मैत्रेयी को क्या मिला / भगवान सिंह

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पुराने जमाने में ब्रह्मविदों के लिए भी बहुविवाह वर्जित न था। ऐसे मामलों में ब्रह्म अक्सर रुकावट नहीं डालता। ब्रह्म तो एक और अद्वितीय है। बाकी सब भ्रम। वही है, दूसरा तो कोई है नहीं। वही अपने से अलग होता है। वही अपने से मिलता है। वह एक होकर दो से मिले या दो होकर एक से, इससे फर्क क्या पड़ता है। इसलिए यदि ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी और कात्यायनी दो पत्नियों को अर्धांगिनी बना रखा था और उनमें से प्रत्येक उनकी चतुर्थांगिणी ही रह गयी थी, तो यह कोई अनुचित बात न थी। भेद बुद्धि रखने वालों को यह जैसा भी लगे, तत्त्वदर्शियों को यह तब खटकता जब स्थिति विपरीत होती। हम तो यह भी नहीं जानते कि पूरे जीवन काल में उनको इन दो को ही पत्नी बनाने का अवसर मिला था या यह संख्या द्विवचन से बहुवचन की ओर भी अग्रसर हुई थी। यह तय है कि यह घटना जिस काल की है, उस समय उनके पास सम्भवतः दो ही पत्नियाँ थीं। पर यह बात भी उतनी तय नहीं है जितनी तय होने का हम विश्वास दिला चुके हैं क्योंकि मैत्रायणी संहिता जैसे नाम सुनकर लगता है कि इस नाम की कोई ऋषिका उपनिषद् काल से पहले हुई तो हो सकती हैं पर जरूरी नहीं कि वह याज्ञवल्क्य की पत्नी ही रही हों या यदि वह याज्ञवल्क्य की पत्नी ही रही हों तो जरूरी नहीं कि यह कहानी उनको पात्र बनाकर केवल कल्पना के आधार पर न गढ़ ली गयी हो।

कहानी के अनुसार याज्ञवल्क्य की अवस्था ढल चुकी थी। शरीर जर्जर हो चला था। एक दिन उन्हें एकाएक लगा, अब इस जीवन का क्या ठिकाना। जाने कब बुलावा आ जाए। मैं न रहा तो क्या ठिकाना, बड़ी पत्नी कात्यायनी मैत्रेयी को गुजर-बसर के लिए कुछ दे, या न दे। कति का तो अर्थ ही होता है लालसा। यह तो उसका नाम लेने से पता चल गया होगा, उसका जी किसी चीज से भरता ही नहीं था। हमेशा फरमाइश करती रहती। यह लाओ, वह लाओ। याज्ञवल्क्य का अपने समय के राजाओं और सामन्तों के बीच जो सम्मान था उसके कारण उनके पास अपार समृद्धि थी। ब्रह्मवादी होने के कारण, वह अन्य पुराने विधानों की तरह इस नियम को भी नहीं मानते थे कि ब्राह्मण का लक्ष्मी से वैर है, पर कहीं अन्त तो होना ही चाहिए। इतना कुछ होते हुए भी कात्यायनी की माँगों का कोई अन्त नहीं। ऊपर से शिकायतों का पिटारा इतना बड़ा। आज यह हो गया तो कल वह।

कुछ लोग मानते हैं कि याज्ञवल्क्य ने मरने के डर से ऐसा नहीं सोचा था। वह संन्यास लेने जा रहे थे। उन्होंने अपना प्रस्ताव गूढ़ भाषा में रखा था, जिसका कोई भी अर्थ लगाया जा सकता है। कहा यह था कि मैत्रेयी, मैं इस स्थान से ऊपर को जाने वाला हूँ-उद्यासु अनु आ अरे अहं अस्मात् स्थानात् अस्मि। इसलिए चाहता हूँ जाने से पहले तुम्हारे और कात्यायनी के बीच बँटवारा करता जाऊँ, ताकि बाद में कलह न हो।

इस तरह की बात संन्यास लेते समय भी कही जा सकती थी, पर यदि ब्रह्मवादियों को भी संन्यास लेना पड़ा तो अनासक्ति कर्मयोग का क्या होगा। अतः इसका मतलब यदि गृहस्थाश्रम से ऊपर संन्यास की ओर जाने से न लिया जाए तो हरज कुछ कम होगा। जो भी हो, मैत्रेयी के नाम से ही प्रकट है कि उससे ब्रह्मविद् की अधिक पटती रही होगी, इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव मैत्रेयी से ही रखा।

