मैदान / पद्मजा शर्मा
असल भारत गरीब है। वह चाय की थडिय़ों पर बीड़ी फूंक रहा है। ठर्रे की दारू पी रहा है। जर्दा-गुटखा खा रहा है। फेफड़े खराब कर रहा है। मण्डी में खड़ा मजदूरी मिलने की बाट जो रहा है।
पान की पीक के साथ मजदूर, नेता पर थू-थू कर रहा है। नेता मोटी चमड़ी का है। वह उसे देख रहा है। दिन पर दिन बिगड़ते हालात देख रहा है। वह चिकना घड़ा है। वह फल-फूल रहा है। थुलथुला रहा है। जितना मुटिया रहा है उतना ही पुज रहा है। फिर-फिर चुन कर आ रहा है।
दूसरी तरफ नकली भारत है। इसमें बुद्धिजीवी हैं। कछुए जैसे। खतरे का भान होते ही अपने-अपने खोल में समा जाते हैं। अन्दर ही अन्दर बड़बड़ाते हैं। खुद ही कहते, खुद ही सुनते हैं। कभी-कभार यह बड़बड़ाहट पत्र-पत्रिकाओं, किताबों में पढऩे को मिल जाती है। या फिर कॉफी हाउस या सभा सोसायटियों में सुनने को मिल जाती है। मंचों से ज्ञान बघारते भी खूब पाया जाता है यह बुद्धिजीवी पर ज्यादातर अपनी बेसुरी ज़िन्दगी के राग अलापता रहता है जिन्हें सुनने में किसी को रस नहीं आता। घिन आती है। गरीब उन रास्तों से परिचित नहीं है जो उसे राजनीति की इमारत तक ले जाएं। जबकि पैसे वालों के पास रास्ते खुद चलकर आते हैं और बुद्धिजीवी को लगता है कि राजनीति के दल-दल में कौन फंसे? वह तो बेईमानों का अड्डा है। जबकि तथाकथित बुद्धिजीवी ईमानदार है। ईमानदारी और पवित्रता का रिश्ता गहरा है। किसी के ज़रा छूते ही पवित्रता उड़ जाती है। गोया कपूर हो। यह बुद्धिजीवी वर्ग मध्यम वर्ग का होता है और यह वर्ग बोता कम काटता ज़्यादा है। वह बिना संघर्ष के शीर्ष पर जाना चाहता है। वह नहीं जानता कि हर मंजिल राजनीति के रास्ते से गुजर कर मिलती है।
वह यह भूल रहा है कि जहाँ खड़ा है वहाँ जमीन पोली है। दाईं तरफ कुआँ है बायीं ओर खाई. सामने राजनीति का मैदान। उसे बचना है तो मैदान की ओर भागने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस समय।