मोनिका फिर याद आई / वंदना राग
बच्चों के मुँह से बड़ी बात सुन बड़ों को शर्मसार होना पड़ता है और बड़ों के मुँह से बच्चों-सी बात सुन? क्या कहता है शास्त्र और आपका विज्ञान? बच्चों के रंगीन बयानों से कुछ डिग्री रंग हटाकर स्थिति का जायजा लेना चाहिए? लेकिन फर्ज कीजिए, जब वही बयान एक बड़ा हो गया बच्चा सुनाने लगता है तो? क्या आप उसकी तथाकथित 'समझदारी' का अंश घटाकर उसके बयानों को दर्ज करेंगे? ठीक है, यह आपको ही तय करना होगा कि यहाँ आप 'कितना सच' और 'कितना किस्सा' मान बयानों को स्वीकृत करना चाहते हैं।
'अस्सी का दशक, संक्रमण काल का वास्तविक स्वयंभू दशक था।'
तो सच यह है कि इसी काल के दौरान एक शहर था जो फंतासी में नहीं था बिलकुल वास्तविक था, यहीं कहीं था, आपके पास अपने ही देश में। वहाँ रहते थे इस कि़स्से के राजा (नायक) प्रतीक, इस कि़स्से की रानी (नायिका) मोनिका और दोनों की कि़स्साबयानी करती एक लड़की (कि़स्सागो) अनामिका। यहाँ पर ज़रा गौर फरमा लें और विशेष टिप बतौर याद रख लें कि यह काल अनामिका के जीवन का भी अंदरूनी संक्रमण काल था और दो प्रकार के घातक संक्रमणों से मुठभेड़ करती यह लड़की, कि़स्से के दरम्यान उपस्थित हो न सिर्फ़ अपने द्वारा अवलोकित स्थितियों को जज्ब करती जा रही थी बल्कि उन सभी घटनाक्रमों पर अपने फैसले भी दर्ज करती जा रही थी। न जाने इसमें तथ्य कितने हैं, कितनी कल्पनाशीलता है और कितनी पश्य-दृष्टि!
आज वह छत पर फिर खड़ी दिखी। बड़ी खूबसूरत लग रही थी। उसने सफेद सलवार के ऊपर कसा हुआ नीला कुर्ता डाल रखा था। उसकी कमर तक झूलती घनी गुँथी हुई दो चोटियाँ हमेशा की तरह पीठ पर लहरा रही थीं। उसका रंग वही 'फेयर एंड लवली' नामक क्रीम लगाने के बाद सा, दूध में घुली गुलाब की गुलाबी रंगत-सा खिल रहा था। निश्चित था, उसने गोरा होने की किसी क्रीम का कभी प्रयोग नहीं किया था, मगर इसके बावजूद वह ऐसी क्रीमों का विज्ञापन करने वाली नायिका लगती थी। चौंकाने की हद तक आखेट करती, खूबसूरती से नवाजी हुई नायिका।
छत पर आते ही उसने अपना सफेद दुपट्टा, वहीं लावारिस पड़ी एक टूटी-फूटी टेबल पर, मोटी किताबों के साथ सजाकर रख दिया था। दुपट्टा हटाने पर उसके शरीर के उठान और कटाव एक साथ ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे का रेखाचित्र गढ़ते थे। दूसरों पर इस उद्घाटन के खुलनेवाले प्रभावों से वह शर्तिया ही अवगत थी, इसीलिए प्रत्येक दिन छत पर पहुँचते ही वह अपना दुपट्टा, उतारकर रख देती थी। मैं उसकी इस बात को समझ सकती थी, क्योंकि मेरे अंदर भी भविष्य को लेकर कुछ इस तरह की योजना तैयार होती जा रही थी, वह तब जब मैं भी दुपट्टे से अपना कुछ ढकने लायक हो जाऊँगी। तब उस न ढकने में "कितना मजा आएगा।" अवज्ञा वाली बेतकल्लु़फी का मजा। मैं उन मजे के पलों को दूरगामी भविष्य से निकट की ओर खिसकाने के लिए ढेरों प्रार्थनाएँ भी किया करती थी।