मैत्रेयी से वह प्रेम के अतिरिक्त ब्रह्म पर भी कुछ चर्चा करते रहे हो सकते हैं। पत्नी के समक्ष दर्शन और शास्त्रचर्चा गतायु पति की अन्तिम ढाल है। मूर्त वस्तुओं के स्थान पर अमूर्त विचारों के प्रति उसका लगाव भी इतना बढ़ गया था कि इस नाजुक मौके पर उसने उनसे एक ऐसा सवाल पूछ दिया जिसकी याज्ञवल्क्य को आकांक्षा तो रही हो सकती है, पर मैत्रेयी के स्त्री होने के कारण उससे इसकी आशा नहीं रही होगी। मैत्रेयी ने पूछा, “प्रभु, आप तो ऊपर जा रहे हैं। जब आप ही नहीं रहेंगे तो मेरे लिए यह सारी दौलत किस काम की? मुझे तो आप यह बताइए कि यदि सारी दुनिया की दौलत मुझे मिल जाए तो क्या मैं अमर हो सकती हूँ?”

अब देखा जाए तो यह उतना आध्यात्मिक प्रश्न भी नहीं था। यह इतना ठोस सवाल था जिसे कोई ऐसी नवोढ़ा पत्नी ही पूछ सकती थी जिसके गरीब माता-पिता ने पति की हैसियत और दौलत तो देखी पर उमर न देखी और आँख मूँदकर उसके हवाले कर दिया और वह भी अब उसे छोड़कर जाने की बात कर रहा था। दौलत, दौलत, दौलत। दौलत उसके किस काम की थी। पर आस्थावादी जो चाहें, जहाँ और जब चाहें पैदा कर सकते हैं और उन्होंने इस ठोस सवाल में से आध्यात्मिक निचोड़ निकाल लिया तो हमें भी उसे मानना ही पड़ेगा। यूँ देखें तो याज्ञवल्क्य अपने विचारों में कई दृष्टियों से खासे आधुनिक थे और अपने आप में आस्थावादियों का जवाब भी थे।

याज्ञवल्क्य ने कहा, “नहीं। इससे तुम अमर तो नहीं हो सकतीं। भोग्य वस्तुओं के संचय से मनुष्य को जो सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती हैं वे तो तुम्हें इससे प्राप्त होंगी ही। हाँ, धन से अमरता नहीं मिल सकती।”

मैत्रेयी ने कहा, “तब तो यह सब मेरे लिए बेकार है। यदि आप को अमरता प्राप्त करने का उपाय मालूम हो तो उसे मुझे अवश्य बताएँ। मुझे वह ज्ञान चाहिए। आपकी दौलत नहीं।”

याज्ञवल्क्य प्रसन्न हो उठे। कहा, “मैत्रेयी, तू धन्य है! अमूर्त बातों से ही तुष्ट हो जाने के अपने इसी स्वभाव के कारण तू पहले भी मेरी चहेती रही है और आज भी ऐसी बातें कर रही है जो मुझे प्रिय लग रही हैं। आ बैठ जा। मैं तुझसे इसकी व्याख्या करूँगा। तू मेरे कहे पर ध्यान दे और इस पर जरा गम्भीरता से सोच।”

इसके बाद याज्ञवल्क्य ने एक लम्बा भाषण दिया। यह भाषण यह सोचकर दिया गया था कि इसे हजार, दो-तीन हजार साल बाद भी कुछ लोग पढ़ेंगे अवश्य, इसलिए इसकी गूँज इतनी साफ रहनी चाहिए कि इतिहास के शोर-शराबे में यह डूबकर खत्म न हो जाए और ग्रहणशील कानों में दूर के ढोल की तरह प्रवेश करती रहे।

