ,'भई, शादी के बाद जैसा कि आप बताती हैं, मुझ से उस ने कोई संपर्क ही नहीं किया। फिर मैं क्या बता सकता हूं।’
‘नागेंद्र जी, आप कभी भी मेरी मदद नहीं करते !’ मिसेज मेहरा, मनुहार करती हुई बोलीं, ‘आप भी अपने स्तर से कुछ पता करने की कोशिश कीजिए, प्लीज !’
‘देखिए मिसेज मेहरा, आप को साफ बता दूं कि व्यर्थ के विवाद में मैं नहीं पड़ना चाहता।’ वह बोला, ‘सो आप की मैं कोई मदद नहीं कर सकता। मेरे पास और भी कई जरूरी का काम हैं।’
‘फिर भी कहीं से कोई ट्रिप मिले तो ज़रुर बताइएगा।’ कह कर मिसेज मेहरा रोने लगीं। रोते-रोते बोलीं, ‘बताइए बेटी, दामाद तक को मैं मुंह नहीं दिखा पाती। पाप वह दोनों कर रहे हैं, भुगत मैं रही हूं। किस-किस को
क्या-क्या जवाब दूं ?’ रूमाल से आंसू पोंछती हुई वह बोलीं, ‘आप मेरी स्थिति समझिए ! अगर मेरी जगह आप होते तो क्या करते ? कैसे फेस करते सब को?’
‘आप ठीक कह रही हैं कि मिसेज मेहरा, मुश्किल तो होती है ऐसी स्थिति में हमारे समाज में।’ नागेंद्र बोला, ‘लेकिन मेरी भी अपनी सीमाएं हैं।’
मिसेज मेहरा हार मानने वाली औरतों में से नहीं थीं। वह निरंतर लगी रहीं। अंततः वह यह पता लगाने में सफल हो गईं कि मिस्टर मेहरा और मैत्रेयी बरेली में हैं। बरेली में होने का सुराग उन्हें एक बैंक के थ्रू हुआ जहां से मिस्टर मेहरा ने बैंक ड्राफ्ट बनवाया था। मिसेज मेहरा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन इस खुशी के साथ ही साथ वह दुख के सागर में भी डूब गई। मैत्रेयी ने बेटा जन्म दिया था। यानी मिस्टर मेहरा का वारिस आ गया था जो मिसेज मेहरा की कोख से नहीं, मैत्रेयी की कोख से पैदा हुआ था। विवाद की गुंजाइश भी मिस्टर मेहरा ने ख़त्म कर दी थी। मैत्रेयी के बेटे के बर्थ सर्टिफिकेट में बतौर पिता अपना नाम लिखवा कर। नर्सिंग होम के रजिस्टर में अपनी दस्तख़त कर के।
मैत्रेयी की खुशी का ठिकाना नहीं था और मिसेज मेहरा के दुख का कोई पार नहीं था। कुछ दिन बाद मिस्टर मेहरा ने छुट्टी रद्द कर आफिस ज्वाइन कर लिया। लखनऊ में एक नया घर किराये पर लिया। लेकिन अपने पुराने घर नहीं गए। बाद के दिनों में वह मैत्रेयी को भी बरेली से लखनऊ ले आए। इस बीच मिसेज मेहरा भी पुराना घर छोड़ कर गोमती नगर के नए मकान में चली गई। यह मकान मिस्टर मेहरा ने बहुत पहले ख़रीदा था और किराए पर दे रखा था। किराएदार ने मकान ख़ाली किया तो उसे ठीक-ठाक करवा कर मिसेज मेहरा वहां रहने गईं। मिसेज मेहरा के गोमती नगर वाले मकान में जाने की सूचना के बाद मिस्टर मेहरा अपने पुराने घर गए। पिता के पांव छुए। बुजुर्ग पिता ने आशीर्वाद दिए। लेकिन सब कुछ जानते हुए भी कुछ पूछा नहीं। मिस्टर मेहरा ने भी कुछ बताया नहीं। लौट आए।
पर जब दूसरी बार वह अपने पुराने घर गए तो मैत्रेयी और बेटे को ले कर गए। बेटे को पिता की गोद में डाल दिया और बताया कि, ‘आप का पोता है !’ मिस्टर मेहरा के पिता ने पोता सुनते ही पोते को जी भर चूमना शुरू कर दिया।
अजब दृश्य था। पोता दादा के मुंह पर लार गिरा रहा था और दादा पोते के मुंह पर लार गिरा रहा था।
इसी बीच मैत्रेयी ने भी अपने श्वसुर के पांव हुए।
श्वसुर ने कुछ ठिठक कर सही माथे पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया। आंखों पर चश्मा चढ़ाया। कौतूहल भरी नजरों से नई बहू को देखा। पर बोले कुछ नहीं चश्मा उतार कर वापस केस में रख दिया।
इस के बाद जब- तब मैत्रेयी और बेटे को ले कर मिस्टर मेहरा अपने पुराने घर जाते रहे। बीच में एक बहन से भी भेंट हुई मिस्टर मेहरा और मैत्रेयी की। बहन ने हिच नहीं दिखाई। और मैत्रेयी से उम्र में ज़रा बड़ी होने के
बावजूद भाभी कह कर मैत्रेयी के पांव छुए। भतीजे को गले लगाया, पुचकारा और कुछ रुपए भी उस के हाथ में रख दिए जिसे मैत्रेयी के बेटे ने झट से मुंह में डाल लिया। कुछ अनहोनी हो इस के पहले ही बेटे के मुंह में उंगली डाल कर मिस्टर मेहरा ने रुपए निकाल दिए।
मिस्टर मेहरा के अपने पुराने घर आने-जाने का सिलसिला चल पड़ा। पर इधर मिसेज मेहरा शांत नहीं बैठी थीं। अंततः आफिस में पेशबंदी कर के मिस्टर मेहरा पर फिर से लगाम कसवा दी। मिस्टर मेहरा ने लिखित अंडर टेकिंग दी कि वह गोमती नगर वाले घर में मिसेज मेहरा के ही साथ रहेंगे। मैत्रेयी की जिंदगी में फिर भूचाल आ गया।
अब मिस्टर मेहरा दिन में ही मौका निकाल कर मैत्रेयी के घर आते। फिर जल्दी ही चले जाते। मैत्रेयी की मुश्किलें बढ़ गई थीं। वह बिलकुल नहीं चाहती थी कि मिस्टर मेहरा अपनी पत्नी के साथ एक क्षण भी रहें। वह मिस्टर मेहरा पर पहली पत्नी से तलाक लेने के लिए दबाव डालने लगी। साथ ही उस का मिस्टर मेहरा पर इस बात का भी दबाव बढ़ता गया कि जैसे पहली पत्नी के नाम मकान ख़रीदा है, मेरे नाम भी मकान ख़रीदा जाये और कि सारी प्रॉपर्टी का वारिस उस के बेटे को ही घोषित किया जाए। और कि पी. एफ., ग्रेच्युटी, एल.आई.सी.
