मैथिली साहित्य में कृष्ण-कथा का आत्मसातीकरण / देवशंकर नवीन

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जिस भारत की प्राचीन परम्परा में रामायण, महाभारत, पंचतन्त्र, अर्थशास्त्र जैसे ग्रन्थ हुए हों; वाल्मीकि, व्यास, विष्णु शर्मा, चाणक्य जैसे चिन्तक हुए हों; चन्द्रगुप्त, अशोक, शेरशाह, अकबर जैसे राजा हुए हों; उस देश की विरासत, बौद्धिकता और शासन-व्यवस्था की श्रेष्ठता पर किसी को कोई सन्देह करने का नहीं है। कदाचित सन्देह हो भी जाए; तो तत्काल उन्हें अपनी चिन्तन-पद्धति पर सन्देह करना चाहिए; दिल और दिमाग का इलाज करवाना चाहिए। ये भारतीय ग्रन्थ और इन मनीषियों की चिन्तन-शैली हमारी भव्य विरासत के उदाहरण भर ही नहीं हैं ! सभ्यता-विकास की बीती शताब्दियों में इनके अवदान से दुनिया के कई राष्ट्रों के ज्ञान-कोष समृद्ध हुए हैं और उनकी शासन-पद्धति को दिशा-निर्देश भी मिला है। इन ग्रन्थों के अनूदित संस्करण से कई देशों की बौद्धिकता और राज-काज उपकृत हुए हैं। इनके पुनर्कथनों और पुनर्प्रस्तुतियों से हमलोगों का परवर्ती साहित्य और ज्ञान-कोष तो सम्पन्न हुआ ही; समस्त आधुनिक भारतीय भाषा के साहित्य और ज्ञान-पाठ में भी इनके पुनर्कथन की उपादेयता जगजाहिर है। रामायण और महाभारत के पुनर्कथन आज भारत की लगभग भाषाओं की उत्कृष्ट धरोहर है और मौलिक साहित्य के रूप में समादृत है। युद्ध और लीला की सूक्ष्मता को रेखांकित करते ये दोनो कलजयी ग्रन्थ आज भी हमारी भारतीय भाषाओं के रचनाकारों को पग-पग पर सम्बल देते हैं। इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता की पुष्टि का कोई प्रयोजन नहीं समझा जाता; बल्कि ये इतने तथ्य-सम्पुष्ट और ऐतिहासिक हैं कि मनुष्यता, नैतिकता, सामाजिकता और राजनीति की परिभाषा तय करते समय ये अनायास हमारे सहयोगी बन जाते हैं।

दुनिया भर में आज शान्ति के गीत गाए जा रहे हैं, युद्ध से विमुख होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है, किन्तु इस नीति के उपदेशक स्वयं कितने पाखण्ड-पर्व में तल्लीन हैं, वह गौर करने योग्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के सैद्धान्तिक पक्ष एवं उसकी संरचित नीतियों में महाभारत-कथा से प्राप्त ज्ञान के उल्लेखनीय उपयोग की जाँच-पड़ताल रोचक होगी ! राष्ट्रकवि दिनकर को भी जब द्वितीय विश्व-युद्ध की त्रासदी को रेखांकित करना था, तो उन्हें महाभारत-कथा की शरण में जाना पड़ा। हिन्दी में धर्मवीर भारती सहित अनेक कवि-कथाकार के नाम गिनाए जा सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि अपनी परम्परा की कालजयी कृतियों के आंशिक या सम्पूर्ण पुनर्कथन करते समय कोई रचनाकार, पुरानी कहानियों की पुनरावृत्ति मात्र नहीं करते; उस सबल वृक्ष पर वे अपनी नई धारणा की विकासमान लता पल्लवित करने का आधार देखते हैं। अर्थात, हर रचनाकार प्राचीन रूपक के माध्यम से अपने समसामयिक सन्दर्भ को सम्प्रेषणीय बनाते हैं। रूपक में गढ़ा गया उनका हर प्रसंग अपने आकार में संक्षिप्त किन्तु व्यंजना में विराट हो जाता है। महाभारत-कथा पर आधारित विभिन्न भारतीय भाषा में बनी फिल्में--अग्निवर्षा, बभ्रूवाहन, भीमसेन, चित्रांगदा, द्रौपदी, कर्ण, कीचक वधम्, कुरुक्षेत्र, कुरुक्षेत्रम्, ययाति...विभिन्न भारतीय भाषा में रचित उपन्यास--एस.एल. भैरप्पा का पर्व, विष्णु सखाराम खाण्डेकर का ययाति, शिवाजी सावन्त का मृत्युंजय और युगान्धर, सी राजगोपालाचारी का महाभारत, प्रतिभा राय का याज्ञसेनी, गिरीश करनाड का नाटक ययाति के अवगाहन से इस बात की पुष्टि की जा सकती है। महाभारत-कथा पर आधारित किसी रचना के रचनाकार से प्रश्न किया जाए, तो सम्भवतः उनका एक ही उत्तर होगा कि सम्पूर्ण संवेदना के साथ समकालीन ज्वलन्त समस्या को उजागर करने के लिए, उसकी समस्त व्याधि के एक-एक तन्तु को रेखांकित करने के लिए इससे बड़ा सहायक उन्हें अन्य कुछ भी नहीं मिला। सम्भवतः वे ऐसा भी कहें कि पर्याप्त चिन्तन-मन्थन के बाद भी अन्य किसी माध्यम से ऐसी विलक्षण अभिव्यक्ति-कौशल दुर्लभ है।

