मैथिली कथा-यात्रा / देवशंकर नवीन

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कहानी कहने की प्रथा हमारे यहाँ उतनी ही पुरानी है, जितनी मानव-सभ्यता, जितनी हमारी संस्कृति। यह प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही प्रगतिशील रही है और समय-समय पर अपने आन्तरिक गुण में युग सापेक्ष परिवर्तन लाती रही है। भारतीय साहित्य में तो वैदिक काल से ही कहानी का मूल स्वरूप प्राप्त हो जाता है। वेद उपनिषदादि में अनेक आख्यान, उपाख्यान प्राप्त होते हैं, पौराणिक साहित्य में भी कहानी का सम्यक विकास परिलक्षित होता है। अर्थात् भारतीय परम्परा में कहानी-साहित्य कोई नव उद्भूत विधा नहीं है, प्रारम्भ से चली आ रही आख्यायिका अथवा लोकगाथा की दीर्घकालीन विकास-परम्परा की परिणति है। किन्तु मौजूदा कथा-साहित्य का जैसा रूप-विधान है, इसमें आधुनिकता का जैसा स्वरूप दिख रहा है, वह इस पौराणिक आख्यान अथवा लोकगाथा की अपेक्षा असंख्य वर्ष के विकास के परिणाम, समकालीन समाज में जीवनयापन करते आम नागरिक के आत्मसंघर्ष और मनोवेग की स्थिति, तथा देश-देशान्तर की बढ़ती निकटता का फल भी माना जाना चाहिए।

एजरा पाउण्ड का कथन है--A Great age of literature is perhaps always a great age of translation. अर्थात् किसी साहित्य का महान युग, अनुवाद-युग होता है। मैथिली का कथा-साहित्य, इसका अपवाद नहीं है। प्रारम्भ में यहाँ पौराणिक कहानियों का भावानुवाद होता था। स्पष्ट है कि इसका इतिहास बहुत पुराना नहीं है।

मैथिली में कहने-सुनने की प्रक्रिया में लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी कहानी सीखते रहे, समय-परिवेश के अनुसार कहने की क्षमता में कुछ जुटता गया, कुछ घटता गया। कथावाचक प्रायः निरक्षर होते थे, लिखने की क्षमता उन्हें नहीं रहती थी। फलस्वरूप अधिकांश कहानी, किस्सागो के साथ ही चली गई, और हमारा कथा-साहित्य, इस कारण बहुत देर से विकसित हुआ। लोक-धारा के एक विशाल खण्ड की रक्षा हम नहीं कर पाए।

सचाई है कि कथा-लेखन की मौलिकता हमने अनुवाद से ही सीखी। संस्कृत-साहित्य की कहानी-उपकहानी का अनुवाद हुआ--यह भी सत्य है। संस्कृत-साहित्य में इन कहानियों का उद्देश्य उपदेश देना होता था। धर्मशास्त्र के नीति-वाक्य से पाठक अथवा श्रोता को अविचलित रखने के लिए उसमें मनोरंजनात्मक तत्त्व भरे जाते थे।

किन्तु, आज कहानी का जैसा स्वरूप हम देखते हैं, उसे न केवल पौराणिक साहित्य की देन कहा जाएगा, न ही विदेशी साहित्य का प्रभाव। कथा-साहित्य के वर्तमान स्वरूप का श्रेय चार स्रोतों को जाता है—संस्कृत साहित्य, फारसी साहित्य, लोक साहित्य और पाश्चात्य साहित्य। संस्कृत साहित्य से प्राप्त सामग्री हमारी पुरानी संस्कृति और समकालीन सामाजिक परिस्थितियों की झाँकी प्रस्तुत करती है। धार्मिक और लौकिक होने के बावजूद इसमें उद्देश्यगत एकता और जीवन के प्रति सन्तुलित दृष्टिकोण मिलता है। दार्शनिकता-प्रधान होने के कारण फारसी-साहित्य ने विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान किया। मध्यकालीन भारत की सम्पदा के रूप में शौर्यपूर्ण और रोमानी कहानी-सूत्र हमें लोक-साहित्य से प्राप्त हुआ। किन्तु, इन तीनों स्रोतों से उपलब्ध कहानियों का वर्ण्‍य-विषय पुराना था। इसलिए आधुनिक भारत की आवश्यकता और भावनाओं के अनुकूल कहानी नहीं बन पाती थी। इसमें मिथिला की वर्तमान रीति-कुरीति, ईर्ष्‍या-द्वेष, मान-अपमान, वर्ग-संघर्ष, शोषण, अनाचार इत्यादि का चित्रण दुर्लभ था। फलतः कहानी में जन-जीवन का चित्रण मैथिली कहानीकार के आधुनिक भावबोध और समकालीन समाज के तत्त्वबोध के कारण आया।

साहित्य में दो तरह के मूल्य होते हैं--वर्तमान मूल्य और शाश्वत मूल्य। समकालीन मानव-जीवन से साहित्य के तादात्म्य को वर्तमान मूल्य; और चिरकाल तक उस साहित्य के चित्रण-वर्णन की उपयोगिता को शाश्वत मूल्य के रूप में स्वीकारते हैं। साहित्य का वर्तमान मूल्य ही उसकी समकालीनता का द्योतक है। 'समकालीनता' शब्द विशेष रूप से विचारणीय है। जो साहित्य समकालीन नहीं होगा अर्थात् जिसका वर्तमान मूल्य उपेक्षणीय होगा, वह शाश्वत मूल्य की वस्तु कभी नहीं हो सकता। साहित्य में समकालीनता का अर्थ तत्कालीन समाज के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के चित्रांकन के साथ सामाजिक जीवन के यथार्थ को अंकित करना है। युग-परिवर्तन के साथ-साथ मानव-जीवन की स्थिति-परिस्थिति, मनुष्य की सभ्यता-संस्कृति में परिष्कार, परिवर्तन होता रहता है, इसलिए जीवन-प्रक्रिया को अथवा रहन-सहन को अथवा सभ्यता-संस्कृति को मनुष्य भूल नहीं जाता है, वह थाती किसी न किसी रूप में, कुछ न कुछ अंश में सुरक्षित रहती है। अतएव, यह बात सर्वथा मान्य है कि समकालीन साहित्य शाश्वत-मूल्य की दृष्टि से भी उत्तम होती है। और, साहित्य की उत्कृष्टता में यह आवश्यक है कि वह समकालीन हो।

साहित्यकार अत्यन्त भावुक और सम्वेदनशील प्राणी होता है। वह जिस परिवेश में जीता है, उसका कटु-मधु अनुभव उसे भली-भाँति प्रभावित करता है। समाज में विद्यमान एक-एक उचित अभिक्रिया उसके अन्तस् को सुख देता है और एक-एक अनुचित, अवैध, अवांछित अभिक्रिया, अनाचार-अत्याचार, शोषकीय प्रवृत्ति उसके मन-प्राण को व्यथित करता है। रचनाकार की यह सम्वेदनशीलता उसके अन्तस् में एक तरह की रसायनिक प्रक्रिया प्रारम्भ करती है। अव्यवस्था और विसंगति के इस प्रत्यक्ष-दर्शन से रचनाकार के मन में उस घटना के भोक्ता-पुरुष का जन्म होता है, जो उस घटना को भोगता है, उस भोक्ता से रचनाकार की अन्तरंगता स्थापित होती है। उस परिवेश-परिस्थिति और उसके उद्देश्य-परिणामादि पर सम्यक विचार कर लेने के बाद रचनाकार के मस्तिष्क में अनुभूति का एक आधार बनता है, भाषा और शिल्प का स्पर्श पाकर अनुभूति का वही विवरण कहानी बन जाता है। 'क्या कहें', 'कैसे कहें'--यह इसी प्रक्रिया में तय होता है। 'क्या कहें', यह वस्तु है, जिसमें रचनाकार का उद्देश्य निहित रहता है; और 'कैसे कहें', यह शिल्प है। कहानी के समकालीन स्वरूप में 'शिल्प' विशेष महत्त्व रखता है, कारण, रचनाकार के उद्देश्य की सफलता इसी कौशल पर आश्रित होती है।

मैथिली में मौलिक कहानी बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रारम्भ होकर फटाफट नए-नए आयाम ग्रहण करती गई। चूँकि प्रारम्भ में उपन्यास और कहानी अलग-अलग विधा नहीं मानी जाती थी। इसलिए पुलकित मिश्र नाम से ख्यात प्रसिद्ध कहानीकार जीवनाथ मिश्र की 'मोहिनी मोहन'(1907-08), तुलापति सिंह की 'मदनराज चरित'(1909), यदुनाथ झा 'यदुवर' की 'श्रीशंकर विवाह'(1915), जनार्दन झा 'जनसीदन' की 'ताराक वैधव्य'(1917), रासबिहारी लाल दास की 'सुमति'(1918), काली कुमार दास की 'भीषण-अन्याय'(1923), कुमार गंगानन्द सिंह की 'मनुष्यक मोल'(1924), श्रीकृष्ण ठाकुर की 'चन्द्रप्रभा' (1939) आदि को मैथिली की प्रारम्भिक कहानी की कोटि में गिना जाता था।

सन् 1921 में अनूप मिश्र ने अपने 'नारद-विवाह' काव्य की भूमिका में सर्वप्रथम उपन्यास एवं कहानी को अलग-अलग स्वतन्त्र विधा के रूप में रखा, स्पष्टतः 'श्रीशंकर विवाह', 'ताराक वैधव्य', 'भीषण-अन्याय' तथा 'मनुष्यक मोल' को मैथिली की प्रारम्भिक मौलिक कहानी स्वीकार किया गया। किन्तु 'मिथिला मोद'(1915) में प्रकाशित कहानी 'श्रीशंकर विवाह' के अन्त में दी गई सूचना के आधार पर इस कहानी को अनूदित मानकर रामदेव झा ने 'ताराक वैधव्य' को मैथिली की पहली मौलिक कहानी माना। रामदेव झा के तर्क-समृद्ध इस स्थापना को तत्काल सत्य मान लिया जाना चाहिए। कम से कम तब तक तो निश्चय ही, जब तक इस तथ्य का कोई तर्कसम्मत खण्डन नहीं होता है। अर्थात्, सौ से भी कम वर्षों की अवधि में मैथिली कहानी आज तक की स्थिति में पहुँची है।

विचारकों द्वारा दी गई सूचना के अनुसार मैथिली में मौलिक कहानी लेखन के इस संक्षिप्त इहिास के बाद लगभग एक-सवा सौ नए-पुराने कहानीकारों का योगदान इस विधा में आज तक हुआ है, जिसमें अभी भी पचास के करीब कहानीकार लगातार सृजनरत हैं, और कुछ कहानीकार तो बहुत ठोस कहानियाँ लिख रहे हैं; इन लोगों द्वारा मैथिली में वैसी कहानियाँ लिखी जा रही हैं, जिसके बल पर मैथिली कहानी, विश्व की किसी भाषा से कन्धा मिला सकती है। पूरे सृजन अन्तराल के सन्दर्भ में देखें तो आज मैथिली साहित्य किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा-साहित्य के इतिहास से पीछे नहीं है। मौलिक कहानी लेखन का इतिहास अन्य कई भारतीय भाषाओं में कुछेक वर्षों के अन्तर से लगभग यही है। किन्तु विकास क्रम को देखते हुए स्थिति थोड़ी भिन्न लगती है।

प्रकाशन की अवधि से ही किसी कहानी की समकालीनता तय होती है। मैथिली कथा-साहित्य की समकालीनता पर विचार करते समय प्रकाशन की असुविधा भी आड़े आती रही है। व्यावसायिक प्रकाशन संस्थान अथवा व्यावसायिक पत्रिकाओं के अभाव के कारण मैथिली में विकराल समस्या रही है, कई बार तो किसी-किसी कहानीकार की पाँच-पाँच दस-दस वर्ष पुरानी अनुभूति प्रकाशित होती रही है, या कि नहीं भी होती है। इस बात की पूरी सम्भावना बनी रहती है कि कहानीकार की आज की अनुभूति, आज का कथ्य, आज का शिल्प, यदि दुर्योग हुआ, तो बीस-बाइस वर्ष बाद हमारे सामने आए।

अपने कहानी-संग्रह 'एकटा-तेसर' के वक्तव्य में राजमोहन झा कहते हैं, 'यह मैथिली अकादेमी की कृपा ही है कि उन्नीस सौ चौरासी में भी आकर उन्नीस सौ सड़सठ से पचहत्तर तक लिखी कहानियाँ संगृहीत हो गईं, वर्ना छप भी पाती या नहीं।' तथापि, आधुनिक मैथिली कहानी का अध्ययन तीन कोटियों में बाँटकर किया जाना चाहिए--

1. प्रारम्भ से पाँचवें दशक तक की कहानी

2. छठे दशक की कहानी और

3. छठे दशक से बाद की कहानी

नीतिपरक और समाजपरक कहानियों के अनुवाद से प्रारम्भ हुई मैथिली कहानी 'ताराक वैधव्य' के प्रकाशन के साथ मौलिक कहानी लेखन में प्रविष्ट हुई और 'प्रणम्य देवता' के प्रकाशन तक पाठकों के बीच अच्छी ख्याति पा गई। फलस्वरूप आगे के कहानीकारों को कथ्य और शिल्प की दिशा में आगे आने में सुविधा हुई।

मैथिली में मौलिक कहानी लेखन का आरम्भ गत शताब्दी के दूसरे दशक में हो तो गया, किन्तु संग्रह का सर्वथा अभाव ही रहा। हरिमोहन झा के कहानी-संग्रह 'प्रणम्यदेवता' के प्रकाशन वर्ष सन् 1945 से पूर्व अधिकांश अनूदित कहानी-संग्रह ही थे, साहित्येतिहासकारों ने कुछ मौलिक कहानियों उद्घाटन किया भी तो वे अपने ही कथन के जंजाल में उलझ गए। दुर्गानाथ झा 'श्रीश' ने अपने एक ही इतिहास में एक जगह कांचीनाथ झा 'किरण' के 'चन्द्रग्रहण' को उपन्यास कहा, और दूसरी जगह दीर्घकथा। अन्य इतिहासकारों की भी कई पंक्तियाँ ऐसा ही भ्रम उत्पन्न करती हैं, जिसका कोई अर्थ स्थिर करना असम्भव हो जाता है। 'प्रणम्य देवता' कहानी संग्रह के पुनर्मुद्रित संस्करण में राजमोहन झा ने अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ दी हैं, इससे स्थिति स्पष्ट होती है:

'प्रणम्य देवता' का पहला संस्करण सन् 1945 में प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व मात्र चार ही मौलिक कहानी-संग्रह की चर्चा है--चन्द्रप्रभा (श्रीकृष्ण ठाकुर), गप्प-सप्पक खरिहान (वैद्यनाथ मिश्र 'विद्यासिन्धु'), कामिनीक जीवन (कालीकुमार दास) तथा बीछल फूल (प्रबोध नारायण चौधरी)। इन चारो कहानी-संग्रहों के अलावा--चन्दा झा द्वारा 'पुरुष-परीक्षा' का अनुवाद, मुरलीधर झा द्वारा मित्रलाभ, और हितोपदेश का अनुवाद, म. म. परमेश्वर झा द्वारा 'सीमन्तिनी आख्यान' का अनुवाद आदि की चर्चा है।

उक्त चारो मौलिक कहानी-संग्रहों के बारे में इतिहासकारों ने एक से एक वजनी पंक्ति लिखी है। किसी ने 'विद्या-सिन्धु' को पाश्चात्य रीति के प्रथम गल्पकार माना, तो किसी ने उसमें कलात्मक सौष्ठव देखा, किन्तु असली बात यह है कि 'चन्द्रप्रभा' संस्कृत के मित्रलाभ-हितोपदेश की तरह उपदेशात्मक ढंग से लिखी गई छोटी-छोटी लोककथाओं का संग्रह है, और 'गप्प-सप्पक खरिहान' नामानुकूल हास्य-लघुकथा का संग्रह है। 'कामिनीक जीवन' बिना किसी कलात्मकता के किसी प्रेम-प्रसंग का सपाट वर्णन है। इन सब से तनिक आगे प्रबोध नारायण चौधरी का कहानी-संग्रह 'बीछल फूल' अवश्य है, किन्तु कथानक और शिल्प की दृष्टि से वह भी बहुत प्रभावशाली नहीं है। फिर भी मैथिली कथा-साहित्य में चूँकि मौलिक लेखन इन्हीं लोगों ने प्रारम्भ किया, इसलिए कथा-साहित्य के इतिहास में इन लोगों का नाम श्रद्धापर्वूक लिया जाएगा।

इन चारो संग्रहों के बाद मैथिली कथा-साहित्य पर छाया घना कोहरा हरिमोहन झा के 'प्रणम्य देवता' से एकबारगी ही छँट गया। 'विकट पाहुन' कहानी की भावभूमि उन्होंने समाज के वास्तविक जीवन के बीच जाकर उठाई और उसे मनोरम ढंग से अंकित किया, यह बात सामान्य पाठकों के लिए भी सुखदायी साबित हुई।

हरिमोहन झा का नाम मैथिली साहित्य में अग्रगण्य केवल इसीलिए नहीं है कि उन्होंने मैथिली में बहुत कुछ लिखकर साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि विशेष इसलिए है कि उन्होंने मैथिली साहित्य के लिए एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया। भाषा की सरलता, अभिव्यक्ति की सुस्पष्टता, विषय की व्यापकता, कथ्य की नूतनता, शिल्प का आकर्षण...हर दृष्टिकोण से उनका साहित्य विशेष रूप से चर्चित रहा। उपन्यास, कहानी, निबन्ध...सभ में उनका योगदान विशेष महत्त्व का है। जिस तरह उपन्यास में 'कन्यादान' पढ़ने के लिए मैथिली भाषा से इतर वर्ग के लोगों ने भी मैथिली पढ़ना सीखा, अनपढ़ लोगों ने दूसरों से पढ़बा कर सुना, उसी तरह कहानी के क्षेत्र में 'प्रणम्य देवता' की स्थिति रही। मैथिली कथा-साहित्य का कथ्य, शिल्प, कथानक इत्यादि अनभिव्यक्ति के जिस विशाल चट्टान तले दबा था, उसे एकबारगी ही ज्वालामुखी सदृश फाड़कर 'प्रणम्य देवता' कृति बाहर आई और परवर्ती साहित्यकारों, पाठकों में कहानी लिखने-पढ़ने की नई अभिरुचि जगाने में सफल हुई। सफलता के उसी कदम ने मैथिली कथा-परम्परा को समृद्ध किया। 'प्रणम्य देवता' के अलावा हरिमोहन झा का कहानी-संग्रह--रंगशाला, चर्चरी, तीर्थयात्रा, एकादशी इत्यादि विशेष महत्त्व का है। उनके व्यंग्य निबन्धों का सुप्रसिद्ध संग्रह 'खट्टर ककाक तरंग' कथा-तत्त्व के अभाव के बावजूद भाषा-सरलता, कथ्य की नूतनता, और प्रवहमान कथन-शैली के कारण कथा-संग्रह का सम्मान पाने लगा। दर्शन शास्त्र के विद्वान और संस्कृत परम्परा के ज्ञाता होने के कारण हरिमोहन झा मिथिला की सांस्कृतिक विरासत, और नागरिक जीवन की रूढ़ियों को गम्भीरता से पहचान सके थे। मिथिला की रूढ़ियों को अपने व्यंग्य-प्रहार से तहस-नहस करने में हरिमोहन झा सफल रहे। उनकी इस सफलता से परवर्ती रचनाकारों को आगे बढ़ने का साहस मिला। 'पाँच पत्र' और 'कन्याक जीवन' जैसी उनकी कुछ अलग कोटि की कहानियाँ भी हैं, जहाँ मानव जीवन के उत्कट अनुराग और विस्मयकर विडम्बना भरी हुई है। शिल्प और घटना संयोजन की दृष्टि से भीे यह अलग तरह की कहानी है। कहानी-कौशल का समग्र चमत्कार इसकी बुनावट में मौजूद है। किन्तु ये उनकी बाद के दिनों में लिखी हुई कहानियाँ हैं। हरिमोहन झा ने शताधिक कहानियों के सृजन से मैथिली कहानी का भण्डार तो पुष्ट किया ही, अपने दीर्घ जीवन में निरन्तर खुद को, और अपने सृजन कौशल को समकालीन भी बनाए रखा। कथ्य और शिल्प की ताजगी उनकी रचनाओं से निरन्तर आती रही।