वह जिस घर में रहती थी, वह शहर के ऊँचे तबके से सेवानिवृत्त पुलिस अफसर का मकान था। बहुत शानो-शौकत से भरा उसका बाहरी हिस्सा था। अगले हिस्से के इंटीरियर्स भी काँच, स्टील और लकड़ी की संरचनाओं से जगमगाते रहते थे। मगर जिस हिस्से में वह रहती थी, वह हिस्सा किराए पर उठाया गया हिस्सा था। कई जगह कंस्ट्रक्शन अभी पूरा नहीं हुआ था, मसलन-छत की बाउंड्री वाल अभी चारों ओर खड़ी नहीं हो पाई थी, इसीलिए मैं अपने कमरे में से बैठे-बैठे ही अपनी खिड़की से उसके छत पर चल रही सारी गतिविधियों को देख पाती थी। मेरी स्टडी टेबल उसी खिड़की के सामने थी और वहाँ बैठकर अपने स्कूल का होमवर्क निपटाते हुए मुझे उस पर नजर रखने में बड़ा मजा आता था। मैं जानती थी, छत की दूसरी तरफ से कॉलोनी की सड़क दिखती थी और वहीं से हर आने-जानेवाला उसे मेरी ही तरह देखा करता था। वह भी जान-बूझकर उजाला रहने तक वहाँ टहलती रहती थी। कभी-कभी टेबल पर रखी किताबें उठाकर हाथ में ले उन्हें उलट-पुलट किया करती थी।
जिस वक्त मेरे टेबल लैंप जलाने की बारी आती थी, उस वक्त वह टेबल पर रखे अपने दुपट्टे को बड़े जतन से उठाकर अपनी छातियों पर जमाकर सीढ़ियों से नीचे उतर जाती थी।
एक दिन उसने मुझे देखते हुए पकड़ लिया था और उसके बाद वह वहीं से चिल्लाई थी-
"आओ... ऊपर चले जाओ."
मैं अचानक यूँ पकड़े जाने पर शरमा गई थी और चूँकि वह मुझे बेपनाह खूबसूरत लगती थी इसलिए मैं अपने को उसके सामने ले जाने से सकुचा भी गई थी। कहाँ वो, कहाँ मैं?
"आज तो बहुत होमवर्क है," मैंने सिर झुकाते हुए बहाना बनाया, "कल आऊँगी।"
उस रात मैं बिलकुल भी सो नहीं पाई. अपने नीम के दातुन सरीखे शरीर को उठ-उठकर देखती रही थी और एक नए तरह के बोध से भरकर मैंने यह भी देखा था कि मेरा शरीर ही नहीं, मेरे तो बाल भी बड़े रूखे और छोटे हैं और मेरी आँखें? वे तो ठीक से दिखलाई भी नहीं पड़ती थीं। अंडाकार काले फ्रेम के चश्मे के भीतर पूरी तरह कैद रहती थीं। मानो उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व अथवा उससे जुड़ा कार्य दायित्व कभी हो ही नहीं सकता था। मैं जितनी बार अपनी तुलना उससे कर रही थी उतनी ही बार एक नए प्रकार की हीन भावना से ग्रसित होती जा रही थी।
मुझे पहले ऐसा कभी नहीं लगा था। इस नए शहर में आने के बाद भी नहीं। नए स्कूल में जाने के बाद भी नहीं। नए दोस्तों के न बनने के बाद भी नहीं।
वैसे नए शहर में आए हुए दिन ही कितने हुए थे? कुल जमा छह महीने चार दिन बस!
वह रात बेहद दुरूह रही, इतनी कि अगले दिन स्कूल की बस पकड़ना मुश्किल हो गया। नींद पूरी न होने से हर काम शिथिल और ढीला बना रहा। मुश्किल तो इतनी और हो गई कि टीचर ने उड़ी शक्ल और सूरत को क्लास में मन न लगाने वाली बात से जोड़कर देखा और सजा बतौर डबल होमवर्क दे डाला।
अजीब-सी तिलमिलाहट मेरे चारों ओर घिरने लगी और लगने लगा कि रुलाई जल्द ही आने को है, लेकिन मैंने घर पहुँच तुरंत अपने पर काबू पा लिया और मुस्तैदी से होमवर्क निपटाने में जुट गई. दरअसल रात भर उससे न मिलने के हर तर्क के प्रस्तुत होने के बावजूद मेरे अंदर उससे मिलने और दोस्ती करने की एक तीव्र चाहत धड़क रही थी जिसे मुझे बिना किसी रुकावट के आज अंजाम देकर रहना था।
पाँच बजते-बजते वह छत पर चढ़ आई. शाम के आगाज को झुठलाती, उजली धूप-सी, चारों ओर तीखी रोशनी फैलाती। आते ही रोज की तरह उसने अपना दुपट्टा नियत जगह पर रख दिया और मेरी खिड़की के सामने आकर खड़ी हो गई.
