मोती / शशि पाधा
जम्मू कश्मीर राज्य में स्थित पीर पंचाल की पहाडियों में गुज्जर- बकरवाल जाति के लोग रहते हैं । ये लोग गर्मियों में ऊँचे पहाड़ों पर रह कर अपने माल मवेशी पालते हैं और सर्दियों में अपना पूरा परिवार लेकर मैदानों में आ जाते है । भेड बकरियाँ ही इनकी सोने -चाँदी की निधि होती है । दूध,घी तथा ऊनी वस्त्र बेच कर यह लोग अपना जीवन यापन करते हैं । चूंकि यह लोग जंगलों में, खुले में रहते हैं अत: अपने पशुओं और बच्चों की रक्षा हेतु कुत्ते अवश्य पालते हैं । अपने स्वभाव के अनुसार सदैव सतर्क रहने वाला यह प्राणी अन्य जंगली जानवरों से इनकी रक्षा करता है ।
खैर, मैं आपको आज ऐसे ही एक प्राणी “ मोती” से परिचित कराना चाहती हूँ जो भारतीय सेना की स्पेशल फोर्सेस की एक महत्वपूर्ण यूनिट का प्रिय सदस्य था । (इस पलटन की विशेष बात यह है कि इस में सम्मिलित होने वाले सैनिकों का बहुत कठिन प्रशिक्षण होता है । प्रशिक्षण के बाद चुने हुए सैनिकों तथा अधिकारियों को एक विशेष चिन्ह “बलिदान “( बैज ) भेंट किया जाता है । शौर्य तथा बलिदान का यह चिन्ह स्पेशल फोर्सिस के जवान बड़े गर्व से अपनी वर्दी पर टांकते हैं । इस यूनिट के वीर जवान युद्ध के समय शत्रु की सीमा के अन्दर घुस कर उनके महत्वपूर्ण ठिकानों को नष्ट करने में विशेष रूप से प्रशिक्षित होते हैं ) ।
मेरे पति की यह यूनिट वार्षिक सैनिक अभ्यास हेतु पीर पंचाल की उन्हीं पहाडियों में जाती थी जहाँ गुज्जर –बकरवाल लोग रहते थे । सेना की हर इकाई वर्ष में एक बार ऐसे अभ्यास अभियान में अवश्य जाती है ताकि युद्ध के समय सैनिक उन भोगोलिक परिस्थितयों में आने वाली कठिनाइयों का सामना करने के लिए पूरी तरह से तैयार हों । ऐसे ही एक अभ्यास शिविर में दूध,फल, दवाई आदि के आदान-प्रदान में पलटन के सैनिकों की पहचान जंगल में बसेरा डाले हुए गुज्जरों के कुटुम्ब से हो गई । एक बार भयंकर तूफान में फंसे इनके परिवारों की सहायता इन सैनिकों ने पूरी जिम्मेवारी से की और इस तरह यह जान पहचान मित्रता में बदल गई ।
दो मास के अभ्यास शिविर के बाद जब पलटन वापिस अपनी छावनी लौटने के लिए तैयारी कर रही थी तो गुज्जरों के प्रमुख ने भेंट के तौर पर सैनिकों को एक छोटा सा कुत्ते का बच्चा दिया । यूँ भी अपने परिवारों से कई महीने से बिछुडे सैनिक उस भोले वाले प्यारे से जानवर से खेलने के मोह से छूट नहीं पाए । पलटन के कुछ सैनिक पहले भी इस नन्ही सी जान से खेल कर दिल बहलाते होंगे और गुज्जरों के मुखिया को शायद इस बात की जानकारी थी । अत: सैनिकों के कप्तान ने सहर्ष यह प्यारी सी भेंट स्वीकार कर ली ।