आधुनिक समय और सामुदायिक जीवन की सूक्ष्मताओं को रेखांकित करने के लिए महाभारत-कथा का आश्रय एक रचनात्मक अनुसन्धान है, जो रचनाकारों के शिल्प-विधान को भी व्यवस्थित कर देता है। इस तरह से व्यवस्थित शिल्प ज्योंही विषय-वस्तु में प्रविष्ट होता है, समस्त रचनात्मक उद्देश्य अनायास दिशा पकड़ लेते हैं, रचनाकार की चिन्तन-दृष्टि का स्पर्श पाते ही अभिव्यक्ति के सारे फाटक खुलने लगते हैं, जैसे कृष्णजन्म के बाद कारागार के सारे फाटक खुलने लगे थे। भारत की प्राचीन भाषा मैथिली की कोई भी साहित्यिक विधा इसका अपवाद नहीं है। राधा-कृष्ण प्रेम विषयक प्रसंग तो यहाँ प्रारम्भिक समय में ही विद्यापति की रचना में ही हो गया था; किन्तु कथात्मक सूत्र के साथ महाभारत-कथा का प्रथम प्रवेश यहाँ सम्भवतः मनबोध रचित कृष्णजन्म महाकाव्य से दिखता है। अठारहवीं शताब्दी के इस उल्लेखनीय घटना के आगे-पीछे ढेर सारा घट-अघट हुआ।

सोलहवीं शताब्दी के अधोकाल में अकबर के सम्पोषण से मिथिला में खण्डबला वंश का शासन शुरू हुआ। महेश ठाकुर को मिथिला जनपद की शासन-व्यवस्था सौंपी गई। मैथिल-जन के पराभव का समय कुछ तभी से शुरू हो गया था। सतरहवीं-अठारहवीं शताब्दी का समय आते-आते यहाँ नागरिक-जीवन की दशा वस्तुतः भयावह हो गई। सामन्ती शोषण चरम पर था। कृषि-कर्म की हताशा, कुटीर-उद्योग का विनाश, विजातीय संस्कृति का आक्रमण, लोकहितकारी क्रिया के प्रति विमुखता...सबने मैथिल समाज को जर्जर बना दिया था। विशिष्ट साहित्य की रचना शिथिल हो गई थी, प्राचीन परिपाटी की लीक पीटकर पण्डित-समाज अपने दम्भ को गुदगुदा रहे थे। सामाजिक जड़ता बढ़ती जा रही थी। विशिष्ट कवि मनबोध के अलावा उस दौर के समस्त प्रबुद्ध नागरिक पाण्डित्य और कव्यशास्त्रीय चमत्कार प्रदर्शित करने में लगे थे। सूचनानुसार, निश्चित समय पर राजस्व नहीं चुकाने के कारण उस दौर के मिथिला के राजा नरेन्द्र सिंह (सन् 1743-1770) पर मुगल शासक के प्रतिनिधि नवाब अलीवर्दी खाँ ने सन् 1750 में पटना के सूबेदार रामनारायण से आक्रमण करवा दिया। बाद में नवाब की सेना ने भी आक्रमण किया। कन्दर्पी घाट के निकट हुए इस युद्ध में नरहण के राजा अजित नारायण ने, नरेन्द्र सिंह को साथ दिया, भीषण युद्ध के बाद नरेन्द्र सिंह विजयी हुए। कहा जाता है कि इस युद्ध में मारे गए सैनिकों के जनेऊ का वजन 72 सेर हुआ था।