"आ जाओ, गप्पें मारेंगे।" मैंने सिर हिलाकर मंजूरी दे दी और ममा से इजाजत लेने चल दी। "ममा वह बगल बाली लड़की है न, बुला रही है।"
"कौन? सुरिंदर सिंह की बेटी? बेटा, वह तो तुमसे बहुत बड़ी दिखती है, तुम्हें उसे दीदी बुलाना चाहिए."
"ममा ऽऽ," मैं तुनक गई, "अरे वह इतनी बड़ी भी नहीं। ज़्यादा से ज़्यादा मुझसे चार-पाँच साल बड़ी होगी, बस, अब इस तरह की बातें कर आप मुझे जाने से रोकिए मत।"
"धत्, कैसी बात करती हो बेटा, मैं तुम्हें क्यों रोकना चाहूँगी, बल्कि मैं तो चाहती हूँ कि इस शहर में भी तुम्हारे कुछ दोस्त बनें, जाओ... लेकिन उसे भी कभी घर बुलाओ."
जब ममा से मैंने बिना किसी नाराजगी के यह कुबुलवा लिया कि उन्हें उस लड़की से मेरी दोस्ती पर कोई एतराज नहीं, उसके बाद ही मैं उसकी छत पर जाने का निर्णय कर पाई. जाने क्यों, लगा था उस वक्त कि उस जैसी खतरनाक कि़स्म की खूबसूरत लड़की से दोस्ती करने के लिए, ममा की मंजूरी का हौसला ज़रूरी था।
"हैलो... मेरा नाम मोनिका है।" उसने मक्खन की लोई-सी नरम मखमली हथेली मेरी ओर बढ़ा दी। मैं उत्साह से भर गई और अपनी आवाज को अतिरिक्त रूप से मीठा बनाकर बोलने लगी, जो उसकी खूबसूरती के मारक प्रभावों को झेलने की ताकत रखेगा।
"मालूम है, मालूम है, तुम्हारी मम्मी जब तुम्हें बुलाती हैं तो हमारे घर पर सुनाई पड़ता है।" मैं उछलती हुई पहले वाक्य से ही 'तुम' पर आ गई थी, उसे जतला देने के उद्देश्य से कि हमारी उम्रों में बड़ा फासला नहीं और हम बाइज्जत दोस्त हो सकते हैं। पता नहीं पहचान की अंतरंग नींव रखने की इस हड़बड़ी को वह पहचान पाई कि नहीं क्योंकि मेरी बात सुनते ही वह बहुत सोचते हुए, मेरे अनुमान से बिलकुल अलग कि़स्म की बात बोल गई थी।
"सच? और मेरे घर का क्या-क्या सुनाई देता है?"
मुझे उसका यह सोचकर बोलनेवाला अंदाज बिलकुल अच्छा नहीं लगा इसीलिए मैंने खट से झूठों को सच बनाकर पेश कर दिया, "अरे और कुछ नहीं सुनाई देता है सिवाय टायलेट के फ्लश खिंचने की आवाज के."
इतना सुन वह खूब जोर से हँस दी थी। एकदम नकली वाली जोर की हँसी. मुझे अजीब लगा। एक, क्योंकि जोर से हँसना उसका स्टाइल नहीं था (कम से कम अभी तक तो मैंने नहीं देखा था) और दो, क्योंकि मुझे उसकी हँसी में राहत की झलक दिखलाई पड़ी थी, इसीलिए उसकी हसीन शख्सियत के बावजूद उसकी हँसी बिखरने लगी थी।
उससे मिलने के बाद चूँकि मैं अपने आपको काफी महत्त्वपूर्ण मान रही थी इसलिए मैंने उसकी हँसी वाली बात को देर तक मन में टिकने नहीं दिया। जल्दी से पोंछकर साफ कर दिया।
"किस स्कूल में पढ़ती हो तुम?"