उन्होंने कहा, “मैत्रेयी! संसार के सारे सम्बन्ध स्वार्थ के सम्बन्ध हैं। परोपकार भावना से कोई भी कोई काम नहीं करता। कोई स्त्री अपने पति से प्यार करती है तो पति के लिए नहीं अपितु अपने मतलब से उसे प्यार करती है। यदि पति उससे उसी तरह प्यार न करे तो वह उसे भी प्यार करती नहीं रह पाएगी। यदि कोई दूसरा प्यार या आदर प्रकट करे तो पति से उपेक्षित होने पर वह उधर झुक अवश्य जाएगी।” याज्ञवल्क्य ने ठीक इन्हीं शब्दों में कहा तो नहीं पर उन्होंने मैत्रेयी से पहले ही कह रखा था कि जो मैं बताता हूँ उसकी गहराई में जाकर इस पर विचार करना। इसलिए प्रकारान्तर से वह यह भी समझा रहे थे कि तुम से आयु का अन्तर होते हुए भी जो मैंने विवाह किया, वह तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए किया था। वह यह भी समझा रहे थे कि सतीत्व वगैरह की जो बात लोग कहा करते हैं, वह सब स्त्रियों को मूर्ख बनाकर रखने के ढकोसले हैं। ऐसा वे स्त्रियों के भले के लिए नहीं करते, अपितु उन्हें मानसिक रूप में पंगु बनाने के लिए, उन्हें बाँधकर रखने के लिए करते हैं। असलियत वह है जो मैं तुम्हें बात रहा हूँ और ब्रह्मविद्या की यह लहर न चली होती तो पुरानपन्थियों की तरह मैं इस समय भी सतीत्व की ही बात कहता। इसी तरह पुरुष स्त्री को स्त्री के हित के लिए प्यार नहीं करता। वह अपने मतलब से उसे प्यार करता है। यदि याज्ञवल्क्य यह नहीं कहते तो भी कम-से-कम इसे समझने में मैत्रेयी को कठिनाई न होती। उदाहरण वहीं उपलब्ध था। यदि पति पत्नी को उसके पत्नी होने के नाते प्यार करता होता तो स्वयं याज्ञवल्क्य एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह क्यों करते।

अपने युग के अन्य ऋषियों की ही तरह याज्ञवल्क्य भी अपने श्रोताओं पर विश्वास नहीं करते थे या अनुभव और चिन्तन से इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि मनुष्य का मन किसी बात को सुनते, देखते या पढ़ते समय अक्सर विचलित हो जाता है। इसलिए अपनी बात श्रोता के मन में पूरी तरह उतारने के लिए वही बात विविध उदाहरणों से दुहराते हुए कहना चाहिए। इससे यदि पुनरावृत्ति का खतरा रहता भी है तो एक अन्य लाभ भी होता है। सभी स्थितियों और सभी क्षेत्रों में उसी सत्य का साक्षात्कार करने पर श्रोता को इसकी अकाट्यता और सार्वभौमिकता में सन्देह नहीं रह जाता। अतः इसी बात को उन्होंने अनेकानेक उदाहरणों से जिस तरह समझाया, और जो कुछ मैत्रेयी की समझ में आया, वह यह था कि पुत्र इसलिए प्रिय नहीं होता कि वह पुत्र है। यदि यह बात होती तो किसी माता-पिता के लिए एक ही पुत्र पर्याप्त होता। वे उसकी भीड़ नहीं खड़ी करते जाते। कारण पुत्रों की अधिकता सन्तान के स्नेह का वितरण ही तो है। अतः लोग अपने निजी स्वार्थ से पुत्र से प्यार करते हैं। वे अपने बुढ़ापे के सहारे के लिए, मरने के बाद अपने उद्धार के लिए तर्पण आदि के लिए सन्तान पैदा करते हैं। वे यह सोचकर एकाधिक पुत्र पैदा करते हैं और पुत्रोत्पत्ति पर्यन्त अपनी लाचारी में लड़कियों के बाप बनते चले जाते हैं कि यदि किसी कारण कोई पुत्र काल-कवलित हो जाए तो दूसरा या तीसरा या चौथा कोई तो हो जो उनके अपने काम आए। अधिकांश पिता तो अपने पुत्रों को नौकरों या पशुओं की तरह अपने हित और लाभ के लिए उपयोग में लाते हैं।

