मैरी कॉम की पांचवीं विजय! / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :13 नवम्बर 2017
बॉक्सर मैरी कॉम के जीवन से प्रेिरत प्रियंका चोपड़ा अभिनीत फिल्म ओमंग ने निर्देशित की थी। फिल्म का एक संवाद था, जो मैरी कॉम का कोच उससे कहता है, 'अब दो बच्चों की मां बनने के बाद तुम्हारी शक्ति दोगुनी हो जाएगी और तुम विश्व विजेता खिताब को तीसरी बार भी पाओगी।' दो दिन पूर्व ही मैरी कॉम ने पांचवां खिताब भी जीता है। मनुष्य की क्षमताओं की कोई सीमा नहीं है। महिलाओं ने सदियों से दमन और दोहरे मानदंड सहे हैं, जिनके बावजूद वे हिमालय का उच्चतम शिखर छूती रही हैं, अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा में गोल्ड मेडल प्राप्त करती हैं, चुनाव में भी विजयी होती हैं। एक दौर में मार्गरेट थैचर, सिरीमाओ भंडरनायके, शेख हसीना और इंदिरा गांधी अपने-अपने देशों की प्रधानमंत्री रही हैं। इन सबसे ऊपर मदर टेरेसा विश्व शांति के लिए नोबेल प्राइज जीत चुकी हैं। साहित्य क्षेत्र में पर्ल एस. बक, अमृता प्रीतम, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा सोबती, महाश्वेता देवी, महादेवी वर्मा, शमा जैदी, शाइस्ता, शगूफा इत्यादि ने बड़ी शोहरत प्राप्त की है। सिमोन द ब्वॉ की किताब 'सेकंड सेक्स' महिला संघर्ष के हजारों वर्ष का बखान करती है। इतना ही नहीं, जिन पुरुषों ने साहित्य रचा है, वह भी उनके भीतर छिपी स्त्री ने उनसे लिखवाया है। हरिवंश राय बच्चन ने यह स्वीकार भी किया है। विज्ञान क्षेत्र में मैडम क्यूरी जैसी अनेक महान महिलाएं हुई हैं। अगाथा क्रिस्टी का समग्र साहित्य संभवत: सबसे अधिक बिका है। इस तरह फिल्मकार ओमंग की सफल फिल्म 'मैरी कॉम' के भाग दो के बनने के लिए भी सामग्री प्रस्तुत है परंतु अब शायद प्रियंका चोपड़ा के पास इसके लिए समय नहीं हो, क्योंकि प्रथम भाग की शूटिंग के पूर्व उसने महीनों अपनी भूमिका के लिए जानलेवा-सा परिश्रम किया था। शास्त्रों से संविधान तक में महिला को पूजनीय स्थान दिया गया है परंतु व्यावहारिक जीवन में उन्हें दोयम दर्जे की नागरिक ही माना जाता है। संस्कार के नाम पर उन्हें बांधने के लिए अनेक बेड़ियां बनाई गई हैं और जहां कहीं स्वतंत्रता का स्वांग भी किया है, तो 'जंजीरों की लंबाई तक ही सीमित है उनका सारा सैरसपाटा।' भारतीय फिल्म उद्योग में पुरुष सितारों के मेहनताने और नायिकाओं के मेहनताने में भारी अंतर है- यह लगभग दस गुना कम है और ऐसा ही अंतर उस समय भी था, जब मीना कुमारी, नूतन और नरगिस जैसी विलक्षण महिलाएं सक्रिय थीं। यहां तक कि महिला केंद्रित फिल्म में भी अंतर बना रहता है। भारत में महिला मन को उसकी तमाम गहराइयों और अर्थ की अनेक परतों के साथ कभी किसी फिल्म में प्रस्तुत नहीं किया गया है। शरतचंद्र ने महिला मन के कोनों में झांकने का प्रयास जरूर किया परंतु उनके उपन्यासों के नाम भी नायकों पर ही रखे गए हैं जैसे देवदास, विप्रदास इत्यादि।
मानव जीवन के केवल शिकार युग में नारी को शिखर स्थान मिला, क्योंकि उसका निशाना सधा हुआ था और शरीर में चपलता थी। कृषि युग आते ही बैलों को खेत में और नारियों को चूल्हे चौके में जोत दिया गया और गृहस्थी की महिला कुछ ऐसी बखानी है कि बेचारी महिला अपनी कोख तक सीमित रह गई। संभवत: पुरुष ने यह खेल आईने के ईजाद से ही शुरू किया कि हे रूपमुग्धा स्वयं को सदैव निहारती ही रहे। अपनी सुंदरता में ही सिमट जाएं।
अगर मानव समानता व स्वतंत्रता में विश्वास करता तो मानव प्रगति का बहीखाता आज जो लाभ दिखा रहा है, उससे दोगुना अर्जित किया सकता था। जेन ऑस्टिन को परिवार से छिपकर कागज कलम मंगवाने पड़ते थे और सबकी निगाह से बचकर ही वे लिखा पाती थीं। लड़कों को जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही अपना स्वतंत्र कमरा मिल जाता है परंतु महाविद्यालय में पढ़ने वाली लड़की बुआ या मौसी के कमरे में सोती है। वर्जीनिया वूल्फ ने निजी कमरा न होने की शिकायत जोर-शोर से की है।
गौरतलब यह है कि यह खेल क्यों रचा गया? सिमॉन द ब्वॉ का कहना था कि पुरुष नारी से भयभीत रहता है, क्योंकि सृष्टि ने उसे अधिक मजबूत बनाया है। यहां तक कि शयन कक्ष में भी वह पुरुष की कमतरी ही उजागर करती है। बादल की तरह बरसकर गुजर जाता है, वह पृथ्वी की तरह प्यासी रहती है। 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात जरा की।' मधुमति के लिए शैलेन्द्र ने यह किसी अन्य संदर्भ में लिखा था परंतु उस सच्चाई के परे कहीं कुछ नहीं है।
बॉक्सर मैरी कॉम का विजयी पच अपनी महिला प्रतिद्वंद्वी के सिर पर पड़ा परंतु सच यह है कि यह हथौड़ा-सा हाथ पुरुष की श्रेष्ठता के खोखले दावे पर ही पड़ा है।