"न्यू इंग्लिश एकेडमी।" मैं उससे सारी बातें जल्दी से बाँट लेना चाहती थी, धड़... धड़। धड़।
"किस क्लास में हो?"
"आठवीं में और तुम?"
"मैं बारहवीं में हूँ," वह फिर सोचते हुए बोलने लगी थी, "बोर्ड का इम्तिहान देना है इस साल। वह वी.के. गर्ल्स कॉलेज है न, उसी में पढ़ती हूँ। असल में वहाँ पर पढ़ने का एक फायदा है। कम नंबर आने पर भी ग्रेजुएशन में वहीं दाखिला मिल जाता है।"
मेरे दिल में छन से कुछ कटा। हुँऽऽ? इसके इतने कम नंबर आते हैं क्या कि आगे पढ़ने की समस्या से भी ये जूझती रहती है? मेरे लिए यह एक अनहोनी थी। ऐसा महसूस करने के बावजूद मैंने अपने अंदरूनी भाव के विपरीत अपने ऊपर लापरवाही का रंग चढ़ाते हुए अपने चश्मे को अपनी उँगली से नाक के और ऊपर खिसकाते हुए कहा, "क्या बात करती हो? तुम्हारे और कम नंबर?" मेरे हदय से निकली हुई कारुणिक मिठास भरी आवाज मुझे खुद भी विडंबनाओं से भरी लगी और मैंने अपने ऊपर 'पूरा बड़ा होना' ओढ़ उसे आश्वस्त किया-
"हा... हा... हा..."
"नहीं... नहीं, यही सच है।" और वह धीमी-धीमी हँसी हँसने लगी थी। वह उदास नहीं हुई थी। वह लज्जित भी नहीं हुई थी। मैं और दुविधा के चक्रों में फँसने लगी थी। अरे, यह क्या है? तभी मुझे सड़क पर एक बाइक के जाने की आवाज सुनाई पड़ी। इस आवाज पर मेरे खिंचावों की प्रतीक मोनिका सिंह जिसे मैं न जाने खुश करने के कितने यत्न कर रही थी वहीं मुझे छत के उस छोर पर अकेला छोड़ के दूसरे हिस्से पर भागकर चली गई. उसके इस बेसब्र बेसुधपने से मैं अचकचा गई और नहीं जानती क्यों, मेरी नजर पहले उसके दुपट्टे पर गई और उसे वहीं रखा देखकर मेरी नजर तल्लीनता से उसका पीछा करने लगी थी। वह कुछ देर वहीं खड़े-खड़े नीचे देख हथेलियों से इशारे करती रही, फिर उसने पीछे मुड़कर मुझे भी इशारा कर अपने पास बुला लिया। मैं आसक्त, चुंबक से खिंची, उसकी ओर चल दी। उसने मुझे नीचे का दृश्य दिखाया। मैंने देखा वह सड़क पर धीमी गति से चल रही एक मोटरबाइक मुझे दिखा रही थी। मोटरबाइक से भिन-भिन करती ढेर सारी मधुमक्खियों की आवाज आ रही थी। बाद में उसने रहस्य से मेरे कान में खूब स्पष्ट शब्दों में बोला था, "वह जो बाइक पर पीछे बैठा है न, वह प्रतीक है... हमारे बीच कुछ... कुछ चल रहा है।"
उसका यह बताने का अंदाज इतना फ़िल्मी था कि मैं रोमांचित हो गई. मेरे शरीर के मुलायम रोंए तनाव में तन गए. उसके बाद ही मैंने दृश्य की महत्ता को समझा। मैंने पहले आवाज सुनी, फिर बाइक की पिछली सीट पर बैठे सवार को देखा। सबका सब 'स्लो मोशन' में।