इस कथा का दूसरा संस्करण भी है। जनश्रुति के खजाना के रूप में विख्यात कवि स्व० हंसराज ने यह वजन पाँच पसेरी बताई। आगे की कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा कि युद्ध में नरेन्द्र सिंह की विजय-उजय नहीं हुई थी, वे पकड़े गए थे, माफ़ी-वाफ़ी माँगकर किसी विधि उन्होंने जान बचाई और अपनी झेंप मिटाने के लिए अपने इलाके के सभी ब्राह्मणों को भोज देने की योजना बनाई। अपने सन्देशवाहक द्वारा ब्राह्मणों को न्यौता भिजवाया। सारे ब्राह्मणों ने कहलवाया कि राजा के सिर पाँच पसेरी जनेऊ का पाप है, उनका भोजन हम ग्रहण नहीं करेंगे, पहले वे प्रायश्चित करें ! इस बात पर राजा ने धमकी भिजवाई। सन्देशवाहक ने आकर ब्राह्मणों से कहा कि राजा नरेन्द्र सिंह की क्रूरता से आपलोग भलीभाँति परिचित हैं; कब क्या कर दें, किसे पता ! इस बात पर ब्राह्मणों ने पुनर्विचार किया और प्राण-भय के मारे भोजन के लिए तैयार हो गए; किन्तु एक शर्त रखी कि जब तक हमलोग भोजन करें, राजा नरेन्द्र सिंह पंक्ति में न आएँ। कूटनीतिक पद्धति से बात मान ली गई। सारे ब्राह्मण आए, भोजन परोसा गया, नैवेद्य लगा कर ब्राह्मणों ने ज्यों ही पहला निवाला उठाया कि कमर में तलवार खोंसे राजा नरेन्द्र सिंह प्रविष्ट हुए, किले का फाटक भीतर से बन्द कर दिया गया, सारे ब्राह्मणों के हाथ जस के तस रुक गए। सब के सब अवाक् थे !...नरेन्द्र सिंह बोले — देख क्या रहे हैं, भोजन कीजिए ! ब्राह्मणों ने कहा — शर्त तो यह नहीं थी ! राजा तिरस्कारपूर्वक बोले — मैं राजा हूँ, आप प्रजा; राजा और प्रजा के बीच शर्त कैसी? कोई शर्त नहीं ! मैं आदेश दूँगा, आप पालन करेंगे; इसके अलावा कोई शर्त नहीं ! भोजन कीजिए, अन्यथा (म्यान से तलवार निकालते हुए बोले) मेरे सिर पाँच पसेरी जनेऊ है ही, एकाध सेर और आ जाएगा। सबके सिर उनके घर भिजवा दूँगा।...इस घटना के बाद तो सबको भोजन करना ही था, सो किया; और वहीं से घर-द्वार छोड़ अधिकांश लोग भाग गए। कहा जाता है कि ग्लानि के मारे मैथिल ब्राह्मणों का वह बड़ा पलायन था, वही मूलोच्छिन्न मैथिल देश के विभिन्न कोनों में जा बसे। ऐसे क्रूर नवाब और पाखण्डी राजा के कारण मिथिला की जैसी सामाजिक दशा थी, उसमें मनबोध ने कृष्णजन्म महाकाव्य लिखकर एक विशिष्ट कार्य किया। चूँकि सन् 1788 में मनबोध की मृत्यु हुई, इसलिए स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ की रचना इससे पूर्व ही हुई होगी। इसके नौ अध्यायों का प्रथम प्रकाशन सन् 1884 में जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी बंगाल में हुआ, जिसका सम्पादन ग्रियर्सन ने किया; फिर बाद में इसके कई प्रकाशन हुए। मिथिला की ऐसी विकट सामाजिक पर्यवस्थिति में मनबोध द्वारा कृष्णजन्म महाकाव्य की रचना कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है।

विदित है कि हर समय का साहित्य रूढ़ हो गई प्रथा को तोड़कर जड़ता मिटाने का कार्य करता आया है। रूढ़ि मिटाकर नई परम्परा शुरू करने का साहस सब में नहीं होता। उस समय मिथिला के नागरिक जीवन में जैसी जड़ता और शासकीय-व्यवस्था में जैसी अहमन्यता फैली थी, उसे तोड़ना मनबोध जैसे विद्रोही स्वभाव के रचनाकार से ही सम्भव हुआ। मैथिली साहित्य की प्रचलित परिपाटी राधा-कृष्ण विषयक प्रेम और भक्ति से अलग उन्होंने कृष्णजन्म महाकाव्य की रचना की। महाभारत-कथा के उद्घोषणा-वाक्य — ‘यदा यदाहिधर्मस्य...’ में ही कृष्णजन्म महाकाव्य का सम्पूर्ण रचनात्मक उद्देश्य समाहित है। उस काल के कंस, जरासन्धादि (रूपक में) की आततायी वृत्ति से मैथिल समाज का जीवन साँसत में था, जिसके सर्वनाश के लिए मनबोध को कृष्ण के अवतरण का प्रयोजन हुआ। उस दौर में मैथिली साहित्य में ऐसे नायक का आह्वान मनबोध ने बड़ी आशा से की थी। इस महाकाव्य द्वारा वस्तुतः वे मैथिल-जन को सन्देश देना चाहते थे कि यदि आपको अपने पराभव से मुक्त होना है, तो इन राक्षसों के वध के लिए अपने ही बीच से कोई कृष्ण खड़ा करना पड़ेगा। इस कृति के सम्बन्ध में मायानन्द मिश्र ने लिखा है कि ‘महाकवि मनबोध के कृष्णजन्म ने मध्यकालीन प्रचलित समस्त काव्य-परम्परा को तोड़ते हुए सम्भावना के सर्वथा नवीन क्षितिज का उद्घाटन किया है। इस दृष्टि से महाकवि मनबोध मध्यकाल के क्रान्तिकारी रचनाकार हैं। किन्तु उनका दिशा-संकेत, उस सामन्तीकाल में, एक परम्परा को विकसित करने में सर्वथा असमर्थ रह गया (मैथिली साहित्य क इतिहास, पृ. 123)।’ इस विलक्षण परम्परा का विकास मैथिली साहित्य में लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक अवरुद्ध रहा। परवर्ती पीढ़ी में भी दीर्घ अन्तराल तक महाकवि विद्यापति के काव्य की शृंगारिकता ही व्याप्त रही।