मैथिली कथा ही नहीं, मैथिली साहित्य के सम्पूर्ण परिदृश्य को चमत्कारिक वैराट्य देनेवाले दूसरे उन्नायक हैं कांचीनाथ झा 'किरण', उनकी कहानियों की संख्या यद्यपि ढ़ाई दर्जन से कम ही है; कविता, उपन्यास, नाटक, शोध निबन्ध आदि भी प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त मैथिली भाषा-साहित्य के उत्थान हेतु वे एक क्रान्ति-पुरुष के रूप में भी समादृत रहे। 'एक्टिविस्ट राइटर' की रचनाओं को प्रचार-सामग्री हो जाने का खतरा अक्सर बना रहता है, किन्तु कांचीनाथ झा 'किरण' के यहाँ इस बात की कोई गुंजाइश नहीं दिखती है। तुलानात्मक दृष्टि से उनकी रचनाओं की संख्या कम है, किन्तु लेखक की श्रेष्ठता रचना की संख्या से नहीं, उसकी गुणवत्ता से जानी जाती है। कांचीनाथ झा 'किरण' मैथिली के ऐसे पहले कहानीकार हैं, जिनके नायक निम्नवर्गीय समुदाय से भी आए, और कहानी के परिवेश में उन्हें सम्मानपूर्वक जगह मिली, कथित उच्चवर्गीय समुदाय के व्यक्ति निम्नवर्गीय पात्रों के साथ अपना अनुराग बाँटने को तैयार हुए। सही अर्थों में उन्हें 'उदार चरित्र' नायक के सृजन का अगुआ माना जाना चाहिए। दरअसल कहानीकार सामाजिक घटना का रिपोर्टरे भर नहीं होता, वह सुव्यवस्थित समाज के निर्माण हेतु संकेत भी देता है। कांचीनाथ झा 'किरण' की कहानी यही संकेत देती है, मैथिली कहानी को इस संकेत से दृढ़ आधार मिला।

सन् 1889 (चन्दा झा द्वारा अनूदित विद्यापति की कृति 'पुरुष-परीक्षा' के अनुवाद का वर्ष) से लेकर सन् 1930 तक अनूदित कथा-साहित्य की परम्परा अबाध गति से चलती रही, साथ-साथ मौलिक कहानी-लेखन की भावभूमि भी बनी रही। सन् 1940 आते-आते, अर्थात् प्रबोध नारायण चौधरी के 'बीछल फूल' के प्रकाशन तक, या फिर यूँ कहें कि सन् 1950 से पूर्व तक, मौलिक कथालेखन विरल गति से हुआ, इसलिए यहाँ तक की कहानी पर एक किस्त में विचार किया जा सकता है।

पत्र-पत्रिकाओं में गत शताब्दी के प्रारम्भिक काल में मैथिली की मौलिक कहानी में कुमार गंगानन्द सिंह की 'मनुष्यक मोल', भुवनेश्वर सिंह 'भुवन' की 'शून्य' और 'रौद छाया', जलेश्वर सिंह की 'भगवतीक पाश्चात्य रूप', भीमेश्वर सिंह की 'विसर्जन' या 'साओनक राति' इत्यादि प्रकाशित हुआ। इनके अलावा इस संग्रह-विहीन कालावधि, अर्थात् सन् 1950 से पहले तक के महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं--हरिमोहन झा, लक्ष्मीपति सिंह, कांचीनाथ झा 'किरण', प्रबोध नारायण चौधरी, तन्त्रनाथ झा, मनमोहन झा, उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास', योगानन्द झा, सुधांशु शेखर चौधरी, सुरेन्द्र झा 'सुमन' आदि।

हरिमोहन झा के कथालेखन का प्रारम्भ मैथिली साहित्य के उस संक्रमण काल में हुआ, जब मैथिली साहित्य को पाठकों का अभाव था। एक ओर पाँचवें दशक तक प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं ने लेखक वर्ग तैयार किया; दूसरी ओर हरिमोहन झा ने बड़ा-सा पाठक-समूह तैयार किया। कहानी-लेखन और कहानी-संग्रह के प्रकाशन का कार्य यहीं से त्वरित हुआ। जहाँ गंगापति सिंह, लक्ष्मीपति सिंह, हरिनन्दन ठाकुर 'सरोज', कांचीनाथ झा 'किरण', कुलानन्द 'नन्दन', परमानन्द दत्त 'परमार्थी', कालीकुमार दास, नन्दकिशोर लाल, जयनारायण मल्लिक आदि कहानीकारों की कहानियाँ शृंगार और करुणा से परिपूर्ण रहती थीं, वहीं हरिमोहन झा की कहानी व्यंग्य के तीक्ष्ण दंश से भरी रहती थी, यह दीगर बात है कि लोगों को वे कहानियाँ हास्य-रस में डूबा रसगुल्ला समझ आया। हास्य का यह भ्रम लोगों को अकारण ही नहीं होता था, वहाँ हास्य रहता था, पर उसका उद्देश्य मनोरंजन नहीं होता था, उसके आश्रय से समाज के हर अनुचित व्यवहार और अतार्किक अभिक्रिया की ओर सामान्य पाठकों का ध्यान आकर्षित करने का आयास रहता था, इस हास्य की तह में व्यंग्य का सूक्ष्म और प्रभावी स्पर्श रहता था। इन सबके साथ ही कांचीनाथ झा 'किरण' की कहानी में समकालीन जनजीवन की समीक्षात्मक प्रस्तुति हुई। पाठकों को उनकी कहानियाँ उन दिनों भी प्रगतिशील चेतना का आग्रही बनाती थीं; रूढ़ि, पाखण्ड और जातीय वैमनस्य से बाहर आने की प्रेरणा देती थी; अकेले 'धर्म रत्नाकर' समकालीन समस्त भारतीय भाषाओं की कई कहानियों के लिए स्पद्र्धा का विषय हो सकता है।

सन् 1947 में देश स्वतन्त्र हुआ। किन्तु स्वातन्त्र्योत्तर काल मेें आम नागरिक के जीवन में स्वाधीनतामूलक कोई बात दिखी नहीं। चारो ओर असन्तोष, अराजकता, आक्रोश, दुव्र्यवस्था फैला हुआ था। स्वाधीनता प्राप्ति के समय तक मैथिल समाज की सबसे बड़ी समस्या थी--बालविवाह, बहुविवाह, बेमेल विवाह, दारिद्र्य, और उससे उद्भूत पारिवारिक जीवन की भीषण समस्याएँ, धार्मिक पाखण्ड और पंजी प्रथा से उत्पन्न विकराल समस्याएँ। मैथिली के कहानीकार इन्हीं विडम्बनाओं में उलझे रहे, और ज्वलन्त विषय पर सपाट शैली में कहानी लिखते रहे। स्वाधीनता आन्दोलन, फिरंगी कुशासन, मैथिल नर-नारियों की देश-भक्ति और शहीदी आचरण, कहानीकारों का विषय नहीं बन सका। चूल्हे-चैके, चैकठ-दरवाजे, कोबर-कलशघट, आँगन-दालान, वस्त्र-बिछावन की समस्या इस कदर बेचैन किए रहती थी, कि कहानीकार इससे बाहर आ नहीं सके। किन्तु उन्हीं दिनों कुमार गंगानन्द सिंह, कांचीनाथ झा 'किरण', हरिमोहन झा, मनमोहन झा जैसे प्रतिभावान कहानीकारों के अवदान से मैथिली कहानी में कथ्य की सूक्ष्मता और शिल्प की नूतनता आई। मानवीय सम्वेदना की सूक्ष्म पकड़ इन लोगों की कहानियों में कौशलपूर्वक दर्ज हुई, और अचानक से मैथिली कहानी की दुनियादारी बदल गई। सन् 1965 में आकर जिस बात को रेखांकित करते हुए राजकमल चौधरी ने कहा कि--कहानीकारों में इतनी प्रतिभा और क्षमता रहनी चाहिए कि वह अपनी कथावस्तु, अपने मन्तव्य, अपने शिल्प प्रयोग और अपने आन्तरिक उद्देश्य स्पष्ट रूप से साधारण से साधारण पाठक तक पहुँचा दे--वह बात इन चारो कहानीकारों की रचना में सन् 1950 से पूर्व ही आ गई थी। विषय-फलक यद्यपि सीमित ही रहा, जबकि स्वाधीनता आन्दोलन के उद्वेग और स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात की चहल-पहल से मिथिला क्षेत्र भी भली-भाँति प्रभावित था, तथापि पुरानी चाल-ढाल के कथ्य के बावजूद, कथ्य के साथ कहानीकारों का व्यवहार कौशलपूर्ण रहा। मनोविश्लेषण और मानवीय सम्वेदना की व्याख्या उनकी कहानियों में स्पष्ट होकर आया।

स्वाधीनता प्राप्ति के आगे-पीछे के कुछ वर्ष मैथिली कथा-साहित्य के लिए ऐतिहासिक उत्थान का समय है। समाज के विविध वर्ग के लोगों ने उन्हीं दिनों संकीर्णता से निरपेक्ष होकर लेखनी उठाई, वस्तुतः वे समस्त जातिवादी, वर्गवादी, सम्प्रदायवादी विचार, और रूढ़ि से मुक्त थे। उनके दृष्टिफलक विराट थे। सम्भवतः इसी कारण कहानी-लेखन का विषय-फलक विस्तीर्ण हुआ और साहित्य, सामान्य जन-जीवन से जुड़ गई।

इस समय तक कहानी जैसी छोटी रचना में, चरित्र-चित्रण की अधिक सुविधा नहीं रह गई थी। कथोपकथनों को भी खींचकर लम्बा करने की सम्भावना कम रहने लगी। घटनाचक्र और वर्णन कौशल के आधार पर कहानी के प्राण-तत्त्व विकसित होने लगे, कथ्य का विस्तार और स्पष्टीकरण इन्हीं बातों से होने लगा। घटनाचक्र के वर्णन में परिस्थिति, परिवेश, स्थान-काल-पात्र आदि के खास-खास तथ्यों का चित्रण शुरू हुआ। नायक के बिम्ब निर्माण और सम्वाद शैली के सौष्ठव इस चित्रण में यथासम्भव झलक उठे थे। किन्तु, बाद के समय में कहानी के बस दो ही तत्त्व प्रमुख होने लगे --कथ्य और शिल्प। कथा-सृजन के इन दोनों तत्त्वों की प्रमाणिकता और उत्कर्ष हेतु खास तरह का जीनव-दर्शन आवश्यक था।

निजी जीवन-दर्शन; मौलिक अनुभूति; वस्तुस्थिति की अभिव्यक्ति का साहस; प्रखर प्रतिभा, विषय-वस्तु की स्पष्टता, प्रभावकारी कथन-शैली, आकर्षक भाषा-शैली आदि सृजन-सन्धान के आवश्यक उपस्कर होते हैं। पंजी-प्रथा, छूआ-छूत, बहु-विवाह, बाल-वृद्ध विवाह, कुत्सित यौनाचार आदि तो प्रारम्भ से ही मैथिल समाज में फैले हुए थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् उस समाज को कुछ और दुर्गुण सौगात में मिले। समस्त सुविधा-संसाधन दिल्ली और आस-पास के राज्यों के विकास में झोंके जाने लगे। शिक्षा के क्षेत्र में भव्य विरासत के धनी होने के बावजूद बिहार (मिथिला) लगातार उपेक्षित रहा। यहाँ शिक्षा, कृषि और उद्योग के उत्थान हेतु कोई सामान्य-सी उदारता भी स्वाधीन भारत के भाग्य-विधाताओं ने नहीं दिखाई। कुछ बची-खुची सुविधा-संसाधन प्रशासनिक मुट्ठी में गिने-चुने लोगों के लिए बन्द हो गए। मौलिक अधिकार विधान बना अवश्य, पर वह संविधान कुछ खास लोगों की सम्पत्ति हो गई। गाँव, समाज, देश ...सारा कुछ खण्ड-खण्ड में विविध स्तर पर बँट गया। कार्यालय में अराजकता, चोरी, बेईमानी, घूसखोरी बढ़ गई। नेता-अफसर-पत्रकार-शिक्षक समस्त बुद्धिजीवी अपने कर्तव्य से विमुख हो गए। समाज दुर्गुण का खजाना हो गया। ऐसी परिस्थिति में पुरानी पीढ़ी के कहानीकारों ने समाज की रूढ़िग्रस्त कट्टरता, अव्यवस्था और अनाचार से टक्कर लेना उचित नहीं समझा। पर भीरुता और विसंगतियों के इस विकराल पर्यवस्थिति में जिन युगचेताओं ने समाज के दैनिक जीवन के अन्तर्बाह्य यथार्थ को भली-भाँति पहचाना, वे हैं--हरिमोहन झा, व्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म', कांचीनाथ झा 'किरण', उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास', मनमोहन झा, सुधांशु शेखर चौधरी, लक्ष्मीपति सिंह, गोविन्द झा, शैलेन्द्रमोहन झा, रामकृष्ण झा 'किसुन', प्रबोध नारायण सिंह, और बाद की पीढ़ी में ललित, राजकमल, मायानन्द, सोमदेव, रामदेव, धीरेन्द्र, हंसराज, कल्पना शरण (लिली रे) प्रभृति।

कथा-तत्त्व को अक्षुण्ण रखते हुए चारित्रिक वैशिष्ट्य को उत्कर्ष देना, कहानी तत्त्व को गौण रखकर भी जन-जन के आत्मसंघर्ष और मनोविज्ञान का लेखा-जोखा करना, इन कहानीकारों का मुख्य ध्येय था। दो पीढ़ियों की सहकारी क्रियाशीलता के साथ स्वातन्त्र्योत्तर काल की मैथिली कहानी आगे चली। एक पीढ़ी पारम्परिक रीति का अनुपालन करती हुई मिथिला जनपद की विडम्बनाओं को रेखांकित कर रही थी; परम्परा और संस्कृति के बेहतर तत्त्वों की प्रशंसा, और कमतर की निन्दा कर रही थी; दूसरी तरफ नवोद्भूत पीढ़ी, नागर और नागरिक जीवन के मनोवेग का सन्तुलन नाप रही थी। एक पीढ़ी क्रिया के भले-बुरे की पंचायत कर रही थी; दूसरी पीढ़ी क्रिया की पृष्ठभूमि और मनोविश्लेषण का जायजा ले रही थी। नवता के इस सूत्रपात के साथ पिछली पीढ़ी का कथालेखन तो निरन्तर होता ही रहा; समय, समाज, और परिवेश के साथ कहानीकार लोग खुद को अद्यतन करते रहे। जो नहीं कर सके, वे पिछड़ते गए। इस अवधि में मैथिली में पत्रिकाओं का प्रकाशन पर्याप्त संख्या में हुआ, फलस्वरूप विपुल संख्या में कहानियाँ लिखी गईं, छपीं; और इसलिए परवर्ती कहानीकारों की सूची लम्बी होती गई।

मैथिली में पहले निम्नवर्गीय जन-जीवन साहित्य का विषय नहीं होता था। ठाँव-ठौर पर होता भी था, तो स्थिति सम्मानजनक नहीं रहती थी। कांचीनाथ झा 'किरण' को इस परम्परा का अग्रदूत माना जाएगा। मणिपद्मके कहानी-लेखन का तो विषय यह वर्ग ही था। बाद में ललित, राजकमल की लेखनी के चमत्कार इस दिशा में देखे जाने लगे। निम्नवर्गीय जनता के मनोवेग, आत्माभिव्यक्ति, चरित्रांकन, उसके दैन्य, उसकी विवशता इन लोगों के साहित्य में आई। बाद में कहानी में मनोरंजकता, प्रमाणिकता, प्रभावोत्पदकता, उत्कृष्टता लाने के लोभ में कई कहानीकार देखा-देखी निम्नवर्गीय नागरिक की शब्दावली, ध्वनि और आंचलिक बोली का समावेश करने लगे। किन्तु, इस वर्ग की बोली पर साधना के अभाव के कारण वह कहानी का दोष बन कर रह गया।

सुसुप्त मानवीय चेतना पर चोट देकर जाग्रत करनेवाली कहानियों की कोटि में सन् 1950 से पहले की कहानी 'अगिलही'(कुमार गंगानन्द सिंह), 'मधुरमनि' (कांचीनाथ झा 'किरण'), 'कन्याक जीवन' (हरिमोहन झा), 'चन्द्रहार' (मनमोहन झा) आदि का नाम लिया जा सकता है। उनकी सृजन-साधना से मैथिली कहानी न केवल समृद्ध हुई, बल्कि नव-पाठक वर्ग भी तैयार हुआ--मैथिली कथा-साहित्य में कहानीकारों का यह विशेष योगदान माना जाएगा। करुणा और हास्य-व्यंग्य के आश्रय से समकालीन पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं के चित्र प्रभावी हो उठे। लिहाजा पाठकों के लिए वे सारे विषय चिन्तन-क्षेत्र बन गए। सन् 1950 से पूर्व की कहानी की दृष्टि से 'आहत आत्मा', 'अनुभूति'(मनमोहन झा), 'अन्त विद्रोह'(कुलानन्द नन्दन), 'आदर्श कुटुम्ब'(हरिमोहन झा), 'आदर्श राजा'(प्रबोध नारायण चौधरी) आदि कहानियाँ देखी जा सकती है। इस रीति की कहानियाँ बहुत बाद तक लिखी जाती रही।

इस पीढ़ी का सृजन-काल स्वाधीनता संग्राम की तैयारी और स्वाधीनता प्राप्ति के उल्लास का काल है। पर उनकी रचनाओं में इस महान घटना की अनुगूँज दूर-दूर तक नहीं दिखती। पूरी पीढ़ी पूर्वोक्त सार्वजनिक समस्याओं को उद्घाटित करने की व्याख्या पद्धति अपनाए चली जा रही थी; लेकिन कांचीनाथ झा 'किरण', गंगानन्द सिंह, हरिमोहन झा, मनमोहन झा जैसे कुछ कहानीकार, व्यक्ति और परिवार की परिधि में उसके द्वैध और पराभव, उसके जीवन के उत्थान-पतन, सपने और यथार्थ को गम्भीरता से देखने लगे।

पाँचवें दशक तक के कहानीकारों में वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाना चाहिए। समसामयिकता की दृष्टि से वे अति प्रगतिशील रहे। ग्राम्य-जीवन के चित्र अंकित करने में उन्हें महारत हासिल थी। सुबोध-सहज ठेंठ शब्दावली के प्रयोग, सामान्य जन-जीवन की सच्ची अभिव्यक्ति, छोटी-छोटी घटनाओं पर सूक्ष्म चिन्तन के साथ लेखन, कथ्य के अनुरूप भाषा-शैली, सहजता, स्वाभाविकता, सरलता ... उनकी रचना-शैली की मुख्य प्रवृत्ति रही है। यद्यपि उनकी कहानियों की संख्या गिनी-चुनी ही है।

इस काल के कथा-साहित्य में मनमोहन झा का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। 'अश्रुकण'(कहानी-संग्रह) उनकी चर्चित कृति है। स्त्री-सम्वेदना के मार्मिक चित्रण में अपूर्व कौशल उपस्थापित करनेवाले मनमोहन झा की कहानियों की मूल प्रवृत्ति करुणा है। योगानन्द झा की कहानी रोमांचक और शृंगारिक गुण से ओत-प्रोत है। 'आमक जलखरी' उनकी चर्चित कहानियों में गिनी जाती है, उसी तरह मैथिल समाज के सजीव और सम्वेदनशील चित्र उपस्थित करने में उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास' पहले तो 'रूसल जमाय' से चर्चित हुए, बाद के दिनों में कई बेहतरीन कहानियाँ लिखीं।

रामदहिन मिश्र लिखते हैं(काव्य दर्पण/पृ.258) कि कहानी का प्रधान उद्देश्य मनोरंजन होता है। पर मेरी राय में यह सोलह आना सच नहीं है। पहले यह बात अवश्य होती होगी, बीसवीं शताब्दी के पहले चरण से भारतीय साहित्य में कहानी का उद्देश्य मनोरंजन नहीं रहा। जो मनोरंजन पहले लक्ष्य होता था, वह बाद में लक्ष्य प्राप्ति का साधन होने लगा। कहानी का उद्देश्य यदि केवल मनोरंजन रहता, तो कांचीनाथ झा 'किरण' की कहानी 'मधुरमनि' लोग भूल गए होते। कहानी-पाठ से मनोरंजन तो होता है, पर इसके अलावा कहानी का और भी कई महत्त्वपूर्ण उद्देश्य सिद्ध होता है, जो उसे शाश्वतता प्रदान करता है। 'मधुरमनि' में यही शाश्वतता है।

छठे दशक में कहानीकारों की सूची बहुत लम्बी तो नहीं हुई, पर संख्या अपेक्षाकृत बढ़ी, कहानीकारों की नजर साफ हुई, कहानी का फलक बढ़ा, विषय-वस्तु की व्यापकता देखी गई।

