मैनेजर पांडेय का आलोचना साहित्य / संदीप आधार चव्हाण
लेखक: संदीप आधार चव्हाण
मैनेजर पांडेय हिन्दी के यशस्वी मार्क्सवादी आलोचक हैं। उनकी आलोचना में साहित्य और जीवन के जुड़ने की संवेदनशीलता तथा आत्मीयता गहरे स्तर पर मौजूद है। इसलिए पांडय जी की आलोचना में समाजोन्मुख सर्जनात्मकता सम्भव हुई है और अपनी आलोचना में उन्होंने विषय को समग्रता में पकड़ने की कोशिश की है। आलोचना करने के लिए आलोचना से कुछ अपेक्षाएँ भी की जाती हैं। इन अपेक्षाओं के बारे में उनका कहना है "मैं ऐसा समझता हूँ कि अच्छी आलोचना लिखने के लिए रचना की समझ के साथ-साथ समाज भी आवश्यक है, जिससे वह रचना पैदा हुई है।"
मैनेजर पांडेय अपने आलोचना कर्म में परंपरा के विश्लेषणपरक मूल्यांकन के भी प्रस्तावक रहे हैं। जिन्होंने भक्तकवि सूर के साहित्य की समकालीन व्याख्या कर भक्तियुगीन काव्य की प्रचलित धारणाओं से अलग एक नई तर्कपरक प्रासंगिकता सिद्ध की है। वे अपनी बात को समझने के लिए टालस्टॉय और टॉक्स मान जैसे महान लेखकों को भी जिरह के बीच लाते हैं और उसी प्रकार अपनी आलोचना को बृहत्तर अर्थवत्ता भी प्रदान करते हैं। आलोचना की प्रासंगिता को समझते हुए उन्होंने इसे एक सांस्कृतिक कार्य के रूप में विकसित किया है। कई नई अवधारणाओं को डॉ. पांडेय ने प्रतिपादित किया है। उन्होंने सूर के विवेचन में वात्सल्य, भक्ति और सख्य भाव के समान्तर उनकी रचनाओं में किसान जीवन की यातना, राजनीतिक दुष्चक्र और पारिवारिक जीवन के अंतरंग पहलुओं को हिन्दी में सर्वथा पहली बार खोजा है। डॉ. पांडेय की आलोचना रचना के परे जाकर साहित्य, इतिहास, दर्शन और विचारधारा के अंत:सम्बन्धों की गहन पड़ताल करती है और एक स्तर पर रचना और विचार की एकात्मकता के साथ-साथ इतिहास तथा समाज के वास्तविक आलोचनात्मक सम्बन्धों की भी खोज करती है।
मैनेजर पांडेय जी के अनुसार अच्छी आलोचना लिखने के लिए रचना की समझ के साथ-साथ उस समाज की समझ भी आवश्यक है, जिससे वह रचना पैदा हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि रचना और आलोचना दोनों के मूल में जीवन और जगत है।
मार्क्सवादी आलोचक के धार के रूप में गिने जाने वाले मैनेजर पांडेय जी को आलोचना के क्षेत्र में आने के लिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. रामविलास शर्मा और बाद में नामवर सिंह से प्रेरणा मिली। स्वयं पांडेय जी का मानना है कि आलोचना समाज के बीच अन्त:सम्बन्धों का माध्यम होकर ही सामाजिक बदलाव का साधन हो सकती है। आगे चलकर वे साहित्यालोचना में इतिहास को भी अंतर्भुत करते हैं।
मार्क्सवादी आलोचक पांडेय जी की आलोचनात्मक सृजनशीलता की आरम्भिक प्रति छवि उनकी पुस्तक 'शब्द और कर्म' में देखी जा सकती है। इसमें लेखक ने आलोचना को रचना कर्म की तरह ही एक सामाजिक कर्म और विचारधारात्मक संघर्ष का साधन मानकर दूसरे सामाजिक व्यवहारों और विचारों से उसके गहरे सम्बन्ध पर बार-बार बल दिया है।
विश्वभर में साहित्य की समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रणाली अपनी आरम्भिक अवस्था में ही है। हिन्दी में मैनेजर पांडेय जी की "साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका" को इस दिशा में एक श्रेष्ठ कृति के रूप में स्वीकार किया जाता है। पुस्तक की अंतर्वस्तु में लेखक ने साहित्य के समाजशास्त्रों के दोनों पक्षों पर मीमांसापरक और अनुभववादी विचार किया है। तथा साहित्य और समाज के हर एक पहलू पर समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विचार किया है।