प्रतीक जो बाइक के पीछे बैठा था मुझे देख ताकत लगाकर मुस्कुरा दिया था। मैं भभूके-सी लाल पड़ गई थी। पता नहीं, मैं अपने ऊपर हँसे जाने पर गरम हो गई थी (जिसे मैंने अपने ऊपर हँसा जाना समझा) और अचानक अपने हीनताबोध के चरम पर पहुँच मेरे शरीर का ताप अपने आप ही चढ़ने लगा था या प्रतीक और मोनिका का आपस में कुछ चल रहा है, इस उत्तेजक खबर के रहस्य की साझीदार होने से मेरे अंदर एक कि़स्म की आग प्रज्वलित हो गई थी।
"सुनो, इस बात को कहीं बताना मत।"-वह फुसफुसाकर कह रही थी।
"नही... नहीं," मैंने अंदर उठते बलबले को बाहर आने से रोकने का भरपूर प्रयास किया और ऊपर से सामान्य बनते हुए बोली, "अब मैं जा रही हूँ, थोड़ा होमवर्क बचा है।"
"अरे, नहीं... थोड़ा और रुको न...! और कल से न, अपनी किताबें यहीं ले आना, दोनों पढ़ेंगे, मजा आएगा।" वह नई फ़िल्म की तरंग में बोलने लगी थी। इससे एक अबूझ-सा गुस्सा मुझपे छाने लगा। मन किया पूछ लूँ-
'ऐसा होता है तुम्हारा पढ़ना? कहीं इसीलिए तो...?'
जाने कैसा आकर्षण था लेकिन, जिसके तहत बँधकर मैं उससे कभी कोई ऐसा सवाल नहीं कर पाई और जैसा-जैसा वह कहती चली गई, मैं धीरे-धीरे उसी को करने लगी थी।
एक रात रेडियो पर छायागीत का कार्यक्रम बज रहा था और अचानक मन की रात को डगमग करता एक गीत बज उठा, 'मेरा पढ़ने में नहीं लागे दिल-क्यों?' रात मन में जमते हुए फैसलाकुन स्वरों में सोचने लगी थी, लोगों का पढ़ने में दिल कब नहीं लगता था और लोग बिना अपराध-बोध के इतनी मस्ती में कब गाने लगते थे? 'क्या जब प्रतीक जैसा कोई मिल जाता था और उसके साथ कुछ चलने लगता था तब?'
वैसे प्रतीक भैया बड़े स्मार्ट थे। मोनिका ने इतरा के बताया था-कॉलोनी की दसियों लड़कियाँ उनकी दीवानी थीं, मगर वे तो सिर्फ़ मोनिका के दीवाने थे। रोज अरदास के पूरे नियम से वे बाइक पर पीछे बैठे हुए, उस सड़क के कई चक्कर लगाते थे, जिस सड़क से मोनिका के छत की दूरी सिर्फ़ बित्ता भर रह जाती थी और मोनिका और वे एक-दूसरे को अपलक देखते रहते थे, घंटों, सिर्फ़ देखते रहते थे। एक-दूसरे को देखते हुए वे कभी मुस्कुराते थे, कभी दिल पर हाथ रख इशारा करते थे। एक दिन मोनिका ने वहीं से मुझे जोर से गाने को उकसाया था और मैं निर्देशानुसार जोर-जोर से आवेश में भर गा उठी थी-
'जीजा जी... जीजाजी, होने वाले जीजाजी, शादी के फेरे हैं सात और हमारी शर्तें सात।' मेरी अनगढ़, बेसुरी मगर साफ लफ्जों वाली आवाज में गाना सुन प्रतीक भैया सड़क पर बाइक पर बैठे-बैठे ही खूब ठठा के हँसने लगे थे।
छत पर किए गए खुलासों में से मोनिका का प्रतीक भैया के फ्यूचर के बारे में किया गया खुलासा बहुत आशा से भर देनेवाला था। (उसके लिए) "पता है, प्रतीक पढ़ने में बहुत अच्छा है और कॉलेज यूनियन में भी है।"