असल में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोगों के मन में संचित इच्छा, आकांक्षा पूरी होने की कोई भी राह प्रशस्त नहीं हुई, समाज से मानवता का वैशिष्ट्य विलीन होता देखा गया। युगीन समस्या से परेशान होकर शैलेन्द्र मोहन झा, रामकृष्ण झा 'किसुन', प्रबोध नारायण सिंह, रमाकान्त झा, गोविन्द झा, ललित, राजकमल, मायानन्द, सोमदेव, लिलि रे, बलराम, हंसराज, रामदेव झा, धीरेन्द्र आदि कहानीकार नई भावभूमि के साथ आगे आए। उनके पूर्ववर्ती कहानीकार भी निरन्तर सृजनरत रहे। समय, समाज, परिवेश आदि के प्रभाव और अपने उत्तरवर्ती ओजस्वी कहानीकारों के उद्यम के आलोक में खुद को अद्यतन करते रहे।

युगीन सन्दर्भ में अर्थविपन्न लोगों के जीवन का अभाव, अभिशाप बन गया था; उनकी विपन्नता का नाजायज लाभ लेने की प्रवृत्ति गाँव के उच्चवर्गीय, अर्थसम्पन्न, सम्भ्रान्त नागरिक में बढ़ गई थी; निम्नवर्गीय लोगों का शोषण, अभावग्रस्त स्त्रियों के साथ व्यभिचार...तमाम विडम्बनाओं के चित्रण इस समय के कहानीकारों को उचित और आवश्यक लगा।

समकालीन समाज के इस आन्तरिक पक्ष को ललित, राजकमल, मायानन्द, सोमदेव, लिलि रे ने भली-भाँति पहचाना। अभिव्यक्ति का जोखिम उठाने में राजकमल चौधरी तेजी से आगे आए। उनके सम्पूर्ण कथा-साहित्य में अन्तर्मुखी विचारधारा प्रगाढ़ होती गई। कथा-साहित्य में नूतनता के आविष्कारक राजकमल चौधरी ने मैथिली-कहानी का एक युग जीत लिया। देश-देशान्तर के साहित्य से सुपरिचित, दुर्धर्ष प्रतिभाशाली, दुर्दान्त पढ़ाकू, विश्व-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में अधुनातन प्रयोग के आग्रही राजकमल चौधरी के कथा-साहित्य में शिल्प को मूल स्थान प्राप्त हुआ। उनका कहना था कि असल वस्तु कहानी में शिल्प ही होती है, कथ्य तो हर किसी का एक ही होता है, शिल्प की नवीनता ही लेखक का निजत्व होता है(स्मृति सन्ध्या, पृ.153)। अपने शिल्प-प्रयोग और अपने उद्देश्य से सामान्य पाठकों को परिचित कराने में राजकमल सफल हुए। शिल्प की नवीनता एक ही कथ्य को किस तरह भिन्न करती है, इसका स्पष्ट दृष्टान्त उनकी कहानियाँ 'कीर्तनियाँ' और 'चन्नरदास' एवं 'आवागमन' और 'एकटा चम्पाकली एकटा विषधर' में देखा जा सकता है।

बाद के दिनों में ललित-राजकमल-मायान्द के त्रय को त्रिपुण्ड नाम से मैथिली कथा-धारा में जाना गया। किन्तु राजकमल की कहानी-प्रक्रिया परवर्ती कहानीकारों के लिए विशेष रूप से अनुकरणीय हुई। प्रायः ऐसा देखा गया है कि सारे ही रचनाकार अपने पूर्ववर्तियों से प्रेरणा लेकर, प्रभाव ग्रहण कर आगे बढ़ते हैं, पर मैथिली कहानी को छठे-सातवें दशक में राजकमल ने जहाँ और जितनी शीघ्रता से पहुँचाया, बीच में विकास की गति तनिक मन्द हो गई, जो नौवें दशक में कई पीढ़ियों के रचनात्मक योगदान से तीव्रतर हुई।

छठे दशक के कहानीकारों के कथा-लेखन में कुछ प्रवृत्तिगत अन्तर दिखता है। कथा-तत्व को अक्षुण्ण रखते हुए, चरित्र-चित्रण की सूक्ष्मता और उचित वातावरण का निर्माण करना, सामाजिक समस्या को उजागर करना, कुछ रचनाकारों की प्रवृत्ति रही; इसमें मुख्यतः गोविन्द झा की कहानी 'भुतही पाकड़ि', मणिपद्मकी 'संयोग', रमाकान्त झा की 'रक्तदान', शैलेन्द्र मोहन झा की 'प्रारब्ध' आदि को देखा जा सकता है। कुछ रचनाकारों ने सामाजिक यथार्थ को उद्घाटित करने में सरल, सहज, पात्रानुकूल भाषा, कथोपकथन और चरित्र के मनोविश्लेषण को महत्त्व दिया--सोमदेव की कहानी 'अंगा', हंसराज की 'छिद्र', कल्पना शरण(लिलि रे) की 'रंगीन पर्दा', बलराम की 'मोटरी', रामदेव झा की 'एक खीरा: तीन फाँक' आदि को इस कोटि में देखा जा सकता है। किन्तु इससे भी तनिक आगे बढ़कर युगीन जटिलता में जीवन व्यतीत करते हुए मनुष्य के अतल मन के दुःख-दर्द को समझ-बूझकर छोटे-से कथ्य पर शिल्प के माध्यम से विराट कहानी बुननेवाले--ललित, राजकमल, मायानन्द मैथिली कहानी में नूतनता लाने के अग्रदूत हैं। उन लोगों ने कहानी का मूल तत्व शिल्प माना। जीवन-जगत को गम्भीरतापूर्वक देखते हुए उन लोगों ने मैथिली कथाधारा को जो दिशा दी, उसी का फल है कि मैथिली कथा-साहित्य निरन्तर साहस के साथ आगे बढ़ा। ललित की 'रमजानी', 'ओभरलोड', 'मुक्ति'; राजकमल की 'साँझक गाछ', 'वैष्णव', 'ननद भाउज', 'पनडुब्बी'; तथा मायानन्द की 'गाड़ीक पहिया', 'हँसीक बजट' इत्यादि कहानियों की चर्चा दृष्टान्त स्वरूप की जा सकती है। इस त्रिपुण्ड के अवदान को मैथिली कथा-साहित्य कभी भूल नहीं पाएगा।

यह पीढ़ी कथ्य, शिल्प और भाषा के उद्दाम प्रवाह के साथ खड़ी हुई थी। स्वाधीनता प्राप्ति के उल्लास में पूरा देश लिप्त था, इधर ये लोग स्वाधीनतापूर्व से अर्जित-संचित मनोरथ के सूत्र उस उल्लास की आँधी में ढूँढ रहे थे। ध्वस्त आकांक्षा के ढेर पर सब पश्चाताप कर रहे थे। प्रारम्भिक समस्याएँ तो जस-के-तस थीं; अब स्वाधीन भारत के देशी शासक ने स्वदेशी जनता के सम्मुख नई-नई समस्याओं की फैक्ट्री खड़ी कर दी थी। खुद को टीला बनाने हेतु समाज को खाई बनाना उन्होंने वाजिब आचरण मान लिया था। निरन्तर बढ़ते जा रहे पराभव के साम्राज्य ने इस पीढ़ी के रचनाकार को अत्यधिक उद्वेलित कर दिया था। बाल विवाह, बहु विवाह, बेमेल विवाह, दहेज, विधवाओं की दुर्दशा, स्त्री जाति का पराभव, जमीन्दारी के पराक्रम से उत्पन्न चारित्रिक दौर्बल्य--समस्त विकृति, स्वातन्त्र्योत्तर काल की नवांकुर समस्याओं के साथ मिलकर और ताकतवर हो गई थी। यौन विकृति पराकाष्ठा पर आ गई थी। प्रपंच, धोखा, बेईमानी, शोषण, उत्पीड़न, अभाव आदि अमानवीयता और नृशंसता की सीमा तक पहुँच गया था। गाय-भैंस की तरह स्त्री और मूली-गाजर की तरह स्त्री-देह की बिक्री होने लगी थी। वृद्ध दूल्हे के साथ किशोरियों के विवाह की जड़ में पंजी-प्रथा, कौलिक श्रेष्ठता का पाखण्ड, अभाव और जमीन्दारी का अहंकार बैठा था। जब तक किशोरी जवान होती थी, वृद्ध जमीन्दार परलोक चले जाते थे। इसलिए पहाड़ी नदी के उद्दाम प्रवाह जैसे यौवन का भार ढोती हुई विधवाओं की समाज में कोई कमी नहीं रहती थी। सामाजिक व्यवस्था की रेशमी चादर की ओट में प्रकृति के सारे दुष्कर्म बढ़ते गए। जीभ और जाँघ की बहकती माँगें पूरी और तृप्त करने हेतु लोग हर तरह से लिप्त रहने लगे। यूँ कहें कि दुष्कर्म, ऐश्वर्यशाली लोगों के लिए शृंगार और वैभवहीन लोगों के लिए व्यापार अथवा मजबूरी हो गया। उच्च और निम्न वर्ग के लोगों के बीच यही कारोबारी सरोकार स्थापित हुआ। मध्यम वर्ग के लोग अपने निम्नतर आमदनी में अस्तित्व-रक्षा और अस्मिता निर्माण में जुटे रहे। अपनी सीमित आय से आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति की विफलता; अर्थ नीति के इस दुस्सह और जबर्दस्त पराभव में दाम्पत्य जीवन की खींच-तान; संयुक्त परिवार और पूर्व पीढ़ी के प्रति अनुरक्ति-विरक्ति के कारण दाम्पत्य जीवन की तबाही; परम्परा और आधुनिकता, पाखण्ड और विज्ञान के बीच उत्पन्न बहस से प्रभावित समाज; तर्क-कुतर्क और लाभ-लोभ के व्यूह में उलझते जनसमुदाय--इस समय में प्रमुख रहे।

स्वाधीन भारत की स्वाधीन जनता के लिए यह वैसा समय था, जब व्यक्ति अपनी आकांक्षा-अभिलाषा को निरन्तर ध्वस्त होते देख रहे थे। ब्रिटिश शासन का अन्त हो जाने के बावजूद कोई सुखकर दृश्य नहीं दिख रहा था। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मोहभंग का समय आ गया था। इधर जनता अपने स्वदेशी भाग्य विधाता के चाल-चलन से निराश हो रही थी, उधर सत्ता की छप्पर में कन्धा लगाए राजनेता लोग पड़ोसी राष्ट्र के धोखे और धूर्तता से चकित हो रहे थे।

इन तमाम नवोद्भूत समस्याओं ने समाज को बेचैन कर रखा था। पर मिथिला, अपनी पुरानी ही समस्याओं से आक्रान्त थी। इस विकट घड़ी में मैथिली में ललित, राजकमल चौधरी और मायानन्द मिश्र ने अपनी विलक्षण प्रतिभा के जोर से कहानी लेखन को नई भंगिमा, नव उत्साह और नई दिशा दी। ये लोग इतना तो समझने लगे कि मैथिली के पाठकों और मिथिला के नागरिक परिदृश्य को पंजी-प्रथा, दहेज, और तीर्थ-व्रत की समस्याओं; तथा विदाई-विदागिरी और संयोग-वियोग के भावुक उच्छ्वास से बाहर निकालना आवश्यक है। देश की अन्य भाषाओं के साहित्य और विश्व-साहित्य, जहाँ सम्बद्ध राष्ट्र के भविष्य की दिशा तय करता था, राष्ट्रीय आन्दोलन में हस्तक्षेप करता था, आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य बदलता था, पाठक और जन समुदाय की चिन्तन प्रक्रिया को संशोधित-परिष्कृत करता था; वहीं भारत के एक पिछड़े भूखण्ड मिथिला के वासी अपनी समस्त तेजस्विता और विद्वता के बावजूद इतने पीछे क्यों रहे कि वह ग्रामीण और पारिवारिक पंचायत में उलझा रहे? समूचा देश स्वातन्त्र्योत्तर काल की भग्न अभिलाषा, राजनीतिक प्रपंच, वैदेशिक कूटनीति, सीमावर्ती देश के आचरण, साम्प्रदायिक हिंसा, सामाजिक वैमनस्य, वैज्ञानिक उत्थान, आधुनिकता के प्रवेश की सीमा-शर्त के निर्धारण-विश्लेषण में व्यस्त रहा, तो मैथिल जन कौलिक श्रेष्ठता की पंजी पलटने, दहेज राशि गिनने अथवा मन्दिर की घण्टी बजाने में लीन क्यों रहे? राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय समस्त स्थिति-परिस्थिति की सम्पूर्ण सूचना जिन पाठकों को हो, उक्त तमाम परिस्थितियों के सर्वतोभावेन असर जिनके जीवनक्रम पर हो, वे इस बारे में साहित्य में जाग्रत क्यों न रहें?...ललित, राजकमल, मायानन्द का कथालेखन इस परिवेश में एक नए तेवर के साथ शुरू हुआ। और नवता के प्रति आग्रही लोगों ने उसे उल्लासपूर्वक अपनाया। अर्थात् छठे दशक के कहानीकार समाज के समस्त बाहरी ढाँचों का मोह छोड़कर सीधे व्यक्ति के चिन्तन और जीवन से जुड़ गए।

आधुनिक भारत की समस्त उपलब्धि से, मिथिला और मिथिला का कोना-कोना आज भी वंचित ही है, उन दिनों तो था ही। किसी भी तरह का उद्योग-धन्धा नहीं, कोई कल-कारखाना नहीं, आकाशवाणी के अलावा देश-देशान्तर के समाचार जानने के लिए एक मात्र साधन देर से आता अखबार था। गाँव-देहात के लोग उससे भी वंचित। कोई व्यावसायिक भविष्य नहीं। इस विकराल विपन्नता में फँसी मिथिला, वर्गीय आधार पर दो वर्ग में विभाजित थी। गिने-चुने जमीन्दार, अनाज संग्रह और ब्याज उगाही में लिप्त रहते थे। जमीन जमीन्दारों के आधिपत्य में थी, इसलिए कृषि-कार्य के स्वामी वही थे। इलाके के भूमिहीन लोगों को रोजगार और लघु भू-स्वामियों को कर्ज देने के एक मात्र त्राता वही थे। स्थानीय राजनीतिज्ञ और प्रशासक अपने उच्च-स्तरीय धन्धों में इस तरह लिप्त थे कि इन स्थितियों का आकलन उनके लिए निरर्थक था। ड्योढ़ा-सवैया पर अनाज का कर्ज, बटाईदारी पर खेती, और ब्याज पर पैसे देने की स्थितियाँ ऐसी तिलिस्मी थीं कि भूमिहीनों के घर में अगले दिन का आहार और लघु भू-स्वामियों के घर में अस्मिता निर्माण की स्थिति कभी बन नहीं पाती थी। फलस्वरूप शोषण-वृत्ति निरन्तर विकसित ही होती जा रही थी। इन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप और भी कई अनाचार उपज गए थे।

इस विकराल काल में ललित की नजर निम्न आय-वित्त के लोगों पर गई। जाति और सम्प्रदाय से निरपेक्ष रहकर ललित ने सर्वथा अपनी कहानी का नायक उन लोगों को बनाया, जे हैसियत के आधार पर समाज में तुच्छ थे। उनकी रचनाओं में कहीं समृद्ध और सामन्त वर्ग के पात्र आते भी तो वहाँ उनकी गरिमा का गायन नहीं होता, सर्वदा उसका कलुष दिखाया जाता। मायानन्द के पात्र सामान्यतया गुजर-बसर करते मैथिल परिवार की आर्थिक, सांस्कारिक, पारिवारिक, पारम्परिक व्यवस्था और मान्यता के द्वन्द्व में फँसा रहता। प्रगतिशीलता और आधुनिकता के प्रति आग्रही पात्र के प्रति कहानीकार की सहानुभूति सदा बनी रहती, किन्तु इस कारण परम्परा के प्रति सर्वथा नकार भाव नहीं रहता। संशोधित परम्परा और तर्कसंगत आधुनिकता का समायोजन करते हुए मायानन्द के कहानी-पात्र मैथिली पाठक के समक्ष खड़े होते हैं।

राजकमल चौधरी, इन दोनों से अलग स्वभाव के पात्र का चयन करते हैं। उनके पात्रों को अपने सद्कर्म, अपकर्म पर कहीं परदा देने की अथवा बहाना बनाने की इच्छा नहीं होती। वह जो करता है, निःसंकोच करता है; वैसे तथ्य है कि कहानीकार की सम्वेदना सर्वथा आधुनिक और प्रगतिशील पात्र के निर्णयों के साथ रहती है। अर्थात एक ही समय में ललित, त्याज्य और पतित पात्र के पावन कर्तव्य को अंकित करते हुए उसके श्रेष्ठ स्वरूप को सामने लाते हैं; मायानन्द परम्परा से प्रगति तक की तर्कपसन्द गतिविधियों का तर्कसंगत चित्र खड़े करते हैं; वहीं राजकमल अपने समय की समस्त रूढ़ियों को तोड़ते हुए, जर्जर परम्परा से मुक्त होते हुए, बेधड़क और मुँहजोर पात्रों का सृजन करते हैं।

वस्तुतः स्वातन्त्र्योत्तर काल में आकर भी, जब नए तर्ज-तेवर के प्रवेश से समाज अद्यतन हुआ जा रहा था, मैथिल समाज का अधिकांश आचार-विचार, आहार-व्यवहार आदि पारम्परिक रीति का ही था, जो समाज के स्थगित अथवा ह्रासमान आचरण का संकेत देता था। उस समय में भी मैथिली साहित्य के ढेर सारे रचनाकार पुरानी पद्धति का राग अपनी रचनाओं में अलाप रहे थे। पाखण्डी और रूढ़िग्रस्त विचार-व्यवस्था के लोग अपनी धारणा पर दृढ़ रहते थे। वे नई-दृष्टि के लोगों को अपनी मान्यता से सहमत करने का उद्यम भी करते थे। किन्तु नई-दृष्टि के विकास-मार्ग को मोड़ नहीं पाते थे। इसी अकालवेला में मैथिली कथा-लेखन में ऐतिहासिक उपक्रम शुरू हुआ, जहाँ से मैथिली कहानी फिर से नई ऊर्जा और नए तेवर के साथ, उद्दाम प्रवाह से उध्र्वमुखी हुई। शिल्प और कथ्य--दोनों स्तर पर मैथिली कहानी यहाँ नवोन्मुख हुई, नई-दृष्टि का विकास भी तीव्रतर होने लगा।

मैथिली कहानी समृद्ध हुई। विषय का विस्तार, कथ्य की सूक्ष्मता और शिल्प की नूतनता से मैथिली कहानी पुष्ट होने लगी। कथानक, चरित्र-चित्रण, घटनाक्रम आदि के तामझाम से बाहर आकर मैथिली कहानी की आँखें चतुर्दिक देखने लगीं। कथानक जैसी कुछ बात अलग से विचारणीय नहीं रहने लगीं। मैथिली कहानी कथावस्तु से मुक्त हो गई। इन कहानियों का संक्षेपण असम्भव-सा हो गया। या तो वह कहानी होती थी या कथ्य। सम्पूर्ण कहानी शिल्प के ढाँचे पर चलने लगी। एक-एक पंक्ति, यति-विराम, शब्द-शब्द, साँस-साँस में कहानी रहने लगी। कहानी की एक भी पंक्ति ऐसी नहीं रही, जिसे हटाकर कहानी के अस्तित्व को बचाया जा सके। इस कारण इस समय की कहानी ठोस, और हस्तक्षेप-मुक्त होने लगी। शिल्प निर्माण के इस अन्तराल में उक्त तीनो कहानीकारों ने, लेखन के प्रति अपने निजी दृष्टिकोण, सामाजिक सरोकार और अलग-अलग जीवन-दृष्टि के कारण भिन्न-भिन्न शिल्प अपनाया और अपनी अलग पहचान कायम की। इन लोगों के इस कहानी-आन्दोलन में साथ दिया--सोमदेव, हंसराज, लिलि रे, बलराम, राजमोहन झा, रामदेव झा, धीरेन्द्र, धूमकेतु आदि ने।

जैसा कि ऊपर कहा गया, इस समय का कहानी-लेखन श्रमसाध्य तो हो ही गया, इस कथा-धारा के कन्धे पर ढेर सारा तनाव एक साथ आ गया। मिथिला की जर्जर परम्परा की अति जर्जर रूढ़ियों और लोक मान्यताओं से तो मैथिली कहानी, संघर्ष कर ही रही थी; इसके अलावा ब्याज में आई समस्या, मूल से बड़ी हो गई। मिथिला का जनपदीय परिवेश स्वातन्त्र्योत्तर भारत के विकास, वैज्ञानिक उपलब्धि, राजनीतिक सदाशयता, आर्थिक और औद्योगिक उत्थान...के सारे सुख से तो वंचित थी ही, वहाँ के नागरिक-जीवन को राजनीतिक पाखण्ड और स्वातन्त्र्योत्तर विकृतियों ने पूरी तरह आहत कर दिया था। राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय अन्य भाषा-साहित्य के आन्दोलनों से मैथिली के नए कहानीकार परिचित हो चुके थे, उक्त विकराल काल में उन्हें सृजन-शैली की जैसी नवता अपनाने की जरूरत थी, उसके आगे पाखण्डी पूर्वज लट्ठ लिए खड़े थे। पर इस कहानी आन्दोलन को स्वर और त्वरा देनेवाले कहानीकारों ने उन अवरोधों की कोई चिन्ता नहीं की, नई स्फूर्ति के साथ रचना करते गए। पूर्वजों द्वारा उनकी रचनाओं पर थोपी गई उद्दण्डता, अश्लीलता और अराजकता के कलंक उन्हें हतोत्साह नहीं कर पाए, तन्मयता से वे लोग सृजनकर्म में डटे रहे।

