मोज़े / सत्या शर्मा 'कीर्ति'
पूस की बेहद सर्द सुबह आसमान में फैली कोहरे की चादर और उससे टपकती ठंढी बुँदे।
रात से ही जल रही बोरसी की आग ठंडी हो चुकी थी चलो अब काम पर चले देर करने से क्या फायदा सोचते हुए झुमकी ने जमीन पर पैर रखा पर पाले-सी धरती के स्पर्श से झुमकी काँप गई याद आया रात सोते वक्त मोज़े खोल पायदान के पास रख दी थी पर अभी मिल नहीं रहा कहाँ चला गया, एक ही तो है कैसे काम पर जाऊँगी।
हार कर बगल में सोयी बेटी को उठाया–"सोनी उठो मेरा मौजा देखा है, कहीं मिल नहीं रहा?"
सोनी ने डरते हुए कहा—माँ कल रात अमरुद के पेड़ पर टाँग आई हूँ।
चटाक्... एक थप्पड़ मार झुमकी ने कहा पागल हो गयी हो अब तक तो पूरा ही भींग गया होगा क्या करुँ कैसे जाऊँ?
सोनी ने रोतें हुए कहा ... माँ साहब के बच्चे बता रहे थे कुछ दिनों पहले उन्होंने अपने मोज़े रात में टाँगा था तो सांता भगवान आकर बहुत सारी टॉफी और खिलौने दे गए थे इसलिए रात मैंने भी बड़े से अमरुद के पेड़ में तुम्हारे मोज़े टाँग दिया और सांता भगवान से कहा कि—कल नया साल आने वाला है आप मेरी माँ के फटे पैरों के लिए अच्छी वाली क्रीम, गर्म शॉल और मेरे लिए कुछ किताबें और स्कूल की फी भेज दीजिये ताकि मेरी माँ की मदद हो सके.
माँ क्या सांता भगवान गरीबों को भी गिफ्ट देते हैं? और झुमकी के पास इसका कोई जवाब नहीं था।