हर जगह नामनी में मैत्रेयी का ही नाम डालें मिस्टर मेहरा। लेकिन दब्बू स्वभाव के मिस्टर मेहरा यह सब करने से कतराते रहे। नतीजा यह हुआ कि अगर एक घंटे के लिए भी मिस्टर मेहरा मैत्रेयी के घर आते तो वह झगड़े में ही गुजरता। बाद में यह झगड़ा हाथापाई तक आ गया। और जल्दी ही मार पीट पर। अब होने यह लगा था कि अगर दो तीन दिन मिस्टर मेहरा मैत्रेयी के घर नहीं पहुंचते तो वह मिसेज मेहरा के घर पहुंच जाती और मिस्टर मेहरा की पिटाई कर लौट आती। एकाध बार मिसेज मेहरा बीच में पड़ीं तो उन की भी धुलाई हो गई।
बात ज्यादा बढ़ जाती तो अगल-बगल के लोग भी इकट्ठा हो जाते। सब की भद पिटती।
लेकिन मैत्रेयी को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह कहती थी, ‘मैं तो लुट ही चुकी हूं। बचाने को अब मेरे पास है ही क्या ?’
एकाध बार मामला पुलिस में भी ले गईं मिसेज मेहरा। लेकिन पुलिस ने मियां-बीवी और औरतों-सौतों का झगड़ा कह कर पल्ला झाड़ लिया। अंततः आजिज आ कर मिसेज मेहरा ने पचास हजार रुपए रिश्वत में ख़र्च कर मिस्टर मेहरा का तबादला श्रीनगर करवा दिया यह कहते हुए कि, ‘जो दो कौड़ी की औरत से आप को यहां रोज पिटना है तो जाइए कश्मीर, वहीं मरिए पिटिए आतंकवादियों के हाथ और देश के काम आइए।’
मिस्टर मेहरा भी लखनऊ में अपने ही द्वारा गढ़े गए नरक से आजिज आ गए थे। बिना किसी इफ-बट के श्रीनगर जा के ज्वाइन कर लिया।
वहां गए तो अकेलेपन में फिर मैत्रेयी की याद आने लगी। लेकिन दिक्कत यह थी कि वहां मिलेट्री कैंपस में सपरिवार रहने की अनुमति नहीं थी। तो उन्होंने रास्ता यह निकाला कि मैत्रेयी को वहां चुपके से बुलाया। और खुद छुट्टी ले कर मैत्रेयी के साथ हाऊस बोट में रहने चले गए।
मैत्रेयी की जिंदगी में फिर से बहार आ गई।
लेकिन मैत्रेयी की जिंदगी में आई यह बहार मिसेज मेहरा को रास नहीं आई। यह सब पता चलते ही उन्होंने फिर से कंपलेंट की और मिस्टर मेहरा से पूछताछ शुरू हो गई। नतीजतन मैत्रेयी को उलटे पांव लखनऊ लौटना पड़ा। महीने भर में ही मिस्टर मेहरा का जनरल कोर्ट मार्शल शुरू हो गया। दूसरी पत्नी का मसला भी खड़ा हुआ लेकिन मिसेज मेहरा ने यहां मिस्टर मेहरा को बचा लिया। कहा कि एक औरत से इन के अवैध संबंध रहे हैं। पर दूसरी शादी इन्होंने नहीं की है। मिस्टर मेहरा बच गए और एक छोटे-से पनिश्मेंट, सी. आर. ख़राब करवा, आगे प्रमोशन में स्पीड ब्रेकर लगवा कर लखनऊ ट्रांसफर ले कर लौटे।
कुछ दिनों तक मैत्रेयी के घर वह बिलकुल नहीं गए। इस बीच मैत्रेयी ने मकान मालिक से खिच-खिच के चक्कर में फिर घर बदल लिया था। खर्चे-बर्चे में भी दिक्कत आ गई। मिस्टर मेहरा पैसे बिलकुल नहीं दे रहे थे। सो जो मैत्रेयी पहले तीन बेडरूम वाले मकान में रहती थी, बाद में दो बेडरूम और अब एक कमरे में रहने लगी थी। सो बाथरूम वगैरह भी कंबाइंड होने की वजह से चिक-चिक बढ़ना लाजिमी था। दूसरे, पैसे की कमी, बच्चे का खर्च, तीसरे हाई हेडेड यानी सारी स्थितियां मैत्रेयी का मिजाज चिड़चिड़ा बनाने के लिए काफी थीं।
एक दिन वह मिस्टर मेहरा के आफिस पहुंच गई। तुड़ी-मुड़ी साड़ी में बेटे के साथ ! मिस्टर मेहरा को देखते ही उबल पड़ी, ‘मुझे नहीं पहचानते कोई बात नहीं, पर इसे तो पहचानते हैं आप !’ बेटे को इंगित करती हुई वह चिल्लाई, ‘इस का गला दबा दूं, भिखारी बना दूं कि अनाथालय में डाल दूं ?’
‘सुनो तो ! समझो तो !’ मिस्टर मेहरा फुसफुसाए। पर उन की आवाज निकल नहीं पा रही थी।
अंततः दफ्तर के लोग इकट्ठे हो गए। मिसेज मेहरा भी आईं। पर पिटने के डर से मैत्रेयी से जरा दूरी बना कर खड़ी हुई। लेकिन लो वॉल्यूम में ही अपना पक्ष रखने से बाज नहीं आई। जैसे तैसे दफ्तर के लोगों ने बीच-बचाव कर एक रास्ता यह बनाया कि अपनी सेलरी का कम से कम तीस प्रतिशत वह मैत्रेयी और उस के बेटे के रुटीन ख़र्च के लिए जरूर दें। तो मिसेज मेहरा बोली, ‘जाने किस का पाप मेरे हसबैंड के मत्थे कर पटक दिया रंडी कहीं की!’