मेरे सामने एक हीरो का वितान खिंचने लगा था।
"वैसे उसका फैमिली बिजनेस है, अंकल (उसके पापा) वकील हैं, मगर प्रतीक के बड़े भैया फैमिली बिजनेस सँभालते हैं।"
इस कथन के पीछे उसका यह आशय तो ज़रूर ही था-'प्रतीक को पढ़ने के बाद मगज खपाने की ज़रूरत नहीं होगी, फैमिली बिजनेस उसका इंतजार कर रहा है।' इतना बताकर वह छत पर गोल घुमेर लगाने लगी थी, जैसे कोई फूल सुरक्षा भाव से भरा हुआ तेज हवा में भी मदमस्त हो कँपकँपाता रहता है।
जिस रोज ममा ने एक नए तरी़के से मुझसे पूछा था, 'बेटा, मोनिका कुछ अपने बारे में बताती है? खुश रहती है वह?' उस दिन मैं उनके नए तरी़के को समझ न पाने की असफलता से खीजकर बोली थी, 'ममा... कैसी बातें पूछती हैं आप?' ममा ने ठीक तरह से मेरे मामलों में अपने हस्तक्षेप को समझकर बड़े प्यार से कहा था-'चिढ़ो मत बेटा, मैं तो इसलिए पूछ रही हूँ, क्योंकि कॉलोनी के लोग बता रहे थे कि मोनिका के पापा थोड़े अजीब हैं। उनकी नौकरी भी परमानेंट नहीं और वे उस पर बड़ी सख्ती भी करते हैं, कहीं बाहर आने-जाने भी नहीं देते। सुना है।'
अपनी खीज से उबरकर जब सोचा तो ममा की बातें सही लगने लगीं। वाकई मैंने मोनिका को कॉलेज जाने के अलावा, सिर्फ़ छत पर अकेले देखा था, कहीं और अकेले तो बिलकुल नहीं देखा था, न बाज़ार में, न किसी दोस्त के घर। इसीलिए तो प्रतीक भैया और मोनिका छत के सहारे ही प्यार करते थे। बेचारे दोनों! मेरे मन में दोनों के प्यार को अंजाम देने की अवसरहीनता को ले दया उमड़ने लगी।
अगले दिन जब उसने वहीं छत से खड़े हो मुझे छत पर आ जाने का इशारा किया तो मैंने चिल्लाकर कह दिया-
"न, आज मैं नहीं आ पाऊँगी, आज तुम आओ."
मैं जानती थी, यह समय प्रतीक भैया और उसके छत पर देखने का समय होता था और इसे छोड़कर मेरे घर चले आना वह आसानी से गवारा नहीं करेगी, मगर फिर भी मैंने कोशिश की थी।
थोड़ी ही देर बाद मैंने देखा कि वह छत पर अपनी मम्मी को ले आई थी और मेरा कमरा और पढ़ने का टेबल दिखाकर कुछ कहने लगी थी। इसके पाँच ही मिनट बाद मेरे घर के दरवाजे की घंटी बज चुकी थी। यह तो बड़ी नई बात हो गई... मेरी साँसें तेजी से दौड़ने लगीं।
उसका यूँ मेरे घर आना हम दोनों के लिए नई, आजाद हवाओं को साथ लाना भी था। वह अपने ऊपर थोपी गई सख्तियों की वजह से और मैं अपने संकोच की वजह से अभी तक कॉलोनी की सड़कों पर अन्य लड़कियों की तरह चहल-कदमी करने से महरूम रहे थे। अब हम बेलौस हवाओं की तरह रोज मुहल्ले में बहने लगे थे। इसी के साथ प्रतीक भैया से चुपचाप, गुपचुप मिलने का सिलसिला भी शुरू हो गया था और मैं ईमानदारी से दोनों की मदद करने में जुट गई.