मैथिली कहानी को तत्कालीन समीक्षकों की अज्ञान-वृत्ति का दुष्परिणाम आज तक भोगना पड़ रहा है। कविता की स्थिति तो उन दिनों और भी विकराल बनाई जा रही थी। नव ज्ञान, नव ज्योति, नव स्फूर्ति, नवता के समस्त बिन्दुओं से सर्वथा परहेज रखनेवाले लोग समकालीन कथाधारा का विवेचन गम्भीरता से नहीं कर रहे थे, आज भी कायदे से नहीं कर रहे हैं। कथा समवेत के मूल अभिप्रेत और समग्र प्रभाव की चिन्ता छोड़कर उसमें कथानक और कथावस्तु ढूँढ रहे थे। ललित की कहानी 'मुक्ति', राजकमल चौधरी की 'सुरमा सगुन विचारै ना', कल्पना शरण(लिलि रे) की 'रंगीन परदा', या फिर ऐसी ही कोई अन्य कहानी में मैथिली भाषा साहित्य के तत्कालीन मठाधीशों को अश्लीलता मिल गई थी, उच्छृंखलता और अराजकता मिल गई थी। किन्तु लांछण और फतबेबाजी की इस प्रवृत्ति का उनलोगों पर कोई सामान्य असर भी नहीं पड़ा; पर इतना तय है कि कहानी-पाठ प्रक्रिया की जैसी वैचारिक और चिन्तनशील परम्परा बननी चाहिए थी, कथा समालोचना का जैसा उत्कर्ष सामने आना चाहिए था--नहीं आ सका, भली-भाँति तो आज भी नहीं आ रही है।

पहले कहानी कही और सुनी जाती थी; बाद में पढ़ी-गुनी जाने लागी। कहानी का मुख्य उद्देश्य सम्प्रेषण हो गया। इस तरह की कहानी स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व से ही लिखी जाने लगी थी। स्वातन्त्र्योत्तर काल में, जब कहानी-लेखन की नीति-रीति परिवर्तित हुई; आम नागरिकों के मनोरंजक उद्देश्य को पीछे छोड़कर जनता को उद्बोधन देने लगी; कहानी सामाजिक विचार-व्यवस्था और चिन्तन-अवस्था के संशोधन-परिशोधन में हस्तक्षेप करने लगी, अर्थात् उसने जनता को पूर्णतया सावधान और चैकन्ना रखने की गुरुतर जिम्मेदारी अपने सिर ले ली, फिर आम पाठक और समालोचकों से कहानी को अपेक्षा अधिक होने लगी। अपनी विवरणात्मक शैली से पृथक होकर कहानी नए स्वरूप में आई, तो कथ्य और फलक छोटा, किन्तु व्यंजना विराट होने लगी। किसी घटना के छोटे-से अंश के विस्तीर्ण परिवेश पर नजर रखी जाने लगी। कहानी का विस्तार, शब्द संख्या की अपेक्षा शब्द-शक्ति से होने लगा। राजकमल चौधरी जब अपनी कहानी 'ननदि-भाउजि' में कहते हैं--पदुमा का गाँव, बनग्राम बहुत बड़ा गाँव है। गाँव में हाइ स्कूल, थाना, पोस्ट-ऑफिस, अस्पताल और हाट-बाजार। इसलिए, इस दो विधवा ब्राह्मणियों का जीवन-निर्वाह कोई कठिन बात नहीं है।--तो यहाँ कथाकार का उद्देश्य, पदुमा के गाँव की सर्वसम्पन्नता का परिचय देना नहीं है। वस्तुतः कथाकार कहना चाहते हैं कि किसी गाँव में विचार-व्यवस्था के इतने निर्णायक अभिकरण हैं, किसी गाँव के प्रोन्नयन हेतु इससे अधिक महत्त्वपूर्ण और क्या हो सकता है? किन्तु विडम्बना है कि समाज में नैतिकता, न्यायप्रियता और शैक्षिक वातावरण के समस्त उपादान के बावजूद वहाँ सारा कुछ अनैतिक और न्याय विरुद्ध आचरण ही होता है। आज की कहानी में और ललित-राजकमल की पीढ़ी अथवा उनकी उत्तरवर्ती पीढ़ी की कहानियों में इस तरह के व्याख्येय और सारगर्भित पदबन्ध और पंक्तियाँ भरी पड़ी हैं।

किन्तु बलिहारी उस दौर के चिन्तन-विधान को कि पूरे परिदृश्य में सामान्य मैथिली पाठकों के बीच कहानी-पाठ पद्धति की कोई नई राह विकसित नहीं हुई; कहानी-आलोचना की कोई सुसंगत दिशा निर्धारित नहीं हुई।

उक्त पीढ़ी के उत्तरवर्ती कहानीकार जब अपनी पहचान बना रहे थे, हिन्दी में 'नई कहानी आन्दोलन' ढलान पर था। मैथिली कथाधारा समस्त आधुनिक भारतीय भाषा के कथा-साहित्य से कन्धा मिलान कर चुका था। दलित, अशिक्षित और स्त्री वर्ग की सर्वविधि दुर्दशा, राजनीतिक पराभव और सामाजिक विघटन की दुस्सह स्थिति अपने पूरे फलक के साथ मैथिली कहानी में स्थान पा चुके थे। इस समय तक मिथिला के जर्जर आचरणों में से मात्र बाल-विवाह और बहु-विवाह पर अंकुश लग सका था, शेष समस्त समस्याएँ जस के तस रहीं; राष्ट्रीय स्तर पर कई विस्मयकर घटनाएँ घटीं। पं. जवाहरलाल नेहरू और स्व. लाल बहादुर शास्त्री को कथित मित्र-राष्ट्र की नीति से झटका लग चुका था, सीमा-संघर्ष और धोखा से जो राजनीतिक मोहभंग हुआ, उसका परिणाम राजनेता और शासक वर्ग के अलावा बुद्धिजीवी और सामान्य जनता के मानसिक चिन्तन पर भी पड़ा। किंकर्तव्यविमूढ़ सामान्य भारतीय जनता, विडम्बना-विकृति और प्रवंचना के जिस झंझावत को असहाय हुआ सह रही थी, उसमें उसे नैतिक समर्थन देने हेतु मात्र रचनाकार ही खड़े दिख रहे थे। इन रचनाकारों के समक्ष पराभव की विकराल स्थिति तो थी, पर एक सुविधा इस मण्डल को मिली थी कि इन्हें कथाधारा की किसी स्थगित और रूढ़ मान्यता को तोड़ने हेतु किसी तरह का अतिरिक्त उद्यम नहीं करना पड़ा। अग्रज रचनाकारों ने पहले ही नए रास्ते ज्योतिर्मान कर दिए थे।

चूँकि देश और नागरिक मनोदशा तनिक और आगे आ चुकी थी; सामाजिक जीवन-यापन में नई सुविधा और नई दुविधा क आगमन हो चुका था; इस पीढ़ी के कहानीकारों के कथ्य के विस्तार और शिल्प-निर्माण के कौशल और आगे बढ़े। मैथिली कहानी पुष्ट हुई। स्वातन्त्र्योत्तर काल के वर्गीय उल्लास और सामूहिक हताशा के स्वाद भोगती हुई जनता सर्वप्रथम राजकमल चौधरी की पीढ़ी के समक्ष खड़ी हुई और उस पीढ़ी के कहानीकारों के रचना संसार में उसने अपनी साफ छवि देखी। अगली पीढ़ी की कहानियों में, और उसकी पूरक पीढ़ी के कहानीकारों की रचनाओं में मिथिला के स्पष्ट चित्र आ चुके थे। अपनी परवर्ती पीढ़ी के रचनाकारों के लिए ये लोग मजबूत आधार बना चुके थे। फलस्वरूप अगली पीढ़ी को कथ्य की विषदता और शिल्प की नूतनता, मौलिकता हेतु पर्याप्त अवसर मिला।


छठे दशक के बाद के कहानीकारों को भी वर्गीकृत करें तो साफ-साफ दिखता है कि सातवें और आठवें दशक में कहानीकारों की लम्बी सूची तैयार हुई, जो अचानक नौवें दशक में छोटी हो गई। वैसे सूची छोटी होने की इस घटना का प्रत्यक्ष कारण प्रकाशन माध्यम का अभाव है। ऑडिओ-विजुअल अथवा ऑडीबुल मीडिया से मैथिली में आज भी कुछ स्पष्ट होता हुआ नहीं दिख रहा है। उन दिनों तो शून्य ही शून्य व्याप्त था। किन्तु सातवें और आठवें दशक में सक्रिय कथाकारों को पत्रिकाओं का वैसा अभाव नहीं था। उन दिनों मैथिली की पत्रिकाएँ खूब जोश-खरोश से सक्रिय थीं। इन दोनों दशकों के कहानीकारों को एक सुनिश्चित दूरी तय किया हुआ कहानी-क्रम मिला, बदले हुए माहौल मिले, स्वागत हेतु पाठक समुदाय मिला, रचनात्मक कदम रखने हेतु पत्रिकाओं का प्लेटफार्म मिला, जीवन-दर्शन विकसित करने हेतु सामाजिक विकृति, मानव जीवन के संघर्ष और आम नागरिक की संघर्ष-चेतना को देख पाने लायक नई दृष्टि मिली, इन सारी स्थितियों के बीच कथ्य का वैराट्य एवं शिल्प का वैविध्य मिला। इन लोगों ने इन अवदानों का उपयोग किया और अपने रचना संसार में विरासत से प्राप्त प्रवृत्तियों का विकास किया।

सातवें दशक में मैथिली कथा-साहित्य अपेक्षाकृत अधिक पुष्ट हुआ। लेखन क्षिप्र गति से होने लगा, पिछले दशक के कहानीकारों के साथ नवोदित कहानीकारों का कथालेखन चलता रहा। इस दशक के कथालेखन में सामाजिक कुव्यवस्था, असमानता, शोषण, सीदन इत्यादि का चित्रण अधिक प्रखर होने लगा। गंगेश गुंजन, प्रभास कुमार चौधरी, साकेतानन्द, रमानन्द रेणु, मार्कण्डेय, जीवकान्त, उदयचन्द्र झा 'विनोद' प्रभृति कहानीकार अपनी-अपनी कहानियों में समाज के नग्न यथार्थ को अंकित करने लगे, सामान्य जनजीवन का सच उठाकर जनसामान्य को देते रहे। त्वदीयं गोविन्दं वस्तु तुभ्यमेव समर्पयामि की तरह। बाद के दिनों में इसी पीढ़ी से मैथिली कथा-साहित्य में राजनीतिक चिन्ता गहनता से प्रविष्ट हुई, मैथिली कहानी के फलक का विस्तार हुआ। वैसे राजनीतिक बिन्दुओं का प्रवेश मायानन्द के लेखन में हो चुका था। राजमोहन झा की 'युद्ध-युद्ध-युद्ध', गंगेश गुंजन की 'अभिनय', साकेतानन्द की 'जिनगीक काँट', प्रभास कुमार चौधरी की 'आएल पानि गेल पानि', रमानन्द रेणु की 'एक टघार नोर', जीवकान्त की 'हाहि', सुभाष चन्द्र यादव की 'काठक बनल लोक', महाप्रकाश की 'जोड़-घटाव-गुणा-भाग', महेन्द्र की 'अधमरू', ललितेश मिश्र की 'समुद्र' इत्यादि कहानी युगीन समस्या, और सामान्य जन-जीवन के दुःख-दर्द की वाहिका बनी।

मायानन्द की रचनाधर्मिता से मैथिली कहानी आज भी अनुप्राणित है। पर यह बात पूरी दृढ़ता से कही जा सकती है कि राजकमल ने अपनी कहानी के माध्यम से कथा-लेखन की जो दिशा निर्दिष्ट की उसे पकड़ने में परवर्ती कहानीकार सफल हुए। भाषा और शिल्प की नूतनता तथा तीक्ष्णता के कारण उसे इक्कीसवीं शताब्दी की मैथिली कहानी कही जा सकती है। मैथिली कहानी आज पूरे ओज और सामथ्र्य से लिखी जा रही है, और मेरी समझ से संसार भर के कहानी-साहित्य से बराबरी का दर्जा रखती है। आधुनिक मैथिली कहानी के सबल स्तम्भों की रचना 'युद्ध-युद्ध-युद्ध', 'सब-दे-सब'(राजमोहन झा), 'अनुपस्थित महाशय'(गंगेश गुंजन), 'अगुरवान'(धूमकेतु), 'इन्किलाब', 'तेतरी', 'गौड़'(जीवकान्त), 'पाखण्ड पर्व'(महाप्रकाश), 'काठक बनल लोक'(सुभाष चन्द्र यादव) आदि में आत्मसंघर्ष से उद्भूत अनुभूति और युगबोध का चित्र दिखाई देता है। छत्रानन्द की 'स्वर्ग' कहानी की सम्प्रेषणीयता पाठकों के अन्तस्तल को छू लेती है। 'अनुपस्थित महाशय' में विदेशी सभ्यता के प्रति नायक का झुकाव और मातृभाषा के प्रति कृत्रिम स्नेह, कथाकार गंगेश गुंजन की खीज को जगा देता है, श्री देव की 'नज्म-ए-लक्ष्मी' मिथ्या जातिवाद का साफ चित्रण करती है, मनमोहन झा की 'जोंक' मनुष्य की सज्जनता का अनुचित लाभ उठाने की दुर्वृत्ति का परिचय देती है। पंजाबी पदबन्धों के समावेश के कारण राजमोहन की 'सब-दे-सब' कुछ लोगों को कमजोर कहानी लगी, पर कहानी के स्तर की कसौटी उसके कुछ सम्वाद भर नहीं होती। बुनावट में प्रसंगानुकूल अन्य भाषा अथवा बोली का समावेश परिस्थिति की माँग पर निर्भर करता है। यदि कथ्य सम्प्रे्रषण में यह समावेश बाधक न हो, तो इसे कहानी का वैशिष्ट्य समझा जाना चाहिए, इससे कथ्य की विश्वसनीयता पुष्ट होती है। युग-जीवन अब अत्यन्त गतिशील हो गया है। अल्पना, मंगल-घट, और सुहाग-कक्ष की चित्त-भित्ति पर मैथिली कहानी को रखकर उसकी परीक्षा करना, उसे सर्वथा युग-जीवन से काटना होगा। इस मनोवैज्ञानिक युग की द्रुत गति से मैथिली कहानी की भाषा, विषय, तकनीक को दौड़ना पड़ेगा, तभी मैथिली कहानी युग के साथ चलने में समर्थ होगी।

अत्यन्त छोटी-सी घटना को कहानी में चित्रित करते समय, पात्र की पूर्वकथा, परिवेश, चरित्र, मानसिकता, प्रवृत्ति, गुण, अवगुण, सामाजिक मानदण्ड, उस पर परिवेश का प्रभाव...आदि प्रसंगों का वर्णन होना आवश्यक हो गया है। इस वर्णन के क्रम में अब प्रत्येक प्राणी के एक-एक क्षण की घटना कहानी बन सकती है। हर व्यक्ति के जीवन अथवा वातावरण का कोई भी सामान्य क्षण, असंख्य घटनाक्रम के उद्भव अथवा असंख्य वातावरण का जनक हो सकता है। रचनाकार की पहचान-दृष्टि और जीवन-दृष्टि उस क्षण को पकड़ने में कितना सक्षम है--यह महत्त्वपूर्ण बात होती है। युगीन विसंगतियों के कारण मनुष्य का जीवन, अब जटिल और वैविध्यपूर्ण हो गया है, इस प्रकार के जीवन सन्धान में हर मनुष्य अपनी एक-एक साँस कहानी-लेखन के प्लाॅट पर लेता है--उक्त कहानीकारों की कहानियों में इस स्थिति को देखा जा सकता है, यद्यपि इस परम्परा का सूत्रपात इनके पूर्वज कथाकार ही कर चुके थे।

जीवन-दृष्टि मनुष्य को शिक्षा से नहीं, उम्र से नहीं, आत्म-संघर्ष से प्राप्त होती हैै। और युगीन प्रगतिशीलता के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभाव के क्षेत्र में मिथिला, अन्य भूखण्डों की तुलना में पिछड़ा हुआ इलाका है। साहित्यिक स्वरूप की प्रगतिशीलता हेतु घटनाक्रम आवश्यक है। मिथिलांचल वैसे भी आत्मजीवी लोगों का निवास-स्थल है, जहाँ लोग अधिकतर यथास्थितिवाद के ही पोषक होते हैं।

किन्तु उक्त अवधि में भारतीय नागरिक, और इसलिए मैथिल नागरिक का जीवन-संघर्ष, और जीवन की विभीषिका उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। स्वातन्त्र्योत्तर काल में कई प्रतिभाशाली कथाकार दिवंगत हो गए, तो क्रियाशील रहे, उन्हें आगे की व्यवस्थाजन्य विकृति नाक से ऊपर आती दिखने लगी। आत्मसंघर्ष की स्थिति शिखर छू गई थी। रचनाकारों को जन-जीवन की एक-एक साँस में कथा-तत्त्व मिलने लगी थी। इस संघर्ष से उद्भूत कथा-सृजन प्रखर हुआ। अनुभवी रचनाकार के तराशे हुए शिल्प और नए कहानीकारों के नूतन शिल्प में कहानी-लेखन होने लगा।

ऊपर जैसी चर्चा हुई, यह समय आते-आते कहानी के लिए मूल रूप से दो ही वस्तु विचारणीय रह गई--कथ्य और शिल्प। जीवन-पद्धति की जटिलता और उसकी बहुफलकता का ही परिणाम था कि कहानी में शिल्प का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया। कथ्य गौण नहीं हुआ, पर छोटे-छोटे कथ्य में कहानी की इतनी सम्भावना बनने लगी कि उसके लिए शिल्प को मुखर होना पड़ा। 'कमलमुखी कनियाँ'(राजकमल चौधरी) कहानी में अत्यन्त मामूली-सी बात है--पास-पड़ोस में चर्चा हो रही है कि नवागत बहू स्नो-पाउडर लगाती हैं, ब्रा-ब्लाउज पहनती हैं, शृंगार पर ध्यान देती हैं, निश्चय ही ये अच्छे खानदान की नहीं होंगीं। और नायक इस बात को असत्य साबित करने पर तुले हुए हैं। मात्र इतनी-सी बात के लिए कहानीकार ने पूरे मैथिल समाज का सम्पूर्ण आचरण उधेस कर रख दिया है। अच्छे खानदान की मौलिकता पर और पूरे समाज, कथानायक, और कथानायक की मित्र-मण्डली के मनोदशा-मनोविकार पर नवागत बहू, अन्त में ऐसा वक्तव्य देती हैं कि कथानायक का पूरा गाँव, और परिवार का समस्त कौलिक सौष्ठव ध्वस्त हो जाता है।

स्त्री विमर्श, दलित प्रसंग, अन्तर्जातीय विवाह और उत्तर उपनिवेशवादी विमर्श के बारे में सन् 1958 में प्रायः किसी भी भारतीय भाषा में चर्चा नहीं रही होगी। मिथिला क्षेत्र, स्वाधीन भारत का विपन्न किन्तु स्वाधीन भूखण्ड था, मैथिलों के आचार-आचारण में पाखण्ड का अलग उपनिवेश फिर भी व्याप्त था। राजकमल चौधरी जैसे जाज्वल्यमान नक्षत्र को तत्कालीन भारतीय साहित्य का उन्नायक माना जाना चाहिए कि उन्होंने 'कमलमुखी कनियाँ' जैसी कहानी मैथिली में लिखी, जो उस समय तक भारत के किसी और भाषा-साहित्य में नहीं लिखी जा सकी थी।

