मैथिली और हिन्दी / नागार्जुन

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स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात अब समूचे भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण का नया परिच्छेद आरंभ हो गया है। आर्थिक मुक्ति के लिए चलनेवाले संघर्षों में अब और तीव्रता आ गयी है। प्रदेशों की सीमाएं नये सिरे से निर्धारित करने के लिए जन-सामान्य आतुर हो उठा है। भाषा, अधिभाषा, उपभाषा और बोली अपने-अपने अंचलों में उभर आयी हैं। शासन, शिक्षा, उद्योग, वाणिज्य, मनोरंजन आदि किसी भी दशा में अपना सहज अधिकार वह छोड़ना नहीं चाहती।

पाटल के जनवरी (1954) अंक में भाई रामविलास का एक लेख (इसी शीर्षक से) प्रकाशित हुआ है। मैथिली कोई भाषा नहीं बल्कि एक बोली मात्रा है और हिंदी के महासमुद्र में सर्वथा विलीन हो जाने में ही उसका कल्याण है। समूचे लेख का यही तात्पर्य मैं समझा पाया हूं। वे कहते हैं, मिथिला की जनता सिमटकर विशाल हिंदी जनता की भागीरथी में शामिल हो रही है। अब बिहार की राजभाषा हिंदी है।

फ़िल्म, साहित्य, अख़बारों आदि के ज़रिये हिंदी का प्रचार और बढ़ रहा है। राजनीतिक आंदोलन मिथिला का अलगाव ख़त्म करके हिंदी के माध्यम से उसे बिहार के सार्वजनिक जीवन में खींच रहा है। हिंदी के मुक़ाबले में मैथिली का महत्व अब बोली का है और मिथिला से सामंती अवशेष ख़त्म होने पर, वहां उद्योग-धंधों की उन्नति होने पर, मैथिली का बोली मात्रा रहना और भी स्पष्ट हो जायेगा। मैथिली की जातीय भाषा हिंदी और भी दृढ़ता से प्रतिष्ठित होगी।

मैथिली की विशेषता:

बंधुवर रामविलास की इस धारणा को मैं उलटबांसी मानता हूं। मैथिली कोई मामूली बोली नहीं, वह एक प्राणवंत भाषा है। उसकी पाचन-शक्ति अद्भुत है। मगही के नब्बे प्रतिशत शब्दों को वह पचा गयी है, गोरखाली और संथाली के सैकड़ों शब्द अपनी सुविधा के अनुसार मैथिली ने ले लिये हैं।

संस्कृत-प्राकृत-पालि-अपभंरश से, अरबी-फ़ारसी-तुर्की से और अंग्रेज़ी से लिये हुए शब्दों की भारी तादाद हमारे यहां मौजूद है। सामंती अवशेष ख़त्म होने पर, उद्योग-धंधों की उन्नति होने पर मैथिली अधिकाधिक पुष्ट होती जायेगी। दूसरे प्रदेशों से आ-आकर बसनेवाले इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक इसके विकास में योग देंगे। यह मेरी कोई कपोल कल्पना नहीं हैमुजफ्फरपुर, बेगूसराय, भागलपुर, मुंगेर,देवघर, पूर्णिया, सहरसा, विराट नगर, राजविराज, जनकपुर, वीरगंज, सीतामढ़ी, दरभंगा आदि शहरों मेंआकर बस जानेवाले व्यापारियों, बुद्धिजीवियों और श्रमिकों की जीभ पर किस क़दर मैथिली हावी है, इसका सही अंदाज़ पाना हो तो आप इन इलाकों में तशरीफ़ लाइये। अभी (20 जनवरी) दरभंगे में एक मैथिली नाटक का अभिनय हुआ है। उसमें भी अमूल्यधन चक्रवर्त ने ‘अयाची मिश्र’ के पात्रा की बड़ी ही सफल एक्टिंग की थी। अमूल्य बाबू दरभंगे के प्रख्यात बंगाली चिकित्सक हैं, उनके संपूर्ण परिवार पर अब मैथिली का जादू चल गया है। इसी प्रकार सिंधी और पंजाबी भाइयों की जीभ पर मिथिला की वाणी अपना आसन जमा रही है। हड़ाही (दरभंगा जंक्शन) के एक टी-स्टाल पर मैं नाश्ता कर रहा था कि सहसा विशुद्ध मैथिली उच्चारण इन कानों से टकराये, ‘आर मधुर लेव?’ दूकानदार की तरफ़ देखकर मैंने सिंधी में उससे पूछा, ‘छा नालो आहै तहां जो?’ (क्या नाम है तुम्हारा?) अजनबी के मुंह से अपनी मातृभाषा सुनने का आह्याद दोनों ओर सम अनुपात में बढ़ गया। जहां ट्रेन से उतरकर मैं अपने गांव (तरौनी) को जाता हूं, उस स्टेशन का नाम है सकरी। मामूली बाज़ार,छोटा-सा जंक्शन, दस-एक घर होंगे मारवाड़ी बनियों के। बातचीत करते समय यह नहीं मालूम होगा कि वे राजस्थानी हैं, सेठ नगरमल साधारण व्यापारी हैं, बिना किसी दुराव या आग्रह के हमारी बातें होती हैं, धोखे से भी वह मिथिलावासी के प्रति हिंदी का सहारा नहीं लेते।