‘क्या बोली ?’ कह कर मैत्रेयी बड़ी फुर्ती से मिसेज मेहरा की ओर लपकी।
‘बचाइए !’ मिसेज मेहरा पहले ही चिल्लाई, ‘अब ये मुझे मारेगी और मिस्टर मेहरा को भी !’ तो मैत्रेयी को लोगों ने लपक कर पकड़ लिया। पर अब मिस्टर मेहरा थर-थर कांपने लगे।
‘कंट्रोल योर सेल्फ मैडम ! आप पढ़ी-लिखी हैं, कल्चर्ड हैं, डिसेंट बिहेवियर होना चाहिए आप का !’ मिस्टर मेहरा के एक सहकर्मी ने मैत्रेयी से मुख़ातिब हो समझाते हुए कहा।
‘कैसे डिसेंट बिहेवियर रखूं सर !’ मैत्रेयी की हिचकियां बंध गईं। बोली, ‘इन मिया-बीवी ने मिल कर मेरी जिंदगी जहन्नुम बना दी ! मैं डिग्री कालेज में लेक्चरार थी पर इस औरत ने मेरे बारे में परचे बंटवा-बंटवा कर
मेरी ऐसी चरित्र-हत्या की कि मुझे इस्तीफा देना पड़ा। और आज जब मैं एक बच्चे की मां बन कर पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गई हूं तो यह औरत मुझे रंडी कह रही है। बताइए अगर मैं रंडी ही होती तो यहां क्यों आती खर्चा मांगने ?’
‘तेरे आशिकों और क्लाइंटों के नाम गिनवाऊं ?’ मिसेज मेहरा फिर बड़बड़ाई। ‘मिसेज मेहरा आप प्लीज चुप रहिए !’ आफिस का एक सहकर्मी उन्हें चुप कराता हुआ बोला।
‘कैसे चुप रहूं ?’ मिसेज मेहरा बोली, ‘मेरे हसबैंड को लगातार ब्लैकमेल कर रही है, चीट कर रही है, मेरी फेमिली लाइफ डिस्टर्ब कर के रख दिया है! और आप कह रहे हैं चुप रहूं !’ वह चीख़ती हुई बोलीं, ‘चुप रहने की भी सीमा होती है !’
‘सीमा मैं बताऊं आप को ?’ अब मैत्रेयी चीख़ी, ‘अपने मर्द को तो संभाल नहीं पाई ! न मन दे पाईं, न देह ! अरे, भरपेट खाना भी नहीं देती हैं!’ कहती हुई मैत्रेयी मेहरा की ओर मुड़ी और बोली, ‘और ये बुड्ढा ! जब मैं पंद्रह साल की थी तभी मुझ से छेड़खानी करता था। मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की। मैं रिस्पेक्ट करती थी इस की और ये मेरे साथ मुंह काला करने पर आमादा था। मैं ने तभी इस को लात मार दिया था। फिर भी ये मेरे पीछे पड़ा रहा। अंततः गुपचुप शादी कर के मुझे ऐसे नरक में ढकेल दिया कि मैं चाह कर भी निकल नहीं पा रही। यह भी नहीं सोचा इस बुड्ढे ने कि इस की बेटी की उमर की हूं।’ वह और जोर से बोली, ‘ये बुड्ढा न मन की शांति दे सका, न तन की और अब पेट की आग भी बुझानी मुश्किल हो गई है। अपने को तो मना लूं पर इस अबोध बच्चे को क्या समझाऊं ?’
मैत्रेयी की यह बातें सुन कर दफ्तर के सभी लोग सन्नाटे में आ गए। पर मिसेज मेहरा नहीं। वह रह-रह कर कुछ न कुछ बोलती, बुदबुदाती रहीं। ऐसे जैसे गरम तवे पर पानी डाल रही हों। और मैत्रेयी बिन बोले ऐसे रिएक्ट कर रही थी गोया गरम तेल में पानी का छींटा पड़ गया हो। अजब सन्नाटा पसर गया था पूरे माहौल में, मैत्रेयी के हाव भाव में।
इस सन्नाटे को तोड़ा मैत्रेयी के बेटे ने, ‘माम, माम !’ तुतला कर और फिर निहारा उस ने मिस्टर मेहरा की ओर बोला, ‘पा....पा....!’ उस की इस अबोध गुहार में सभी लोग पसीज कर भावुक हो गए। मिस्टर मेहरा की आंखें छलक आईं और आगे बढ़ कर उन्होंने मैत्रेयी की गोद से बेटे को ले लिया। मैत्रेयी ने बेटे को मिस्टर मेहरा को देने में थोड़ा असमंजस दिखाया पर बेटा तो बाप की गोद में समा गया। निश्छल भाव से।
कुरुक्षेत्र का तापमान गिर गया था। और मिस्टर मेहरा बेटे को पुचकार रहे थे।
मिसेज मेहरा बिदक कर वहां से चलीं तो धीरे-धीरे सभी चल दिए। मिस्टर मेहरा भी बेटे को गोद में लिए बाहर निकले और मैत्रेयी को इशारे से साथ चलने को कहा। मैत्रेयी भी चल पड़ी। शांत, स्थिर ! ऐसे जैसे कुछ घटा ही न हो। इतना सब कुछ गुजर जाने के बाद अंततः मिसेज मेहरा ने मिस्टर की दूसरी शादी की शिकायत लिख कर आफिस में दे दी।
मिस्टर मेहरा के खि़लाफ फिर से कोर्ट मार्शल शुरू हुआ। अब की मैत्रेयी मिस्टर मेहरा के पक्ष में खड़ी हुई और लिख कर दिया कि मिस्टर मेहरा ने उन से शादी नहीं की है। मिसेज मेहरा यही चाहती थीं। मैत्रेयी के इस लिखे की सर्टिफाइड कापी उन्हों ने ले ली और अपने आरोप पर डटी रहीं।
अंततः मिस्टर मेहरा नौकरी से बर्खास्त कर दिए गए।
मैत्रेयी पहले ही से बेरोजगार थी, मिस्टर मेहरा भी अब बेरोजगार थे और बेइज्जत भी। इस बुढ़ौती में उन्हों ने छोटी-मोटी ठेकेदारी शुरू की। वो ठेकेदार जिन को ठेका दे कर वह कमीशन खाते थे अब उन्हीं ठेकेदारों के वह पेटी ठेकेदार बन गए। फिर भी बात बनी नहीं। विपन्नता ने उन की जिंदगी को चौतरफा घेर लिया था। अब अपनी दुर्दशा का सारा ठीकरा वह मैत्रेयी के माथे फोड़ने लगे। बात-बात में ताने देते और कहते कि, ‘उस रोज न तुम आफिस आतीं, न बवाल करतीं, न ये दुर्दिन आते !’ मिस्टर मेहरा और मैत्रेयी के बीच तू-तू, मैं-मैं और मार-पीट बढ़ती गई। हार कर वह फिर पहली पत्नी के पास पहुंचे। माफी मांगी। और वहीं रहने लगे। मैत्रेयी के यहां कभी-कभार जाते।
पर दिन में ही। और जल्दी ही भाग आते। वह भी मैत्रेयी के लिए कम बेटे के लिए ज्यादा !