'भक्तिकाल और सूरदास का काव्य' नामक पुस्तक उनके भक्ति आन्दोलन और साहित्य के अध्ययन का महत्वपूर्ण पड़ाव है। अपने ऐतिहासिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के तहत लेखक ने इसमें सूरदास के काव्य की सामाजिकता की खोज की है। पांडेय जी का तीस वर्षों के आलोचनात्मक लेखन का संचयन 'अनभै साँचा' समकालीन धर्म से पूर्ण परिचित आलोचनात्मक संग्रह है। लेखक ने इसमें मध्युगीन समाज से लेकर तत्कालीन युगीन समाज तक की विसंगतियों और विडंबनाओं को प्रस्तुत किया है। कबीर को वे अपनी दृष्टि से व्याख्यायित करते हुए प्रस्तुत करते हैं।
'आलोचना की सामाजिकता' पुस्तक में वे सामाजिकता के जिस प्रश्न को रचनात्मक साहित्य के मूल्यांकन का प्रमुख आधार बनाते हैं, उसी प्रश्न को आलोचना और चिन्तन के मूल्यांकन का भी प्रमुख आधार मानते हैं। लेखक का पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिरोधी आलोचनात्मक रूप इसमें स्पष्ट दिखाई देता है।
वर्तमान में जबकि सम्पूर्ण विश्व भूमंडलीकरण के दौर में है और साहित्य, कला, संस्कृति तथा उसके पक्षधर बुद्धिजीवियों पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। ऐसे समय में 'साहित्य और इतिहास दृष्टि' पुस्तक समाज और साहित्य के आपसी सम्बन्ध को सुदृढ़ता प्रदान करती है। पांडेय जी साहित्येतिहास सम्बन्धी जो ढाँचा निर्मित करते हैं, उसमें रचना, इतिहास, इतिहासबोध और वर्तमान से उसके सम्बन्ध का बोध शामिल है।
आलोचनात्मक पुस्तक "साहित्य और इतिहास दृष्टि" से मार्क्सवादी धारा की निर्देश आलोचनात्मक कृति है। हिन्दी साहित्य क्षेत्र में यह साहित्य इतिहास की परंपरा का वस्तुवादी परिक्षण का चमकदार व्यावहारिक निदर्शन तथा लेखक की इतिहास दृष्टि का श्रेष्ठ नमूना है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनकी आलोचनात्मक पद्धति ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय रही है।
मैनेजर पांडेय अपने आलोचनात्मक लेखन के क्रम में कई सेद्धान्तिक स्थापनाएँ भी प्रस्तुत करते हैं।
यह सारी मशक्कत अन्होंने मार्क्सवादी की वैचारिक पृष्ठभूमि पर दृढ़ता से पाँव टिकाकर की है। इतिहास और साहित्येतिहास का पुनरूत्थानवादियों की जागीर नहीं बनने देना चाहते हैं तो हमें पांडेय जी के रचनात्मक प्रयासों को आगे भी जारी रखने की जरूरत है।
प्रो. पांडेय को उनकी विशिष्ट आलोचनात्मक उपलब्धियों के लिए अनेक सम्मान भी मिले हैं, जिनमें 'रामधारी सिंह दिनकर, राष्ट्रीय आलोचना पुरस्कार' (बिहार) तथा 'हिन्दी अकादमी', 'दिल्ली का साहित्यकार सम्मान' उल्लेखनीय हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि पांडेय जी का आलोचनात्मक साहित्य हिन्दी में सृजनात्मक आलोचना का जीवन प्रमाण है। उनके आलोचनात्मक लेखन में वैचारिक नवीनता है। विभिन्न दृष्टिकोणों से साहित्य तथा साहित्य तथा साहित्येत्तर सिद्धान्तों पर चर्चा करते हैं। कृति को सम्पूर्णता में देखने का उनका आग्रह प्रशंसनीय है।