पहली सफलता:

मैथिली को अपने इलाक़ों में शासकीय प्रश्रय रत्ती-भर भी नहीं है। हिंदी बुरी तरह सवार है उसकी छाती पर। तथापि वह आगे बढ़ आयी है, अपना सहज अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं है वह। मिथिला के बुद्धिजीवी पिछले साठ वर्षों से अपनी मातृभाषा को मान्यता दिलाने के लिए शासक वर्ग से संघर्ष करते आ रहे हैं। पहली सफलता उन्हें तब मिली जब 1919 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने पोस्ट-ग्रेज़ुएट स्टडी के लिए मैथिली को स्वीकार कर लिया। पीछे काशी विश्वविद्यालय ने भी उसे मान्यता दी और पटना विश्वविद्यालय ने भी, और अब प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षण में भी मैथिली ने अपना साधारण स्थान प्राप्त कर लिया है... परंतु इससे क्या! हमें पग-पग पर दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। टेक्स्ट बुक-मंजूरी की धांधलियों से लेकर अध्ययन-अध्यापन विषयक अड़चनों तक बाधा-ही बाधा है। फिर भी अगर मैथिली पीछे हटने का नाम नहीं लेती तो इसमें हमारा क्या कसूर?

भूमिहीनों को भूमि मिलेगी और हाथों को काम मिलेंगे तो धरती की जीभ और अच्छी तरह मुखरित होगी. तब वह और अच्छी तरह मैथिली बोलेगी, राष्ट्र-भाषा के रूप में हिंदी उसे अब भी मान्य है और आगे भी मान्य होगी। हमारी मातृभाषा मैथिली अधिकाधिक पुष्ट होगी तो राष्ट्र-भाषा हिंदी को भी हमारे उस सांस्कृतिक-साहित्यिक भरण-पोषण का उचित लाभ मिलेगा ही। ब्रिटिश प्रभुओं ने संसार-भर में ढोल पीटा कि अंग्रेज़ी ही भारत की राष्ट्रभाषा है। अविकसित भाषाओं और पिछड़ी जातियों का अजायबघर है हिंदुस्तान, उनकी समग्र चेतना को प्रकट एवं परिष्कृत करने योग्य भाषा अंग्रेज़ी ही हो सकती है। अब आज बिहार की हमारी भाषा-समस्या को दिल्ली और पटना के कांग्रेसी महाप्रभु तथा तथाकथित ‘हिंदी प्रदेश’ के बुद्धिजीवी क्या उसी दृष्टि से देख नहीं रहे हैं! आप उल्लसित होकर कहते हैं. अब बिहार की राजभाषा हिंदी है। जी नहीं, यह आज का तथ्य हो सकता है। कल की हमारी राजभाषा क्या होगी, इसका फैसला मिथिला और भोजपुर के पृथ्वीपृत्रा करेंगे; मगध के किसान इसका फैसला करेंगे; संथाल-मुंडा-ओरांव आदि आदिवासी इसके फैसले में हिस्सा लेंगे। बिहार में एक ही वर्ग ऐसा है, जिसकी मातृभाषा हिंदुस्तानी या हिंदी है वह वर्ग है शहरों में रहनेवाले मुसलमानों का। कुछ हिंदुओं और ईसाइयों को भी इस वर्ग में शामिल कर लीजिये, फिर भी हिंदी-भाषियों की तादाद 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। इनमें से भी अधिकांश ऐसे हैं जो स्कूल-कॉलेज जाकर हिंदी सीख आये हैं। बाक़ी लोग अपना काम भोजपुरी, मैथिली आदि भाषाओं, बोलियों के माध्यम से करते हैं। समूचे बिहार को हिंदी भाषा-भाषी घोषित करके और उसे विशाल हिंदी-प्रदेश का एक अंग मानकर आचार्य धीरेंद्र वर्मा की भांति डॉक्टर रामविलास शर्मा भी हिंदी साम्राज्य के वकीलों की कतार में आ गये हैं। भाषा-समस्या के समाधान में धरती के बेटे (किसान) क्या रोल अदा करेंगे, आश्चर्य है कि रामविलासजी ने इस ओर अपने लेख में ज़रा भी ध्यान नहीं दिया।