एक दिन मैत्रेयी घर में अकेली थी। बेटा सोया हुआ था। दरवाजा खुला हुआ था। मकान मालिक का बेटा उस के कमरे में आया और उस के साथ जबरदस्ती पर आमादा हो गया। मैत्रेयी ने पुरजोर विरोध किया। शोर मचाया तो अड़ोसी-पड़ोसी आ गए।
मकान मालिक का लड़का कुतर्क पर आ गया। कहा कि, ‘तीन महीने से किराया नहीं दिया है। किराया मांगने गया तो चिल्लाने लगी और अब लांछन लगा रही है।’ कहकर उस ने मैत्रेयी से कहा कि, ‘या तो अभी किराया दो नहीं अभी घर ख़ाली कर दो।’ वह बोला, ‘नहीं तो बुड्ढे की रखैल अभी सारा सामान उठा कर बाहर फेंक दूंगा।’
‘सामान को हाथ भी लगाया तो हाथ काट लूंगी।’ मैत्रेयी चीख़ी। इस पर प्रतिशोध में जलते मकान मालिक का लड़का सचमुच मैत्रेयी का सामान घर से बाहर ले जाने लगा। मैत्रेयी ने हस्तक्षेप किया तो मकान मालिक का पूरा घर उस पर टूट पड़ा। लातों-जूतों से उस की पिटाई शुरू हो गई। पड़ोसियों ने छुड़ाया किसी तरह तो वह भाग कर पी.सी.ओ. गई। मिस्टर मेहरा को फोन मिलाया।
वह नहीं मिले। पता चला किसी काम से बाहर गए हैं। दो दिन बाद लौटेंगे। मैत्रेयी घबरा गई। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। अचानक उसे नागेंद्र की याद आई। नागेंद्र को फोन किया। फोन पर वह रो पड़ी। रोते-रोते नागेंद्र से सारा किस्सा बताया और फौरन पुलिस ले कर पहुंचने को कहा।
‘अपना ऐड्रेस तो बताओ पहले।’ नागेंद्र ने कहा तो मैत्रेयी ने विकास नगर का ऐड्रेस बताया। नागेंद्र ने तुरंत एस॰एस॰पी॰ को फोन पर सारा वाकया बताया और कहा कि, ‘मैं पर्सनली आप से मदद मांग रहा हूं।’ एस.एस.पी. ने नागेंद्र को भरोसा दिलाते हुए कहा कि, ‘अभी दस मिनट में फोर्स वहां पहुंच जाएगी। मैं सीधे एस.ओ. को कहता हूं। आप निश्चिंत रहिए।’
नागेंद्र भी पहुंचा मैत्रेयी के घर। पुलिस नागेंद्र के पहुंचने के पहले ही पहुंच चुकी थी। मारपीट के आरोप में मकान मालिक और उस के बेटे को पकड़ कर जीप में बैठा चुकी थी और मैत्रेयी का बाहर फेंका सामान उस के कमरे में एस.ओ. खुद रखवा रहा था। मैत्रेयी भी वहीं खड़ी थी लेकिन पहली नजर में नागेंद्र उसे पहचान नहीं पाया। धंसे गाल, पीली पड़ गई देह आधी हो चली थी, चेहरे और देह दोनों से लावण्य बिसर चुका था। अपने बेटे को छाती से चिपकाए ऐसे खड़ी थी जैसे कोई बंदरिया अपने बच्चे को चिपकाए फिरती है। कुल मिला कर ऐसा लग ही नहीं रहा था कि यह वही मैत्रेयी है जिस के हुस्न के जादू में तमाम लोग पगलाए रहते थे। खुद नागेंद्र भी। पहले उस के रोम-रोम से लावण्य छलकता था, पके आम की तरह भरी देह पिचक कर चिचुके आम में तबदील हो चुकी थी और रोम-रोम से लावण्य की जगह बेचारगी टपक रही थी। नागेंद्र हतप्रभ रह गया। अचानक मैत्रेयी ने जब नागेंद्र को देखा तो उस की ओर लपकी। मुरझाई हंसी उस के चेहरे पर आई। झुक कर नागेंद्र के पैर छूती हुई वह बोली, ‘थैंक यू ! मैं जानती थी इस मुश्किल समय में मेरी मदद आप जरुर करेंगे।’ कहते-कहते उस की आंखें आंसुओं से भर गईं। गला रुंध गया।
रुंधे गले से ही वह अपने बेटे से बोली, ‘अंकल को नमस्ते करो !’
‘मत्ते !’ हाथ जोड़ते हुए उस का बेटा तुतलाया और मुस्कुराया। नागेंद्र हड़बड़ी में आया था और उस के बेटे के लिए कुछ लाया नहीं था। सो उस ने संकोच में पड़ते हुए जेब से सौ रुपए निकाल कर मैत्रेयी के बेटे को थमाया।
मैत्रेयी पीछे को हटी। बोली, ‘यह क्या कर रहे हैं आप ?’ लेकिन नागेंद्र ने मैत्रेयी की बात को अनुसना कर दिया। नागेंद्र मकान मालिक के परिजनों को इंगित कर एस.ओ. से बोला, ‘इन लोगों को हिदायत दे दीजिए कि आइंदा कभी इन को परेशान नहीं करें, न ही मिसबिहेव करें !’