असल में मैथिली उत्तर बिहार और नेपाल के तराई इलाके में बोली जानेवाली संविधान स्वीकृत भाषा है। बेरानबेवें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के अनुसार इस भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में समाविष्ट किया गया। मैथिली भाषा अपने स्वभाव और संस्कृति से बांग्ला, असमिया, ओड़िया और नेपाली की भगिनी भाषा प्रतीत होती है। इसकी साहित्यिक परम्परा अत्यन्त समृद्ध है। आज तो यह देवनागरी में लिखी-पढ़ी जाती है, किन्तु इसकी अपनी लिपि ‘मिथिलाक्षर’ अत्यन्त प्राचीन है। ब्राह्मी-लिपि से विकसित इस लिपि को गुप्तकाल में ‘तिरहुता’ कहा जाता था। बौद्ध-ग्रन्थ ‘ललित विस्तर’ में इसे ‘वैदेही’ लिपि कहा गया है। राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के समर्थन में मैथिल विद्वानों ने शताब्दी भर पूर्व अपनी लिपि ‘मिथिलाक्षर’ त्याग कर देवनागरी में मैथिली लिखना स्वीकारा था। इस तरह अपनी प्राचीन लिपि त्यागकर देवनागरी अपनाने की उदारता मैथिल-जन को इतनी महँगी पड़ी कि तुमुल कोलाहल के साथ हिन्दी के अल्पज्ञ लोग मैथिली को हिन्दी की बोली मानने लगे, जो तर्कपूर्ण नहीं है। मैथिली और हिन्दी भाषिक रूप से एक मार्ग से विकसित भाषा है ही नहीं! मैथिली का विकास मागधी प्राकृत-अपभ्रंश से हुआ है, जबकि हिन्दी का विकास शौरसेनी प्राकृत से। फिर मैथिली किस तर्क से हिन्दी की बोली होगी? हिन्दी के अपढ़ उद्घोषकों को इस पर विचार करना चाहिए ! बहरहाल...

लगभग तीस हजार वर्गमील में फैली इस भाषा के प्रयोक्ताओं की अनुमानित संख्या भारत के सोलह और नेपाल के सात जिले को मिलाकर लगभग छह करोड़ से अधिक है। मैथिली, इसी मिथिला की जनभाषा है। विदित है कि मिथिला सीता की धरती है, यहाँ प्रत्येक लौकिक व्यवहार में सीता और राम की कथा भरी है; पर ऐसा भी नहीं है कि कृष्ण-कथा की परम्परा यहाँ से विलुप्त है। शास्त्र-चर्चा के केन्द्र मिथिला में, सदैव पौराणिक प्रसंग पर शास्त्रर्थ होता रहा है। सम्भवतः इन्हीं कारणों से राधा-कृष्ण और सीता-राम मिथिला के हर संस्कार, उत्सव और तीज-त्यौहार के गीतों में संस्कारित है। जन्मोत्सव में मिथिला की हर बेटी सीता अथवा राधा होती है, हर बेटा राम अथवा कृष्ण होता है; वैवाहिक उत्सव में प्रत्येक जोड़ी सीता-राम अथवा राधा-कृष्ण होती है। किन्तु मिथिला के किसी भी लोक-व्यवहार में सीता-राम अथवा राधा-कृष्ण की स्वीकृति देवी-देवता या कि चमत्कारी शक्ति के रूप में नहीं होती है, वे लौकिक अनुराग से भरी सन्तान की मानिन्द हर जगह उपस्थित होते हैं। यह प्रसंग पूरी मिथिला के लोक-व्यवहार में ग्राह्य है। ऐसे में प्राचीन मैथिली साहित्य में, अर्थात् अठारहवीं शताब्दी से पूर्व के मैथिली साहित्य में महाभारत-कथा यदि क्षीण कथात्मक-सूत्र के साथ है, तो कोई आश्चर्य नहीं। यद्यपि महाकवि विद्यापति की पदावली में और उनके अनुवर्ती गोविन्ददास के मुक्तक काव्य में राधा-कृष्ण विषयक शृंगार और भक्ति के स्वरूप अंकित हैं। भक्ति और शृंगार की इस प्रमुखता का कारण था उस दौर की सामाजिक स्थिति। भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से मिथिला कभी युद्ध-प्रेमी नहीं रहा, किन्तु दिल्ली से बंगाल का आवागमन मिथिला होकर होता था; बंगाल-फतह के लुब्धकामी फिरोजशाह तुगलक के आक्रमणकारी सैनिकों ने सन् 1359 में जाते-आते इतना उत्पात मचाया कि मिथिला का नागरिक, जीवन से हताश हो गया था। इस हताशा को मिटाकर सकारात्मक ऊर्जा भरने के लिए विद्यापति ने देखा कि राधा-कृष्ण विषयक प्रेम सर्वाधिक प्रभावी होगा, फलस्वरूप उन्होंने अपनी पदावली में प्रेम के बूते जीवनानुराग का भाव जगाया। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मिथिला अपने प्रारम्भिक समय से ही वैदिक परम्परा का आस्तिक क्षेत्र रहा है। निवृत्तिमार्गी जैन और बौद्ध संन्यास का प्रभाव मिटाकर गार्हस्थ और आस्तिक प्रवृत्ति की ओर अनुरक्त करने के लिए भक्ति और शृंगारिकता का समावेश उस समय का सामाजिक प्रयोजन था।