बीस मिनट की इस छोटी-सी कहानी में कुत्सित पौरुष और ठोस स्त्रीत्व के जिस स्वरूप को राजकमल चौधरी ने नंगा और मुखर किया है, वह भारतीय जीवन पद्धति के मूल की ओर ध्यान आकृष्ट करता है। नन्द जी अपने कुण्ठित-कुत्सित समाज के नागरिकों द्वारा फैलाई हुई निरर्थक अफवाह को गलत साबित करने हेतु भरी सभा में दुश्शासन की तरह अपनी पत्नी के चीर-हरण में लीन हैं। उनका कोई भी उद्देश्य निर्धारित नहीं है, इतना पौरुष नहीं है कि उन पापियों के मन की बात, और उनकी नीयत समझ सकें, उसे डपट कर चुप कर सकें। नन्द जी के ग्रामीण 'कमलमुखी कनियाँ' के बेपर्द चेहरे और बेपर्द बाँहें नजर भर देख लेने के लिए तरह-तरह से उतावले हैं। पाउडर लगाना और ब्रा-ब्लाउज पहनना उस स्त्री के लिए शास्त्र विरुद्ध था, किन्तु श्वशुुर-जेठ-देवर और जेठ की सन्तानों द्वारा बहू-अनुजबधू-भौजाई-चाची के देह-विन्यास पर रसीली चर्चा शास्त्र विरुद्ध नहीं था। दुश्शासन से भरे ऐसे समाज की कुलवधू 'कमलमुखी कनियाँ', अर्थात् सहरसावाली, अर्थात् भारतीय स्त्रीत्व के प्रतीक ने द्रौपदी की तरह अँजुरी जोड़कर किसी कृष्ण का आह्वान नहीं किया। उनके पास उनका सबसे बड़ा अस्त्र था उनकी अपनी मेधा-शक्ति, अपनी तर्क-शक्ति, अपनी विचार पद्धति--शारीरिक शक्ति से विजय नहीं पाने पर उन्होंने अपने ही हाथों अपनी साड़ी खींच कर उन पापियों के बीच फेंकते हुए घोषणा की, अपने निजी भोग को सामाजिक स्वरूप देती हुई बोल उठीं--ब्लाउज ही क्यों, आपलोगों की माँ-बेटियों को, बहुओं को तो साड़ी भी नहीं पहननी चाहिए।...और इसके बाद चारो तरफ अन्धकार फैल गया। यह अन्धकार ज्योति-शिखा बन्द हो जाने का अन्धकार नहीं था। यह था म्रियमान प्रकाश में, अथवा प्रकाश के आभास में क्रियाशील दुष्कर्म को नंगा करने की चकाचैन्ध।

स्वाधीन भारत के स्वाधीन भूखण्ड मिथिला क्षेत्र के पाखण्ड और कुण्ठा को, अनाचार और अवनति फैलाती सामाजिक व्यवस्था को मैथिली के कथाकार उजागर करते रहे हैं, समान्य पाठकों को इससे ऊष्मा भी मिली है, ताप भी...।

इसी तरह 'भात'(सोमदेव), 'भोजन'(राजमोहन झा), 'अपन समांग'(गंगेश गुंजन), 'देबाल'(महाप्रकाश), 'एकटा उड़ल फुर्र'(विभूति आनन्द), 'तानपूरा'(अशोक), 'पीपरक पात'(उषा किरण खान), 'उड़ान'(तारानन्द वियोगी), काँटी (रमेश), 'सीतापुरक सुनयना'(शिवशंकर श्रीनिवास), 'अयना'(नीता झा) आदि कहानी के शिल्प को देखा जा सकता है। मेरी राय में शिल्प-सन्धान में राजकमल चौधरी से लेकर परवर्ती काल के समस्त कहानीकारों ने जितने चमत्कार दिखाए हैं, वह उस कथ्य की माँग थी। वस्तुतः उस अन्तराल के सारे सफल कथाकार कथ्य को अधिकतम स्पष्टता देने हेतु शतरंज के खिलाड़ी की तरह चारो ओर से घेराव करने का उद्यम करते रहे हैं। जैसा कि पहले भी कहा गया, क्षण भर की स्थिति, असंख्य क्षणों के उद्भव, और असंख्य प्रसंगों की जननी होती है। मैथिली के इस अवधि के सारे कथाकार अपने कथालेखन में यही प्रमाणित करते रहे हैं। अपने छोटे-से कथ्य में उद्देश्य का महत्तम प्रस्तुत करते रहे हैं। इसलिए स्वीकृत सत्य है कि कहानी के लिए असली वस्तु शिल्प होती है। कथ्य तो कई लोगों के एक तरह के हो सकते हैं, किन्तु कथ्य को उपस्थापित करने का ढंग अपना-अपना होता है। विविध साहित्यकार द्वारा एक ही परिवेश से उठाया गया राॅ-मैटेरियल तो एक हो सकता है, किन्तु शिल्प-निर्माण लोग अपनी-अपनी अनुभूति की परिपक्वता के आधार पर करते हैं। इसी शिल्प के कारण एक ही कथ्य से कई कहानियाँ लिखी जा सकती हैं। इसी शिल्प ने इधर आकर कहानियों को मनोवैज्ञानिकता की तरफ आग्रहशील बनाया। कहानी में कथानक की प्रधानता नहीं रहकर, घटना की प्रधानता नहीं रहकर, कथ्य के साथ रचनाकार के व्यवहार की प्रधानता होने लगी।

विदित है कि अनुभूति की परिपक्वता शिल्प-निर्माण में सहायक होती है, और समसामयिक जीवन-व्यवस्था अनूभूति को परिपक्व करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्वातन्त्र्योत्तर काल में देश की जैसी दशा रही है, सम्पूर्ण भारतवर्ष के साथ मिथिला क्षेत्र जिस प्रपंच का शिकार हुआ, उसका रहस्योद्घाटन छठे दशक में ही हो गया था। तेलंगाना आन्दोलन का विरोध, देश का विभाजन, मानव द्रोह, हिंसा, स्वदेशी शासन की एकांगी नीति, महात्मा गाँधी की हत्या, शासन व्यवस्था में लिप्त-तृप्त लोगों का मानवेतर आचरण, प्रपंच, ताशकन्द समझौता, नेहरू-युग का राजनीतिक मोहभंग, सीमा संघर्ष, लाल बहादुर शास्त्री का मोहभंग, आदि-आदि घटनाएँ समकालीन रचनाकारों के जीवन-दर्शन को उद्बुद्ध कर चुकी थीं। ऐसी स्थिति में रचनाधर्मी लोग नई तरह की जीवन-दृष्टि विकसित कर चुकी थी और जीवन-यापन के रास्ते सुलभ करने हेतु आम नागरिकों को नई पद्धति से प्रशिक्षण दे रहे थे। इस नई आचार-संहिता और प्रपंच-तन्त्र के कारण समकालीन रचनाओं का नया विधान बन रहा था। विषय और शिल्प के स्तर पर नए-नए प्रयोग हो रहे थे। किन्तु नवता का विरोध तो हर कालावधि में होता आया है--सन् 1960 के दशक में अपनी परिचिति बनानेवाले रचनाकार जब नए भावबोध को नई शैली में चित्रित करने लगे, तब भी कुछ रूढ़िग्रस्त लोग तिलमिला उठे थे। अर्थ-तन्त्र से प्रभावित राजकमल की कहानी 'ननदि-भाउज' उस पीढ़ी के लोगों को बर्दाश्त नहीं हुई। रूढ़िवाद के समर्थकों को इस तथ्य का अनुमान कभी नहीं हो सका कि कथ्य के स्तर पर भी नई पीढ़ी के लोग ही अपने फलक को अधिक बढ़ा सकते हैं। पुरानी पीढ़ी के लोगों के लिए अभी भी कुछ क्षेत्र वर्जित ही हैं; जब कि नई पीढ़ी के लोग वृद्ध, अशक्य, असहाय, शोषित, सबल, पराजित, उपेक्षित, तिरस्कृत...सब कोटि के लोगों के मन में झाँक लेते हैं और अपनी रचना के लिए कथ्य उठा लाते हैं, यहाँ तक कि दिशाहारा युवा वर्ग के फ्रस्ट्रेशन पर भी ध्यान केन्द्रित करते हैं, इस मानसिकता में वे कैबरे डान्स देखते हुए, अथवा किसी वेश्या की गोद में सिर रखकर चरम शान्ति प्राप्त करते हुए नायक के जीवन में भी कथा-तत्त्व ढूँढ लेते हैं। अर्थात, नई पीढ़ी के कहानीकारों के लिए जीवन का कोई भी क्षेत्र साहित्य में वर्जित नहीं है। इस सर्जक समूह को अभिव्यक्ति का कोई खतरा नहीं रह गया है। अर्थ-तन्त्र, राजनीति, कूटनीति, नारी-उत्पीड़न, भूख-बेरोजगारी-अभाव-शोषण, शैक्षिक-वैचारिक अराजकता, दाम्पत्य और रक्त सम्बन्ध का विगलन, सम्बन्ध का ढोंग, धार्मिक पाखण्ड आदि समस्त सामाजिक गतिविधियाँ कहानी की वस्तु हो सकती हैं। छठे दशक से लेकर आज तक की कहानी में समयानुसार और रचनाकार के कौशल के अनुसार ये सारी बातें ढूँढी जा सकती हैं।

वस्तुतः युग सन्दर्भ के साथ रचनाकार का अन्तरंग सम्बन्ध बढ़ता गया है। रचनाकार को युगानुकूल अपना दृष्टि-फलक परिवर्तित करना पड़ता है। आज शासक-उपदेशक व्यक्तिवादी धारणा में सम्मोहित हो गए हैं, इसलिए आब जनसामान्य के आगे पथद्रष्टा का संकट है। सृजनधर्मी लोग सामाज के सबसे सम्वेदनशील प्राणी होते हैं, जिसे समाज की हर छोटी-बड़ी घटना प्रभावित करती है। और जब समाज का व्यवस्था-तन्त्र इस तरह स्वार्थ में लिप्त हो जाए, तो वस्तुतः यह दायित्व साहित्यकार का होता है कि वह जनसामान्य को दृष्टिबोध दें, और युग के साथ कदम मिला कर चलने के लिए प्रेरित करें।

उत्कृष्ट साहित्यकार के दृष्टिपूर्ण योगदान से आठवें दशक में कहानी, कहानी-संग्रह और कहानीकार की संख्या मैथिली में पुष्ट हुई। इस दशक के कहानीकार की सूची लम्बी है, किन्तु मुख्य रूप से गिने जाने वाले हैं--पूर्णेन्दु चौधरी, विनोद बिहारी लाल, विभूति आनन्द, उषा किरण खान, अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, विभा रानी, प्रदीप बिहारी, नवीन चौधरी, तारानन्द वियोगी, केदार कानन, नीता झा, रमेश, देवशंकर नवीन, ज्योत्स्ना चन्द्रम, सुस्मिता पाठक आदि।--वैज्ञानिक युग के प्रादुर्भाव से देश-विदेश का सम्पर्क बढ़ा, साहित्यिक चेतना बढ़ी और उध्र्वमुखी यथार्थ के प्रति रचनाकार का आग्रह बढ़ा। साहित्यिक आदान-प्रदान से साहित्यिक प्रवृत्ति पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। पाश्चात्य धारा से भी प्रभाव ग्रहण किया गया। कहानी में घटना की प्रधानता घटती गई, शिल्प की प्रधानता बढ़ती गई। कहानी देश-देशान्तर के युद्ध, प्रक्षेपास्त्र, लौहमानव, चन्द्रतल के भ्रमण, सूर्य-पृथ्वी के आपसी सम्बन्ध की बात करने लगी, बेकारी-बेगारी, भूख, दुःख, अभाव, व्यभिचार, शोषण-सीदन की चर्चा करने लगी। शोषितों को उसके ताकत का बोध कराकर ललकारने लगी और शोषकों के पतन की बात कहने लगी। अल्प-वेतनभोगी परिवार की विविध समस्याओं को उद्घाटित करने लगी, मानवीय इच्छा आकांक्षा की दमित वासना को उद्घाटित करने लगी और इस समस्त अभिव्यक्ति के साथ विनोद बिहारी लाल की 'जिनगी', विभूति आनन्द की 'खापड़ि महक धान', तारानन्द वियोगी की 'पिआस', 'बिसरभोर', केदार कानन की 'नाटक', 'तामस', 'आतंक', प्रदीप बिहारी की 'एकटा रोगियाह जिनगी' इत्यादि कहानी प्रकाशित हुई।

मैथिली कहानी के वर्तमान स्वरूप को संस्कृत से विरासत में संस्कार प्राप्त हुआ, वैज्ञानिक युग की देन से बढ़ते देश-विदेश की सभ्यता-संस्कृति का सम्पर्क बढ़ा, और विदेशी साहित्य के प्रभाव से आधुनिक सोच को गति मिली। किन्तु मैथिली कहानी को अधुनातन बनाने में सर्वाधिक योगदान समकालीन कहानीकार की जीवन-दृष्टि को है, जो उनलोगों ने अपने समय की विभीषिका से लड़ कर अर्जित की है।

कहानी लेखन में अद्यावधि तीन तरह का मौलिक परिवर्तन आया है--कथ्यगत, शिल्पगत और भाषागत। ये तीनों परिवर्तन हमारे समाज की बदलती सभ्यता-संस्कृति, बढ़ती रीति-कुरीति, विकसित ज्ञान-प्रतिभा और देश-देशान्तर की मित्रता इत्यादि का अवदान है। समय जैसे-जैसे बदलता गया, कहानी-लेखन के तेवर में परिवर्तन आता गया। तथ्य है कि कहानी-साहित्य मैथिली ही नहीं, सभी भाषाओं की सर्वप्रसिद्ध सर्वप्रशंसित विधा है। आज मैथिली कहानी अपने निरन्तर विकास के साथ गुणवत्ता में विश्व-साहित्य से प्रतिस्पद्र्धा कर रही है।

कहानी लेखन वस्तुतः जोखिम उठाने का काम है। अन्य विधाओं में कहीं फिसल जाने पर सँभल जाने की सम्भावना बची रहती है, कहानी-लेखन में ऐसा नहीं है, यहाँ अधिक सावधानी की अपेक्षा रहती है। प्रेमचन्द कहते हैं, 'कहानी वह ध्रुपद की तान है जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूरित कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता(प्रेमचन्द/साहित्य का उद्देश्य/पृ. 44)।' इसी तरह चेखव का उद्धरण देते हुए राजकमल चौधरी अपने एक निबन्ध में लिखते हैं, 'उत्तम कोटि की कहानी अपने समाप्ति स्थल से ही प्रारम्भ होती है(मिथिला मिहिर, 6 जून 1965/पृ.20)।' राजकमल चौधरी स्वयं कहते हैं 'कहानी की समाप्ति ही, कहानी की अन्तरात्मा का प्रतीक होता है, कहानी का विषय नहीं(पृ.21)। इस निबन्ध की सम्पादकीय टिप्पणी है, 'कहानी की समाप्ति कुछ ऐसेे स्थल पर कर दिया जाए कि चिन्तन-सागर में गोता लगाने को पाठक मजबूर हो जाएँ, तो वह हुआ उसका शिल्प, किन्तु किसी शिल्प विशेष के कारण यदि पाठक समाप्ति के अर्थ को अनर्थ के रूप में ग्रहण करे ते वह हुआ कहानीकार का दौर्बल्य(पृ.31)।'

मैथिली की समकालीन कहानी अपने बुनावट, भाषा, वाक्य-विन्यास, चरित्रांकन, कथा-शिल्प, कथ्य, शब्द-प्रयोग आदि में इस अनुशासन का मान रखती आई है, और अपने उद्देश्य से तिल भर भी विचलित नहीं हुई है।

विशाल जन समुदाय के वर्ग-संघर्ष, दैन्य, विवशता, शोषण, अभाव, समकालीन समाज की आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक वातावरण आदि से कहानी-साहित्य भरा रहता है, ऐसी स्थिति में कहानी में मनोरंजकता की अपेक्षा की जाती है। कहानी में मनोरंजकता वही काम करती है, जो कुनैन की गोली पर मिठास का अनुलेप करता है। यही मिठास पाठकों को कहानी का आद्योपान्त पारायण तक एकाग्र रखती है, बाँधे रहती है। और इसलिए अन्त में पाठक कहानी के मौलिक उद्देश्य तक पहुँच पाते हैं। प्रारम्भ में तो मनोरंजकता ही मैथिली कहानी का मुख्य ध्येय रहता था। सुधांशु शेखर चौधरी भी ऐसा स्वीकार करते हैं(सन्दर्भ/पृ.70)। क्रमशः कहानी का ध्येय बदलता गया, मनोरंजक तत्त्व का उपयोग कहानी के उद्देश्य प्राप्ति के लिए होने लगी।

किन्तु स्वातन्त्र्योत्तर काल के भारतीय नागरिक के लिए तो पूरा जीवन ही कड़वा, कुनैन, नीम-करैला हुआ चला जा रहा था। स्वाधीनता प्राप्ति के तत्काल बाद विभाजन और शरणार्थी की आवाजाही से उत्पन्न समस्या, दोनों देशों की सीमा पर संक्रमण काल का खून-खराबा, तेलंगाना आन्दोलन की ध्वनि को प्रभावहीन करने की शासकीय व्यवस्था...सब के सब पाँचवें दशक की समस्या है। पहले भी कहा गया कि उस दौर की मिथिला, मैथिल और मैथिली के लेखकों को स्थानीय समस्या से फुरसत नहीं मिलती थी, राष्ट्रीय विप्लव का सीधा प्रतिकार वे नहीं कर पाते थे, उसके प्रभाव का विरोध करने की भी फुरसत नहीं बना पाते थे, अपना नितान्त निजी परिवेश ही इतना घिनौना था कि उसी के साफ-सफाई में रह गए।

छठे दशक में राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक गतिविधि भीतर ही भीतर पक रही थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी जनता स्वाधीनता का स्वाद चखने को तरस गई, इधर मुट्ठी भर लोग मौज-मस्ती में जुट गए। स्वाधीनता आन्दोलन में अल्प अथवा अति सक्रियता दिखानेवाले लोग स्वाधीन भारत की व्यवस्था से मुआवजा वसूलने लगे। आम नागरिकों के सपने और आवश्यकता, व्यवस्था के निर्माताओं की नजर में निरर्थक हो गई थी। देशी लोग अन्न-वस्त्र को तरस रहे थे, राजनेता विदेशी-मैत्री के अनुबन्ध और तकनीकी सम्बन्ध की सीमा-शर्त निर्धारित करने में व्यस्त थे। समस्त भारतीय भाषा के साहित्यकार इस स्थिति को देख रहे थे। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषा की पत्र-पत्रिका में लोकतन्त्री पद्धति की समस्त विडम्बनाएँ उजागर हो रही थीं। नवता का सूत्रपात करते हुए सन् 1949 में वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' का कविता संग्रह 'चित्र' और सन् 1959 में राजकमल चौधरी का कविता संग्रह 'स्वरगन्धा' का प्रकाशन हुआ। कम से कम तीन सक्रिय द्विभाषी रचनाकार यात्री, आरसी प्रसाद सिंह और राजकमल चौधरी मैथिली के साथ-साथ हिन्दी साहित्य के भी ओर-छोर देख रहे थे। राजकमल चौधरी को तो हिन्दी में भी उस दौर का सर्वाधिक पढ़ा-गुना रचनाकार माना जाता था। यात्री और राजकमल चौधरी, विश्वस्तरीय साहित्यिक आन्दोलन-परिवर्तन आदि से गम्भीरतापूर्वक परिचित थे। हिन्दी में धर्मवीर भारती और कमलेश्वर समेत कई रचनाकार समकालीन परिस्थिति की बखिया उधेड़ते आ रहे थे। आम जनता के दुःख-दर्द को ममत्व के साथ जाननेवाले जनप्रिय और जनहितैषी राजनेता डॉ.राममनोहर लोहिया व्याकुल रहते थे। उनकी राय तो यहाँ तक थी कि जेल से बाहर जीवन-बसर करनेवाले नागरिकों का जीवन किसी कैदी से कम नहीं है।