दोनों के मिलने के नियत स्थानों में एक अधबना मकान भी शामिल था जिसकी दीवारें खड़ी हो गई थीं, घर को कमरों में बाँटा जा चुका था मगर जिसकी छत अभी डली नहीं थी। वहाँ बैठकर हम तीनों अक्सर चाँदनी और तारों से बने चँदोवे को देर तक आँख उठाकर देख सराहते रहते थे। वक्त उस दौरान कैसे इतना सरपट भाग जाता था, समझ में ही नहीं आता था।
इधर कॉलोनी में मोनिका जैसी खूबसूरत लड़की के साथ घूमने से मेरी भी पूछ-परख बढ़ गई थी। अब उसकी ओर खिंचनेवाली लड़कियाँ मुझे भी भाव देने लगी थीं। मोनिका का व्यक्तित्व तो जबर्दस्त ढंग से बदलता जा रहा था। छुप-छुपकर करनेवाले काम अब वह निडर हो करने लगी थी। जैसे कभी वह सड़क पर चलते हुए जोर से कुछ गाने लगती थी, कभी शरारत से अपना दुपट्टा गिरा देती थी और देर तक उसे नहीं उठाती थी। इस बीच बीसियों लोग उसे देख लेते थे। इस पर खूब जोर से हँसने लगती थी। कभी-कभी तो वह प्रतीक भैया का हाथ पकड़ लेती थी और कभी मेरी अकबकाहट को नजरअंदाज करते हुए वह, उनके कंधे पर ढलक जाती थी, यूँ ही चलते-चलते। जहाँ तक प्रतीक भैया की बात थी, तो वह वैसे ही धैर्यवान बने रहे जैसा छत पर मोनिका को देखने के समय में हुआ करते थे। वे मोनिका के पागलपन पर धीरे से हँस देते थे। प्यार से खुश होकर उसके सिर पर हाथ फेर देते थे और मुझे ढेर सारे गि़फ्ट देते थे। जैसे एक बार एक खूबसूरत-सा पेन, मेरी प्रिय किताब और अनेक बार मेरी पसंद के ढेरों चॉकलेट्स भी।
जब पहली बार मोनिका ने मुझे अलगाकर प्रतीक से मिलने की इच्छा जाहिर की थी, तो मैं उसकी आकांक्षा के तनाव से भी अधिक तनावग्रस्त हो गई थी। मुझे अजीब लगा था, बहुत अजीब। वह हड़बड़ाते हुए कह रही थी-
"आज तुम संजना के साथ थोड़ा घूम लो, इस बीच मैं प्रतीक से अकेले में मिलना चाहती हूँ।"
"हाँ... हाँ, ठीक है, मगर पंद्रह मिनट में आ जाना वरना आंटी डाँटेंगी।" मैं चेहरे पर अजीब लगनेवाला भाव लाए बिना बोली और उससे आँख न मिला पाने की अवश-सी भावना से भर, महत्त्वपूर्ण भाव से अपनी घड़ी देखने लगी थी। उसने मेरे जवाब का इंतजार भी नहीं किया था। वह घोड़ों की तरह तेज भागती
हुई कहीं गुम हो गई थी। मुझे लगा, वह मेरे अंदर से भी कुछ चुराकर भाग गई थी। मैं लस्त भाव से चलकर संजना के ग्रुप में बैठ गई. लेकिन मुझे उनकी बातों में ज़रा भी मजा नहीं आया। जब मोनिका को गए हुए आधा घंटा हो गया और वह फिर भी नहीं आई तो मैं नाराज कदमों से घर की ओर चल दी। तभी मुझे अपने पीछे दो जोड़ी कदमों के दौड़ने की आवाज सुनाई पड़ी। वे ही दोनों थे। वे मेरे नजदीक आए.
"सॉरी," मोनिका हँसते हुए बोली।
"थैंक्स," प्रतीक भैया भी उतना ही हाँफते हुए बोले थे और दुलार से मेरे बालों में हाथ फेर लौट गए थे। मैं और सुनना चाहती थी। साझे राज की ताजा राजदाराना बातों से रू-ब-रू होना चाहती थी, मगर मेरे सामने कुछ भी प्रस्तुत नहीं किया गया। निःशब्दों की दुनिया में वास करते हुए हम मोनिका के घर पहुँच गए थे।
आज दरवाजा उसके पापाजी ने खोला। उन्हें देखते ही मोनिका के गले से एक घुटी हुई सिसकी बाहर आने लगी।
"पापाजी, थोड़ी देर हो गई."
"देर हो गई? देर... थोड़ी देर हो गई?"