यहाँ महाभारत-कथा के रूप में कवि-नाटककार उमापति उपाध्याय के पारिजात-हरण का उल्लेख युक्तिसंगत होगा। हरिवंशपुराण की एक छोट-सी कथा पर इस नाटक का विषय आधारित है। उमापति के इस एक मात्र उपलब्ध लघुनाटक में इक्कीस गीत हैं। संवाद संस्कृत और प्राकृत में है। उमापति उपाध्याय के काल-निर्णय पर इतना विवाद है कि उनके समकालीन समाज की दशा के सन्दर्भ से रचनात्मक दृष्टिकोण पर व्यवस्थित राय बनाना कठिन है, फिर भी कृष्ण-कथा का पुनर्कथन तो यह है ही; और लौकिकता की कसौटी से जीवन-मूल्य का संकेत तो यहाँ मिलता ही है। काल-निर्णय करते विद्वानों ने इनका समय चौदहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक खींचा है, किन्तु भीमनाथ झा ने इनका काल सन् 1570 से 1670 के बीच माना है। मिथिला का पराभव इस दौर में भी किसी तरह कम नहीं था। पारिजात-हरण का युद्ध-विधान उस व्यवस्था पर विलक्षण दृष्टि देता है। अठारहवीं शताब्दी में नन्दीपति रचित नाटक कृष्णकेलिमाला एक विशिष्ट मैथिली रचना है, जिसमें मनबोध की रचना-शैली का प्रभाव दिखता है।

अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्यावलोकन से भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि साहित्य-सृजन लिए भारतीय रचनाकारों को महाभारत-कथा का सहारा लेने का प्रयोजन उन्नसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से सर्वाधिक हुआ; जब फिरंगी शासक के अत्याचार ने भारतीय नागरिक की जीवन-दशा नरक कर दी थी। आगे के समय में वर्चस्व लोलुप वैश्विक युद्ध की शृंखला चल पड़ी। यह समस्त आचरण कोई नरमेध-शृंखला से अधिक क्रूर और वीभत्स था। ऐसे में उन रचनाकारों को पल-प्रतिपल किसी कृष्ण, किसी अर्जुन, किसी विदुर का प्रयोजन दिखता था। भारतीय नागरिक किसी न किसी रूप में स्वयं को पूतना, कंस, जरासन्ध, जयद्रथ, दुर्योधन से घिरा अनुभव कर रहा था। इस विपदा से उबरने के आकांक्षी नागरिक की अभिलाषा से मैथिली के रचनाकार निरपेक्ष कैसे रहते? वंचना और दमन के प्रभावकारी घटकों के सर्वनाश के लिए इन रचनाकारों को अपने समाज में कृष्ण और अर्जुन जैसे महाबली का प्रयोजन दिखा; महाभारत-कथा के नीति-उपदेश से समाज-व्यवस्था को सुधारने की अभिलाषा हुई।

उल्लेखनीय है कि स्वातन्त्र्योत्तर काल के स्वदेशी शासन में भी शासक वर्ग की दमनात्मक नीति कोई कम नहीं थी। जिन विशिष्ट कृतियों में ये सब प्रमुखता से रेखांकित हुईं, उनमें कई विधाओं की रचनाएँ हैं। महाकाव्यों में बीसवीं शताब्दी के प्राथमिक चरण में मुंशी रघुनन्दन दास (1860-1945) का ‘सुभद्राहरण’, सन् 1938 में रचित तन्त्रनाथ झा (1909-1984) का ‘कीचक वध’, ‘कृष्णचरित’, सन् 1980 में प्रकाशित बबुआजी झा अज्ञात का ‘रुक्मिणी परिणय’, ‘प्रतिज्ञा पाण्डव’, ईशनाथ झा (1907-1965) का ‘महाभारत’, सन् 1969 में रचित काशीकान्त मिश्र ‘मधुप’ (1907-1987) का ‘राधाविरह’, बुद्धिधारी सिंह रमाकर (1919-1991) का ‘शरशय्या’; खण्डकाव्यों में सन् 1979 में रचित अच्युतानन्द दत्त (मृत्यु 1944) का ‘कर्ण’, ‘कंसवध’, सन् 1988 में रचित कांचीनाथ झा ‘किरण’ (1906-1989) का ‘पराशर’, सन् 1980 में रचित सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ (1910-2002) का ‘उत्तरा’ और फिर ‘कृष्णावतरण’, सन् 1994 में रचित उपेन्द्रनाथ झा व्यास का ‘मैथिली महाभारत आदि पर्व’, अमरेन्द्र मिश्र का ‘एकलव्य’ और नाटकों में सन् 1961 में प्रकाशित श्याम बिहारी दास ‘नवानी’ का ‘द्वापरक द्वन्द्व’, सन् 1989 में प्रकाशित गोविन्द झा का ‘रुक्मिणी हरण’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय है।