इसी परिस्थिति में हिन्दी कविता का संग्रह दूसरा सप्तक(1951) और तीसरा सप्तक(1959) प्रकाशित हुआ। सन् 1955 आते-आते नई कहानी आन्दोलन शुरू हुआ। ये सारी स्थितियाँ सन् 1960 के बाद की राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक उथल-पुथल की पृष्ठभूमि साबित हुई। इसी दौर में मैथिली कहानी के पुरोधा रचनाकार ललित, राजकमल, मायानन्द के अलावा इनके समवर्ती रचनाकार सोमदेव, बलराम, लिलि रे, राजमोहन झा, रामदेव झा, हंसराज, धीरेन्द्र, आदि रचनारत थे। प्रभास कुमार चौधरी, गंगेश गुंजन, रमानन्द रेणु, जीवकान्त आदि ने मैथिली कहानी के रचना-क्रम को आगे बढ़ाया। फिर सुभाषचन्द्र यादव, सुकान्त सोम, उदयचन्द्र झा 'विनोद', उपेन्द्र दोषी ने इस रिले रेस का झण्डा थामा। किन्तु यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर के जितने भी राजनीतिक विप्लव हुए, जिसमें देश का जनपद और जनपदीय जीवन आहत-मर्माहत, प्रताड़ित-प्रभावित होता रहा, उसकी सघन प्रतिच्छवि आठवें दशक के कहानीकारों के यहाँ दिखी, उससे पूर्व नहीं। हाँ, इतना तो सत्य है कि ललित, राजकमल, मायानन्द, सोमदेव, लिलि रे, हंसराज, राजमोहन, रामदेव, प्रभास, गुंजन आदि की रचना में विषय और बिम्ब की नूतनता दिखती है, उस राष्ट्रीय आपदाओं के प्रभाव, और उस प्रभाव से उत्पन्न समस्याओं का चित्र अवश्य दिखता है। उस पीढ़ी में राजनीतिक दृष्टि का सबसे स्पष्ट स्वरूप मायानन्द के यहाँ दिखता है, किन्तु वे सब उनकी बाद की कहानियाँ हैं--'भए प्रगट कृपाला', 'दीनदयाला' इत्यादि। वैसे इस तरह के संकेत मायानन्द की कहानी में पहले से भी दिखते हैं। यह संकेत ललित के यहाँ भी देखे जा सकते हैं। उनका कथानायक रमजानी, रिक्शा खरीदना चाहता है, अर्थात् मशीन-युग में प्रवेश करना चाहता है। मायानन्द के 'रंग उड़ल मुरुत' का नायक मिट्टी के खिलौने से प्लास्टिक के खिलौने की तरफ आकर्षित होता है, राजकमल की कहानी 'हाथीक दाँत' तो सीधे-सीधे राजनीति और राजनीतिक परिणति प्रसंग का दृश्य दिखाती है। गंगेश गुंजन की कहानी में राजनीतिक जागृति तनिक पहले अवश्य आई, तथापि साफ बात यह है कि मैथिली में देश के आपातकाल से(सन् 1974) पूर्व के रचनाकार राष्ट्रीय राजनीति के प्रति बहुत अधिक आग्रहशील नहीं दिखते थे। उस काल के आलोचनात्मक निबन्धों में भी इस दृष्टि से किसी रचना की व्याख्या में रुचि नहीं दिखाई देती है। अन्यथा ऐसा कैसे होता कि तेलंगाना, नक्सलबाड़ी, गाँधी की हत्या, विभाजन, खून-खराबा, पलायन, शरणार्थियों की आवाजाही, सन् 1957 और 1967 के आम चुनाव, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन, चीन और पाकिस्तान का सीमावर्ती आक्रमण, अकाल, दुर्भिक्ष...सारी समस्या अछूत रह जाती? मिथिला क्षेत्र के नागरिक मन को और साहित्यिक मानस को ये सारी घटनाएँ प्रभावित किए बगैर कैसे रह गई--यह विचारणीय प्रश्न है। स्पष्ट है कि ये लोग अपनी स्थानीय समस्या से उबर नहीं सके थे। पर यह भी स्पष्ट है कि आठवें दशक के कहानीकारों ने इस जागरूकता को अंगीकार किया। इस सद्परिणाम के प्रमुख घटक समस्त पूर्ववर्ती रचनाकार हैं--यह मानने में किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिए। पूर्वजों के कन्धे पर बैठकर ही अनुजवर्ती पीढ़ी ऊँची होती है, दुनिया का मेला-झमेला देखती है, अभिधा में भी, और व्यंजना में भी। स्वीकृत सत्य है कि जीवन-दृष्टि मनुष्य की भले ही अपनी हो, दिशा-दृष्टि पूर्ववर्ती रचनाकार ही देते हैं।

हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक शिवप्रसाद सिंह ने सन् 1947 से 1967 तक के बीस वर्षों की अवधि को 'शर्मनाक भिक्षाकाल' कहा है। बात सत्य है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी भारत के नागरिक पूरी तरह स्वाधीन नहीं थे। राजनेता लोग अपना और अपनी वंशावली का भविष्य सुरक्षित करने में लगे हुए थे। खुद को अनाज-पानी का देवता और 'भारत भाग्य विधाता' साबित करने में तल्लीन थे। देश में निरन्तर अभाव, बेकारी, द्रोह, आन्तरिक अशान्ति फैलती जा रही थी। अकाल, युद्ध, आक्रमण, अशिक्षा अभाव से लड़ते-लड़ते, और अन्यान्य दुव्र्यवस्था के कारण भी भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन हुआ, विदेशी ऋण पर निर्भरता बढ़ने लगी, शर्मनाक भिक्षाकाल का परिणाम सन् 1967 के आम चुनाव में नौ राज्यों में कांग्रेस की पराजय के रूप में सामने आया, किन्तु दुष्परिणाम यह हुआ कि दक्षिणपन्थी शक्ति का मस्तक ऊँचा हो गया। सन् 1964 में वामपन्थ में विभाजन न हुआ होता तो सम्भवतः आम चुनाव का परिणाम कुछ और होता। इसी वर्ष नक्सलबाड़ी आन्दोलन शुरू हुआ। इसकी ध्वनि समाप्त करने की पुरजोर कोशिश की गई, किन्तु शीघ्र ही यह आन्दोलन पूरे देश के मजदूर किसान का विद्रोह बन गया। इस समय तक कई वामपन्थी नेता और कुछ साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षक, उपदेशक अपने भविष्य की सुरक्षा हेतु और सत्ता-व्यवस्था में अपना प्रभाव बनाने हेतु कांग्रेस की परिक्रमा करने लगे। फल हुआ कि अगले दस वर्ष कांग्रेसी उद्दण्डता, दुस्साहस, अनीति और निरंकुशता के वर्ष हो गए। एक तरफ आम नागरिक मुक्त हवा में क्षण भर साँस लेने हेतु तनिक सिर ऊपर करना चाहता था, दूसरी तरफ असुरक्षित भविष्य की आशंका से कांग्रेस पार्टी के भाग्य विधाता उसे दबाए रखना चाहता था। सत्ता व्यवस्था की बौखलाहट और आम नागरिक की व्याकुलाता का यह द्वन्द्व क्रमशः मुखर होता गया। ढाई दशक से निरन्तर सत्ता पर काबिज खानदान को सत्ता का चसक लग गया था, वे भारतीय अंग्रेज हो गए थे, उन्हें भारतीय नागरिक से कोई खास मतलब नहीं रह गया था।

दूसरी तरफ सन् 1967 आते-आते वयस्क मताधिकार प्राप्त दृष्टि सम्पन्न नागरिकों की एक बड़ी पीढ़ी तैयार हो गई थी। उस पीढ़ी का जन्म पराधीन भारत में नहीं हुआ था, और किस्सों-कहानियों में सुनी हुई पराधीनता की रामकहानी से उस पीढ़ी को कोई मतलब नहीं था। मनुष्य अतीतजीवी होता है, चेतन-अवचेतन में संचित स्मृति को वह बार-बार स्मरण करता है। अपनी वंशावली के पराभव की सुनी अथवा पढ़ी घटना से प्रतिक्रियावादी होेना आतंकवाद का संकेत देता है। सन् 1967 के बाद का युवा वर्ग पराधीनता के किस्से नहीं सुनना चाहता था, वह सन् 1947 के बाद के लोकतन्त्र का नाटक और स्वाधीनता का छद्म देख रहा था। युग-परिवर्तन, शिक्षा के प्रचार-प्रसार और वैज्ञानिक प्रगति के कारण उस पीढ़ी का हर सदस्य दृष्टि-सम्पन्न था। उसे अपने चेतन-अवचेतन की हर छोटी-बड़ी स्मृति, अपनी वर्तमान स्थिति और अपना भावी लक्ष्य...हर जगह अन्धकार ही अन्धकार दिखता था। इन परिस्थितियों की फसल इस तरह लहरा रही थी कि बीसवीं शताब्दी का आठवाँ दशक आते-आते समाज इन दो विपरीतमुखी चिन्तनधाराओं के चिक्का खेल का अखाड़ा हो गया। दोनों धाराएँ एक दूसरे की बाँह पकड़ कर अपनी-अपनी तरफ खींच रही थीं। फलस्वरूप नई-नई समस्याएँ प्रबल हो उठीं। बेरोजगारी-बेकारी और महँगाई तो थी ही, अन्य ढेर सारी विडम्बनाओं ने भी सिर उठाया। सत्ता-तन्त्र की निरंकुशता, जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आन्दोलन, आपातकाल, सन् 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के पराभव, परिवर्तित सत्ता से आम जनता का मोह-भंग, मध्यावधि चुनाव...आदि के कारण उत्तरोत्तर अनेक अराजकता उत्पन्न होती गई। मानवीयता का अवमूल्यन हुआ। अभाव बढ़ा। शोषण बढ़ा। अभावग्रस्त युवा पीढ़ी तनावपूर्ण अवस्था में जीने लगी, सत्ता परिवर्तन के बाद सर्वाधिक निराशा युवा पीढ़ी को हुई। युवा वर्ग आन्दोलन से मुँह छुपाने लगे। बाद में शोषित समुदाय के युवाओं को तनिक आत्मचेतना और अस्तित्वबोध हुआ। इस समस्त सामाजिक क्रिया-अभिक्रिया, स्थिति-परिस्थिति को इस काल के प्रतिभाशाली कहानीकारों ने पहचाना। कहानीकारों का युगबोध, आत्म-परीक्षण, चेतनशीलता मैथिली कहानी में आई। समकालीन सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिवेश से इन लोगों का सरोकार सघन हुआ, और इसलिए कहानी में जन-जीवन की समकालीन समस्या, और समस्या का दंश झेलते मनुष्य की सम्पूर्ण छवि इन लोगों की कहानियों में मुखर हुई, कथाकारों ने अपने जीवन-दर्शन के पुरजोर उपयोग से पात्रों के मनोभाव को उजागर किया। सेवानिवृत व्यक्तियों का मनोविश्लेषण, युवाओं की आत्मचेतना, नवीन संस्कार की विजय प्राप्ति, खिंचाव महसूस करते दाम्पत्य-सूत्र, जटिल जीवन का संघर्ष, युगीन परिस्थितियाँ थीं; छद्म, मोह-भंग, विद्रोह, बेकारी की समस्या से उद्भूत अनेक मानसिक द्वन्द्व इस दशक की कहानियों के मुख्य विषय रहे।

असल में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् मिथिला की सभ्यता-संस्कृति और जीवन-प्रक्रिया में कुछ इस तरह परिवर्तन आता गया, कि इस विधा के स्वरूप तुरत-तुरत बदलते गए। प्रतिभाशाली कहानीकार इस परिवर्तन के औचित्य को, और साहित्य में इसके चित्रण की आवश्यकता को महसूस करते रहे।

वस्तुतः मैथिली कहानी अब सुहाग-कक्ष, शयनागार, दालान-चैपाल, चूल्हा-चैका, सोहर-समदाओन, अल्पना और मंगलघट की सीमा से बाहर आकर युग की प्रतियोगिता में गर्व से खड़ी हो गई। कथ्य-शिल्प-भाषा, तीनो स्तर की नवीनता के साथ मैथिली कहानी इस समय युग-सत्य के प्रतिनिधित्व में संलग्न है। प्रेमचन्द के मतानुसार उत्तम कोटि की कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधारित हो(साहित्य का उद्देश्य/पृ.51)। साहित्य में मनोविज्ञान की आवश्यकता कई तरह से होती है। कहानी के श्रवण अथवा अध्ययन से प्राप्त आनन्द अथवा घटित विरेचन भी एक मानसिक प्रक्रिया होती है। मनोविश्लेषणात्मक चित्रण इसी कारण पाठकों के लिए विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ। वस्तुतः समकालीन समाज के यथार्थ के कारण मानव-जीवन संघर्ष का अखाड़ा बन गया। जीवन-संग्राम में तन्मय मनुष्य को मनोरंजन के लिए समय का अकाल रहने लगा था। इस परिस्थिति में आवश्यक था, कि न्यूनतम समय में उसे अधिक से अधिक मनोरंजन हो, उसके मन का सुन्दर भाव जाग्रत हो सके। इसलिए आवश्यक था कि कहानी में सम्पन्नता, बुनावट में गहनता, कथ्य में वस्तुनिष्ठता, चरित्रांकन में मनोवेग की सघनता और समग्रता, अभिव्यक्ति में स्पष्टता, शिल्प में नूतनता, प्रभाव में लोकानुरंजकता और सोद्देश्यता रहे। कहानी के एक-एक शब्द आकर्षक और अपरिहार्य हो--समकालीन कथाकारों ने कहानी की इस सीमा-शर्त को पहचाना। कहानी-लेखन बिजली की धारा की तरह होने लगी, स्वीच दबाते ही करेण्ट प्रवाहित होने लगा, कहानी की पहली ही पंक्ति से कहानी के परिवेश में पाठकों का प्रवेश होने लगा।

मैथिली में अभी तक कहानी-लेखन खूब होती रही है, किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता, अन्य भाषाओं की तुलना में मामला ठण्डा-ठण्डा-सा प्रतीत होता है। इसका मूल कारण प्रकाशन की दुर्दशा है, यह चर्चा पहले भी हो चुकी है। एक समय था सन् 1950-55 का, जब 'वैदेही' पत्रिका के प्रकाशन से मैथिली कहानी को एक दिशा मिली। मैथिली कहानी को युगीन स्वरूप देनेवाले कई कहानीकार--ललित, राजकमल, मायानन्द आदि तैयार हुए। 'मिथिला मिहिर' के पुनर्प्रकाशन ने इस दिशा को मजबूती दी। किन्तु, बाद के दिनों में स्तरीय और आग्रहविहीन पत्रिका, तथा प्रकाशन संस्थान के अभाव में युगसम्मत कहानियाँ, कहानीकारों की फाइलों में ही दबी रहने लगी। यह दीगर बात है कि मुद्रण-व्यवस्था की सुविधा देखकर रचनाकार अपने ही खर्च से संग्रह प्रकाशित कराने लगे हैं, किन्तु वितरण और सही पाठक तक उन पुस्तकों की पहुँच की समस्या अभी भी बनी हुई है।

महँगाई, बेकारी, अभाव, अस्पृश्यता, दहेज, घूसखोरी, दाम्पत्य जीवन की कटुता, बेमेल-विवाह, ईर्ष्‍या, द्वेष, कुत्सित यौनाचार, अर्थ सम्पन्नता के आश्रय से अर्थविपन्न लोगों का शोषण, बलात्कार, चोरी; राजनीतिक अनस्थिरता, अपराध, अराजकता और असन्तुलन, विज्ञान के आगमन से प्राप्त प्रगति और अवनति इत्यादि अभी तक हमारे समाज की वर्तमान समस्या है। इनमें से सब एक दूसरे की जननी है। इस कटु यथार्थ से मुँह चुराना कहानीकार की नियति नहीं है। निम्नवर्गीय जाति के सर्वविधि शोषण, समाज के उच्च वर्गीय जाति का अधिकार जैसा बन गया, किन्तु शिक्षा प्रणाली के प्रचार-प्रसार, शहरी-क्षेत्र और शिक्षित व्यक्ति के संसर्ग, निम्नजाति के युवाओं की दृष्टि खोल दी। उसका आत्मबोध जग गया। फलस्वरूप उसके मन का विद्रोह धधक उठा। उसका यह विद्रोही स्वभाव, तथाकथित उच्चवर्गीय समुदाय को अनुचित लगने लगा। इस उचितानुचित के संघर्ष को कहानीकारों ने सम्मान दिया।

आठवें दशक से सक्रिय पूर्णेन्दु चौधरी, विभूति आनन्द, विनोद बिहारी लाल, प्रदीप बिहारी, अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, उषा किरण खान, विभा रानी, शैलेन्द्र आनन्द, तारानन्द वियोगी, रमेश, देवशंकर नवीन, ज्योत्स्ना चन्द्रम, सुस्मिता पाठक, और तनिक विलम्ब से आए कहानीकार शैलेन्द्र कुमार झा आदि की कहानी पत्र-पत्रिका में, या संकलनों अथवा कथा-गोष्ठी में पढ़-सुनकर कहा जा सकता है कि मैथिली कहानी को युग-सापेक्ष बनाने का प्रयास इनलोगों ने जी-जान से किया है। नारायणजी यद्यपि कवि के रूप में इसी पीढ़ी के साथ स्थापित हुए, किन्तु कहानीकार के रूप में बाद में अपना परिचय बना सके। 'टुटैत बेढ़' और 'बिहारिमे जड़ैत दीप'--दोनों ही कहानियों का कथ्य एक जैसा रहने के बावजूद विनोद बिहारी लाल ने शिल्प के आश्रय से इसे भिन्नता दी है, किन्तु उनकी आगे के कुछ कहानियों में शिल्प का प्रभाव कम होता गया। विधवा विवाह के प्रति आग्रही, असहाय जाया के शोषण के प्रति विद्रोही कहानीकार विनोद बिहारी लाल अपने कथ्य चयन में सामाजिक सत्य के निकट प्रतीत होते हैं। किन्तु किसी-किसी कहानी में अतिरंजित हो जाते हैं, कथानायक को जबरन जनवादी बनाने लगते हैं। परिमाणात्मक रूप में ढेर कहानियाँ लिखकर भी गुणात्मक रूप से कम कहानियों के साथ विनोद बिहारी लाल स्मरण रखे जाएँगे।

विभूति आनन्द इस पीढ़ी के द्वन्द्व और वर्ग-संघर्ष के कहानीकार हैं। 'रिटायरमेण्ट' कहानी में सेवामुक्त व्यक्ति के मनोविश्लेषण में उनका सफल कहानी-कौशल दिखता है। मायानन्द मिश्र की कहानी 'चन्द्रबिन्दु' और उषा प्रियम्वदा की हिन्दी कहानी 'वापसी' को स्मरण रखते हुए भी विभूति आनन्द की 'रिटायरमेण्ट' की अस्मिता अपनी दिशा में स्वतन्त्र है। देह सम्बन्ध के रागात्मक एप्रोच भी विभूति की कहानियों का मूल धर्म है। भाषा के स्तर पर विभूति सामान्य जन-जीवन के अत्यधिक निकट हैं।

'डेरबुक', 'ओहि रातिक भोर' और 'मिर्जासाहेब' में अशोक के कहानी-लेखन का विस्तार दिखता है। 'डेरबुक' जहाँ ग्रामीण बाला के मानसिक सम्वेग से गहन सम्पर्क कराती है, वहीं 'मिर्जा साहेब' साम्प्रदायिक सम्बन्ध की कटुता को रेखांकित करती है। अशोक अपने कथा-लेखन के हर फलक पर मानवीय सम्बन्ध के दैन्य पर चिन्तित हैं। सम्बन्धों के व्याकरण उनकी कहानियों में, और सृजन-कौशल में उद्वेलित होते रहते हैं।

शिवशंकर श्रीनिवास की कहानी 'सीतापुरक सुनयना' और 'दबाइ' सामाजिक रहस्यात्मक घटना के मूल तत्त्व को उद्घाटित करती है। शिवशंकर अपने सम्पूर्ण लेखन में पाठकों के साथ-साथ बिचरते हैं। कहानीक्रम का सहज विकास, लोक-जीवन की पारम्परिक संस्कृति के प्रति सहज सम्वेदना उनकी कहानियों के प्रमुख गुण हैं। अपनी माटी की गन्ध, और मौलिकता को अक्षुण्ण रखने की अवगति उनकी कहानियों को जीवनी शक्ति देती है। विवरण की अतिरंजना उनकी कहानियों में झाँकती तक नहीं। यही कारण है कि सफलता और सार्थकता उनके यहाँ एक साथ एक ही समय में तैयार रहती है।

प्रदीप बिहारी की 'सारंगिया' मानसिक द्वन्द्व की कहानी है, जहाँ सारंगिया बनकर भीख माँगते अपने पति को पहचान लेने के बाद पत्नी की कारुणिक स्थिति स्पष्ट हुई है। भावना और यथार्थ का यह संघर्ष प्रदीप की कहानी में निखर आया है। समस्या बहुल समाज में आज प्रेम-प्रसंग जिस तरह उपेक्षित होने लगी है, उसे प्रदीप अपनी किस्सागोई से स्पष्ट करते हैं। अत्यन्त सामान्य कोटि के लोक-जीवन की अत्यन्त छोटी-सी घटना प्रदीप की कहानी का कथ्य बनती है। 'मौगियाह' इस कोटि की कहानी में रखी जा सकती है। नारी-सम्बन्ध की अनिवार्यता प्रदीप की कहानी का मुख्य गुण है।

तारानन्द वियोगी की कहानी 'उद्दीपन' एक तरफ सामन्तों की शोषण प्रवृत्ति और सर्वहारा के दमन सहने की प्रवृत्ति को रेखांकित करती है, तो दूसरी तरफ सर्वहारा वर्ग में दो पीढ़ियों के संघर्ष में नूतन पीढ़ी की विजय दिखाती है। उनकी 'कंस-वध' कहानी सामाजिक परिवेश के सर्वथा अछूते विषय को उजागर करती है। 'बिसरभोर' और 'पिआस' कोशी के ताण्डव से त्रस्त जनता पर राजनेता और ग्रामनेता के अत्याचार से उत्पन्न ताजा अनुभूति की अभिव्यक्ति है। दलित समुदाय के मनोविश्लेषण और उस समुदाय के लोगों की अति सामान्य आकांक्षाओं को पहचानना वियोगी की कहानियों का मूल धर्म होता है।