धन को कोई इसलिए प्यार नहीं करता कि वह धन है। यदि ऐसा होता तो धन या द्रव्य अपना हो या पराया, वे इसमें संगीत या कला या साहित्य या सौन्दर्य की तरह इसका आनन्द लेते और अपने-पराये का भेद नहीं करते। धन तुम्हारे पास हो या कात्यायनी के पास या किसी और के पास, तुम्हें कोई फर्क न पड़ता। वे अपने लिए धन को प्यार करते हैं और इसीलिए किसी धन के अपना हो जाने पर ही उससे प्रेम करते हैं। दूसरों के धन को देखकर वे प्रेम करने के स्थान पर उससे ईर्ष्या करने लगते हैं। इसीलिए तो मैं अपना धन तुम्हारे और कात्यायनी के बीच बाँट देना चाहता हूँ।

ब्राह्मण के भले के लिए कोई ब्राह्मण को प्रेम और सम्मान नहीं देता। अपने फायदे के लिए ही वह ब्राह्मण के प्रति प्रेम और आदर प्रकट करता है। यदि अपने लिए ब्राह्मण की कोई उपयोगिता न दिखाई दे-यदि ब्राह्मण से शिक्षा, उपदेश, धर्म, ज्ञान आदि का लाभ न हो-तो कोई ब्राह्मण का न तो आदर करे, न उससे प्रेम करे, न उसे दान दे। यदि ब्राह्मण में योग्यता का नितान्त अभाव हो, वह उनके किसी काम न आ सके, तो कोई उसका आदर नहीं करेगा।

क्षत्रिय से लोग इसलिए प्रेम नहीं करते, उसे इसलिए सम्मान नहीं देते, कि वह क्षत्रिय है, अतः किसी का क्षत्रिय कुल में पैदा होना ही पर्याप्त नहीं है। लोग क्षत्रिय का सम्मान अपने स्वार्थ से करते हैं, क्योंकि वह अपने प्राणों पर खेलकर भी दूसरों की रक्षा के लिए तत्पर रहता है। यदि इस गुण का अभाव हो, वह उनके किसी काम का न प्रतीत हो तो कोई क्षत्रिय का सम्मान नहीं करेगा। इसलिए जन्मजात श्रेष्ठता का कोई अर्थ नहीं है। समाज के लिए व्यक्ति की उपयोगिता ही उसे समाज में उचित सम्मान और स्नेह दिलाती है।

लोग लोग होने के कारण किसी को प्रिय नहीं होते। उनके लाभ के लिए कोई लोगों से प्यार नहीं करता। अपने प्रयोजन से ही लोग लोगों से प्यार करते हैं क्योंकि लोगों के बीच रहते हुए ही हम मनुष्य के रूप में जो कुछ सीखते-जानते हैं वह सीखते और जानते हैं। उनके बीच रहते हुए ही हम सुरक्षित अनुभव करते हैं और एक-दूसरे के दुख-सुख में काम आते हैं।

देवताओं के लाभ के लिए कोई देवताओं से प्रेम नहीं करता। उनके प्रति उनके प्रेम और भक्ति का कारण यह है कि वे हमें प्रकाश, वृष्टि, प्राणवायु, ऊष्मा और सुरक्षा प्रदान करते हैं। हमारी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। यदि ऐसा न होता तो जिन देवताओं के अनुग्रह या विपत्ति-निवारण पर हमें भरोसा नहीं है, जिन पर दूसरे सम्प्रदायों की आस्था है, उनमें भी लोग भक्ति रखते।

इसी तरह लोग विभिन्न प्राणियों को उनके लिए प्रेम नहीं करते, अपितु अपने लिए प्रेम करते हैं। यही कारण है कुत्ता, गाय, बकरी आदि जो जानवर उनके लिए सुरक्षा, दूध और मांस आदि के साधन हैं उनको तो वे पालते हैं और सिंह, भेड़िया, साँप और बिच्छू आदि जिनसे हानि हो सकती है, उनसे डरते हैं और कुछ जो गन्दगी और बीमारी पैदा करने वाले कीट-पतंग हैं, उनसे घृणा करते हैं।

यह अपना होना, यह अपना आपा या आत्मतत्त्व ही प्रिय और अप्रिय का निर्धारक है। इसलिए यह आत्मा ही सुनने योग्य है, आत्मा ही जानने योग्य है, आत्मा ही मनन करने योग्य है और यही ध्यान देने योग्य है। इसी को देखने, सुनने, जानने से, इसी का अनुचिन्तन करने से बाकी सबका ज्ञान हो जाता है।