‘द्वापरक द्वन्द्व’ नाटक की ‘प्रवेशिका’ में नाटककार के रचनात्मक उद्देश्य का उल्लेख हुआ है। देश के नौजवानों को सम्बोधित और कंसवध की कथा पर आधारित इस नाटक में उनका उद्देश्य कोई धार्मिक कथा प्रस्तुत करना नहीं था। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि आज के तर्कयुग में अन्धभक्ति कोई उतना प्रभावकारी नहीं रह गया है। ज्ञानहीन भक्ति से आज तक धर्म और समाज--दोनों का अहित ही होता आया है। वस्तुतः वे महाभारत-युद्ध में कुछ ऐसी शक्ति का कारण ढूँढ रहे थे, जिसकी प्रेरणा से पूरा भारत कीड़े-मकोड़े की तरह समराग्नि में कूद कर स्वाहा हो गया। इस कार्य-कारण-अनुसन्धान में उन्हें कंसवध की कथा-प्रस्तुति सर्वाधिक सहायक लगी। मिथिला की शास्त्रार्थ-परम्परा से जो कोई परिचित हैं, उनके लिए यह उल्लेख अनुकूल होगा कि यहाँ तर्क करने की प्रवृत्ति सदैव बनी रही है; दीगर बात है कि तर्क करते-करते आज की मैथिल-प्रवृत्ति दिग्भ्रान्त हो गई है; आज वे जिसे तर्क, नवताबोध, समाजबोध और नवचिन्तन की संज्ञा देते हैं, वह वस्तुतः उनका पाखण्डपूर्ण, आत्मलीन, आत्महीन, स्वार्थ-सम्पन्न कुटिल ‘राजनीति’ हो गया है; कुतर्क हो गया है। विडम्बना ही है कि ‘राजनीति’ जैसे पवित्र और मूल्य-बोधित शब्द को हम इतने हीन आचरण के लिए प्रयुक्त करते हैं। बहरहाल...

‘द्वापरक द्वन्द्व’ के रचयिता श्याम बिहारी दास ‘नवानी’ ने भागवत-ग्रन्थ के रचयिता के दृष्टिकोण पर तर्क किया है। इस नाटक में उन्होंने कहीं मूल-कथा पर आँच नहीं आने दिया, बस प्रस्तुति ऐसी हुई है कि भागवतकार द्वारा चित्रित कंस, कृष्ण, नन्द, रोहिणी, राधा, ब्रजवासी की प्रचलित छवि से कुछ प्रश्न खड़े हो गए हैं। ये प्रश्न इस बात की भी पुष्टि करते हैं कि युग-यथार्थ के चित्रण के रूप में प्रत्येक समय की रचना समकालीन और परवर्ती समय के पाठकों के समक्ष वही परोसती है, जो नीति-मूल्य, मानव-मूल्य, सम्बन्ध-मूल्य के पक्ष में हो। प्रत्येक श्रेष्ठ रचना अपने पाठक को ‘पूर्ण मनुष्य’ बनाने की प्रेरणा से भरी रहती है। श्याम बिहारी दास ‘नवानी’ ने तर्क किया है कि —

भागवतकार को आखिरकार ऐसी क्या प्रेरणा हुई कि अनेक शक्ति-सम्पन्न राजा के रहते हुए भी उन्होंने कंस जैसे टुटपुजिया राजा के वध के लिए सोलहो कला से परिपूर्ण कृष्ण का पूर्णावतार कराया?

कंस-भय से जब यादव लोग पांचाल भाग गए, तो फिर यादव की महारानी रोहिणी कंस के सम्पर्की नन्द के यहाँ गोकुल में कैसे रह गईं और वहीं बलराम जैसे पुत्र को कैसे जन्म दिया?

जिस राधा को कृष्ण, जीवन भरि नहीं भूल पाए; इतने आत्मनिर्णयी होते हुए भी, उन्हें अपनी विवाहिता क्यों नहीं बना पाए, कम से कम उन्हें आश्रय तक क्यों नहीं दे पाए?

राजनीतिक फेर में कृष्ण, जीवन भर भारत-भ्रमण करते रहे, किन्तु नन्द को मथुरा से विदा करते समय, पीछे से अपने आने का आश्वासन देकर भी, कभी वृन्दावन आने की फुरसत क्यों नहीं निकाल पाए?

कृष्ण-वियोग में समस्त ब्रजवासी जीवन भर रोते रहे, पर कभी मथुरा या कि द्वारिका आकर जिज्ञासा करने की इच्छा क्यों नहीं की? कृष्ण और यदुवंशी के हलचल भरे जीवन-वर्णन में कहीं ब्रजवासी का सम्यक जीवन क्यों नहीं आया?