‘आप का परिचय ?’ एस. ओ. ने पूछा।
‘मैं एडवोकेट नागेंद्र हूं।’
‘जय हिंद सर !’ एस.ओ. सैल्यूट मारते हुए बोला, ‘कप्तान साहब ने आप ही का नाम ले कर यहां भेजा है।’ वह बोला, ‘आप निशा ख़ातिर रहें सर! इतना टाइट कर दिया है कि चूं नहीं करेंगे !’ वह पुलिस जीप में बैठे मकान मालिक और उस के लड़के को दिखाते हुए बोला, ‘अभी थाने ले जा कर भी और टाइट कर दूंगा कि सब हेकड़ी भूल जाएंगे।’ फिर उस ने एक भद्दी-सी गाली बकी और अपने काम में लग गया।
मकान मालिक के परिजनों ने जब जाना कि नागेंद्र एडवोकेट है तो सब घबराए।
उन सबको लगा कि मैत्रेयी कहीं उन का घर एलाट न करवा ले या कोर्ट-कचहरी का चक्कर न चला दे। नागेंद्र के पास आए और अपनी सदाशयता के बखान करने लगे कि कैसे जब मैत्रेयी अकेले ही रहती है तो वह लोग उस का हर तरह से ख़याल रखते हैं। यह सब सुनते-सुनते नागेंद्र जब उकता गया तो भड़क कर बोला, ‘दिख तो
रहा ही है कि आप सब उस का किस तरह ख़याल रखते हैं।’ तो सब एक साथ मैत्रेयी की बदतमीजियों के ब्यौरे देने पर उतर आए। दिखाने लगे कि देखिए कैसे खिड़की के शीशे तोड़ दिए, गमले फोड़ दिए वगैरह-वगैरह के बाद वह सब मैत्रेयी के चरित्र पर संदेह की उंगलियां उठाते हुए बोले, ‘बताइए एक बूढ़ा व्यक्ति आता है जब-तब और घंटे-दो-घंटे में चला जाता है। और ये उस को अपना हसबैंड बताती है। हसबैंड है तो मेहमान की तरह क्यों आता है ? रहता क्यों नहीं है इस के साथ ?’ मकान मालकिन बोली, ‘हमारे भी बड़े-बड़े बच्चे हैं, बेटियां हैं। गलत प्रभाव पड़ता है।’
‘क्या करें बाहर की पोस्टिंग है !’ मैत्रेयी बीच में बोल पड़ी।
‘किस की बाहर की पोस्टिंग है ?’ नागेंद्र ने हकबका कर पूछा।
‘मेरे हसबैंड की !’ कहते हुए मैत्रेयी ने बेटे को अपने सीने से और सटा लिया।
‘कहीं कोई हसबैंड नहीं, कहीं कोई पोस्टिंग नहीं। सब बकवास कर रही है ये।’
मकान मालकिन बिदकती हुई बोली, ‘बुड्ढा मिलेट्री का बर्खास्त इंजीनियर है। छोटी-मोटी ठेकेदारी करता है और यहीं गोमती नगर में रहता है। बाल बच्चेदार है। हमने सब पता करवा लिया है !’
‘आप इन लोगों को मुंह मत लगाइए। आप इधर आइए।’ कह कर मैत्रेयी अपने कमरे की ओर बढ़ी। तब तक मैत्रेयी का छोटा भाई भी आ गया। बिलकुल मरने-मारने के मूड में। नागेंद्र ने उसे समझाया, ‘कोई झगड़ा-झंझट नहीं। और हो सके तो आज मैत्रेयी को अपने घर लेते जाओ। झगड़ा बढ़ाने से कोई फायदा नहीं। और कुछ दिन में सुविधा से दूसरा घर खोज लो। यहां रहना अब ठीक नहीं है।’
‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी। यहीं रहूंगी। देखें कोई क्या करता है ?’ मैत्रेयी चीख़ कर बोली।
‘ये तुम्हें क्या हो गया है मैत्रेयी ?’ नागेंद्र धीरे से बोला।
‘कुछ नहीं ! आप मेरी मदद करने आए हैं कि मेरी बेइज्जती करने ?’
‘जाहिर है तुम्हारी मदद करने। बेइज्जती क्यों करूंगा तुम्हारी ?’
‘तो मेरी इज्जत इसी में है कि मैं यहीं रहूं। मैं किसी से डरती नहीं।’
‘ठीक है तो मैं चलता हूं।’
‘बैठिए तो।’ वह बोली, ‘चाय पी कर जाइए।’
‘चाय पीने फिर कभी आ जाऊंगा। अभी जाने दो।’ वह बोला, ‘चैंबर में काफी क्लाइंट आ गए होंगे।’
‘अच्छा तो आइएगा जरुर !’
‘बिलकुल। तुम अपना ख़याल रखना।’ मैत्रेयी के माथे पर हाथ रखकर भावुक होता हुआ नागेंद्र बोला, ‘आधी रात में भी कोई दिक्कत हो तो फोन कर देना। वैसे तुम्हारी हिफाजत के लिए दो महिला कांस्टेबिल अभी भिजवा दूंगा।’
‘उस की जरुरत तो नहीं है।’ मैत्रेयी ढीठ होती हुई बोली, ‘मैं किसी से डरती नहीं।’
‘वो तो ठीक है। फिर भी !’ कह कर नागेंद्र चलने लगा तो उस ने अपने तो झुक कर उस के पांव हुए ही, बेटे का माथा भी उस के पैर पर रखवा दिया। और बोली, ‘इस की पप्पी नहीं लेंगे ?’
‘हां, हां क्यों नहीं !’ कह कर नागेंद्र ने बड़े प्यार से मैत्रेयी के बेटे की कई पप्पी ले ली।
मैत्रेयी के घर से निकल कर नागेंद्र ने एस.एस.पी. को फोन कर उन को ‘थैंक यू !’ कहा और रिक्वेस्ट किया कि दो तीन दिन के लिए दो लेडीज कांस्टेबिल वहां तैनात कर दें ताकि आगे कोई और दिक्कत न हो।
दो दिन बाद मैत्रेयी के भाई का फोन आया। कहने लगा, ‘भाई साहब, मैत्रेयी दीदी के यहां जो लेडीज कांस्टेबिलों की ड्यूटी आप ने लगवाई है, वह हटवा दीजिए !’
