मैनेजमेंट की सोच / पद्मजा शर्मा
'सर, मुझे एक कम्पनी अच्छा पैकेज दे रही है। मैं वहाँ ज्वाइन करना चाहता हूँ।'
'कैसी बातें कर रहे हैं, मिस्टर पंकज। आप की बदौलत हमारी कम्पनी का कारोबार बढ़ा है। आप हमारे लिए एस्सेट हैं। हम आपको कैसे छोड़ सकते हैं?'
'सर, वह तो ठीक है। मगर सैलरी... वह जस्ट डबल दे रहे हैं। मुझे जाने या न जाने का निर्णय भी एक महीने में ही लेना होगा। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।'
'मिस्टर पंकज आप चिंता न करें। मैं शीघ्र ही आपकी सैलरी के विषय में मैनेजमेंट से बात करता हूँ।'
पंकज आश्वस्त था।
महीने से ऊपर समय बीत गया। कोई जवाब या शुभ संकेत नहीं मिला। पंकज ने एक दिन चलाकर पूछ लिया-
'सर, क्या सोचा?'
'किस बारे में?'
'मेरी सैलेरी, सर?'
'अरे हाँ, मैंने हायर अथोरिटी से बात की। पर बात बनी नहीं। आप दूसरी जगह ज्वाइन कर सकते हैं। सॉरी मिस्टर पंक ज।'
'पर सर, अब वहाँ जाने का समय तो निकल चुका है। बहुत देर हो गयी।'
'मिस्टर पंकज, कम्पनी को व्यक्ति की नहीं, व्यक्ति को कम्पनी की ज़रूरत होती है। यह बात सदा के लिए गांठ बांध लेना।'
'सर, कल तक तो मैं एस्सेट था।' कहते हुए पंकज की आँखों में आंसू आ गए.
तभी उसकी पीठ पर सांत्वना का हाथ रखते हुए उसके सहकर्मी ने कहा-'दोस्त, भावुक होने से कुछ नहीं होगा। दीवारों के सिवाय कोई नहीं यहाँ तुम्हें सुनने वाला। अब तुम एस्सेट नहीं लायबिलिटी हो। तुम्हारी जगह किसी और को रखना तय हो चुका है।'
'क्या?'
'हाँ, मैनेजमेंट का यह उसूल होता है कि जब व्यक्ति कम्पनी से ऊपर निकलने लगे तो उसके पाँव काट दो। वह भी इस तरह धीरे-धीरे कि खुद उसको भी पता न चले। जिससे अपने पाँवों पर चलकर वह कहीं, किसी और जगह न तो जा सके और न ही ठीक से अपनी जमीन-जगह पर बिना किसी सहारे के खड़ा रह सके.'
पंकज, अवाक उसे देखता रहा।