मोड़ पर(कविता संग्रह): डॉ. भगवत शरण अग्रवाल / सुधा गुप्ता
मोड़ पर (कविता संग्रह) : डॉ-भगवत शरण अग्रवाल, प्र-सं-1997
' जीवन की गठरी-
जन्म से ही छिद्रपूर्ण थी
देखा ही कब मैंने? ' (रिक्त गठरी, पृष्ठ 73)
यह कैसा अकेले मन का बेबस-सा सन्नाटा है? कितना तड़पाने वाला सूनापन, निरर्थकता का अहसास। सफलता के शिखर पर पहुँचने वाले मन (कवि) का असफलताओं और परवशता कि कभी खत्म न होने वाली श्रृंखलाओं में जकड़े होने का 'उद्घोष' ? क्यों है यह 'सब कुछ व्यर्थ ही हुआ है' का नैराश्य-बोध?
(1) गूँजती आहट अभी तक फर्श पर
खोलती है बन्द यादों के सौ द्वार
उलझनों, अनहोनियों के भँवर को
जिन्दगी की नाव कर पाई न पार (सुवास)
(2) दिन तो निकला है पर सूरज नहीं उगा
हवाएँ खामोश हैं
और वातावरण बदहवास
ज़रूर कहीं कोई हादसा हुआ है (सूरज नहीं उगा)
(3) शुरूआत ही ग़लत हुई
मुझे कभी सोचने ही नहीं दिया गया ———
बस, ढोता रहा हूँ मैं
अपने होने का बोझ (त्रिशंकु)
4-स्मृतियों के खण्डहरों में भटक कर
स्वयं को खोज रहा हूँ—
किसी का पुत्र किसी का पौत्र
किसी का कुछ किसी का कुछ
कहीं शिष्य, कहीं मित्र बन
एक दिन पति भी बन गया।
एक ही चोले में अनेक स्वांग भरता रहा।
(खण्डहर में)
सुवास, सूरज नहीं उगा, धुँधले अक्षर, रिक्त गठरी, खण्डहर में, त्रिशंकु, विवशता तथा ऐसी अनेक कविताएँ, लम्बे सफ़र पर चलते रहने वाले स्फूर्तिवान् पथिक की ऊर्जा चुक जाने का अशुभ संकेत-सा करती प्रतीत होती हैं—-क्यों 'निशीथ संगीत' बजने लगा है ओजस्वी कवि की जीवन-वीणा के सात सुरों में? एक निरीह, विवश असमर्थताः
5-और था भी क्या कुछ करने को
सिवाय इसके कि
किनारे बैठा-बैठा लहरें गिनता रहूँ?
अक्षुण्ण अजस्र जिजीविषा कि अथाह राशि पाई है तुमने कवि। 'कर्मयोग' का शंखनाद ही तुम्हें 'सोहता' है कवि। थकन-टूटन, व्यर्थता-विलाप की करुण रागिनी तुम पर 'सजती' नहीं है—-उतार फेंको आँसुओं से बुनी यह केंचुल और अतीत-कारा से मुक्त होकर 'स्वरूप' में स्थित होओ।