मैत्रेयी की समझ में शायद यह नहीं आ रहा था कि यदि सभी बातें आत्मा को सुनने और देखने और जानने और मानने से सुनी और देखी और जानी और मानी जा सकती हैं तो बाह्य जगत को ही सुनने, देखने, जानने और मानने से आत्मा को क्यों नहीं जाना जा सकता। सम्भव है उसके मन में यह आशंका किसी अन्य रूप में उठ रही हो पर याज्ञवल्क्य को लगा कि अभी मैत्रेयी के मन में कुछ उलझन बनी रह गयी है। सम्भव है अति विस्तार के कारण उलझन बढ़ गयी हो। उन्होंने अपने कथन का समाहार करते हुए इसी बात को भिन्न रूप में रखा। कहा, “बाहर और भीतर की इस भिन्नता के कारण, अपने और पराये के बोध के कारण, कुछ लोगों को अपना और शेष को पराया मानने के कारण ही दुनिया के अधिकांश फसाद पैदा होते हैं। जिन्हें हम अपना नहीं समझते, वे हमें अपना कैसे समझेंगे। यदि यह भिन्नता बढ़ेगी तो दुराव और मनमुटाव और आशंकाएँ भी बढ़ेंगी और ये उग्र विरोध का रूप ले लेंगी और हमारे विनाश का कारण बनेंगी ही। यही कारण है कि जो ब्राह्मण को पराया समझता है उसे ब्राह्मण परास्त कर देता है। जो क्षत्रिय को पराया मानता है उसे क्षत्रिय परास्त कर देता है। जो लोक को अपने से भिन्न मानता है लोक उसका विरोधी हो जाता है और उसको हानि पहुँचाने पर कटिबद्ध हो जाता है। जो देवताओं को पराया मानता है देवता उसे मिटाने पर तुल जाते हैं। विभिन्न मतों और सम्प्रदायों के टकराव का यही तो कारण है। जो भूतों को अपने से भिन्न मानता है भूतगण उसे पराजित कर देते हैं। जो सभी को अपना दुश्मन मानता है, सभी उसके दुश्मन हो जाते हैं। यह नाना जन, वर्ण विभाग, सम्प्रदाय, प्राणी, देवता, भूतगण आत्मा से भिन्न कहाँ हैं। इनका आत्मा से कोई विरोध है ही नहीं। इसी आत्मा को सब कुछ मानो। इससे सभी को अभिन्न मानो। आत्मनः सर्वं वेद, इदं ब्रह्म, इदं क्षत्रं, इमे लोका, इमे देवा, इमानि भूतानि, इदं सर्वं यत अयं आत्मा।

“क्या आत्मा को समझना, इसे देखना, पकड़ना और नियन्त्रित करना इतना आसान है?” मैत्रेयी ने प्रश्न किया तो याज्ञवल्क्य कुछ उलझन में पड़ गये। जिस प्रश्न को लेकर वह जनक जैसे तत्त्वविद से निरन्तर बहस करते रहे हैं और बार-बार के मन्थन के बाद भी, अनेक प्रकार से ध्यान और चिन्तन के बाद भी, कुछ शंकाएँ बार-बार सामने आती रही हैं, जिन्हें ऐसा भी नहीं, वैसा भी नहीं, यह भी नहीं, वह भी नहीं कहकर ही सन्तोष कर लेना पड़ता रहा है, उस कठिन विषय को वह मैत्रेयी को कैसे समझाएँ। वह तो उतनी पढ़ी-लिखी भी नहीं है और गम्भीर विषयों पर चिन्तन की आदत भी नहीं। घर-गिरस्ती में इतनी उमर गँवा दी। सोचा भी होगा तो केवल इस संकुचित दायरे में ही कि याज्ञवल्क्य उसे अधिक प्रेम करते हैं या कात्यायनी को।

वह इस सोच में डूबे हुए थे कि उन्हें हठात् एक उपमा सूझी और इसी के साथ एक तत्त्वबोध हुआ। अमूर्त को पकड़ने चलो तो पकड़ना सम्भव न होगा, पर यदि मूर्त को पकड़ा जाए तो उसके माध्यम से अमूर्त और मूर्त दोनों नियन्त्रित हो जाएँगे। यदि भौतिक जगत को समझ लिया जाए तो आत्म-तत्त्व अधिक आसानी से समझ में आ जाएगा।

