मैथिली भाषा-साहित्य की प्रवृत्तियाँ / देवशंकर नवीन
राधा-कृष्ण विषय प्रेम, कृष्ण बाललीला, राम-कृष्ण कथा और पौराणिक कथाओं को आधार मानकर जिस भाषा साहित्य में उन्नीसवीं सदी के अन्त तक महाकाव्य, खण्डकाव्य, गीत, मुक्तक लिखा जा रहा था; और संस्कृत एवं पौराणिक कथाओं के अनुवाद अथवा छायानुवाद से जिस भाषा साहित्य में बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक उपन्यास, कथा, नाटक लिखा जाता था--उस मैथिली भाषा साहित्य की सभी विधाओं में आज अधुनातन युगयथार्थ और आधुनिकतम मानवीय सम्वेदना की बुनियादी बातें दर्ज हो रही हैं--यह अत्यन्त सुखकर है।
लम्बी बहस के बाद अन्ततः इतिहासकारों ने ज्योतिरीश्वर को मैथिली साहित्य के आदि काल का अन्तिम, और विद्यापति को मध्यकाल का प्रथम रचनाकार मान लिया। आदिकाल के प्रारम्भ पर अभी भी कुछ विवाद है। कुछ विद्वानों का मत है कि ईसा पूर्व पहली सदी से आदिकाल प्रारम्भ हुआ, जो प्राक्विद्यापति काल है। मगर 'बौद्धगान ओ दोहा' में संकलित 'चर्याचर्यविनिश्चय' और 'डाकार्णव' के पद के आधार पर आठवीं सदी से आदिकाल का प्रारम्भ माना जाना चाहिए। ज्योतिरीश्वर रचित 'वर्णरत्नाकर' तथा 'धूर्त समागम' आदिकाल के अन्तिम ग्रन्थ हैं।
इसी तरह लम्बी बहस के बाद विद्यापति का जन्म-वर्ष सन् 1360 तय होता है, वे मध्यकाल के प्रथम रचनाकार के रूप में स्वीकृत हैं, अर्थात चौदहवीं शताब्दी में मध्यकाल का प्रारम्भ माना जाना चाहिए।
सन् 1857 के विद्रोह के बाद मिथिला के जनजीवन में हुए तरह-तरह के परिवर्तनों और काव्य सृजन की प्रवृत्तियों के आधार पर सन् 1860 से आधुनिक काल का प्रारम्भ मानना समीचीन होगा। कवीश्वर चन्दा झा आधुनिक काल के प्रारम्भिक कवि माने जाते हैं।
आधुनिक काल में आगे आकर भुवनेश्वर सिंह 'भुवन' के यहाँ छायावाद और प्रगतिवाद के सूत्र एक साथ दिखाई देते हैं। यह समय बीसवीं सदी के चैथे दशक का है। पाँचवें दशक के प्रारम्भ होते ही महाकवि वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' की कविता 'कविक स्वप्न' प्रकाश में आई, मैथिली कविता एकाएक मुखर हो उठी। सन् 1949 में महाकवि यात्री के काव्य-संग्रह 'चित्रा' और सन् 1958 में राजकमल चौधरी के काव्य संग्रह 'स्वरगन्धा' के प्रकाशन के बाद मैथिली कविता ही नहीं, इस भाषा-साहित्य की और विधाओं में भी नए स्वर मुखरित हुए।
मैथिली भाषा-साहित्य, विश्व की कुछ गिनी-चुनी भाषाओं में से है, जिनका ठोस और प्रामाणिक पुरातन ग्रन्थ, गद्य में है। आज मैथिली कविता, कथा यदि विश्व की किसी श्रेष्ठ और गतिशील भाषा-साहित्य से अपना कन्धा मिला पा रही है, तो इसका श्रेय इस गौरवशाली परम्परा को ही जाता है। मैथिली के लेखक/पाठक अपने पूर्वज ज्योतिरीश्वर, विद्यापति, गोविन्ददास, उमापति, चन्दा झा, जीवन झा, भुवनेश्वर सिंह 'भुवन', कांचीनाथ झा 'किरण', सीताराम झा, मनबोध, हरिमोहन झा, ब्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म' आदि को श्रद्धा से याद करते रहेंगे।