ऐसे अनेक प्रश्न नाटककार ने उठाए हैं। स्पष्ट है कि ये सारे प्रश्न भागवतकार के बुद्धि-विवेक पर नहीं उठाए गए हैं। यह नाटक उन्होंने लिखा ही है समकालीन भारत के नौजवानों को सम्बोधित करते हुए। इस नाटक के प्रकाशन-काल तक क्रूरता और पाखण्ड से भरे स्वातन्त्र्योत्तर भारत के स्वदेशी शासन की नीति स्पष्ट हो चुकी थी; जिसे उस दौर के नौजवानों को गम्भीरता से समझने का प्रयोजन था। ‘द्वापरक द्वन्द्व’ के रचयिता श्याम बिहारी दास ‘नवानी’ उस दौर के नौजवानों को इन प्रश्नों के आलोक में अपने देश की दशा और तज्जन्य कर्तव्यबोध की सूचना दी है।

गोविन्द झा का नाटक ‘रुक्मिणी हरण’ का नामकरण महाभारत कथा के पात्र से अवश्य हुआ है, पर उन्होंने इसमें विलक्षण प्रयोग किया है। इसका महाभारत-कथा के रुक्मिणी हरण और सन् 1850 के बंगाल किसान विद्रोह के बाद बंगाल से भागकर मिथिला आ गए निलहों के प्रभु लोगों की नीति से जोड़ा गया है। इस जुड़वाँ कथाभूमि के इस नाटक में विलक्षण प्रयोग है, जिसमें रुक्मिणियाँ नाम की एक साधारण ग्राम्य युवती और रुक्मिणी साम्राज्ञी की प्रेमकथा साथ-साथ चलती है; जिसका आधार-ग्रन्थ एक ही साथ बादरायण व्यास रचित महाभारत भी है और एम.के. मित्तल रचित पुस्तक ‘पीजेण्ट अपराइजिंग एण्ड महात्मा गाँधी इन नॉर्थ बिहार’ भी। रुक्मिणियाँ की प्रेमकथा और रुक्मिणी हरण के सहयोग से इसमें निलहों के प्रभु लोगों की दुर्नीति को उजागर किया गया है। महाभारत कथा का यह विलक्षण प्रयोग प्रशंसनीय है।

‘रुक्मिणी हरण’ इस बात का भी संकेत देता है कि अंग्रेजों की नीति से उत्पन्न होनेवाले पारिवारिक विग्रह से कैसे बचा जाए। सम्बन्ध-मूल्य की रक्षा करते हुए किसी महत् उद्देश्य की ओर कैसे बढ़ा जाए।

इसी तरह तन्त्रनाथ झा (सन् 1909-1984) रचित ‘कीचक वध’ महाकाव्य एक विशिष्ट कृति है। कवि ने इस कृति की रचना स्वाधीनतापूर्व ही, सन् 1938 में शुरू कर दी थी। अमिताक्षर छन्द में रचित इस कृति का रचनात्मक उद्देश्य तत्कालीन फिरंगी शासक के दुष्कृत्यों को उजागर करने और स्वदेशी नागरिक को अपने त्रसद-जीवन के प्रति सावधान करने का था। माना जाता है कि सन् 1861 में रचित माइकेल मधुसूदन दत्त की प्रसिद्ध रचना ‘मेघनाद वध’ की प्रेरणा भी तन्त्रनाथ झा के इस रचना-सन्धान में है। ‘कीचक वध’ की रचना पूरी होने में लम्बा समय लग गया। बहुत छोटे आकार की यह रचना इतनी सघन है कि इसके पूरा होने में लगे लम्बे समय की सारी शिकायत परोक्ष हो जाती है। महाभारत-कथा के छोटे-से प्रसंग पर सुरचित इस छोटे-से महाकाव्य को कोई अन्य बड़ी संज्ञा भी दी जा सकती थी। इसके छह अनुच्छेद तो मैथिली साहित्यपत्र शीर्षक पत्रिका में सन् 1938 में ही छप गए थे, सन् 1961 में पूरे होने पर शेष तीन सर्ग सन् 1962 में छपे; फिर विभूतिभूषण मुखोपाध्याय के आग्रह पर सन् 1976 में उन्होंने एक सर्ग और जोड़ा। फिर जाकर यह पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इस महाकाव्य की रचना-प्रक्रिया महाकाव्य-लेखन की पुरानी लीक नहीं पीटती, बल्कि पाश्चात्य महाकाव्यात्मक शैली को भी रेखांकित करती है। अत्यन्त परिपक्वता से लिखा गया उनका दूसरा महाकाव्य ‘कृष्ण-चरित’ (1976) एक विशिष्ट रचना है, जिसमें उन्होंने आधुनिक शैक्षणिक व्यवस्था और सामाजिक-राजनीतिक परिवेश से जुटाए अपने जीवनानुभवों का समावेश सफलतापूर्वक किया है और प्राचीन भारत की आदर्श शिक्षा-नीति पर अपनी विलक्षण-दृष्टि प्रस्तुत की है। इसमें उन्होंने छन्द-शास्त्रीय ज्ञान और मुहावरेदार प्रयुक्ति के कौशल का परिचय भली-भाँति दिया है। सन् 1979 में उन्हें इस पुस्तक के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