उन्हें लगा, यही तो जीवन भर वह लोगों को समझाते रहे हैं कि आत्मा को पकड़ने का रास्ता अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करने के प्रयास से आरम्भ होना चाहिए। इनकी बाहर की दौड़ रुक गयी, इनके पीछे परेशान होना बन्द कर दिया, विषयों में आसक्ति समाप्त हो गयी तो आत्मनियन्त्रण हो गया। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सरता से मुक्ति मिली तो आत्मा के अस्तित्व का बोध भी होगा, आत्मा की आवाज भी सुनाई पड़ेगी, आत्म-साक्षात्कार भी होगा और आत्मविजय भी सम्भव हो सकेगी। यहाँ पहुँचकर तो मेरी-तेरी की झंझट यूँ ही समाप्त हो जाएगी।

जो उपमा याज्ञवल्क्य के मन में उभरी थी वह दुन्दुभि की थी। क्या किसी के लिए यह सम्भव है कि वह दुन्दुभि की आवाज को पकड़ ले? ऐसा सम्भव नहीं है। आवाज पैदा हो गयी तो अपने प्रसार क्षेत्र तक जाएगी ही। पर यदि हम दुन्दुभि को पकड़ लें, वह हमारे हाथ में आ जाए, तो एक साथ दुन्दुभि और उसकी आवाज दोनों हमारे वश में हैं। हम चाहें तो बजाएँ, न चाहें तो न बजाएँ। जितना ऊँचा चाहें उतना ऊँचा बजाएँ और जितने विराम या अन्तराल से चाहें बजाएँ। ठीक यही बात शंख के साथ है, वीणा के साथ है। इनकी अपनी ध्वनियों में भिन्नता है पर इनकी ध्वनियों को और इस भिन्नता को ध्वनि के सिरे से नहीं वस्तु के सिरे से, दुन्दुभि, शंख और वीणा के सिरे से ही पकड़ा जा सकता है। सूक्ष्म का ज्ञान स्थूल के माध्यम से ही सम्भव है। जब उन्होंने यह बात बतायी तो मैत्रेयी के चेहरे पर जो चमक आयी उससे उन्हें निश्चय हो गया कि उनकी तुलना व्यर्थ नहीं गयी। उदाहरणों से विचार कितने स्पष्ट हो जाते हैं!

अब उन्होंने एक नये उदाहरण से एक ऐसी बात समझानी चाही जिसके विषय में उन्हें पूरा विश्वास नहीं था कि यह मैत्रेयी के मस्तिष्क में स्पष्ट हो भी पाएगी या नहीं। यह था वेद और शास्त्र की भ्रामकता को स्पष्ट करना। पुरातनपन्थी बार-बार वेद की दुहाई देकर अनर्गल विचारों और मान्यताओं को लादते रहते हैं और हमारी समझ को कुण्ठित करते रहते हैं। ज्ञान से प्रकाश फूटना चाहिए और ये धुआँ पैदा करते हैं।

याज्ञवल्क्य ने अपने मत को रखने से पहले एक बार सवाल किया, “वेद-शास्त्र में तो तुम्हारी आस्था है न, मैत्रेयी?”