फैसला कौन करेगा?:

किस इलाके की क्या भाषा होगी, इसका फ़ैसला आखि़र किस बात पर निर्भर करता है? शासक वर्ग की इच्छा पर? नहीं, बिलकुल नहीं। नौकरी-पेशा और बुद्धिजीवी वर्ग के फतवे पर? नहीं, बिलकुल नहीं। शहरों और औद्योगिक इलाकों में जा बसनेवाली श्रमिक जनता की मिश्रित बोलियों पर? नहीं, यहां हमें स्तालिन की बात याद रखनी चाहिए। सोवियत भूमि में भाषा-समस्या पर विवाद उठ खड़ा हुआ तो लोगों ने स्तालिन से राय मांगी। इस विषय में बहुत सारे प्रश्नों का समाधान करते हुए उन्होंने एक बात यह कही थी कि वाक् (एक औद्योगिक अंचल) के मज़दूरों की भाषा को आधार मानकर जार्जिया प्रदेश की भाषा-समस्या का कोई हल नहीं निकाला जा सकता। स्तालिन ने ही इस तथ्य पर ज़ोर दिया था कि राष्ट्रीयता की समस्या और भाषा की समस्या किसान हल करेगा, क्योंकि किसान ज़मीन से चिपका है और देश से संपृक्त है, वह देश का अधिवासी है। अर्थात् भाषा-समस्या के समाधान में श्रमिक किसान का अनुगमन करेगा।

आज मिथिला के इलाक़ों में हिंदी का क्या हाल है? हाल यह है कि स्कूल-कालेज में दस-दस वर्ष रद्दा लगा चुकने पर भी हमारी जीभ उस बेचारी का सम्मान नहीं कर पाती। ‘ने’ की नानी मर जाती है! और ‘को’, ‘के’, ‘की’ की कचूमर निकल आती है, ‘से’ की सांस फूलने लगती है! मैथिली के क्रियापद और विभक्तियां हिंदी वाक्यों पर हावी हो जाती हैं। बावजूद सरकारी सहायता की बैसाखी के राष्ट्रभाषा हमारे यहां जनता की जीभ पर चढ़ नहीं पाती। बिहार में गंगा के उत्तर हिंदी का जो रूप आज प्रचलित है, उसे यदि ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर लिया जाय तो तथाकथित हिंदी प्रदेश का सुधी समाज चीत्कार कर उठेगा, ‘बिहारी बुद्धू हमारी भाषा की रेड़ मारते हैं, उनकी जीभ का इलाज होना चाहिए!’...

अपना साहित्य और अपनी भाषा दूसरे इलाक़ों की जनता पर लादने की यह परंपरा हमारी और आपकी तो हो ही नहीं सकती, हां, साम्राज्यवादियों और पूंजीशाहों की परंपरा इस तरह की ज़रूर रही है अब भी ब्रिटिश, फ्रेंच और दूसरे उपनिवेशों में उनका यह सिलसिला जारी है। मिथिला के इलाक़ों में मुश्किल से एक प्रतिशत हिंदी वाले होंगे। हिंदीवालों से मेरा मतलब है ऐसे व्यक्तियों से जिनका पूरा परिवार शुद्ध हिंदी बोलता है। उनकी सुविधा-असुविधा और राष्ट्रभाषा के प्रति उनकी भावना का हमें पूरा ध्यान है। इसी प्रकार हमारी भूमि में भोजपुरी, मगही, बंगाली, नेपाली भाई भी हज़ारों की संख्या में मौजूद हैं। उनसे भी हमारी घनिष्ठता चली आयी है और भविष्य में तो हमारा यह भाईचारा अधिकाधिक दृढ़ होता जायेगा। पृथक् मिथिला प्रदेश की मांग हम अकेले नहीं हासिल कर सकेंगे। मिथिला के भूखंड में बसनेवाले एक-एक व्यक्ति का सहयोग, एक-एक वर्ग की सहानुभूति इसके लिए हमें अपेक्षित होगी! बिना उनकी सहायता के हम अपनी एक भी मांग शासक-वर्ग से नहीं मनवा सकते।

मैथिली भी हिंदी भी:

मेरी राय में मिथिला-प्रदेश की प्रादेशिक भाषा के तौर पर मैथिली भी मान्यता प्राप्त करेगी और हिंदी भी। मध्य प्रदेश में मराठी और हिंदी दोनों भाषाएं प्रादेशिक भाषाओं के तौर पर मान्य हैं। मद्रास और बंबई प्रदेशों में इसी प्रकार एकाधिक भाषाओं को प्रादेशिक मान्यता प्राप्त है।

मिथिला के किसी अधिवासी पर उसकी इच्छा के विरुद्ध हम मैथिली नहीं लादेंगे। डॉक्टर श्री जयकांत मिश्र के सीमा-विस्तार की अवांछनीय मनोवृत्ति का समर्थन हम कर ही नहीं सकते। डॉ. श्री लक्ष्मण झा, डॉ. सुभद्र झा और म.म. डॉ. श्री उमेश मिश्र का हिंदी विरोधी रुख़ मिथिला निवासियों के लिए सर्वथा घातक है। चाहे कैसे भी हो, शुद्ध या भ्रष्ट किसी भी तरह की हो, मगर हिंदी मिथिला के अंदर घुस अवश्य आयी है। क्या हर्ज़ है, अगर इस सच्चाई को हम खुले तौर पर स्वीकार कर लें? मैथिली की मौजूदा शब्द-शक्ति से नितांत अपरिचित व्यक्ति का उसे बोली मात्रा कह डालना जिस तरह कोरी बकवास है, उसी तरह मिथिला के अंदर फैलती हुई हिंदी के अस्तित्व को बिलकुल न मानना दिन-दहाड़े मक्खी निगलना हुआ।

यह भारी शुभ लक्षण है कि मिथिला के कवि और कथाकार ब्राह्मणों और मंशियों की उस पंडिताऊ मैथिली को छोड़कर बहुजन समाज की सरल सहज मैथिली की ओर मुड़ आये हैं। नाटकों और उपन्यासों में अब हमें मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, सहरसा, पूर्णिया और सीतामढ़ी आदि की आंचलिक बोलियों की झलक मिलने लगी है। लोरिक, सल्हेस, दीनाभद्री आदि वीरों की लंबी गाथाएं हमारे सांस्कृतिक समारोहों का विशिष्ट अंग बन गयी हैं। सामंती दबाव जहां कहीं कम हुआ, वहां मैथिली के माध्यम से लोक प्रतिभा निखर आयी है। पिछले तीस वर्षों में मौलिक और अनूदित उपन्यासों-गल्प संग्रहों का खूब प्रकाशन हुआ है। ढाई-तीन सौ के लगभग उनकी संख्या होगी। कुछ ऐसे भी उपन्यास हैं जिनके तीन-तीन, चार-चार संस्करण हो चुके हैं। अनेक गल्पों और कविताओं के अंग्रेज़ी, हिंदी मराठी, गुजराती रूपांतर हुए हैं। एक दर्जन व्याकरण-ग्रंथ और तीन कोश हैं हमारे। प्रकाशित पुस्तकों की संख्या हज़ारों के लगभग पहुंच गयी है। कविताएं एक ओर पुरानी शैली में तैयार हो रही हैं तो दूसरी ओर अद्यतन टेकनिक में भी।

यह विशेषता:

हमारे क्रियापद अपने हैं। शब्द-भंडार अपना है। प्रतिवेशी भाषाओं और बोलियों से हमारी भाषा का आदान-प्रदान चलता रहता है, आगे भी चलता रहेगा। उत्तर प्रदेश की जनता की भाषा आज हिंदी है, कल अपभ्रंश थी, परसों शौरसेनी थी। मिथिला के साहित्यकार मैथिली का अपना कोटा पूरा करते हुए हिंदी में भी लिखते हैं, अपभ्रंश में भी लिखते हैं, शौरसेनी में भी। ब्रज और अवधी ही क्यों, हमारे पूर्वजोंने बंगला भी लिखी है और उर्दू-फ़ारसी भी। आज भी मिथिला में सैकड़ों परिवार ऐसे हैं, जिनमें कृतिदास की रामायण, काशीरामदास के महाभारत का पारायण चलता है। उसी प्रकार तुलसीदास की रामायण और सूर एवं मीरा के पद यत्रा-तत्रा प्रचलित हैं। आज भी मिथिला में बंगला किताबों और अख़बारों के ग़ैर-बंगाली ग्राहक मौजूद हैं, अंग्रेज़ी का तो खैर अति-शिक्षितों में बोलबाला है ही। हिंदी हमारी चेतना के लिए मां नहीं, मलिकाइन का पार्ट अदा कर रही है। उसे शासक वर्ग और धनिक वर्ग की ही सुविधा-असुविधा का ज़्यादा ख़्याल है। प्रलोभन, भय और फूट तीनों तरीक़े वह काम में लाती है, ताकि मैथिली पूरी तरह अपने को अधिस्वामिनी के समक्ष बिछा दे।