पहाडियाँ उतरते, नदियाँ नाले पार करते हुए इस छोटे से प्राणी ने हमारी पलटन के रजिस्टर में अपना नाम लिखवा लिया । किसने इसका नामकरण किया,कोई नहीं जानता । किन्तु अब वह “ मोती “ नाम से जाना जाने लगा । सैनिकों के साथ रहते रहते मोती पूर्णतय: उनके ही रंग में रंग गया । सैनिक जो खाएँ, वही मोती का आहार, जहाँ सोएँ वही मोती का बसेरा । सुबह “पी:टी” का बिगुल बजते ही अपने शरीर को झाड पोंछ कर, आँखे मल कर पूंछ हिलाते हुए मोती पी:टी के मैदान में सावधान खड़ा हो जाता था । किसकी क्या हिम्मत कि कोई मोती को कतार से बाहर करे । सुबह की दौड़ में वह पूरी सामर्थ्य के साथ कई सैनिकों को पछाड़ने की होड़ में लगा रहता । फुटबाल, बालीबाल के खेल में वह गेंद पर कड़ी नज़र रखते हुए एक निष्पक्ष रेफ्री के समान कभी इस टीम में और कभी उस टीम के साथ खड़ा हो जाता । इस तरह वो प्यारा सा मोती हमारी पलटन का एक अभिन्न सदस्य हो गया ।
हम कुछ परिवार उन दिनों छावनी में तम्बुओं में रहते थे । इस अस्थाई पहाड़ी छावनी में पक्के मकान बनाने की अनुमति नहीं थी । हर परिवार के लिए एक बड़ा सा तम्बू गाड़ दिया जाता था । दो चारपाइयाँ ,एक स्टील की मेज,एक आध कुर्सी,तम्बू की अंदरूनी तह में लटका हुआ एक शीशा, रोशनी के लिए लालटेन या गैस लैम्प, आदि-आदि आवाश्यकता की पूरी सामग्री । यहाँ मैं अपने पाठकों को अवश्य बताना चाहती हूँ कि यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है , ७० के दशक की बात है और भारतीय सेना की बहुत सारी छावनियों में इसी तरह से रहने का बंदोबस्त था । ऐसी अस्थाई छावनियाँ जंगलों या पहाड़ी क्षेत्र में स्थित थीं । हर बड़े तम्बू के पीछे एक छोटा तम्बू होता था जो गुसलखाने का बस आभास देता था । किन्तु अब याद करती हूँ तो लगता है वही हमारा स्वर्ग था, वही हमारा संसार ।
अधिकारियों का खाना पीना ‘मैस” में होता था और अन्य सैनिकों का लंगर में । मुझे याद है कि सभी अधिकारियों के छोटे बच्चे अपने माँ बाप के साथ “मैस” का खाना खाने के बजाय लंगर में अन्य सैनिकों के साथ ही खाना खाना पसंद करते थे । तो फिर मोती भी कोई कम नहीं था । उसे जहाँ से भी स्वादिष्ट भोजन की सुगंध आती, वो उसी रसोई के इर्द -गिर्द चक्कर काटता रहता । शाम को पलटन के बच्चों के साथ कई तरह के खेल खेलता था । इस तरह वे बच्चों तथा बड़ों का प्रिय मित्र बन गया ।
अगले वर्ष के अभ्यास शिविर में सैनिकों के साथ रहते -रहते मोती पूरी तरह प्रशिक्षित हो गया । सुना है कि वह जंगलों – पहाड़ों में रात के समय आसानी से पगडंडियों के बीच का रास्ता बता सकता था । घने जंगलों में चलते –चलते वह जंगली जानवरों के वहाँ होने का आभास करा देता था । अभ्यास के लिए धरती की परतों में दबाई “माइन” को केवल सूंघ कर पहचानने में वो पूरी तरह अभ्यस्त हो गया था । इस तरह वो छोटा सा जानवर आकार से तो नहीं किन्तु अपनी बुद्धि और संकल्प से एक शूरवीर सैनिक की तरह प्रशिक्षित हो गया । अब पलटन में उसे प्यार से “कमांडो मोती” के नाम से पुकारा जाने लगा । या यूँ समझिए कि औरों की तरह मोती की भी पदोन्नति हो गई थी ।