कविचूड़ामणि काशीकान्त मिश्र ‘मधुप’ का महाकाव्य ‘राधा विरह’ इस शृंखला के आगे की कड़ी है। इस कृति के लिए उन्हें सन् 1970 में साहित्य अकादेमी सम्मान से सम्मानित किया गया। इसका प्रसंग उस परिस्थिति का है, जिसमें गोपिकाएँ अपने प्रियतम को बाहरी आपदा के निवारण के लिए प्रस्थान करने की सहर्ष अनुमति देती हैं और आन्तरिक सुव्यवस्था का दायित्व स्वयं लेती हैं। इस कृति का रचनाकाल चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के सीमा-संघर्ष का काल है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने मिथिला की नारियों में उन गोपिकाओं की भावना भरने की कोशिश की है।

सन् 1988 में रचित ‘पराशर’ खण्ड-काव्य में कवि कांचीनाथ झा ‘किरण’ का रचनात्मक उद्देश्य पराशर मुनि की गाथा सुनाना नहीं था; इसमें कृतिकार की वैश्विक चेतना और सचेत दृष्टि का परिचय मिलता है। जिन दिनों मैथिल-समाज अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण की क्षुद्र हरकतों में और उसके दुष्परिणामी विकृतियों में उलझा था, स्मरणीय किरणजी स्थानापन्न मातृत्व (सरोगेट मदर) अपनाने की क्रिया और वैवाहिक सम्बन्धों में जातिगत रूढ़ियों को त्यागने के लिए प्रोत्साहन दे रहे थे। मानवीय जीवन-दृष्टि को उजगार करनेवाली ये दोनो क्रियाएँ वैश्विक चिन्तन में मैथिली साहित्य को उत्कर्ष देनेवाली घटना थी। किन्तु इस ओर मैथिल समालोचना की दृष्टि नहीं जा सकी। ऐसी विलक्षण दृष्टि, कि मिथिला के रुग्ण वातावरण में सन्तानहीन युवा दम्पत्ति और दहेज-दंश के शिकंजे में कैद युवक-युवती घुटन भरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त था, उन्हें प्रफुल्ल मन से जीने का अवसर देनेवाला यह खण्डकाव्य उत्कृष्ट रचना है। इस उत्कृष्टता के कारण ही प्रायः सुरेन्द्र झा सुमन ने इस खण्ड-काव्य को महाकाव्य की संज्ञा दी, सर्वथा उचित संज्ञा दी !


उल्लेख सुसंगत होगा कि सन् 1913-14 में मैथिली अनुवाद साहित्य की समृद्धि के लिए अनूद्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की एक सूची बनी, जिसमें विभिन्न विद्वानों को यह कार्य सौंपा गया, जो इस बात की पुष्टि करता है कि उस दौर के चिन्तक भारत और मिथिला की समाज-व्यवस्था सुधारने के लिए, अपनी साहित्यिक धरोहर को किस तरह सम्पन्न करने की इच्छा रखते थे। उन पुस्तकों की सूची इस तरह है —

आदिपर्व — मुकुन्द झा बख्शी

सभापर्व — हरिनन्दन दास वकील

वनपर्व — गणनाथ झा

विराट पर्व — केशी मिश्र

उद्योग पर्व — त्रिलोचन झा

शान्तिपर्व — शिवेश्वर झा

यक्ष-पाण्डव संवाद — उमेश मिश्र

महाभारत क आदिपर्व — गणनाथ झा

संक्षिप्त महाभारतसार — रमानन्द ठाकुर

मेघनादवध — गौरीशंकर झा (मूल : माइकेल मधूसूदन दत्त)

सन् 1913-14 के आसपास लिए गए इस निर्णय में उस दौर के शासकीय वातावरण का ध्यान रखना जरूरी है। अपने पूर्वजों के उद्यम के ऐसे उत्कृष्ट उदाहरण से हमलोगों को आत्म-गौरव अवश्य होता है; किन्तु आज के अत्युत्साही पीढ़ी के मूल्य-निरपेक्ष धारणा की तुलना जब उनलोगों के उद्यम से करते हैं, तो मन खिन्न हो उठता है। आखिरकार हमलोगों का समाज और चिन्तन-प्रणाली कहाँ जा रही है? किन्तु, भव्य विरासत के स्वामियों का वंशज तो अधिकांशतः दिशाहारा होता ही रहा है! अहंकार और दिशाहीनता की इसी विडम्बना ने यदुवंश का सर्वनाश कर दिया था। महाभारत की उत्तरकथा को रेखांकित करते काशीनाथ सिंह का शोधपूर्ण उपन्यास ‘उपसंहार’ इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

हमलोग चिन्तन और चिन्ता करें; कामना करें; कि राष्ट्र-विमुख, नीति-विमुख, मूल्य-विमुख हमारी देसी सन्तानों को पूर्वजों की साहित्यिक निष्ठा समझ में आए; खास कर स्वघोषित समाजसेवी लोगों को कोई सत्प्रेरणा मिले कि ‘राजनीति’ जैसे पवित्र शब्द को अपकर्ष की ओर ले जाने से बचें। एतद्धि ...