हम यह नहीं कहते कि हिंदी और मैथिली के बीच उतनी दूरी है, जितनी कि हिंदी और तमिल के बीच। किंतु ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी और बुंदेलखंडी की अपेक्षा हमारी मैथिली हिंदी से कहीं अधिक दूर पड़ती है। मागधी अपभ्रंश से पांच भाषाएं निकली हैंमगही, मैथिली, बंगला, उड़िया और असमिया। कई कारणों से मगही का विकास रुक गया। साहित्य के नाम पर उसके पास आज सिवाय ग्राम-गीतों, लोक-कथाओं और लोकोक्तियों के, कुछ रह ही नहीं गया। मगही का प्राचीनतम रूप सरहपा आदि सिद्धों की पदावली में अब भी सुरक्षित है। प्राचीन साहित्य की जैसी शानदार विरासत अपने पूर्वजों से हमें मिली है, वैसी मगही परिवार की उक्त किसी अन्य भाषा में नहीं देखी गयी।


अभिव्यक्ति की सामर्थ्य के हिसाब से देखें तो आज की मैथिली बंगला से तिल-भर भी पीछे नहीं है; हिंदी से जौ-भर आगे है वह। हां, सच मानिये! मौक़ा नहीं है इस वक़्त कि पद्य और गद्य के विविध टुकड़े उद्धृत करके आपसे अपना यह दावा मनवा लूं...

फिर भी नमूने के तौर पर दो-चार टुकड़े हाज़िर हैं:

(1) ई की कैल, उठा क ऽ ल ऽ आनल कमलक कोढ़ी लए ढेङ् कोकनल बेटी के बेचलहुं मडुआक दोबर बूढ़ बकलेल सं भरलहुं कोबर जनमितहि मारि दितिअई नोन चटा क ऽ कुहरए ने पड़ितइ घेंट कटा क ऽ (बुढ़वर)

(2) तोड़ि कें हरिसिंह देवक डांड़ काल्हि यदि बउआ बिआहथि मेम महाश्वेता बहुरिया चनमाड़ पर ओ आबि बिहंुसि लगती गोसाउनि कें गोड़ त ऽ अहां की छाड़ि कं ई माटि पड़ाएब, चल जैब मोरङ दीस? (द्वंद)

(3) एहि क्रम सं निरंतर परिवर्तन मान प्रगतिशील समाज जहिना जुएल बंसबिट्टीक दमगर ओधि मे सं फेर कोपड़ फेर पोरगर बांस फेर बांसक झमटगरहा झोंझ। (परम सत्य) 196 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011

(4) भाए भातिजक सारक साढू क लेल अपनहि चढ़िकं तोड़थि झोंझक बेल धन्न भाग जे चानि ने छइन उघाड़ नहि तं कोना पचबितथि सऊंस पहाड़। (देश देशाष्टक)

(5) धिपल लगइछ ऊपर पानि बोहिआइत अछि अठगामा पाड़ा पोखरि में। (चित्रा)

(6) आन्हर जिनगी सेहंताक ठेड़ा सं थाहए बाट घाट आंतर पांतर कें। (बेदेही)

(7) तकलक बुढ़वा हमरा दिश आंखि निराड़िक ऽ बाजल मुद्रा किछु नहि। ओकरा दिश सं अधवएसू गोर्खा सएह टिपलक। बोकवा अनाड़ी नउआ सं कानी खतबओने रहए। छारल कपार, बेश पुष्ट सं भउहं। नाकक पूड़ा ततेटा जे दशमीक दुर्गाक सिंह के मने मातु क ऽ दितइन-बड्ड बेश! से ओ कृतमुख भेल। बाजल‘ए कुस नेई समस्ता!’ ‘हें! बुड़ि बानर नहिं तन!’ ‘केराक घउर, एंह’, हमरा दिस मुंह क ऽ क ऽ मुसकी मारइत टुनाई कहलइन‘मामा, की कहैए सुनइ छिअइ? ‘कुस’ आ ‘समस्ता’ अर्थात् कश आ छिन्नमस्ता...!’ हंसी त अपनहुं थोड़ नहि लागल मुदा तकरा जतलहुं, कहलियनि टुनाइ कें‘जिनगी भरि होइ छहु जे नबालके रहबह? षटपद-अष्टपद भ ऽ गेलाक आ तइयो...’ (बूढ़ बोको)

नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 197

(8) कय गोट पंद्रह-सोलह बरखक बोनिहारिन सभ जे हमरा लोकनिक काज पर जाइत छलि, हारी आ चानी क गहना, फूल आ पात माथ में, डांड़ में खोसने। तेहन ने बगये बनओने छलि जे चीन्हहु मे नहि आबए। नाच देखल -एक दिश दश गोटे पुरुख ठाढ़, दोसर दिश दश गोटे माउगि। ढोल आ ढाक नेन चारि गोटे एक कात में चोट पर चोट दइत। एक बेरि पुरुख सभ गावए, एक बेरि माउगि सभ। दूहू दिन सं ओ सभ ताल पर पएर मारइत बीच में आवि ठेहुन के ठेहुन सटाक फेर पांछा हटि जाये। (एकादशी महात्म्य)

(9) इएह कनि थिकी जे एक दिन चारि टा पाई मङलिअइन त लुलआ लेलइथ। इएह मुली दाई छइथ जे दू टा कॉच मेरचाइ तोड़लिअइ त हाथ मचोड़ि कैं छीन लेलइथ, मुदा अइ मुसराधार बरखा मे दोकानक काज पड़लइन त केहन काका आ बाबा बनबए लागलइथ (बाल गोबिंद भगत)

इनमें से एक भी उदाहरण प्राचीन या मध्यकालीन मैथिली साहित्य से नहीं है, 1930 ई. से इधर के सर्वथा अर्वाचीन साहित्य से हमने यहां उदाहरण दिये हैंइन्हें हमने सहज रूप में जहां-तहां से उठा लिया है। इनमें से किसी को भी आप ले लीजिये और अनुवाद कीजिये उसका हिंदी या उर्दू में, देखूं भला! जिस तरह विद्यापति के पदों को आप नहीं पचा सके, उसी तरह मैथिली के आधुनिक कवियों-कथाकारों को भी आप आत्मसात् नहीं कर पायेंगे। अभिव्यक्ति की, वाक्य-विन्यास की, उच्चारण के क्रमों की, ध्वनियों और स्वर-संघातों की हमारी अपनी विशेषताएं हैं। उन्हें न संस्कृत हजम कर सकी, न फ़ारसी अंग्रेज़ी के भी बूते का यह काम नहीं रहा। मैथिली को पचा लेने की सामर्थ्य हिंदी या भारत की किसी भी अन्य भाषा में नहीं है।

कहते हैं, भविष्य में समग्र संसार की एक ही भाषा होगी। हमारे इस महादेश की प्रादेशिक भाषाएं अपना-अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व खो बैठेंगी और सुविकसित भारतीयों की वह विशाल बिरादरी एक ही भाषा बोलेगी, तब देश-देश और द्वीप-द्वीप की भाषाएं एक हो जायेंगी और अखिल विश्व अभिव्यक्ति के लिए समान शब्दावलियों का सहारा लेगा। भाषा एक होगी, विचार एक होंगे, मानव-समुदाय एक होगा।

तो क्या हम अपनी मैथिली, भोजपुरी, संथाली आदि भाषाओं एवं बोलियों को तिलांजलि दे दें, आज ही? और ऐसा करना क्या हमारे अपने वश की बात है?

पिछले पचीस वर्षों से मैं अपनी मातृभाषा (मैथिली) में लिखता आ रहा हूं। हिंदी पीछे सीखी है। प्रकाशन संबंधी असुविधाओं के कारण अपनी क्षमता का दशांश भी शायद मैथिली को नहीं दे पाता हूं। हिंदी संसार में गोष्ठियों, सभा और सम्मेलनों के अवसर पर यदा-कदा मित्रों का आग्रह होता है कि अपनी मैथिली रचना भी सुनाऊं। श्रोतागण मूल मैथिली नहीं समझते हैं और मुझे ‘हिंदी प्रदेश’ (हिंदी भाषी अंचलों) में अपनी मैथिली रचनाएं पंक्तिशः अनूदित करके ही सुनानी होती हैं। ब्रज, अवध, भोजपुर के इलाकों में मैथिली नहीं समझते हैं लोग। दिल्ली, लखनऊ और इलाहाबाद-बनारस के साथी साहित्यकार इसी कारण मेरी मैथिली रचनाओं का मूल्यांकन नहीं कर पाये हैं अब तक। मैथिली चाहे प्राचीन हो, चाहे अर्वाचीन, हिंदीवालों के लिए वह आसान नहीं है। बंगला और पंजाबी की रचनाओं की रसोपलब्धि के लिए जिस प्रकार उन्हें अनुवाद का सहारा लेना पड़ता है, उसी प्रकार मैथिली साहित्य के भी आस्वाद के लिए उनको अनुवादकों की शरण में जाना होगा। अपना प्रख्यात उपन्यास ‘बलचनमा’ मूलतः मैंने मैथिली में ही लिखा था। प्रकाशन की सुविधा हुई, अतः उसका हिंदी रूपांतर ही लोगों के सामने पहले आ गया।

