मैथिली साहित्य की दशा / देवशंकर नवीन
हिन्दी मेरी राष्ट्रभाषा है, मैथिली मातृभाषा। जाहिर है कि माँ का महत्त्व किसी भी मनुष्य के जीवन में सबसे उपर होता है। इस दुनिया में आज भी ऐसे राष्ट्र हैं, जहाँ की वीभत्स गाली होती है कि तुम्हारे बच्चे मातृभाषा भूल जाएँ। अपनी मातृभाषा में लिखना गौरव की बात होती है।
लोग अक्सर पूछते हैं कि मैथिली की शब्दावली तो हिन्दी जैसी है, फिर हिन्दी से मैथिली भिन्न कैसे है? यह उचित नहीं है। शब्दावली के आधार पर किसी भाषा को दूसरे का नकल प्रमाणित करना अच्छी बात नहीं है। भारत की कई भाषाएँ ऐसी हैं जिनकी शब्दावलियों में बहुत साम्य है, पर वे एक नहीं हैं। मैथिली एक मुकम्मल भाषा है। इसका इतिहास किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा से पुराना है और गुणवत्ता से परिपूर्ण है। मैथिली संसार की अकेली भाषा है, जिसका प्रारम्भिक साहित्य गद्य में लिखा गया। शब्दावली और क्रियापद से भी देखें तो — परिकठ, खुहरी, सुजनी, केथरी, पिहुआ इत्यादि शब्दों का अनुवाद संसार की किसी भी भाषा में नहीं मिलेगा। क्रियापद की तरफ बढ़ें तो देखेंगे कि एक ही क्रिया के लिए कितने स्वरूप हैं — मारलकै, मारलकनि, मारलखिन, मारलथिन! ‘मारा’ जैसी अभिव्यक्ति के लिए मैथिली में चार-चार भंगिमाएँ उपलब्ध हैं और सबका अलग-अलग सन्दर्भ है। ये सभी भंगिमाएँ मार खानेवाले और मारनेवाले की हैसियत के आधार पर तय है।
विदित है कि खड़ी बोली हिन्दी का इतिहास भारतेन्दु युग से शुरू हुआ है। मैथिली के अकेले विद्यापति हिन्दी के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के लिए भारी पड़ते हैं। कहना मुनासिब होगा कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृति देने की प्रक्रिया स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान ‘निज भाषा’ के रूप में दी गई स्वीकृति के आधार पर तय हुई और कई जनपदीय भाषाओं से सम्पोषण पाकर ही हमारी राष्ट्रभाषा मजबूत हुई। मैं गर्व से कहता हूँ कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है और मैथिली मातृभाषा। भाषा केवल शब्दों से नहीं, संस्कारों से भी पोषित होती है, इन दिनों लोग बड़े आराम से ‘बुआ’, ‘फुआ’, ‘चाची’, ‘मौसी’, मामी’ सब को ‘आण्टी’ में परिवर्तित कर देते हैं। मैथिली ऐसी विलक्षण भाषा है जहाँ सम्बन्धियों को सम्बोधन के आधार पर तय कर लिया जाता है। पता नहीं संसार की कितनी भाषाओं में इतनी सूक्ष्मताएँ हैं।
सन् 1857 का स्वाधीनता संग्राम जब हम हार गए थे तो हमारे पूर्वज भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सिद्दत से महसूस किया कि हम आपस में बिखरे हुए हैं। इस बिखराव को समेटने का एक ही रास्ता सु-कर है और वह है — ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल !’ उन्हीं दिनों मैथिली के प्रकाण्ड कवि चन्दा झा ने महाकवि विद्यापति की प्रसिद्ध कृति पुरुष परीक्षा का संस्कृत से मैथिली में अनुवाद कर भूमिका हिन्दी में लिखी। यह सब स्वाधीनता आन्दोलन में आहुति देने का समग्र अभियान था। ऐसा कहकर मैं किसी भाषा विवाद को न्यौता नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि मानव-द्रोह का जो आचरण आज पनप रहा है, उसमें भाषायी एकता मानव-प्रेम को बढ़ावा देगी और इसलिए अगर भाषायी तौर पर समूहवाद बढ़ रहा है, तो निश्चय ही यह भाषा-समूह में तब्दील होकर राष्ट्रीय एकीकरण तक पहुँचेगा। अच्छी धारणा से शुरू किया गया हर संवाद, हर विवाद, हर आन्दोलन सार्थक होता है। किसी भी आन्दोलन में भटकाव तब शुरू होता है, जब आन्दोलनकारियों की धारणा अन्यथा स्वार्थ केन्द्रित हो जाती है। हर बोली, हर भाषा, हर संस्कृति और हर जनपद की अपनी अस्मिता है और वह बरकरार रहे तो वह मातृभाषा को भी पुष्ट करती है, राष्ट्रभाषा को भी और राष्ट्रीय अस्तित्व को भी।
अकादमिक बहस में भाषा और बोली (उपभाषा) का फर्क समझाया जाता है। हर भाषा की अपनी साहित्यिक विरासत है जैसा कि मैथिली की है। किसी भी भाषा की कई उपभाषाएँ होती हैं। पुरानी कहावत है — चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर वाणी — हर जनपद की आबोहवा, सामाजिक संरचना और मानवीय रहन-सहन के आधार पर वहाँ की बोलियों में तब्दीली आती रहती है, किन्तु भाषा का अपना मानदण्ड होता है, साहित्य होता है। किसी भाषा का अस्तित्व जन-जन की चित्तवृत्ति से बनता है, राज सत्ता से नहीं। यू. एन. ओ. तक में हिन्दी के स्थान की बात गम्भीरतापूर्वक अगे्रतर स्थिति में चल रही है। वह दिन अब दूर नहीं जब हिन्दी राज-काज की भाषा के रूप में यू०एन०ओ० में भी स्वीकृत हो जाएगी। मुसीबत तब दिखती है, जब द्विभाषिक आवेदन प्रपत्र भरते समय अनूदित प्रपत्र सामान्य नागरिक की समझ से बाहर हो जाते हैं।
हमें यह लगने लगा है कि हम अनुवाद के युग में जी रहे हैं। आजकल हमलोग ‘क्या हालचाल है?’ कहना भूल गए हैं। ‘कैसे हैं आप?’ पूछते हैं जो अंग्रेज़ी के ‘हाउ आर यू’ का शाब्दिक अनुवाद है। ‘प्रणाम’ और ‘नमस्कार’ की जगह ‘सुप्रभात’ कहने लगे हैं, जो ‘गुड मॉर्निंग’ का हिन्दी अनुवाद है। हिन्दी एक समर्थ भाषा है। किसी प्रान्तीय भाषा के विकास से हिन्दी पर खतरे की आशंका निरर्थक लगती है। इस तरह की छद्म चिन्ता में लीन व्यक्ति निश्चय ही भाषा-प्रेमी नहीं हैं, वे भाषा का राजनीति करते हैं।
मैं न तो राजनीतिज्ञ हूँ, न समाज सुधारक। इच्छा करता हूँ कि इस देश से भाषा, जाति, सम्प्रदाय और प्रान्त के नाम पर चल रही धन्धेबाजी का सिलसिला खत्म हो जाए। एक राष्ट्र हो भारत, एक जाति हो मानव और एक भाषा हो मनुष्यता की भाषा। इस इच्छा की पूर्ति के लिए भारतीय साहित्य सबसे सार्थक हथियार है। दर्जनाधिक भाषाओं में आज भारतीय साहित्य एक ही बात बोलता है। विकृत राजनीति में लिप्त कुछ लोग भाषा और जाति का सहारा लेकर इस धन्धे में जरूर लिप्त होंगे, किन्तु आम नागरिक को इससे कोई मतलब ही नहीं है। वे मनुष्यता की ही भाषा समझते हैं।
रचनाकार जो कुछ सार्थक लिखता है, जनहित में लिखता है, वह साहित्य होता है, विधा विशेष के कारण किसी रचना की गरिमा-लघिमा तय नहीं होती। कहानी और कविता में कोई वैर नहीं है। कथ्य किसी भी रचनाकार के मन में अपनी विधा तय करके ही उपजता है, इसलिए किसी भी बहुविधावादी रचनाकार को विधा तय करने में कोई समस्या नहीं होती। ऐसे कई रचनाकार हैं जो नाटक भी लिखते हैं, आलोचना भी लिखते हैं, यहाँ तक कि वे राजनीति और दर्शन से सम्बन्धित लेख भी लिखते हैं। दर्जन भर उदाहरण तो यूँ ही मिल जाएँगे।