‘क्यों ? कोई दिक्कत कर रही हैं क्या सब ?’
‘नहीं भाई साहब, वह तो सब ठीक हैं। लेकिन शायद आप जानते नहीं है कि दीदी इन दिनों थोड़ी तंगी में चल रही हैं। दूसरे, अब वहां स्थितियां भी धीरे-धीरे सामान्य हो चली हैं।’
‘ठीक है मैं उन्हें हटवा देता हूं। पर मैत्रेयी से कहना हमें फोन करे।’
‘ठीक भाई साहब !’
लेकिन मैत्रेयी ने फोन नहीं किया।
एक दिन मैत्रेयी अपने बेटे को लिए दिए नागेंद्र के चैंबर में आ गई। तब जब कि बहुत सारे क्लाइंट, जूनियर वकील वगैरह बैठे हुए थे। उस वक्त मैत्रेयी को ज्यादा समय दे पाना नागेंद्र के लिए संभव नहीं था। फिर भी उस
ने मैत्रेयी को अपने केबिन में बुलवाया और कहा कि, ‘माफ करना मैत्रेयी, पांच मिनट से ज्यादा समय आज नहीं दे पाऊंगा। बाहर बहुत सारे क्लाइंट हैं और तीन चार रिटें भी लिखवानी हैं।’ मैत्रेयी ने फीकी मुसकान के साथ हमेशा की तरह झुक कर उस के पांव छुए और बेटे का माथा उस के पांव पर रखवा दिया। बोली, ‘मैं फिर कभी आ जाऊंगी।’
‘नहीं-नहीं। अभी पांच मिनट तो बैठो ही।’
‘बड़ी कृपा आप की।’ कहते हुए वह सामने की कुर्सी पर बैठ गई।
‘हां, अब बोलो !’
‘हमें कहीं कोई जॉब नहीं दिलवा सकते आप ?’
‘किस तरह का ?’
‘किसी भी तरह का !
‘तुम टीचिंग ही क्यों नहीं शुरू करतीं ?’
‘कैसे करूं ?’ वह बोली, ‘तब तो किसी तरह जुगाड़ लगा लिया था। लेकिन तब की बात और थी !’
‘अब क्या हो गया है ?’ वह बोला, ‘डिग्रियां तो तुम्हारी वही हैं।’
‘आप को तो सब बता ही चुकी हूं कि तब सिर्फ डिग्रियां ही नहीं काम आई थीं, अपने को भी ‘इस्तेमाल’ किया था। दूसरे, तब पहले ऐडहाक हुई थी, फिर कमीशन से। और अब ऐडहाक वाला मामला ही ख़त्म है। कमीशन के थ्रू ही सब कुछ होता है, वह भी वांट, अप्लाई, इंटरव्यू और दुनिया भर के लफड़े हैं।’
‘तुम ने वह नौकरी छोड़ के गलती की !’
‘तो क्या करती ?’ वह बिफरी, ‘चरित्र-हत्या की सारी हदें वह चुड़ैल पार कर गई थी।’
‘छुट्टी पर चली गई होती। लंबी छुट्टी पर। रिजाइन तो नहीं करना चाहिए था। बाद में भले कालेज बदल लिया होता।’
‘कोर्ट के थ्रू नहीं कुछ हो सकता अब ?’
‘कैसे हो सकता है ?’ वह आंखें फैला, होंठ सिकोड़ कर बोला, ‘रिजाइन के बाद कुछ नहीं हो सकता !’
‘आप अपने यहां ही कोई काम नहीं दे सकते ?’
‘एल.एल.बी. तुम ने किया नहीं है कि जूनियर बना लूं। स्टेनोग्राफी तुम ने सीखी नहीं है कि स्टेनोग्राफर बना लूं। ले दे के एक मुंशीगिरी बचती है जो तुम कर नहीं सकती।’
‘क्यों नहीं कर सकती ?’
‘लगभग चपरासी, दफ्तरी जैसा काम है। और दौड़ भाग, मेहनत बहुत है।’ वह बोला, ‘समझो कि नाऊवों जैसा काम है। जैसे शादी ब्याह में कई बार बेवकूफ पंडित हो तो ये नाऊ ही उन को तमाम विधियों, विधानों के बारे में टोकते चलते हैं, वैसे ही तमाम जाहिल-जपाट वकीलों को भी ये मुंशी बाकायदा डिक्टेट करते रहते हैं। बस ये समझो कि सिर्फ एल.एल.बी. न कर पाने की कीमत चुकाते हैं वरना पूरे वकील तो होते ही हैं ये मुंशी ! और लोवर कोर्टों में तो कई बार वकीलों के बाप। एकाध बार तो ये मुंशी गुप चुप एल.एल.बी. कर कोट और गाउन पहने हाई कोर्ट में प्रैक्टिशनर बने दिख जाते हैं। तो कुल मिला कर ये कि टफ जाब है मुंशीगिरी। और औरतों के वश का तो बिलकुल नहीं।’
‘तो क्या करूं ?’
‘तुम कोचिंग वगैरह क्यों नहीं शुरू करती ?’
‘मेरा सब्जेक्ट है साइकोलॉजी ! और इस में एक्सपर्ट तो कोई हो सकता है पर कोचिंग का कोई स्कोप नहीं है।’
‘ख़ैर, अभी चलो। बाद में कुछ सोचता हूं। तब तक तुम भी सोचो !’
‘ठीक है।’ वह झुक कर पैर छू कर, बेटे का माथा उस के पांव पर रखती हुई बोली, ‘इस को आशीर्वाद दीजिए और मेरे लिए कुछ सोचिएगा जरूर !’
‘बिलकुल !’ कह कर उस ने कुछ रुपए उस के बेटे के साथ थमा दिए।
‘यह क्या कर रहे हैं आप ?’
‘जो भी कर रहा हूं, तुम से मतलब ?’