कहते हैं न “ सब दिन होत न एक समान “ । विश्वस्त सूत्रों से समाचार आने लगे कि पाकिस्तान बड़े पैमाने पर युद्ध की तैयारी कर रहा था और भारती सीमाओं पर पाकिस्तानी फौज का भारी मात्रा में जमाव बढ़ रहा था । हमारी पलटन में भी सीमा क्षेत्र की ओर प्रस्थान करने की तैयारी धीरे –धीरे शुरू हो गई । मोती पूरी तैयारी में बहुत व्यस्त दिखाई दे रहा था । हथियारों की सफाई, गाड़ियों की मरम्मत, खाने के लिए शक्करपारे, भुने हुए चने से लेकर गोला बारूद की सही पैकिंग भी मानो उसकी निगरानी में हो रही थी
दीपावाली का त्यौहार बस कुछ दिन दूर था और वहां रहने वाली हम दो चार सैनिक पत्नियों ने बड़े चाव से इसे मनाने की योंजना बनाई । किन्तु दीवाली से कुछ दिन पहले ही हमारी पलटन को उत्तरी भारत की सीमा रेखा के पास सीमाओं की चौकसी के लिए भेजने का निर्णय लिया गया । अत: साथ रह कर खुशी से त्योहार मनाने की सारी तैयारियां स्थगित कर दी गईं । अब हम लोग अपने आप को आने वाली परिस्थितियों से जूझने के लिए तैयार करने लगे ।
प्रस्थान के दिन सैनिक पत्नियों ने अपने पति और पलटन के अन्य सदस्यों के माथे पर तिलक लगा कर विदा किया और आँख मूँद कर, हाथ जोड़ कर प्रभु से उनके सकुशल लौटने की मूक प्रार्थना की । युगों-युगों से यह अलिखित नियम है कि पति को युद्ध क्षेत्र की ओर भेजते समय पत्नी आँख में अश्रु नहीं लाती बल्कि अधरों पर मुस्कराहट रखती है । हाँ हृदय की नमी तो अदृश्य होती है, उसे कोई देख नहीं सकता । लेकिन मैं इतना जानती हूँ कि विदा लेने वाले और विदा देने वाले की मन: स्थिति लगभग एक जैसी होती है ।
यह तो हुई भावुकता की बात । किन्तु गौरव की बात यह थी कि युद्ध क्षेत्र की ओर जाते समय हमारी पलटन की छावनी का आकाश जयघोष की गूँज से भर गया । भारत माता की जय , हर-हर महादेव, जय भवानी आदि-आदी के जयकारों से वातावरण भावी विजय के उदघोश से भर गया । अब चल पड़ा जीपों, ट्रकों का लंबा काफिला । मोती किस गाड़ी में बैठ कर गया मुझे पता नहीं चला, पर इतना जानती हूँ कि उस प्रशिक्षित कमांडो को कोई भी पीछे छोड़ने को राजी नहीं था ।
जम्मू क्षेत्र में सीमा रेखा के पास पलटन का कैम्प लगा । युद्ध के बादल तो मंडरा ही रहे थे किन्तु पहल किस ओर से होगी कोई नहीं जानता था । एक प्रबुद्ध नागरिक और सैनिक पत्नी होने के नाते हम केवल इतना जानते थे कि सैनिक चाहे किसी भी पदवी पर हो, युद्ध छेडने का निर्णय उसका नहीं होता । यह काम देशों की सरकारें करती हैं । सैनिक तो केवल अपने देश के प्रति कर्तव्य पालन करता है जिसके लिए वो शरीर,मन और बुद्धि से सदैव तैयार रहता है । नवंबर के अंतिम सप्ताह में सैनिक टुकडियों ने सीमा रेखा के बहुत पास मोर्चे संभाल लिए । वे सब अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ धरती के अंदर धंसी हुई बंकरों के अंदर सावधानी के साथ रहने लगे । सीमा रेखा से लगभाग सात –आठ मील पीछे एक एक स्कूल के भवन में पलटन के रसोइये,नाई, धोबी और अन्य लोगों के पास मोती को भी रख दिया गया । था तो वो भी कमांडो लेकिन युद्ध क्षेत्र में उसे ले जाने का कोई भी नियम नहीं था । यह तो बस भावना की , संबंधों की बात थी । पर सुना है कि पलटन के वीरों को सीमा की ओर जाते हुए देख कर मोती बहुत विचलित हो गया था और बार- बार गले में बंधी अपनी रस्सी को खोलने का प्रयत्न करता रहा ।