केदार कानन की कहानी 'नाटक', 'तामस', 'आतंक' आदि युगचेतना से भरी हुई है। व्यवस्था की नग्नता, और कुरूप चेहरा यहाँ अत्यन्त निर्भीकता से उपस्थित हुआ है। उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के लिए वे कठोर-से-कठोर शब्दावलियों को साहित्यिक गरिमा देने में समर्थ होते हैं। व्यक्ति-सत्य को समूह-सत्य की आँखों से देखने का उनका कौशल प्रशंसनीय है। शैलेन्द्र आनन्द की कहानी 'उठ पुत्ता! पुरल-पुरल' समाज सापेक्ष यथार्थ और युग सापेक्ष शिल्प का उदाहरण हो सकती है। यद्यपि शैलेन्द्र आनन्द कथा-लेखन अत्यन्त मन्थर है, तथापि तात्विक और गुणात्मक उत्कर्ष, परिमाणात्मक कमी की क्षतिपूर्ति करता है।

रमेश वर्तमान जनजीवन के व्यावहारिक रहन-सहन में फैले सूक्ष्मता के कहानीकार हैं। युगीन चटक-मटक और उपभोक्ता संस्कृति की आधुनिकता में डूबते-उपलाते मानवोचित संस्कार के लोमहर्षक चित्रण उनकी कहानियों में रहता है। 'कैलास मण्डलक फिलिप्स रेडियो' जैसी उनकी कई कहानियाँ इस सन्दर्भ में देखी जा सकती हैं। रमेश अपने परिवेश के प्रति अत्यन्त सजग और सावधान कहानीकार हैं। देवशंकर नवीन की कहानी 'बबूर', पेंपी', 'चरित्र' आदि अपनी अन्विति के लिए समृद्ध कहानियाँ हैं।

वैज्ञानिक युग की इस व्यवस्था से प्रभावित परिवेश में मनुष्य की व्यस्तता बढ़ गई है। समय का अभाव, दूरी का संकुचन, मानव मस्तिष्क में तनाव का बाहुल्य, रोटी की समस्या, रोटी के अभाव में नारी-देह की बिक्री, शोषण, अपहरण, लूट आदि आम बात हो गई है। घूसखोरी का प्रवेश हुआ, उचित काम भी अनुचित की तरह होने लगा, अनुचित को उचित का स्थान मिल गया। जनमानस में इससे असन्तोष जागा। परिवेश की इस जटिलता से साहित्य प्रभावित हुआ। संचार और सन्धान माध्यमों के कारण देश-विदेश का सम्पर्क बढ़ा; एक देश का साहित्य, संस्कृति, रीति-रिवाज दूसरे देश में प्रचारित हुआ। मैथिली कथा-लेखन इससे भी प्रभावित हुआ। इस प्रभाव ने जिस रूप में लोक-रुचि को परिवर्तित किया, मैथिली कहानी का स्वरूप तदनुरूप ही होना चाहिए, है भी।

आधुनिक कहानी सही अर्थ में घुड़दौड़ की चुस्ती से भरी रहती है। कहानी की पहली पंक्ति में प्रवेश करते ही ऐसा वातावरण बनता है, कि पाठक समाधिस्थ हो जाते हैं और कहानी समाप्त होते-होते पाठक को पूर्ण मनःतोष मिल जाता है। अपन परिवेश के सर्वविधि ज्ञान के अभाव में, सावधान दृष्टि के अभाव में, यह उपलब्धि असम्भव है। जन-जीवन से निरपेक्ष रहकर कहानी लिखना, घरियाली आँसू बहाना है, अरण्य-रोदन है। युग-सत्य को समझना-बूझना और उससे सम्बद्ध होकर रचना करना जितना आवश्यक है, भाषा की तेजी, शिल्प की नूतनता, अभिव्यक्ति की स्पष्टता तथा छोटी-से-छोटी काया में अधिक-से-अधिक सन्तुष्टि देने की क्षमता भी उतना ही आवश्यक है।

स्वयं वातानुकूलित निवास का सुख लेते हुए, जेठ मास की चिलचिलाती धूप में झुलसती या माघ की कड़ाके की ठण्ड में ठिठुरती बनिहारिन के जीवन पर कहानी लिखना; परिस्थिति और व्यवस्था की मारी असहाय स्त्री की लाचारी से मौज मनाते हुए और उजाले में उसकी मुक्ति हेतु नारेबाजी करना; घोर बेईमानी है और रचनाधर्मिता के प्रति खिलवाड़ है। सफल रचनाकार के लेखन और जीवन-दर्शन में कोई भेद नहीं रहना चाहिए, नहीं रहता है। इस दृष्टि से गत शताब्दी के आठवें, नौवें दशक में मजबूत आधार, और नए स्वर के साथ प्रविष्ट उक्त पीढ़ी के कहानीकारों ने अपनी अलग छवि प्रस्तुत की है। इन लोगों की उपलब्धि में 'मिथिला मिहिर' पत्रिका का जबर्दस्त योगदान है। किसी कालखण्ड का साहित्य समकालीन पत्रिकाओं के माध्यम से ही जन-जन तक पहुँचता है। उक्त काल तक आते-आते भारतीय शासन-व्यवस्था के प्रति आम जनमानस की दुराशा हद तक पहुँच गई थी। विज्ञान और विकास-प्रक्रिया की उपलब्धि से वंचित मिथिला में दहेज, जमीन्दारी के अहंकार की सहजात विकृति, आर्थिक और शैक्षिक परतन्त्रता से विवश स्त्री की उपेक्षा, अपमान, शारीरिक-मानसिक और यौन शोषण निरन्तर बढ़ता गया। धर्म, संस्कार, नैतिकता और सामाजिक व्यवस्था की दुहाई देनेवाला जनसमूह, उन तमाम दुष्कर्मों में लिप्त था, जिनका विरोध करने का वह नाटक करता था। जाति और कुल-शील का पाठ पढ़ा कर श्रम-शक्ति और आत्म-शक्ति के बोध से मनुष्य को निरन्तर निरपेक्ष रखा गया।

उक्त स्थानीय समस्या के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत कुछ हुआ। आपातकाल की घोषणा से नागरिक जीवन में तरह-तरह धारणाएँ बनीं। समर्थन और विरोध की कुश्ती चली। छात्र आन्दोलन और प्रतिपक्षी राजनीतिज्ञ की एकता से सत्तासीन पार्टी पराजित हुई। राजनीतिक अनस्थिरता की शृंखला चल पड़ी। आरक्षण विवाद, मन्दिर-मस्जिद विवाद, साम्प्रदायिक दंगा का क्रम, जातीय और मानवीय द्रोह की शृंखला चल पड़ी। नव बजारवाद के आगमन से वस्तुपरक गुणवत्ता पिछड़ गई, विज्ञापनवाद सिर चढ़ बैठा। तरह-तरह के प्रलोभन देकर कर्जदाता कम्पनियाँ सामने आईं। उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ी। क्रयशक्ति के अभाव के बावजूद लालसा बढ़ती गई। उच्च ब्याज पर कर्ज लेकर उपभोग करना, और कर्ज वापसी के दबाव में नैतिकता से निरपेक्ष हो जाना, आम जनता का स्वभाव हो गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनी की वणिक बुद्धि के सामने भारतीय श्रम-शक्ति और बौद्धिक-शक्ति ने घुटने टेक दिए। दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श का क्रम चला। गाँव-देहात से मिथिला के श्रम और बुद्धि का पलायन हो गया, कृषि-कर्म आहत हुआ, कठोर परिश्रम से नगर में कमाया हुआ धन मनीऑर्डर द्वारा गाँव आने लगा, गाँव बाजार बन गया।

गत शताब्दी की ढलान पर मैथिल श्रम और मैथिल प्रतिभा का पलायन गाँव और छोटे शहर से महानगर की ओर बड़ी संख्या में हुआ है। बाहर आकर इस पीढ़ी ने पैसे तो कमाए, किन्तु गाँव से उसके सम्बन्ध-बन्ध जुड़े रहे। नगर आकर भी अपने पारम्परिक रहन-सहन के अवशेष को बचाए रखने की उसकी जिद्द, और गाँव जाकर नगरीय अपसंस्कृति का बीजारोपण करने के प्रयास में वेे खीजते रहे। परम्परा और आधुनिकता के इस रस्साकसी में मैथिलों की बाँहें उखड़ने लगीं।

आज के अधिकांश मैथिली रचनाकार अपने जीवन-यापन हेतु शहर/नगर में वास कर रहे हैं। गाँव में कुछ ही लेखक बसते हैं। श्रम और प्रतिभा के पुनर्वास से मिथिला के नागरिक परिवेश में जो परिवर्तन आया है, उसे ग्रामीण लोग अपसंस्कृति मानते हैं, जो एक सीमा तक उनकी अभिजन मनोवृत्ति का द्योतक है। किन्तु नवीनतम पीढ़ी के रचनाकार इस परिवर्तन को विकास प्रक्रिया की सहजात परिणति मानते हैं। इस समस्त परिवर्तन के अचानक और जबर्दस्त पदार्पण से मैथिल जीवन प्रभावित हुआ है। यहाँ 'मैथिल जनजीवन' का अर्थ मिथिला के भौगोलिक क्षेत्र में बसे मैथिल ही नहीं, मिथिलेतर क्षेत्र में बसे मैथिल और मिथिला में बसे मैथिलेतर भी हैं।

इसलिए यह कहना समीचीन होगा कि आज की मैथिली कहानी इस समस्त विषय, वातावरण और मनोवृत्ति को रेखांकित करती है। आज की मैथिली कहानी का नायक, नागरिक, और समाज इनमें से कुछ भी हो सकता है। हर समय का रचनाकार अपने रचनाकर्म का जीवन-रस, समाज से ही प्राप्त करता है। समकालीन नागरिक जीवन के उल्लास-अवसाद, उद्यम-अभिलाषा, धैर्य और साहस के अनुकूल ही अपनी कहानी के नायक और समाज का स्वरूप निर्धारित करता है। यह अकारण नहीं हुआ कि हरिमोहन झा की पीढ़ी की मैथिली कहानी का नायक पारम्परिक रूढ़ि से उत्पन्न करुणा और विकृति का शिकार होता था और व्यथा से गलित-विगलित जीवन बिताने हेतु विवश रहता था। किसी चमत्कारी शक्ति की उदारता की प्रत्याशा में व्यंग्य और विडम्बना भोग तक खुद को सीमित रखता था। ललित, राजकमल चौधरी की पीढ़ी की मैथिली कहानी का नायक अर्थ-तन्त्र और देह-तन्त्र की गुत्थी में उलझा रहता था, और उसे खुद अपने ही प्रयास से सुलझाता रहता था; किसी भाग्य-विधाता की प्रतीक्षा किए बगैर, सामाजिक और पारिवारिक परिस्थिति को बदल कर अपने अनुकूल बनाने की इच्छा अथवा प्रयास करता था। मायानन्द और राजमोहन की कहानी का नागरिक यद्यपि उससे भिन्न स्वभाव का है। किन्तु इस सम्पूर्ण पीढ़ी की कहानी में मनोविश्लेषण, पीढ़ी का अन्तराल, सामाजिक संरचना का परिप्रेक्ष्य, समय परिवर्तन के कारण उत्पन्न दबाव, राजनीतिक परिस्थिति से उद्भूत विकृति, पारम्परिक थाती के अवमूल्यन, मानवीय मूल्य का ह्रास...इस पीढ़ी की समाज चिन्ता में मौजूद था। गंगेश गुंजन और प्रभास कुमार चौधरी की पीढ़ी की कहानी में उनके पूर्वजों की चिन्ता तनिक और स्पष्ट हुई। पारम्परिक और कौलिक सम्बन्ध के व्याकरण विखण्डित हो गए। मानवीय सरोकार की नई जमीन मनुष्य की आर्थिक क्षमता के आधार पर तैयार होने लगी। यौन वृत्ति का जटिल परिदृश्य और सम्बन्ध-बन्ध की उलझी गाँठें मैथिली कहानी का विषय और चिन्ता-क्षेत्र में आ खड़ी हुई।

पूर्ववर्ती पीढ़ी की तुलना में इस पीढ़ी के समक्ष दायित्व का विराट पर्वत खड़ा था। राजनीतिक पराभव का ताण्डव निरन्तर सघन हुआ जा रहा था। व्यभिचार और अत्याचार का विकृत स्वरूप समकालीन भारतीय साहित्य और हिन्दी सिनेमा के माध्यम से खूब प्रचारित होता था। परिणाम इतना अवश्य हुआ कि जनता जागरूक हो गई। पर अत्याचारी भयभीत नहीं हुआ, वह सावधान हो गया, सचेत हो गया, व्यभिचार की नई-नई पद्धतियाँ अपनाने लगा। नागरिक उत्पीड़न तीव्रतर हो गया। पुरानी समस्याएँ नए तरीके से आने लगीं। कुछ नई-नई समस्याएँ भी निर्मित हुईं।

दहेज, बेकारी, सामाजिक भेद-भाव, आर्थिक असन्तुलन, जातीय संघर्ष आदि तो था ही; आपातकाल के पूर्व और पश्चात के परिदृश्य से भी कई तरह की अराजक स्थितियाँ उत्पन्न हुईं। राजनीतिक छलावा, आन्दोलन के पाखण्ड आदि के कारण भारत, और इसलिए मिथिला का युवावर्ग दिशाहारा हो गया। युवाशक्ति उद्यम-उद्योग से मुँह फेरकर राजनेताओं के लिए बारूद पिस्तौल जमा करने लगा। देश की शक्ति के क्षयकारी उपयोग से अर्थलोलुपता, मानव-द्रोह बढ़ गया और जनसरोकार की भावना खण्डित हुई। इसके बाद से देश में राजनीतिक अनस्थिरता निरन्तर बनी रही। देश की आन्तरिक दुःस्थिति और समय-समय पर सीमावर्ती समस्या की उठापटक में आम नागरिक निरन्तर पशोपेश में रहे। फिर शुरू हुआ मन्दिर-मस्जिद विवाद, साम्प्रदायिक दंगा, आरक्षण का मुद्दा...इन सब ने मिलकर इस पीढ़ी के कहानीकारों को कुछ अधिक विचलित किया। इस दौड़ में आगे आकर भारतीय साहित्य में केन्द्रीय विषय के रूप में सामने आए--स्त्री-विमर्श, दलित-प्रश्न, उत्तर-उपनिवेशवाद की स्थिति, एण्टी नैरेटिव्स, उत्तर-संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद...आदि।

आलोच्य पीढ़ी के कहानीकारों ने इस विकराल समस्या के बीच खड़े होकर अपने दायित्व को गम्भीरतापूर्वक पहचाना। भयावह परिस्थिति के बावजूद यह पीढ़ी अपने पूर्वजों से प्राप्त रिले रेस के मशाल को वांछित बिन्दु से आगे तक पहुँचाया।

कहानीकारों के चिन्तन और चिन्ता का क्षेत्र विराट हो गया। चूँकि मानव समुदाय की जीवन पद्धति बदल गई, वह एकरैखिक नहीं रही, बहुआयामी हो गई; हरेक स्थिति के अंकन-चित्रण बहुआयामी अवलोकन की माँग करने लगे; इसलिए इस समय का सृजन कौशल भी पुनर्नवा होने की अपेक्षा रखने लगा। भाषा में तीक्ष्ण प्रवाह और गम्भीर प्रभाव का प्रयोजन होने लगा। इस गम्भीर दायित्व का अनुपालन इस पीढ़ी के कहानीकारों ने भलीभाँति किया।

इस पीढ़ी के कहानीकारों ने अपने पूर्ववर्ती रचनाकार के समस्त चिन्तन क्षेत्र को भलीभाँति महत्त्व दिया। स्त्री दुर्दशा, उपेक्षित वर्ग की व्यथा, यौन सम्बन्ध की जटिल परिस्थिति, अर्थ तन्त्र के व्यूह में खोए-थके साधनहीन व्यक्ति की मनोदशा का जैसा संकेत अपनी पूर्ववर्ती कहानी में इन लोगों ने देखा; उससे बहुत आगे आकर इन लोगों के कथानायक सोचने-समझने लगे। मिथिला की स्थानीय समस्या के साथ-साथ इन कथाकारों की नजर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समस्या पर दौड़ने लगी। इधर आकर स्त्री जाति किसी पर-पुरुष से समागम पेट की खातिर नहीं, मन के कारण अथवा तन के कारण करने लगी। जीवन-रक्षा हेतु अब की स्त्री स्वावलम्बी होने लगी, अपने हाथ और माथ पर आश्वस्त होने लगी। धर्म की परिभाषा उदार हुई; वैवाहिक बन्धन हेतु जातीय और कौलिक प्रतिबन्ध कमजोर हुआ; पहनावा-ओढ़ावा और खान-पान में पर्याप्त उदारता बढ़ी।

सम्पूर्ण देश में गत तीन दशक से बहुत कुछ अशुभ, अनिष्ट, अभद्र, असभ्य, प्रतिकूल होता आ रहा है। यह रोचक प्रसंग है कि जो बुद्धिजीवी वर्ग इस अमंगलकारी घटक से सामान्य नागरिक को चैकन्ना रखने का दायित्व अपने सिर लिए घूम रहे हैं, वेे स्वयं उस समस्त अमंगल के सहकर्मा भीे हैं। एक तरफ शब्द, इतिहास, विचार आदि के...अन्त की आसन्न सम्भावना की घोषणा हो रही है, दूसरी तरफ स्त्री और दलित की उपेक्षा पर तथा दोनों वर्गों की वास्तविक शक्ति पर बहस हो रही है, तीसरी तरफ होटल और डान्स बार से यौनकर्मी युवती को पकड़कर टी.वी. पर तस्वीर दिखाई जाती है, स्त्री देह के कारण सरकारी/गैर-सरकारी कार्यालय में पदोन्नति का घोड़ा, शतरंज के घोड़े की तरह चलने लगता है। राजनीतिक दल अपने हित और विरोधी दल की बदनामी करने हेतु निरीह जनता का वध करवाता है, तस्करी करवाता है, जातीय और साम्प्रदायिक दंगा करवाता है, अबोध बालकों का अपहरण करवाता है, संचार माध्यम के विविध अभिकरण अब खबरदार नहीं करते हैं, खबर बेचने का धन्धा करते हैं, समाज और समाज के लोग अब मनुष्य के निजी जीवन में सहयोग नहीं देकर उसे यन्त्रणा देते हैं। इन समस्त विकृतियों के चित्रण भारतीय साहित्य में होते रहे हैं। यह कहते हुए संकोच नहीं होना चाहिए कि आलोच्य पीढ़ी की मैथिली कहानी उक्त समस्त विकृतियों को रेखांकित करती हुई आगे बढ़ गई है और एक व्यवस्थित समाज के निर्माण हेतु सुव्यवस्थित प्रस्ताव, समाज स्वीकृत आचार की तरह रख रही है, जिसमें यथास्थिति पर अरण्य रोदन नहीं है, क्रोध है, विवेक सम्मत विश्लेषण है और अन्ततः नवनिर्माण का संकेत है। रिटायरमेण्ट (विभूति आनन्द), तानपूरा (अशोक), गाछ-पात (शिवशंकर श्रीनिवास), मकड़ी (प्रदीप बिहारी), खान साहेब (विभा रानी), पन्द्रह अगस्त सन्तानबे (तारानन्द वियोगी), अयना (नीता झा), नागदेस में अयनाक व्यवसाय (रमेश), पेंपी (देवशंकर नवीन) आदि इस तथ्य का उदाहरण है।

इस पीढ़ी की कहानी में व्यंजना का वैराट्य भी शिल्प के नवोन्मेष की तरह दिखता है। तारानन्द वियोगी की कहानी में पितम्बर पासवान पल भर के लिए आता है और पूरी कहानी के सन्दर्भ को उद्वेलित कर चला जाता है। ध्यान देने की है कि यह पात्र शुद्धतावादी वैयाकरणीय समुदाय का पीताम्बर नहीं है, पितम्बर है। और वह कहता है--आपने तो गोली-बम खा-खा कर जिता दिया जादब जी को। उसकी सरकार भी बन गई, लेकिन...नेता हुआ कौन, तो असरफी दास और बसुदेबा! आप ही तो कहते थे हीरा काका कि बसुदेबा पहले मुंगेर रूट में पॉटेकमारी करता था! आज उसका रौब-रुतबा देखिए।--यह कथन हीरा काका की गरीबी से अधिक भारतीय राजनीति के असली चेहरे को उजागर करता है। 'तानपूरा' में विनोद बाबू के पिता अपनी सन्तान को संगीत सिखाने हेतु अपने पारिवारिक बजट में संकोच लाना चाहते हैं, किन्तु विनोद बाबू अपने ऐय्यास जीवन हेतु सन्तान के संगीत सीखने के शौक को मार देना चाहते हैं। 'रिटायरमेण्ट' के डाक्टर साहेब के जीवन-क्रम से नई पीढ़ी पर कोई रोष नहीं दिखता, किन्तु पुरानी पीढ़ी के प्रति मन सम्वेदना से भर उठता है।...और यह हाल इस पीढ़ी के समस्त कहानी-सृजन में मौजूद है। 'गाछ-पात' में भी पीढ़ी के अन्तराल की इस व्यथा का सूत्र मिलता है।...अलग से कहने का प्रयोजन नहीं कि इस पीढ़ी की कहानियाँ मैथिली में सांस्कृतिक रूप से नवोन्मेष की घोषणा है। मैथिली कहानी का विषय और शिल्प यहाँ नवीनता के साथ मुखर हुआ है; अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित नवता में नई-नई शाखें जोड़कर सांस्कृतिक क्रान्ति की तरफ हाथ उठाया है।