ज्योतिरीश्वर की पुस्तक 'वर्णरत्नाकर' को रचनाकारांें का ज्ञान-ग्रन्थ कहा जाता है। मानव जीवन के उपक्रमों के वर्णनों से भरा यह ग्रन्थ वाकई एक समुद्र है, रत्नाकर है। उनके बाद वीरगाथा काव्य, शृंगारिक पदावली, भक्तिप्रद पदावली और अन्य कई पुस्तकों के प्रणेता महाकवि विद्यापति ने भाषा, विषय और पदलालित्य--सभी स्तरों पर मैथिली भाषा-साहित्य को इतना कुछ दिया कि सैकड़ों वर्षों तक उनके परवर्ती रचनाकार उनकी काव्यधारा का वहन करते रहे। गोविन्ददास ने तो विद्यापति को अपना काव्यगुरु ही माना।
उन्नीसवीं शताब्दी के अर्द्धांश बीत जाने के बाद देश के विभिन्न भूभागों में फिरंगियों के प्रति आक्रोश उभरा, सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की परिणति भारतीय जनता में 'जातीय अस्मिता' और 'जातीय पहचान' के रूप मुखरित हुई। मातृभाषा के प्रति लोगों में आतुरता बढ़ी, और भारत के नवशिक्षित बौद्धिकों में एक नई चेतना का उदय हुआ। मैथिलजन इसके अपवाद नहीं रहे। ऐसे समय में ही कवीश्वर चन्दा झा का ओजस्वी रचना कौशल परवान चढ़ा था। उन्होंने एक साथ राष्ट्रभाषा और मातृभाषा के महत्त्व और गरिमा को पहचाना।
यद्यपि महाकवि मनबोध, चन्दा झा से पूर्व ही, मैथिली साहित्य के आधुनिक काल की भावभूमि बना चुके थे। नई शब्दावली और मैथिली भाषा के सहज प्रयोग के साथ प्रबन्धात्मक शैली में 'कृष्ण जन्म' महाकाव्य लिखा। युग-यथार्थ के यथातथ्य चित्रण की परम्परा चन्दा झा के काव्य में स्थापित हुई। महाकवि विद्यापति की प्रसिद्ध पुस्तक 'पुरुष परीक्षा' का मैथिली अनुवाद, चन्दा झा ने किया, उसका प्रकाशन भी हुआ।
बीच के कुछ विवरणों को छोड़कर, कहना उचित होगा कि सन् 1905 में मैथिली पत्रकारिता का शुभारम्भ हुआ। बीसवीं सदी के तीसरे दशक के अन्तिम चरण से मुक्त मैथिली गद्य का पुनरारम्भ प्रो. रमानाथ झा और भुवनेश्वर सिंह भुवन के प्रयास से हुआ। आगे चलकर मैथिली पत्रकारिता विकसित होती रही। स्वभावतः मैथिली में प्रकाशन की सुविधा बढ़ी, गद्य-लेखन का विधिवत विकास हुआ। मैथिली में मौलिक कथा, उपन्यास, निबन्ध, नाटक, आलोचना, संस्मरण आदि लिखे जाने लगे। हरिमोहन झा, यात्री, शैलेन्द्रमोहन झा, मणिपद्म, राजकमल चौधरी, सोमदेव, मायानन्द आदि प्रारम्भिक काल के प्रमुख उपन्यासकार हैं। सन् 1960 के बाद मैथिली उपन्यास लेखन का उपवन खूब फला-फूला। ललित, सुधांशु शेखर चौधरी, रमानन्द रेणु, धीरेन्द्र, जीवकान्त, गंगेश गुंजन, प्रभास कुमार चौधरी, विभूति आनन्द, प्रदीप बिहारी, नवीन चौधरी, उषा किरण खान आदि नए-पुराने रचनाकारों के कई उपन्यास प्रकाशित हुए, जिससे मैथिली उपन्यास की धारा पुष्ट हुई, मगर इधर के कई वषों से मैथिली उपन्यास में ठहराव की स्थिति है। कहना अनुचित न होगा कि मैथिली गद्य को लोकप्रिय और जनसम्वेदी बनाने में हरिमोहन झा और ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्मका अभूतपूर्व योगदान है।
इन दिनों नई पुरानी पीढ़ी मिलाकर सौ से अधिक रचनाकार सृजनशील हैं, जिनमें से कई ऐसे हैं जो बहुविधावादी रचनाकार हैं। मगर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि आज के मैथिली साहित्य की केन्द्रीय विधा कहानी है। 'मिथिला मिहिर' पत्रिका के बन्द होने के बाद मैथिली में दीर्घजीवी और साहित्य के प्रति प्रतिबद्ध पत्रिका का अभाव रहा, इसका असर मैथिली की सभी विधाओं के विकास पर पड़ा। मगर इधर के कुछ वर्षों से मैथिली में त्रौमासिक आधार पर चल रही कथा-गोष्ठी को यह श्रेय जाता है कि मैथिली में कथा लेखन आज खूब हो रहा है। कुछ स्थापित कथाकार लगातार अपने को उन्नत कर रहे हैं और नई फसल भी तैयार हो रही है।