4 दिसंबर की रात को भारत पाक युद्ध आरम्भ हो गया । आकाश में सेबर जेट और नेट नाम के लड़ाकू विमान युद्धरत थे और धरती पर टैंक, मशीन गन , ग्रनेड आदि अस्त्र-शस्त्रों ने तबाही मचाई हुई थी । अपने-अपने मोर्चे में बैठे हमारी पलटन के योद्धा शत्रु पर घात लगाने के लिए तैयार बैठे थे । आकाश में धूल और बारूद का धुयाँ फैला रहता था । उस रात बंकर में बैठे सैनिकों ने देखा कि गोलियों की बरसात से बचता –बचाता मोती अपने साथियों की सुगंध से रस्ता ढूँढता हुआ बंकर के महीन प्रवेश द्वार पर खड़ा था । उसके गले में बंधी टूटी हुई रस्सी यह बता रही थी कि वे सारे बंधन तोड़ कर इस कठिन घड़ी में अपने साथियों के साथ रहना चाहता था । जहाँ उसे देख कर सभी को खुशी हुई वहीं उसकी सुरक्षा की चिंता भी । आखिर यह निर्णय लिया गया कि अगली रात के अन्धेरे में जैसे तैसे भी उसे सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया जाएगा । मोती को तो बस यह खुशी थी कि इस कठिन समय में भी अपनों के बीच है । इस बात का अहसास वो बारी बारी सैनिकों के मोर्चों में जाकर करा रहा था । मानो वह उनका हौंसला बढ़ा रहा हो ।
अगले दिन यानी 6 दिसंबर की रात को विश्वस्त सूत्रों से यह सूचना मिली की शत्रु पक्ष की सेना के कुछ घुसपैठिये भारतीय सीमा के अन्दर घुस आये हैं तथा वे एक पहाड़ी के पीछे छिप कर भारतीय सेना पर घात लगाने की तैयारी में हैं । तब सीमा की अग्रिम रेखा पर तैनात कमांडो टुकड़ी को घुसपैठियों को नष्ट करने का आदेश मिला । यह जोखिम का काम था जिसमें दोनों पक्षों में आमने सामने होकर वार करने की संभावना थी । हमारी पलटन के बहादुर जवान ऐसी परिस्थिति के लिए पूर्णतया: प्रशिक्षित थे तथा कई बार ऐसे युद्ध् का अभ्यास भी कर चुके थे । उस रात जैसे ही जवानों की टुकड़ी, अपने मोर्चे से निकल कर अँधेरे को ओढ़ कर अपने लक्ष्य की और बढी, मोर्चे में बैठा मोती भी शायद उनके साथ हो लिया । महाभारत के वीर अर्जुन के समान उस समय प्रत्येक जवान के सामने अपना लक्ष्य ही था । उनके आस पास कौन है इस बात से सब बेखबर थे । घोर अँधेरे में ये वीर जवान भूमि के नीचे दबाई हुई सुरंगों से अपने को बचाते- बचाते लक्ष्य की और बढ़ने लगे । खबर थी कि पहाड़ी के ऊपर पेड़ों के झुण्ड में शत्रु छिपा हुआ था । जवानों ने पूरी सतर्कता से पहाड़ी की खोज बीन करनी शुरू की तो मोती भी उनके साथ चुपचाप शत्रु की खोज में लगा रहा । तभी मोती को शायद मनुष्य की गंध आई और वह सूंघता - सूंघता , पहाड़ी के ऊपर पेड़ों के उस झुण्ड में घुस गया जहां घुसपैठिये छिपे बैठे थे । घुसपैठियों ने समझा