‘लेकिन बार-बार ये ठीक नहीं है।’
‘तुम ठीक कह रही हो।’ नागेंद्र बोला, ‘पर अभी तुम चलो।’
मैत्रेयी चली गई तो नागेंद्र मुवक्किलों को निपटाने में लग गया।
मुवक्किलों को निपटा जरूर रहा था नागेंद्र लेकिन उस के दिमाग में जैसे हलचल थी। हलचल थी मैत्रेयी की मुश्किलों को ले कर। और मैत्रेयी की मुश्किलें कोई एक दो होतीं तो उन से पार पाया जा सकता था, पर उस की
मुश्किलों की धाराएं हज़ारों थीं।
लेकिन फिर मैत्रेयी नागेंद्र से नहीं मिली।
साल दो साल बीत गए तो एक बार वह मैत्रेयी के भाई के पास गया। पूछा उस का हालचाल। फिर मैत्रेयी के बारे में जानना चाहता तो वह टाल गया और जरा सख़्ती से टाल गया। नागेंद्र ने कुरेदते हुए उस से पूछा और जरा तल्ख़ी से पूछा, ‘और मिस्टर मेहरा ?’
‘जब दीदी ही मिसेज मेहरा नहीं रही तो मिस्टर मेहरा का क्या करना ?’
‘क्या मतलब ?’
‘हां, दीदी का तलाक हो गया ?’
‘लीगली ?’
‘जब शादी ही लीगल नहीं थी तो तलाक कैसे लीगली होता ?’
‘ओह !’ चिंतित होते हुए नागेंद्र बोला, ‘पर मैत्रेयी है कहां ?’
‘जाने जिंदा भी है कि मर गई !’ मैत्रेयी का भाई कुढ़ते हुए बोला, ‘जिंदा होगी भी कहीं तो भी हम लोगों के लिए वह मरी हुई है !’
‘क्या बात कर रहे हो ?’
‘हां, भाई साहब !’ बहुत तोहमत लगाई उस ने हमारी फेमिली पर ! सिर उठा कर जीना मुश्किल हो गया।’ वह जरा रुका और बोला, ‘प्लीज दीदी का चैप्टर यहीं क्लोज करिए। मैं आगे और कोई बात नहीं करना चाहता उस के बारे में।’ कह कर उस ने हाथ जोड़ लिए।
नागेंद्र चुपचाप चला आया मैत्रेयी के भाई के घर से। लेकिन मैत्रेयी को वह भूल नहीं पा रहा था। अनुभूति और भावना दोनों स्तर पर। मैत्रेयी की यादें उस के साथ ऐसे चल रही थीं जैसे आकाश में बसे तारे, चांद और खुद आकाश भी साथ-साथ चलता है ! और क्या धरती भी साथ-साथ नहीं चलती ? उस ने अपने आप से पूछा ! हां, धरती का भूगोल जरुर बदलता रहता है। बदलता तो भूगोल आकाश का भी है पर पता नहीं पड़ता। जैसे मैत्रेयी का पता नहीं पड़ता। कि तभी मैत्रेयी अचानक खिलखिलाती हुई उस की यादों में आ खड़ी हुई। खूब खिलखिलाती और उस से चिपटती हुई।
एक बार मैत्रेयी उस से चिपटी हुई बैठी थी। बतियाते-बतियाते भावुक हो गई।
कहने लगी, ‘मैं अगले जन्म में मनुष्य रूप में नहीं आऊंगी। इस रूप में बहुत दुख है।’
‘फिर ?’ नागेंद्र ने फुसफुसा कर पूछा।
‘मैं तितली बन कर आऊंगी।
‘तितली बन कर क्या करोगी ?’
‘अजय से मिलूंगी।’
‘मतलब अजय को भी तितली बना दोगी ?’
‘और क्या !’ वह खनकती हुई बोली, ‘तभी तो उस से मिलूंगी। मिल कर खूब उडूंगी। पूरे पंख पसार के।’
‘क्या इन दिनों चीनी लोक-कथाएं पढ़ रही हो ?’
‘नहीं उड़ रही हूं।’
‘किस के साथ ?’
‘आप के साथ !’
‘क्यों अजय कहां गया ?’
‘वह तो जब तितली बनूंगी तब मिलेगा !’ अचानक वह रुकी और बोली, ‘हां, आप चीनी लोक-कथा की क्या बात कर रहे थे ?’
‘एक चीनी लोक-कथा है जिस में प्रेमी प्रेमिका पारिवारिक, सामाजिक विरोध के चलते नहीं मिल पाते फिर दोनों आत्महत्या कर लेते हैं और अगले जन्म में तितली बन कर दोनों मिलते हैं।’ वह बोला, ‘यह चीन की बहुत ही मशहूर लोक कथा है। कहते हैं कि चीन में कहीं इन प्रेमियों की मजार भी है जिसे देखने अब भी लोग जाते हैं।’
‘अच्छा ?’ वह बोली, ‘फिर तो मैं जरूर आत्महत्या करूंगी, फिर तितली बनूंगी और अजय से मिलूंगी।’ कहते हुए वह खिलखिलाई। फिर मुंह बना कर बोली, ‘तब उस का खडूस बाप भी नहीं होगा।’
‘किस का खडूस बाप ?’
‘अजय का और किस का ?’
‘और जो कहीं वह गिरगिट बन कर आ गया तो ?’
‘कौन ?’
‘अजय का बाप !’
‘तो क्या कर लेगा ?’
‘तितली और गिरगिट का रिश्ता शेर और बकरी का होता है।’ वह बोला, ‘तितली अगर किसी से डरती है तो गिरगिट से।’,
‘फिर मैं वृक्ष या फूल बन जाऊंगी। कहते हुए वह चिहुंकी, ‘नहीं इसे भी मनुष्य नष्ट कर देता है।’
‘तो ?’
‘तो क्या मैं प्रकृति का अंश बन कर पूरी प्रकृति में रहूंगी। गंगा में, आकाश में, फूलों में, चिड़िया में, बारिश में, केदार खंड में, मंत्रों में, मंत्रों के उच्चारण में, हर सच्चे हृदय में।’ वह ठुमकती हुई बोली,‘आप के हृदय में भी!’
‘मुझे सच्चा हृदय मानती हो।’
‘बिलकुल !’ वह रुकी और बोलीं, ‘क्यों ? क्या कोई शक है ?’