ललित, राजकमल, मायानन्द ने मैथिली कथा को स्वातन्त्र्योत्तर काल में जो मजबूत आधार दिया, शिल्प और विषय-बोध के आधार पर मैथिली कथा जितना विकास कर पाई, उसी के परिणाम हैं, कथाकार राजमोहन झा, प्रभास कुमार चौधरी, गंगेश गुंजन, धीरेन्द्र, धूमकेतु, सुभाषचन्द्र यादव, सुकान्त सोम, उषा किरण खान आदि।
विभूति आनन्द, अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, तारानन्द वियोगी, प्रदीप बिहारी, विनोद बिहारी लाल, विभा रानी, रमेश, देवशंकर नवीन, नीता झा, ज्योत्स्ना चन्द्रम, सुस्मिता पाठक, शैलेन्द्र कुमार झा आदि की पीढ़ी गत शताब्दी के आठवें दशक में, और उसके बाद तैयार हुई; यह पीढ़ी आज मैथिली कथा में सर्वाधिक सक्रिय है। सम्भव है कि इसका श्रेय उनकी प्रतिभा और कौशल के अलावा, पूर्ववर्ती कथाकारों द्वारा निर्मित कथाधारा को भी जाए। मगर एक बात सत्य है कि आठवें दशक के बाद से लेकर आज तक के सामान्य जनजीवन की दशा, घटनाबहुल रही है। भारत में राजनीतिक, अनस्थिरता, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदा, वैज्ञानिक विकास की विकृतियाँ, सूचना-क्रान्ति के कारण घटनाओं के तत्काल प्रसारण, अंग्रेजी के वर्चस्व, अपसंस्कृति की नकल, कर्जखोरी की प्रवृत्ति आदि अच्छे-बुरे परिदृश्य की चकाचौंध में पड़े इस वर्ग के कथाकारों ने अपने समाज की सम्वेदना को सूक्ष्मता से जाना है। खोते जा रहे मानवीय मूल्य और पस्त-परास्त जनसम्बन्ध एवं सम्वेदना को देखकर इस समय के कथाकारों में सन्नाटे की स्थिति है, मगर समय है कि कथाकारों को रुककर सोचने की इजाजत नहीं देता। ऐसे में कथाकार बड़ी तेजी से भागते जा रहे अपने समाज की जनरुचि को नोट करते जा रहे हैं। इनसे आगे भी एक नई पीढ़ी तैयार हो रही है।
आज की मैथिली कहानियाँ समकालीन भारतीय साहित्य की ताजा-तरीन प्रवृत्तियों साम्प्रदायिक मसले, दलित-प्रश्न, स्त्री-विमर्श, नारी सशक्तीकरण, अपराध और राजनीति के अन्तर्सबन्ध, अपहरण, तस्करी, गबन, पर्यावरण समस्या, कृषि समस्या, श्रम और बुद्धि का मिथिला से पलायन, आधुनिकीकरण और बाजारवाद के प्रवेश से मैथिली के जनजीवन में आई सुविधा-दुविधा... आदि मैथिली की ताजा-तरीन कहानियों का मुख्य विषय है। मिथिला में दलितों के प्रति तिरस्कार भाव प्राचीन समय से व्याप्त रहा है। जमीन्दारी प्रथा से उत्पन्न यह सामाजिक विकृति बाद के दिनों में भी मिथिला में धार्मिक-भावना की तरह बैठी रही, मगर दलितों और श्रमिकों के बीच इधर के दशकों में आई जागृति और अस्तित्व बोध से स्थिति धीरे-धीरे बदल गई। दलितों की अर्थ-सम्पन्नता के कारण और उच्च पदों पर उनके आसीन होने के कारण, जातीय समीकरणों में अन्तर आया। आर्थिक समीकरण के बदलते परिवेश के कारण वे अब दलितों का तिरस्कार कर नहीं पा रहे हैं, और भीतर से सम्मान करने की इजाजत नहीं मिलती--इस द्वैध से जूझते मैथिल-जन की मनोदशा को आज के मैथिली कथाकार सूक्ष्मता से पहचान रहे हैं। स्त्री विमर्श के बारे में भी दशा कुछ इससे भिन्न नहीं है। इन ताजा-तरीन तब्दीलियों से देर-सबेर पूर्ववर्ती पीढ़ी के कथाकार भी रू-ब-रू हुए हैं, उनके यहाँ भी इन मसलों को सहज रूप से देखा जा सकता है।