मौलिक ‘बलचनमा’ भी इस वर्ष प्रकाशित होगा।

किसान या खेतिहर श्रमिक जब गांव छोड़कर बाहर निकल जाता है, और औद्योगिक अंचलों में रहने लगता है तो उस पर बाहरी भाषाओं और बोलियों का असर पड़ता है; अपनी भूमि के शब्दों की स्मृति धुंधली पड़ने लगती है। बच्चों पर तो यह प्रभाव और भी शीघ्रता से पड़ता है। बलचनमा और उसके लड़के पर ‘मैथिली भूलने’ या फिर ‘फरफर हिंदी बोलने’ का यही हेतु है। ‘नयी पौध’ (उपन्यास) का दिगंबर अपनी बहन को साहित्य-सम्मेलन (प्रयाग) की प्रथमा के लिए तैयार करता है... ‘रतिनाथ की चाची’ (उपन्यास) में प्रभाती के तौर पर आप किसी को ब्रजभाषा के पद गुनगुनाते पाते हैं... और इन्हीं कारणों से डॉक्टर रामविलास इस नतीजे पर पहुंचे कि मिथिला पर हिंदी हावी हो रही है, मैथिली का अंत निकट है! अर्थात् जब मैथिली मरणासन्न है ही तो क्यों न हुमचकर एक लात उस बुढ़िया की पीठ पर तरुणी हिंदी लगाती है! धन्य है इस समझदारी को!

अब धातुओं की छोटी-सी एक सूची यहां दी जा रही है। हिंदी के किसी कोष में आप इन धातुओं को नहीं पाइयेगा- अउनाएब, अगधाएब, अगराएब, अजबाड़ब, अड़ियातब, अकानब, अभड़ब, अमेठब, इतराएब, एतिआएब, उड़ाहब, उढ़ड़ब, उधिआएब, उधेसब, उसरगब, उसरब, ओरिआएब, ओलव, ओसरब, ओहाएब, अहिसब, कन्हुआएब, कुकुआएब, कूथब, कूहब, खऊंझाएब, खखोरब, खिबोआएब, खेपब, खेहारब, खोंचाड़ब, गुदानब, गूहब, गोंतब, धोकब, चकुआएब,चकनब, चुमकब, चांछब, चउपेतब, चोभब, छरपब, छाड़ब, छिछिआएब, छिड़िआएब, छीपब, छुछुआएब, छोलब, छोपब, जंताएब, जूमब, जोएब, झखड़ब, झझकब, झमकब, झकरब, झीकब, झुझुऐब, टनकब, टभकब, टीपव, रोनव, ठकुआएव, ठुनकव, ठेहिआएव, डहकब, डेड़ाएव, डेराएव, ढहकब, ढाहव, ढेउरव, ढेकरव, तवब, तमसाएव, तोपव, धकड़व, थापव, थुकरव, थोपव, ढकचव, दशरव, दउकव, दमसव, दमाएव, दूसब, दोमव, धपाएव, धाड़व, धीपव, धूपव, धोखड़व, नछोड़व, निंघटव, निछड़व, निहुड़व, नेआरव, पइसव, पउख, पतिआएव, पखारव, पसाएव, परतारव, परिछव, पचकव, फटकव, फलकब, फनकव, फकड़व, फिफिआएव, बउआएव, बउंसव, बधुआएब, बूझब, बमकब, बकरव, बहटारव, बिदोड़व, बिधुआएव, बिलख, बिलहव, बिसुकव, बूकब,बूलव, बेसाहव, भकचव, भङठव, भाख, भसकव, भभकव, भसिआब, भूतिआएव, भउलाएव, भकब, भजरब, मन्हुआएव, माखव, मितिआएव, मोकब, रितिआएव, रेचाएव, लतरव, लाड़व, लुघकब, लोटछव, ससरव, ससारव, सहिन्आएव, सरकव, सिसोहव, सिहाएव, सुटकव, सुढ़िआएब, सोन्हाएव, हउआएव, हउंकव, हवकब, हसोथव, हुथब, हुरवेटव, हुलकव, हुरब, हेड़ाएव, हेलव।