इस पीढ़ी के बाद कुछ और ऊर्जस्वित कहानीकारों प्रवेश नौवें दशक में हुआ। अपनी सृजनशीलता का परिचय देनेवाले इन कहानीकारों की संख्या अत्यन्त कम है। किन्तु जो भी हैं, वे पूर्व के समस्त रचनाकारों की मैथिली कहानी के शिल्प और कथ्य को समय-सापेक्ष बनाने के लिए डटे हुए हैं। कवि, गीतकार के रूप में पूर्व से ही स्थापित रचनाकार सियाराम सरस ने विगत दो दशकों से कहानी-लेखन प्रारम्भ किया है और कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं। उनके अलावा श्याम दरिहरे, श्रीधरम, अजीत आजाद आदि कहानीकारों की एक नई पीढ़ी बनी है और आशा की जाती है कि यह पीढ़ी मैथिली कहानी को और आगे ले जाएगी। यद्यपि पत्र-पत्रिकाओं के अभाव के कारण इस पीढ़ी का स्वर मुखर नहीं हो पा रहा है। किन्तु यह बहुत बड़ा अवरोध नहीं हो सकेगा। गत शताब्दी के अन्तिम दशक और वर्तमान शताब्दी के पहले दशक में भी मैथिली कहानी में कुछ काम हुआ है। कुछ ऊर्जावान कहानीकारों के प्रवेश और प्रयास से मैथिली कहानी पुष्ट हुई है। हाल ही में जीवन के छह दशक पार कर जगदीश प्रसाद मण्डल जीवन-संघर्ष और ठेठ ग्रामीण पदिृश्य के नवानुभूत स्वाद के संग सृजनरत हुए हैं। इतनी देर से लेखन में उनके प्रवृत्त होने का कोई कारण स्पष्ट नहीं है, किन्तु सत्य है कि कई विलक्षण कहानियों का विषय उनके पास है। उनके कुछ उपन्यास और नाटक भी प्रकाशित हैं।

मिथिला के ग्रामीण जनपद से लेकर महानगरीय परिवेश तक के समस्त आधुनिक सोच-विचार, जीवन-यापन और सम्पूर्ण राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय चिन्तन फलक पर आज की मैथिली कहानी लिखी, पढ़ी, समझी जा रही है। आधुनिक विचार-व्यवस्था में जितने भी आलोचनात्मक उपस्कर हैं, विश्लेषण विधान हैं, उसके सहयोग से उसकी समालोचना हो रही है, और उस पर सबल-सक्षम साबित हो रही है।

बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से उद्भूत मौलिक मैथिली कहानी लेखन की छठे दशक तक पर्याप्त प्रगति हो गई थी, और उसके आगे का दौर निरन्तर पुष्ट होता गया। इस समय मैथिली साहित्य की सबसे सफल विधा कथा साहित्य ही है। इस विधा का आज तक यथेष्ट विकास हो चुका है।

पाँचवें दशक में हरिमोहन झा द्वारा तैयार किए गए पाठक वर्ग का लाभ अगली पीढ़ी की कहानी और कहानीकारों को मिला था। छठे दशक में 'त्रिपुण्ड' की कहानी में मानव-अन्तर्मन की व्यथा, और शिल्प की प्राधानता आने लगी थी। उसके बाद समय के साथ मैथिली कहानी की प्रगति होती गई। मानसिक संघर्ष, सम्वेगात्मकता अथवा बौद्धिक कौतूहल के प्रति आग्रह तथा राजा-रानी की कहानी-परम्परा के प्रति उदासीनता बाद की कहानियों में देखने को मिलते हैं। छोटे-से-छोटे कथ्य पर अच्छी से अच्छी कहानी लिखी जा रही है। कहानी घटना प्रधान नहीं, शिल्प प्रधान हो गई है, इस विधा से अधिक से अधिक प्रगति की आशा की जा सकती है।

कथा-साहित्य की काया में आज के कथ्य का विशद्-विराट फलक समा गया है। तीक्ष्ण और स्पष्ट भाषा-शैली तथा नूतन शिल्प इस समय की कहानी की माँग थी। माँग पूरी हुई, हो रही है। आठवें दशक में अपनी परिचिति बनानेवाले जो कहानीकार मैथिली कहानी को इस क्षितिज तक लेकर चले, उनके लिए और जो भी परेशानी रही हो, किन्तु उनके पूर्ववर्ती रचनाकारों ने, और गिनती के ही सही, उत्तरवर्ती रचनाकारों ने भी इस रचनात्मक उद्यम, आयास को समर्थन दिया। आपातकाल के बाद के मैथिली कथा-साहित्य की जो भी उपलब्धि है, उसमें कई पीढ़ियों के सम्विद आयास का योगदान माना जाना चाहिए। विषय और कथ्य की इस जटिलता को पुरानी शैली और शिल्प में सँभालना कठिन था, भाषा और शिल्प का नवागम आवश्यक था।

शिल्प की इस नूतनता ने मैथिली में लघुकथा विधा का जन्म दिया। अंग्रेजी में इसे शॉर्ट शॉर्ट स्टोरी कहा जाना चाहिए। किन्तु यह अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव से नहीं आई। यह आई है वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, पंचतन्त्र अथवा लोक-कथा के अजस्र स्रोत से, जहाँ यह उपदेशात्मक प्रवचन के बीच उदाहरणार्थ, अथवा लोककण्ठ में छिपी अथवा बसी हुई थी। छोटी काया, तीक्ष्ण भाषा और नूतन शिल्प के साथ अर्थ गाम्भीर्य से भरी यह उपविधा, भावकों को झनझना देने में खूब प्रभावकारी साबित हुई और विकास पा गई।

सामान्य जनता अब हरदम मानसिक तनाव में जीती है। लोकजीवन के इस दृश्य ने कथा के शिल्प को सोलह आना बदल दिया। मनोविश्लेषणात्मक स्तर पर पात्रों के चरित्र-चित्रण हेतु उसके बाह्य संघर्ष की अपेक्षा आन्तरिक संघर्ष के प्रति रचनाकार उन्मुख रहने लगे। तदनुसार कथ्य और शिल्प की नवीनता मुखर हुई। कहानी का आकार छोटा होने लगा। लघुकथा खूब लिखी जाने लगी। अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, एम. मणिकान्त, तारानन्द वियोगी, कुमार पवन, प्रदीप बिहारी, देवशंकर नवीन, विद्यानन्द झा, सारंग कुमार आदि के काव्यात्मक कौशल से कथ्य सम्प्रेषित हुआ, समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से इनके कथा-शिल्प का परिचय मिलता रहा। अर्वाचीन काल में देशदशा, समाज-व्यवस्था, राजनीति के अपराधीकरण, अपराध के राजनीतिकरण, विश्वग्राम की सगूफेबाजी, आर्थिक उदारीकरण, बाजारवाद के आक्रमण, और इन सब के दबाव-प्रभाव से आम नागरिक और खास नागरिक की मानसिकता, जीविकोपार्जन हेतु घर-वार छोड़कर अन्य शहर-नगर में परिवार से अलग रहकर जीवन-यापन करनेवाले लोगों की मानसिकता के आलोक में मैथिली-कहानी अपने नए रूप-रंग में आई। प्राचीन कहानी की तरह इसमें बाह्य जगत का चित्रण सुनियोजित नहीं रहा, अन्तर्मन की कहानी उमड़ पड़ी। जीवन के पक्ष-विशेष को कम-से-कम पात्र के आश्रय से कम-से-कम घटना-क्रम लेकर छोटे-से आकार में विशेष प्रभावशाली ढंग से कहने का आग्रह आधुनिक मैथिली कहानी में रहने लगी। बंगला की करुणा और आंग्ल-भाषा की मनोवैज्ञानिकता मैथिली कहानी में रचने-पचने लगी। शिवशंकर श्रीनिवास की लघुकथा 'धार आ मनुक्ख', तारानन्द वियोगी की 'परिस्थिति', विद्यानन्द झा की 'जरसीमन', देवशंकर नवीन की 'उसाँस', सारंग कुमार की 'निश्चिन्त' आदि इसका साक्षी है। 'कोसी कुसम' पत्रिका के लघुकथा अंक की सारी ही मौलिक लघुकथाओं में करुणा और मनोवैज्ञानिकता का यह स्वर मुखर हुआ है। बाद में तो कई पत्रिकाओं के विशेषांक आए और लघुकथओं के कई संग्रह भी प्रकाशित हुए।

समय बदलत गया। रचनाकारों के परिवेश में आमूल परिवर्तन हुआ। परिवेश से रचनाकारों का भोक्ता मन प्रभावित हुआ। अनुभूति की नई-नई दिशाएँ आलोकित हुईं, वैज्ञानिक युग के आविर्भाव से क्षेत्र-विस्तार हुआ, भौगोलिक दूरी घट गई, विश्व की परिसीमा सिकुड़ गई, जिन्दगी की व्यस्तता बढ़ गई, लोग रेल, हवाई जहाज से यात्रा करने लगे। चन्द्रमा की पूजा करनेवाले लोग, चन्द्रमा के तल से भ्रमण कर आए। इन परिवर्तनों, क्रिया-कलापों ने साहित्य संरचना के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। कम-से-कम समय में लोग अधिक-से-अधिक सुख भोगने के अभ्यासी बन गए। महाकाव्य से खण्डकाव्य, खण्डकाव्य से मुक्तक, नाटक से एकांकी, उपन्यास से कहानी, कहानी से लघुकथा की ओर पाठकों का झुकाव बढ़ा। रचनाकारों को पाठकों की इस प्रवृत्ति को पहचानना पड़ा। इस चरम-सत्य से मुँह छुपानेवाले रचनाकारों की रचनाओं का वर्तमान समय में त्याज्य हो जाना एकदम स्वाभाविक था। समस्यायुक्त समाज की जटिलतम जिन्दगी बितानेवाले पाठकों को एक था राजा, एक थी रानी कहकर आब उलझाया नहीं जा सकता था। व्यवस्था से ऊबे हुए तंगहाल लोगों के मनोविकारों के शमन हेतु रचनाओं में 'उनकी' बात न हो तो विरेचन असम्भव हो जाता, और वह साहित्यिक असफलता का द्योतक होता।

अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों से प्रायः हर रचनाकार अनुप्रेरित होते हैं। या तो वे प्रभाव ग्रहण करते हैं, या किसी न किसी रूप में दिशा-सूचना प्राप्त करते हैं। इस क्रम में निकटवर्ती पूर्वज रचनाकारों की रचनाओं से प्रेरणा लेने की सम्भावना सर्वाधिक रहती है। छठे से नौवें दशक तक की कहानी में थोड़ा-बहुत इस क्रम का परिचय मिलता है और अब जब कि छठे, सातवें दशक के अग्रज कहानीकार अगले ढ़ाई दशक के कहानीकारों के साथ रचनाशील हैं, सारे लोग अपनी-अपनी सृजन-सीमा तय कर मैथिली कथा-संसार के फलक-निर्माण में लगे हुए हैं। वैसे छठे दशक के अधिकांश कथाकार अब दुनिया छोड़ गए, किन्तु उनके बनाए हुए रास्ते आज भी प्रेरणादायक हैं।

धूप के असर से रंगीन कपड़ों का मौलिक रंग मलीन होता है, पूरी तरह उड़ नहीं जाता; मनुष्य के मौलिक संस्कार में भी कुछ ऐसी ही विवशता रहती है। प्रभाव ग्रहण करने की, और प्रभाव परिलक्षित होने की सीमा वैयक्तिक क्षमता के आधार पर होेती है। कुछ लोग प्रभावित होते हैं, कुछ नहीं भी होते हैं। आठवें-सातवें दशक के अधिकांश कहानीकारों पर युग का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक पड़ा, उसी प्रभाव के अन्तर्गत लेखन भी हुआ। जीवकान्त की कहानी 'गौर' विशुद्ध रूप से प्रतीकात्मक है। वैसे कहानी में प्रतीक-व्यवस्था बहुत अच्छी बात नहीं है, पाठक को कहानी में सीधी बातें मिलनी चाहिए, कथन की स्पष्टता रहनी चाहिए, लेकिन प्रतीकात्मकता के बावजूद यदि कहानी की सोद्देश्यता भंग न हो, कथ्य की अभिव्यक्ति पूरी तरह हो जाए, प्रभावोत्पादकता में कहीं व्यतिक्रम न आए, तो वह कहानी का विशिष्ट गुण होता है। कहानी शीर्षक 'गौर' इस कसौटी पर सोलह आना खरा उतरती है। प्रारम्भ से ही खूँटे पर बँधी 'गौर' जब बथान से खुलकर जंगली जानवरों के झुण्ड में चली जाती है तो उसे पहचानना और पहचानकर ले आना कठिन हो जाता है, समूह से निकल कर दूसरे के साथ मिल जाने पर सामान्य वर्ग के व्यक्ति अथवा वस्तु की पहचान संकट में पड़ जाती है। दूसरे अर्थ में हमलोगों की खोई हुई मानवता, मानवीय मूल्य--यही 'गौर' है जिसकी खोज में हमलोग भटक रहे हैं, ढूँढ नहीं पाते हैं।

सूक्ष्म पर्यवेक्षण से तथ्य सामने आता है कि विशुद्ध लोकानुरंजन के लिए शुरू हुए मौलिक कथा-लेखन को हरिमोहन झा ने नया स्वरूप और दिशा दिया, जिसे ललित, राजकमल, मायानन्द, सोमदेव, लिलि रे, धीरेन्द्र, बलराम, धूमकेतु आदि ने बहुत साहस और मनोयोग से नए क्षितिज पर पहुँचाया। बाद के दशक के कहानीकार आज भी सृजनशील हैं। मैथिली कहानी अब विश्व फलक के कथा-साहित्य से कदम ताल देने में सक्षम है। अल्प अवधि में ही यह जहाँ पहुँच गई, अन्य भाषाओं के कथा-साहित्य के लिए स्पद्र्धा की बात हो सकती है। किन्तु सुभाषचन्द्र यादव जैसे प्रतिष्ठित कहानीकार की 'नदी' और 'कबाछु', विनोद बिहारी लाल की 'भोटतन्त्र', जीवकान्त की 'गंगा लाभ' जैसी कुछ कहानी से मनोहानि होती है, वैसे यह अस्थायी मामला है। यहाँ नामवर सिंह को उद्धृत करना उचित लगता है, 'कहानी की असफलता परिश्रम और अभ्यास की कमी के कारण भी हो सकती है, लेकिन अभ्यस्त लेखकों के यहाँ यदि कहानी की ऐसी रूपहानि दिखाई पड़े तो क्या कहा जाएगा? यहीं कहानी के क्षेत्र में नए शिल्पवादियों की पहचान हो सकती है। नए भाव-सत्य के अनुसार नए कहानी-शिल्प के नाम पर ये कहानी में कभी केवल वातारवरण देते हैं, तो कभी केवल एक व्यक्ति का रेखाचित्र, तो कभी रोचक व्यंग्यों में फैलाकर आद्यन्त विचार(नई कहानी: सफलता और सार्थकता)।'

नामवर सिंह का यह वक्तव्य हिन्दी की नई कहानी के सन्दर्भ में है, मैथिली की आधुनिक कहानी के लिए भी इसे उसी रूप में देखा जा सकता है। नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो 'कहानी का यह दुर्भाग्य है कि वह मनोरंजन के रूप में पढ़ी जाती है और शिल्प के रूप में आलोचित होती है। मनोरंजन उसकी सफलता होती है तो शिल्प उसकी सार्थकता।' मैथिली कहानी की जाँच-पड़ताल भी इसी अन्दाज में होनी चाहिए। आज के समयाभाव और जीवन-संग्राम के कारण मैथिली कहानी जहाँ तक पहुँच गई है, वह मैथिली कहानी का चरम लक्ष्य नहीं है, तीक्ष्णता से उसके आगे बढ़ने का संकेत है।

मैथिली में कुछ लोगों ने शौकिया भी कहानी लिखना प्रारम्भ कर लिया है, वे लिखते भी जा रहे हैं, साम-दाम से मान्यता ले लेने के उद्योग में लगे हुए हैं। वैसे कमोबेश ऐसी दशा अब कई भारतीय भाषाओं में हो गई है। किन्तु साहित्य-सृजन एक साधना है, शौक से कहानी लिखनेवाले लोग इस साधना में कहाँ टिक पाएँगे! गधे के पाँव में नाल कहाँ ठोका जाता है! इस कोटि के कहानीकारों की रचना और रचनाशीलता की भत्र्सना भी किसी का उद्देश्य नहीं होना चाहिए।

नेता, पुलिस, पत्रकार की तरह प्रशस्ति पा लेने के बाद कुछ रचनाकार साहित्य के साथ वंचना करने लगते हैं, वे अपनी प्रशस्ति की कमाई खाने लगते हैं। इससे उनका तो कम-कम बिगड़ेगा, साहित्य में बड़ी अराजकता फैल जाएगी, साहित्यधारा पर इसका दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ता है। साहित्यकार लोक-जीवन के पथ-प्रदर्शक होते हैं, इसलिए कम-से-कम उनको तो कर्तव्य-बोध रहना चाहिए। अनुभूत-सत्य, जन-जीवन की समस्या आदि से सम्बद्ध रह कर सृजन करना चाहिए। लोक-जीवन से पृथक लेखन अन्ततः रेत की दीवार साबित होता है।

सीमा क्षेत्र छोटा होने के कारण मैथिली में बड़े-बड़े लेखकों का सान्निध्य मिल जाना; पैरवी और दरबारपसन्द, दृष्टिहीन, अर्थसम्पन्न सम्पादकों से परिचय हो जाना सहज हो जाता है। एक कारण यह भी है कि बरसाती मेढकों की तरह लेखक टर्राने लगते हैं। किन्तु ऐसे लेखक बरसात भर ही टिकते हैं। निजी जीवन-दर्शन, परिवेशगत अनुभूति और प्रतिभाजन्य अभिव्यक्ति जिस लेखक के पास रहता है, साहित्य में वही स्थायी हो पाते हैं।

इसी तर्ज पर कुछ नकलचियों ने सोचा कि कहानी में यौन-चित्रण के कारण राजकमल चौधरी को ख्याति मिली, राजकमल की कहानियों के वैशिष्ट्य से उन्हें कोई मतलब नहीं रहा, आव देखा न ताव, यौन-चित्रण के बल प्रसिद्धि समेटने की जुगत में लग गए। किन्तु ऐसा होता कहाँ है?

इन छिट-पुट समस्याओं के बावजूद, मैथिली की मुख्य धारा की वर्तमान कहानियाँ समकालीन जन-जीवन की यथार्थ परिस्थिति, ज्वलन्त समस्या, वर्ग-संघर्ष, जीवन-संग्राम, जनजीवन की पर्यवस्थिति, युगीन सन्दर्भ इत्यादि के प्रतिबिम्ब सामने रखती है। श्रमजीवी मजदूरों के शोषण, ब्याज का ब्याज जोड़कर पूँजी बनाने का आचरण करनेवाले, और बँधुआ मजदूर बसाने की परम्परा बनानेवाले व्यक्ति उनके दैन्य और विवशता की कहानी नहीं लिख सकते, मैथिली की समकालीन कहानी का मूल सरोकार सामान्य जनता की सुख-सुविधा और दुख-दुविधा का सहयात्री होना है। लेखन को छद्म प्रगतिशीलता से अलग रखना आवश्यक है। रचनाकारों के लेखन और जीवन, सिद्धान्त और व्यवहार में समानता रहनी चाहिए।

मैथिली कहानी पर इस दीर्घकाय आलेख की प्रस्तुति के बावजूद यह कहने की गुंजाईश बची ही रह जाती है कि बात पूरी नहीं हुई। मैथिली कहानी यात्रा का सांगोपांग चित्र पूरी किताब में ही सम्भव हो सकता है। किन्तु सन्तोष की बात है, कि आज की मैथिली कहानी समकालीन समाज-सन्दर्भ से पूर्णतया खबरदार है।