‘अरे भई मैं वकील हूं।’
‘तो क्या हुआ ?’ वह लापरवाह होती हुई बोली, ‘आप का हृदय सच्चा है।’
‘एक से अधिक औरतों के साथ सोने के बावजूद ?’
‘बावजूद !’ वह बोली, ‘आप इस मामले में झूठ तो नहीं बोलते।’
‘बोलता तो हूं।’
‘किस से ?’
‘पत्नी से !’
‘ओह !’ वह बोली, ‘यह तो तकाज़ा है।’
‘किस बात का ?’
‘घर में शांति बनाए रखने का !’
‘ये तो है।’
लेकिन एक मृगतृष्णा सी बेचैनी उस के भीतर हमेशा गश्त लगाती रहती और वह छटपटाती रहती। अजय के लिए। अजय को पाने के लिए। यह बात वह नागेंद्र से छिपाती नहीं थी। आत्महत्या कर तितली बन उस से मिलने के लिए छटपटाती रहती। अकुलाती रहती और छटपटाती रहती। तब जब कि अब अजय से उस की न सिर्फ बातचीत बंद थी, अजय के लिए घाव भी हरे थे। अजय और उस के परिवार की हिंसा उस के मन में नफरत की हद तक टंगी रहती। कालेज में उस के अपमान की इबारत तो बाद में लिखी और बांची गई। तो क्या मिस्टर मेहरा से भी मैत्रेयी ने अपने तितली बन कर अगले जन्म में आने और अजय से मिलने की बात चलाई होगी ? नागेंद्र ने सोचा और मान लिया कि मैत्रेयी का जिस तरह का स्वभाव था, जिस तरह की भावुकता में जब तब वह बह जाती थी, जरुर अजय प्रसंग का जिक्र मिस्टर मेहरा से उस ने किया ही किया होगा। हो सकता है मिस्टर मेहरा से उस के अलगाव का यही मूल कारण बना हो।
या हो सकता हो कि दोनों ने अलग होने का कोई और कारण ढूंढ़ लिया हो !
और क्या मैत्रेयी अपने आप में खुद एक बड़ा कारण नहीं थी ?
क्या पता ?
नागेंद्र ने सोचा कि वह एक दिन मिस्टर मेहरा से मिले। फिर उसे अचानक मैत्रेयी के बेटे की याद आ गई। उस की मासूमियत की याद आ गई। जाने वह मैत्रेयी के साथ था कि मिस्टर मेहरा के ? और कि क्या उस की मासूमियत भी उस के साथ चस्पा होगी कि उतर गई होगी ?
क्या पता ?
नागेंद्र अभी इन्हीं सब उधेड़ बुन में दिन गुज़ार रहा था कि एक दिन अजय उस के चैंबर में उस से मिलने आया फ़ौज़दारी के एक मुकद्दमे के सिलसिले में। नागेंद्र अजय को पहचानता तो था नहीं। लेकिन बात ही बात में जब उस ने अपने पिता का भी जिक्र किया और जिस तरह किया तो नागेंद्र समझ गया कि यह अजय मैत्रेयी वाला ही अजय है। मुकदमे की डिटेल्स लेने, जानने के बाद नागेंद्र ने मौका देख कर सीधे-सीधे अजय से मैत्रेयी के बारे में पूछ लिया। अजय हकबका गया। हकबका कर बिलकुल शांत हो गया। नागेंद्र ने उसे जब कुछ और कुरेदा तो उलटे उस ने नागेंद्र से सवाल कर दिया, ‘आप उसे कैसे जानते हैं ?’
‘बस यूं ही !’
‘क्या आप भी उस के आशिकों में से रहे हैं ?’ आखें घुमा कर चेहरे पर अजब से भाव लाते हुए वह बोला।
‘क्या बेवकूफी की बात कर रहे हो !’ नागेंद्र किचकिचाता हुआ बोला, ‘तुम्हारी पत्नी रही है वह, तुम्हारी प्रेमिका है और तुम्हें अभी भी प्यार करती है। और उस के बारे में तुम इस तरह बात कर रहे हो ? तुम्हें शर्म आनी चाहिए !
‘क्यों शर्म आनी चाहिए ?’ अजय प्रतिवाद पर उतर आया, ‘वह साली आवारा है ! कुत्ती है ! रंडी है ! एक मर्द से उस का काम नहीं चलता। मेरे बाप तक को न छोड़ा उस ने ! तो काहे की पत्नी, काहे की प्रेमिका !’
‘बड़े बत्तमीज आदमी हो !’
‘बत्तमीज आप हैं जो मेरी पर्सनल लाइफ की बात कर रहे हैं। आवेश में आ कर अजय तेज-तेज बोलने लगा।
‘गेट आऊट !’ नागेंद्र ज़ोर से चीखा, ‘भाग जाओ साले नहीं, यहीं पटक कर मारूंगा।’ घंटी बजा कर मुंशी को बुलाया और कहा, ‘साले को बाहर करो। और ज्यादा बवाल करे तो पुलिस बुला कर पुलिस के हवाले कर दो।’
चीख़ता चिल्लाता अजय खुद ही बाहर चला गया।
माहौल जब थोड़ा शांत हुआ तो नागेंद्र ने बैठे-बैठे मेज पर सिर टिका दिया और बुदबुदाया, क्या मैत्रेयी ? तुम इस नालायक के लिए आत्महत्या कर तितली बनना चाहती थी ? तितली बन कर मिलना और उड़ना चाहती थी ?
इस नालायक के लिए ?
जो तुम्हें आवारा, कुत्ती, रंडी समझता है ! कहां फंस गईं मैत्रेयी तुम ?
तुम्हें मिला भी हो यह साला अजय ! वो साला मेहरा ! इस से तो अच्छा था कि तुम बिना विवाह के ही इसी जीवन में तितली बन कर खिलखिलाती उड़ती फिरती थीं शायद सारा आकाश, सारी पृथ्वी, सारी प्रकृति, सारी बारिश और फूलों की सारी महक तुम्हारी होती।गिरगिट उतने ख़तरनाक नहीं होते जितने अजय या मेहर जैसे ये मर्द !
तुम कहां फंस गईं मैत्रेयी ?
नागेंद्र ने जैसे विलाप किया।