मैथिली का व्याकरण हिंदी के व्याकरण से भिन्न है। उसकी अपनी बहुतेरी विशेषताएं हैं। धातुओं के भूतकाल की विलक्षणता के तौर पर एक उदाहरण देखिये:

मारलिअइन मैंने उन (बड़े) को मारा,

मारलहुन तुम या तूने उन (बड़े) को मारा,

मारलथिन उन (बडे़) ने उस (छोटे) या उन (बड़े) को मारा,

मारलकइन उस (छोटे) ने उन (बड़े) को मारा,

मारलथुन उन (बड़े) तुम्हें या तुझे मारा,

मारलह तुमने मुझे मारा,

मारलहक तुमने उस (छोटे) या उन (बड़े) को मारा,

मारलएं तू (छोटे) ने उस (छोटे) को मारा,

मारलही तू (छोटे) ने उस (छोटे) को मारा,

हिंदी में सिर्फ़ ‘मारा’ कहने से काम नहीं चलेगा। वहां ‘मारा’ के साथ हमें कर्ता और कर्म को साफ़ शब्दों में रखना पड़ेगा। भारत की किस भाषा में इस प्रकार की विशेषता मौजूद है, भाषा विज्ञान के धुरंधर लोग यह बताने की कृपा करें। बिना कर्ता के और बिना कर्म के ही, बिना लिंग के और बिना वचन के ही मैथिली का क्रियापद वाक्यबोध करा देता है। यों भी हमारा मैथिली व्याकरण पुलिंग-स्त्राीलिंग या एकवचन, बहुवचन के झंझटों से काफ़ी दूर पड़ता है। मानता हूं, विशेषताएं थोड़ी-बहुत मात्रा में प्रत्येक भाषा और बोली में विद्यमान हैं। ऐसा न मानना परले दर्जे की बेवकूफी होगी। हमारी पड़ोसी भाषा भोजपुरी की भी अपनी कई खूबियां हैं। बंगला, मराठी, तमिल, तेलुगु... सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। हमें क्या अधिकार है कि हम किसी को दबायें या किसी की छाती पर चढ़ बैठें? तथाकथित ‘हिंद प्रदेश’ की एकमात्रा ‘जातिय भाषा’ के आतुर समर्थको! सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता के जोश में अन्यान्य भाषाओं एवं बोलियों के स्वाभाविक विकास की ओर से बे-ख़बर साथियों! जन सामान्य की प्राकृत-जीभ पर जटिल-क्लिष्ट हिंदी-उर्दू शब्दावलियों की कीलें ठोकनेवाले बुजुर्गों! आप सभी से हमारा एक निवेदन है आप लोग हिंदी प्रचार आंदोलन को शासकीय स्वर्ण-चंगुल से मुक्त कर लीजिये। कोटिपतियों के कृपा-कटाक्ष से छुटकारा पाने में उसकी मदद कीजिये। उसे सहज-स्वस्थ जनवादी तरीक़े से अपना गौरवपूर्ण आसन हासिल करने दीजिये। भारत की प्रधानतम भाषा के रूप में हिंदी का विकास अवश्यंभावी है। पड़ोसियों से विचारों के आदान-प्रदान की सुविधा के लिए मनन-चिंतन एवं व्यवहार की सार्वभौम उपयोगिता के लिए हिंदी से बढ़िया भला और कौन-सा माध्यम होगा, हम भारतीयों के हित में? आसान हिंदी इन कानों को खूब रुचती है; आज न सही, कल, कल न सही परसों वह ज़रूर मिथिला और भोजपुरी की जीभ पर सुरुचिपूर्वक थिरकेगी। कोटि-कोटि जीभोंवाली हमारी यह धरती दो-दो क्या, दस-दस भाषाएं सफ़ाई से बोल लेगी... वह दिन दूर नहीं है हजूर, देख लीजियेगा। लेकिन दुहाई सरकार की! अभी उतावले मत होइए... मिर्च मत रगड़िये इन मासूम जीभों पर!

हम तो ठहरे बेहया, दिमाग़ दुरुस्त नहीं है! चलते-चलते आपकी खि़दमत में प्राचीन अपभ्रंश की चंद सतरें पेश कर रहा हूं:

बालचंद बिज्जावइ भासा दुहु नइ लग्गइ दुज्जण हासा ओ परमेसर हर सिर सोहइ ई णिच्चय नागर मन मोहइ। (आर्यार्ववर्त्तर्,, 14 एवं 21 फरवरी 1954)