पहले भी कहा गया कि स्वस्थ साहित्यिक पत्रिकाओं के अभाव के कारण मैथिली की अन्य विधाओं की गतिशीलता बाधित हुई है। उपन्यास में तो काफी समय से ठहराव है। रंगमंच की सुविधा के कारण नाटक कभी-कभी अवश्य लिखे जाते हैं, मगर नाट्य-शिल्प और समुचित वस्तु-चयन की कमजोरी के कारण अधिकांश नाटक तात्कालिक महत्त्व के होकर रह जाते हैं। सुधांशु शेखर चौधरी, महेन्द्र मलंगिया, गंगेश गुंजन, उदय नारायण सिंह नचिकेता और विभूति आनन्द आधुनिक मैथिली के सफल नाटककारों में प्रमुख हैं।
मैथिली कविता निश्चित रूप से अपनी सही जमीन पर सही तरीके से खड़ी है, और समय के दबाव से उत्पन्न युग-यथार्थ को गम्भीरता से पहचान रही है। महाकवि वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री', रामकृष्ण झा 'किसुन', राजकमल चौधरी के साहसपूर्ण प्रयास और ओजस्वी कौशल से अधुनातन हुई मैथिली कविता को मायानन्द, सोमदेव, धीरेन्द्र, धूमकेतु, गंगेश गुंजन, जीवकान्त, रामलोचन, महाप्रकाश, नचिकेता, सुकान्त, महेन्द्र, ललितेश, विभूति आनन्द, नारायणजी, तारानन्द वियोगी, केदार कानन, रमेश, ज्योत्सना, सुस्मिता, विद्यानन्द आदि कवियों ने आज के समय में भी युगसंगत बनाए रखा है। यदा-कदा प्रकाशित निजी संकलनों और यत्किंचित पत्रिकाओं के माध्यम से कविताएँ सामने आ रही हैं।
यात्रा-संस्मरण, पत्र-साहित्य, ललित निबन्ध, बाल साहित्य आदि की स्थिति सचमुच अच्छी नहीं है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में मैथिली भाषा को मान्यता मिलने से मैथिलों में कुछ सम्मान भाव और अतिरिक्त उत्साह पनपा है। कई सरकारी, गैरसरकारी प्रकाशन संस्थानों ने इस भाषा में रुचि ली है। कुछ काम हुए हैं, कुछ हो रहे हैं, निश्चय ही आगे भी होते रहेंगे। भविष्य में मैथिली-भाषियों को कुछ बेहतर सम्मान मिले, इसके लिए मैथिली पाठकों और लेखकों की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। वे अपनी मातृभाषा के प्रति सम्मान-भाव रखें, और मैथिली की गौरवशाली परम्परा को स्मरण कर अपने भाषा-साहित्य के प्रति जागरूक होएँ।
आलोचना साहित्य को लेकर मैथिली के लेखकों में कुछ निराशाजनक स्थिति है। इसका पहला कारण है बिना मेहनत और उचित तैयारी के आलोचना के क्षेत्र में कूद आए आलोचकों की पूर्वाग्रह वृत्ति, और दूसरा कारण है, रचनाकारों की असहिष्णुता एवं अधैर्य वृत्ति। आलोचना लिखने के लिए पर्याप्त श्रम और सूचना के साथ-साथ विवेकशील बुद्धि और विश्लेषण क्षमता की आवश्यकता होती है। किन्तु यह भी सच है कि यदि किसी आलोचक ने किसी खास रचनाकार के लेखन को अनदेखा कर दिया, अथवा उनमें कमजोरी निकाल दी, तो उतावला होने की आवश्यकता नहीं है। मगर लोग उतावले हो जाते हैं। कोई भी आलोचक अपनी राय देता है, वह न्यायाधीश नहीं है, उसकी राय मानने को कोई भी व्यक्ति विवश नहीं है। रमानाथ झा के बाद मैथिली आलोचना को पुष्ट करने वाले प्रमुख आलोचक--रामानुग्रह झा, मोहन भारद्वाज, रमानन्द रमण, तारानन्द वियोगी, ललितेश मिश्र आदि हैं।
मैथिली भाषा साहित्य पर विहंगम दृष्टि डालकर हम इसी तरह खिड़की खोल सकते हैं। व्यावसायिक प्रकाशन गृह के अभाव के कारण ढेरों रचनाएँ अपनी उमर गँवाकर प्रकाश में आती है। मगर स्थितियाँ बदलेंगी--हम ऐसी उम्मीद तो कर ही सकते है।