मैत्रेयी ने हामी में सिर हिलाया। याज्ञवल्क्य गम्भीर हो गये। सारी दुनिया में वह ज्ञान बिखेरते रहे और अपने ही घर में अँधेरा छाया हुआ है। एक बार भी तो नहीं बताया कि इनके पीछे इनके रचयिताओं के स्वार्थ भी छिपे रहे हैं। उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए अपने को ऊँचा सिद्ध करने के लिए ज्ञान का उपयोग करना चाहा और इस आसक्ति के कारण ज्ञान की उस लकड़ी को जिससे प्रकाश पैदा हो सकता है, गीला करके ऐसा बना दिया है कि इससे ऊष्मा और प्रकाश के स्थान पर धुआँ पैदा होता है, जो उल्टे आँखों में कड़वाहट और धुँधलापन पैदा करता है। आज तो उन्हें यह बताना ही होगा और उपमा भी इससे अच्छी क्या हो सकती है। अब उन्होंने कुछ आवेश में आकर संस्कृत बोलना भी आरम्भ कर दिया, स यथा आद्रैधा अग्नेः अभि आहितात् पृथक् धूमा विनिश्चिरन्ति एवं वा अरे अस्य महतो भूतस्य निश्वसितं एतत यत् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्वांगिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राणि अनुव्याख्यानि अनु अस्य एव एतानि निश्वसितानि। संस्कृत में कही बात पर बेचारी मैत्रेयी सन्देह भी कैसे कर सकती थी। इसमें तो याज्ञवल्क्य ने उपनिषदों तक के पुस्तकीय ज्ञान को शामिल कर लिया था। अब कोई यह आरोप तो लगा नहीं सकता था कि उन्होंने वेदों के प्रति तिरस्कार के कारण यह बात कही है। याज्ञवल्क्य को क्या पता था कि वेदों और शास्त्रों की उनकी यह आलोचना एक फक्कड़ को कभी इतनी पसन्द आ जाएगी कि रामानन्द जैसे गुरु के शिष्यत्व में उपनिषदों का मनोयोग से अध्ययन और मर्मग्रहण करने के बाद भी वह वेद और पोथी की व्यर्थता की ही बात नहीं करेगा अपितु अपने को निरा अनपढ़ सिद्ध करने के लिए मसि कागद छूयो नहिं कलम गही नहिं हाथ को अपना स्लोगन बना लेगा और पुस्तकीय विद्या से वंचित अपने अनुयायियों में भी ऐसा आत्मविश्वास पैदा करने में सफल होगा कि इसके सामने वेदविदों का दम्भ भी चूर हो जाएगा।

“यदि यह समस्त ज्ञान भ्रामक है तो निर्भ्रान्त क्या है? ये प्रकाश के स्थान पर धुआँ देते हैं तो प्रकाश का स्रोत क्या है?” मैत्रेयी अनपढ़ तो थी पर तर्क करना जानती थी। कम से कम अपने संशय को स्पष्ट शब्दों में रखने में सफल तो थी ही।

“प्रकाश का स्रोत यह बोध है मैत्रायणी कि समस्त ऐन्द्रिय विषयों का अयन, अन्तिम आश्रय या विलय स्थल हमारी अपनी इन्द्रियाँ हैं और इस तरह बाह्य जगत हमारे भीतर ही निमज्जित होता है। उन्होंने एक-एक का उदाहरण देते हुए कहना आरम्भ किया, “मैत्रेयी, जिस प्रकार समस्त जलों का अयन या स्रोत और विलय-स्थल समुद्र है, उसी प्रकार समस्त स्पर्शों का एक अयन हमारी त्वचा है, समस्त गन्धों का एक अयन नासिका है, समस्त रसों का एक अयन जिह्वा है, समस्त रूपों का एक अयन चक्षु है, समस्त शब्दों का एक अयन कान हैं, समस्त संकल्पों का एक अयन मन है, समस्त विद्याओं का एक अयन हृदय है, समस्त कार्यों का एक अयन हाथ हैं, समस्त आनन्दों का एक अयन उपस्थ है, समस्त विसर्गों का एक अयन गुदा है, समस्त मार्गों का एक अयन चरण हैं, उसी तरह समस्त वेदों का एक अयन वाणी है।

“परन्तु अपनी अन्तिम परिणति में हम स्वयं क्या हैं? समुद्र से अलग हुए, सूखकर डले में बदले हुए नमक ही तो। देखने में उस समुद्र-जल से अलग और भिन्न, पर यदि यह पृथकता का बोध लुप्त हो जाए, नमक का डला उसी जल में विलीन हो जाए तो क्या उसे जल से अलग पहचाना जा सकता है? समग्र जल में कहीं उसकी अनुपस्थिति हो सकती है। वह तो उस महत्तत्त्व का अंश बन गया और उसी में खो गया। प्रकाश का स्रोत यह बोध है, मैत्रेयी, कि देहबद्धता और इन्द्रियबद्धता से मुक्त होने पर व्यक्ति की अपनी स्थिति नहीं रह जाती। अपनी विशेष संज्ञा नहीं रह जाती।” यदि याज्ञवल्क्य हजार दो-हजार वर्ष बाद हुए होते तो सम्भव है वह ज्यों रल्यो आंटे लूण या जल में कुम्भ-कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी, फूटि कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कह्यो गियानी वाले उदाहरण से बात कर रहे होते।