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा हमारे समाज में पुरानी है। इन दिनों नई तकनीक में विश्वग्राम की दुहाई दी जा रही है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में मुट्ठी पर अच्छाइयों के साथ टोकरी भर विडम्बनाएँ हमारे सिर चढ़ बैठी हैं। मिथिला इसी विश्व का एक उन्नत और चिन्तनशील भूखण्ड है, जो इन सभी अच्छाइयों और विडम्बनाओं से प्रभावित है। मैथिली साहित्य इन सभी प्रभावों से जनपद को सावधान करने की जिद पकड़े हुए है।
इतिहास गवाह है कि मिथिला की स्त्रियाँ सृजनात्मक प्रतिभा में सबसे आगे है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की सूक्ति का रट्टा मारने के बावजूद उन्हें सम्मान देना मिथिला के मर्दों के लिए गवारा न हुआ। व्यावहारिक स्तर पर आज भी वह ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त’ ही है। स्त्रियों के प्रति यह पाखण्ड-नीति और दलितों के प्रति अवमानना-भाव समकालीन मैथिली साहित्य में चर्चा का मुख्य विषय है। स्त्री विषयक दैहिक भूगोल और यौनाचार के उन्मादक प्रसंग उकेरकर यदि कोई व्यक्ति अपनी रचना को रोचक और लोकप्रिय बनाना चाहता है, तो बेहतर है कि वे साहित्य की दुनिया से कहीं और चले जाएँ! स्त्री-विमर्श के प्रवक्ता की टोपी सिर पर डालकर चौकसी करने से बात नहीं बनती। अपने भीतर एक विवेक जगाना होता है। इन छद्मवेषी प्रवक्ताओं के कारण ही आजकल स्त्री-विमर्श का पाखण्ड भी रचनाकारों की चिन्ता में शामिल हो गया है। मिथिलांचल की स्त्रियाँ आज भी दुर्दशा और भटकाव की शिकार हैं। उनकी दुर्दशा से अधिक दुःखकर उनका भटकाव है, जिसे कुछ पाखण्डी स्त्रीवादियों ने अपने धन्धे का सहारा बना लिया है।
आज का मैथिली साहित्य समकालीन समाज के जनवृति का जीवन्त प्रतिबिम्ब है। यह समाज के वर्तमान स्वरूप को भूमण्डलीकृत परिप्रेक्ष्य में हू-ब-हू अंकित करता है। जो साहित्य समकालीन समाज को अपने अस्तित्व-रक्षा और अस्मिता-निर्माण के लिए प्रेरित न करे, वह साहित्य नहीं, बुद्धि-विलास है। हर लेखक के लिखने का उद्देश्य खुद को मुक्त करना और समाज को जाग्रत करना होना चाहिए। जो रचना इस रूप में सफल होती है, वही रचना श्रेष्ठ होती है।
अतीत से वर्तमान तक के अनेक उदाहरणों से प्रमाणित करना सहज है कि मैथिल समाज बहुत प्रगतिशील रहा है। याज्ञवल्क्य, मण्डन, वाचस्पति, विद्यापति, यात्री, राजकमल चौधरी और इन जैसे कई लोगों का उल्लेख दृढ़ता से किया जा सकता है। सबसे बड़ा उदाहरण तो राम की शक्ति पर सीता का विजय है, जिसमें मिथिला की स्त्री ने अपने आत्मबल का प्रमाण दिया है। इसलिए मिथिलांचल के पाखण्ड-प्रसंग पर चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। पर यह भी सचाई है कि पाखण्डियों की एक बड़ी जमात सभी जनपद में है, इसलिए मैथिल समाज में भी है, जिसे देखकर लोग मैथिलों के पाखण्डी होने की धारणा बना लेते हैं। किन्तु ऐसे लोग या तो समाज के दिग्दर्शक नहीं हैं, या फिर सामान्य नागरिक उन्हें अपना आदर्श नहीं बनाते। कोई भी रचनाकार न तो लठैत होता, न राजनीतिज्ञ। वह लेखक होता है, अपने लेखन से ही वह समाज की आँखें खोलना चाहता है और खोलता भी है। भारत देश की कई भाषाओं की तरह मैथिली में भी महिला लेखन की दशा बहुत अच्छी नहीं है, पर बहुत बुरी भी नहीं है। लिली रे, उषा किरण खान, सुस्मिता पाठक, ज्योत्स्ना चन्द्रम् जैसी महिलाओं के अवदान से मैथिली में स्त्री-लेखन का क्षेत्र संख्यात्मक रूप से भले ही कम सुपुष्ट हो, पर गुणवत्ता में बड़ी तीक्ष्ण है।