कि शत्रु का बहुत बड़ा हमला आया है । उन्होंन इस दिशा की तरफ गोलियां चलानी शुरू कर दीं । गोली चलते ही हमारे जवान सतर्क हो गए । किन्तु उनके आगे जाने वाले वीर मोती ने गोलियों की बौछार को अपने शरीर पर झेल लिया । गोली लगते ही सब ने उस अँधेरे में मोती की एक हृदय विदारक चीत्कार सुनी । वो कहाँ था, घोर अँधेरे में पता नहीं चला किन्तु हमारे जवानों को शत्रु के ठिकाने का पता चल गया । उन्होंने जल्दी ही उनके ठिकाने को घेर लिया । कुछ देर घमासान गोलाबारी हुई । इस हमले में हमारे सैनिकों ने छिपे हुए सभी घुसपैठियों को मार गिराया । अपने लक्ष्य की सफलता के बाद जब उस स्थान की तलाशी की गयी तो उन्होंने वहां मोती को घायल पड़ा हुआ देखा । सैनिकों द्वारा मरहम पट्टी करते- करते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए । उस रात के भयंकर युद्ध में वो स्वयं तो शहीद हो गया किन्तु शत्रु घुसपैठियों की घात के इरादे नष्ट भ्रष्ट हो गए । उसके मृत शरीर को देख कर सभी सैनिक नत मस्तक हो खड़े रह गए । युद्ध के समय भावना से कर्तव्य ऊंचा होता है । भावुक होने के बजाय सैनिको ने उस समय मोती के मृत शरीर को सीमा रेखा के पास युद्ध भूमि में दबा दिया ।
युद्ध चलता रहा, सैनिक भारत माँ की रक्षा में अपने संकल्प पर डटे रहे। सत्रह दिन के भयंकर युद्ध में कितनी जाने गईं, कितनी माताओं ने अपने बेटे खोए, कितने सुहाग उजड़े, कितनी संताने अपने पिता के स्नेहाश्रय से वंचित रह गईं, कितने बूढ़े माता पिता ने अपने बुढापे का सहारा खो दिया। किसी के पास इसका लेखा जोखा नहीं था । कुछ दिन अखवारों की सुर्ख़ियों में नाम आते रहे, वीरता के गीत बजते रहे, भावनाएँ देश की सुरक्षा की ओर केन्द्रीभूत होती रहीं । संसार के महत्वपूर्ण राष्ट्रों में विश्व में युद्ध को रोकने के प्रस्ताव पारित होते रहे । इस बीच हम सैनिक पत्नियाँ केवल अपनी पलटन और अन्य भारतीय सेना की पलटनों के सुरक्षित लौटने की प्रार्थना करती रहीं।
सत्रह दिनों के बाद युद्ध की समाप्ति हुई । अपने शिविर में वापिस लौटने से पहले सैनिकों ने मोती के दबाये जाने की जगह पर एक छोटी सी समाधि बनाई तथा पूरे सैनिक सम्मान के साथ केवल हाथ से नहीं हृदय से भी उस शहीद को सलामी दी । सारी पलटन को यही लग रहा था कि उनके परिवार का एक अभिन्न सदस्य दूर, कहीं दूर चला गया हो । वापिस आकर कई दिन तक मोती के बलिदान तथा वीरता की चर्चा हमारी पलटन का हिस्सा बन गई । इस युद्ध को हुए कई बरस हो गये हैं लेकिन उस समय के सैनिक परिवार जब भी आपस में मिलते हैं तो मोती के बलिदान को अवश्य याद करते हैं । उसने इस पलटन का “बलिदान” चिन्ह (बैज) अपने शरीर पर तो कभी नहीं टाँका किन्तु वो उसके अर्थ को चरितार्थ कर गया । मनुष्य तथा पशु के परस्पर संबंधों की यह अनुपम गाथा हम सैनिक परिवारों के लिए चिर स्मरणीय रहेगी ।
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