याज्ञवल्क्य तत्त्वदर्शी थे और उनके लिए मृत्यु की कल्पना मुक्ति की कल्पना से भिन्न नहीं थी। उनको मुक्ति के लिए मरने की भी क्या आवश्यकता नहीं थी। मात्र अपने स्वरूप का ज्ञान ही पर्याप्त था। पर मैत्रेयी के लिए मृत्यु का एक भिन्न ही अर्थ था। समग्रतः विलीन हो जाने की यह कल्पना उसके लिए बहुत व्यग्र करने वाली थी। स्त्री की जाति। स्वभाव से यूँ भी दुर्बल। फिर पति ने जहाँ से बात आरम्भ की थी उसकी याद अलग से। मानने की बात दूसरी है, पर मरणोत्तर जीवन या अस्तित्व की आकांक्षा तो उन लोगों में भी होती ही है जो यह मानते हैं कि भौतिक जगत से अलग किसी ब्रह्म या ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है। अपने ढंग से यही बात तो ब्रह्मवादी भी कह रहे थे कि एक ही ब्रह्म या परम सत्ता से निकले और मृत्यु के बाद उसी में विलीन हो जाने वाले हैं सभी प्राणी। फर्क यह था कि वे अपने युग के अनुरूप एक भिन्न मुहावरे और एक भिन्न समझ से यह बात कर रहे थे। उन्होंने समस्त प्रकृति को ब्रह्ममय मानकर उसे एक भिन्न नाम दे दिया था और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, विकास और लय के विषय में एक भिन्न दृष्टि अपना रखी थी। हमने उसके ब्रह्म को भौतिक प्रपंच में ही समेट लिया और चेतना को उसी का एक विशेष विपाक मान लेते हैं।

जो भी हो, इतना तो सच है ही कि समग्रतः विलीन हो जाने की कल्पना ने मैत्रेयी को दुख-सुख सहने के बावजूद अपना विलग अस्तित्व बनाये रखने वाली आत्मा के जीवन-मरण के चक्र से भी अधिक विचलित कर दिया। वह बोली, “आप ने तो यह कहकर मुझे मोह में डाल दिया कि शरीर के अवसान के बाद व्यक्ति या प्राणी की कोई पृथक् सत्ता या संज्ञा ही नहीं रह जाती।”

जहाँ से उबारने के लिए याज्ञवल्क्य ने इतना सारा उपदेश और व्याख्यान दिया था, वह सारा व्यर्थ होता लगा। बोले, “अरी पगली, क्या मैं तेरे मन में मोह पैदा करने के लिए यह बात कह रहा था। यह तो मैं उस महत्तत्त्व ब्रह्म का विज्ञान कराने के लिए कह रहा था। जिस अमरता का उपदेश करने को तू कह रही थी वह यही तो है। मैं यही तो बता रहा था कि किसी इतर का स्पर्श करना, इतर को देखना, इतर को सूँघना, इतर को सुनना, इतर का मनन करना यह सब भेद बुद्धि के कारण होता है और जहाँ यह भेद बुद्धि समाप्त हो गयी, यह पृथकता मिट गयी, वहाँ क्या तेरा, क्या मेरा। तब तो सब कुछ आत्मामय हो गया। ब्रह्ममय हो गया। क्या आँख अपने को देख सकती है? क्या त्वचा अपना स्पर्श कर सकती है? क्या नाक अपने को सूँघ सकती है? क्या जिह्वा स्वयं अपना स्वाद ले सकती है? नहीं कर सकती न! तो फिर ब्रह्ममय हो जाने पर पृथकता का बोध कैसे रह जाएगा-यत्र वा अस्य सर्वं आत्म एव अभूत तत् केन कं जिघ्रेत् केन कं पश्येत् केन कं शृणुयात्, केन कं अभिवदेत्, केन कं मन्वीत्, तत् केन कं विजानीयात्। जिसके द्वारा सबको जाना जाता है उसे किसके द्वारा जानें, विज्ञाता को किसके द्वारा जानें? येन इदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात्, विज्ञातारं अरे केन विजानीयात्।”

मैत्रायणी को सचमुच लगा कि उसके सामने प्रकृति और जीव और ब्रह्म का सारा व्यापार स्पष्ट हो गया है। माया का दर्पण सामने से हट गया है।