नवजागरण की तरह नवलेखन भी एक सापेक्ष शब्द है। यह समय के बदलते परिप्रेक्ष्य में हर मोड़ पर अपना स्वरूप बदलता रहता है। नवलेखन का तात्पर्य यदि आज की नई पीढ़ी की चिन्तनधारा हो तो मैथिली के सन्दर्भ में यह बहुत सम्भावनापूर्ण है। नई पीढ़ी में बड़े ही दृष्टिसम्पन्न और ऊर्जावान लोग क्रियाशील हैं। मैथिली नवलेखन के जिन लेखकों में गुणवत्ता और प्रतिबद्धता की तीक्ष्णता दिखती है, अगर नाम लेना जरूरी हो तो विद्यानन्द झा, श्याम दरिहरे, रमण कुमार सिंह, अविनाश, श्रीधरम्, अजित कुमार आजाद, पंकज पराशर, अशोक कुमार मेहता, दमन कुमार झा की रचनाशीलता को गम्भीरता से देखा जा सकता है। इनके अलावा भी बहुत से नए लेखक मैथिली साहित्य को पुष्ट करने में तल्लीन हैं। बल्कि इस समय इनके पीछे भी नई पीढ़ी आ रही है, जिनके कृतिकर्म का संज्ञान लिया जाना है।
सही मायने में हर रचना लोक के लिए होती है, हर समय का रचनाकार लोक के लिए ही रचना करता है। मैथिली भाषा में डाक, विद्यापति, गोविन्द दास, चन्दा झा से लेकर आजतक के जितने भी स्तरीय रचनाकार हैं, वे सब लोक की भाषा और लोक के जीवन की बात करते आए हैं, करते रहेंगे।
लोक-कला की स्थिति भारत देश के हर भू-खण्ड में बदहाली की कगार पर है। आज लोक की अस्मिता कहीं भी बची हुई है तो वह महिलाओं के कारण, किन्तु ऐसा कहना भी शत-प्रतिशत सही नहीं होगा कि लोककला का लोप हो गया है। मिथिलांचल की लोककलाओं की जड़ जनपद से इतनी जुड़ी हुई है कि वह अभी भी अपने अस्तित्व की सुरक्षा में तत्पर है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव और आधुनिकता की आँधी का दंश इसे प्रतारित अवश्य कर रहा है, पर लोक-जीवन की जीवन्तता इसे मिटने नहीं देगी। महाकवि यात्री और महाकवि नागार्जुन दोनों का अलग-अलग अस्तित्व है। भारतीय साहित्य में नागार्जुन और राजकमल चौधरी चूँकि द्विभाषी रचनाकार थे, दोनों ही भाषाओं में उन्होंने भारतीय साहित्य में बड़ी हैसियत अर्जित की, इसलिए यात्री नागार्जुन के बारे में लोग ऐसी धारणा बनाते हैं कि मैथिली के लेखक प्रशस्ति के लिए मैथिली से हिन्दी की ओर खिसक जाते हैं। पर यह सच नहीं है। उनके बाद की पीढ़ी में भी कथाकार के रूप में प्रभास कुमार चौधरी, जीवकान्त, गंगेश गुंजन, महाप्रकाश और कवि के रूप में जीवकान्त, कुलानन्द मिश्र, महाप्रकाश ने अपनी रचनाओं के बलबूते वैसा कर दिखाया, जो भारतीय साहित्य की किसी भी पीढ़ी के रचना-उत्कर्ष को चुनौती दे रहा है।
मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के बीच किसी भी भारतीय नागरिक को कोई द्वैध नहीं पालना चाहिए। जिस भाषा के बलबूते भारत जैसे बहुसांस्कृतिक राष्ट्र को एकीकृत करने में सहयोग मिला है और हमारे पूर्वज भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इस आन्दोलन का बिगुल बजाया, उनका सम्मान हमें अपने राष्ट्र के हित में करना ही चाहिए।