पापाजी ने दाँत पीसकर चिल्लाते हुए कहा और मोनिका का हाथ निहायत खुरदरेपन से खींचकर उसे घर के भीतर कर लिया। बहुत डर के शोर के बाद का सन्नाटा मेरे कानों में सीटी की शक्ल में बजने लगा। साँय-साँय। मैं थरथराते हुए अपने घर पहुँची।
अगले दिन मोनिका छत पर नहीं दिखी, न ही मेरे घर आई. फोन उसके घर था नहीं, अतः उसके साथ क्या कुछ हो रहा होगा-इन्हीं आशंकाओं में डूबे हुए मैंने तीन-चार दिन बिता दिए. ममा के कॉलोनी में घूमने न जाने के बारे में पूछने पर मैंने कह दिया था-'बहुत सारी कॉपियाँ कंप्लीट करनी हैं, ममा, जब हो जाएँगी तो जाऊँगी।' ममा ने मेरे कहे पर सहजता से विश्वास कर लिया और ज़्यादा सवाल नहीं किए.
फिर वह कई दिनों बाद शनिवार की एक दोपहर को दिखी थी। मैं उस दिन स्कूल से जल्दी आ गई थी, इसीलिए मैं उसे उस दोपहर को देख पाई. उसने सफेद शलवार पर गहरे लाल रंग का कुर्ता पहन रखा था। वह अपने माता-पिता के साथ थी। वे तीनों चिपककर स्कूटर पर बैठे थे। दोनों के बीच फँसी हुई वह मुझे लाल नाजुक फल-सी लगी, जो थोड़े दबाव में कुचलकर पूरा मलीदा बन जाता है। मुझे उसपे तरस आने लगा, मगर दूसरे ही क्षण जब उसे जोर से हँसते देखा तो छले जाने का एहसास मन में ठाठें मारने लगा। वह तो लगभग खुश-सी दिख रही थी। उस वक्त मेरे मन में एक बार भी यह खयाल नहीं आया कि वह अपने मम्मी-पापा को खुश करने के लिए शायद ऐसा कर रही होगी। किसी समझौते के तहत। भविष्य में घटनेवाली कल्पनातीत घटनाओं को सुरक्षित करने के वास्ते?
उस शायद का सच, उसी शाम मुझ पर खुल गया। वह उस शाम मेरे घर आ पहुँची। उसके चेहरे पर उसके कुर्ते का रंग खिल रहा था और वह परेशान दिख रही थी।
"आज हम वह वाली नई पिक्चर देखने गए थे, जिसमें 'पूनम ढिल्लन' है। पता नहीं क्यों गए हम? मम्मीजी को लगा होगा इतने दिन मैं घर के अंदर बंद रही इसीलिए कुछ बाहर की हवा खिला लाएँ... मगर सब उलटा हो गया।"
वह बिना रुके, मेरी प्रतिक्रियाओं का इंतजार किए बिना किसी और दुनिया में पहुँची हुई-सी बोले जा रही थी।
" हाफ टाइम में मैं टॉयलेट गई तो कॉरीडोर में खड़े लड़कों का ग्रुप चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा-
'ओए पूनम ढिल्लन... स्क्रीन से उतर यहाँ आ गई है... ओए देख, ओए पूनम ढिल्लन... हाय-हायऽऽ देख तो क्या बात है!'
"इतना सुनते ही पापाजी को जोर का गुस्सा आ गया, वह हमें फ़िल्म पूरी दिखाए बिना ही वापस ले आए."
"अरे टॉयलेट गई तो पापाजी को क्यों साथ ले गई, मम्मीजी को ले जाना था न?"
"जानती नहीं क्या," वह शिकायती स्वर में बोली, मानो मेरा यह सवाल उसके लिए कितना बेमानी था, "पापाजी क्या मुझे मम्मीजी के साथ अकेले जाने देते हैं? खैर, अब ये सब छोड़ो, बड़ी मुश्किल से पाँच मिनट की परमीशन ले तुमसे मिलने आई हूँ, क्या इस बीच प्रतीक मिला?"
"नहीं, मैं भी इस बीच बाहर नहीं गई."
"ओहऽऽ" वह अजीब ढंग से उदास हो गई मानो प्रतीक की खबर भर से उसका प्रतीक से मिलना हो गया होता और मुझसे मिलने का प्रयोजन इस खबर के आदान-प्रदान के अलावा कुछ और हो ही क्या सकता था? उसके इस तरह के व्यवहार से मैं कट-सी गई.
"सुनो," उसने उसी दूसरी दुनिया की खोह से निकलती आवाज में कहा, "कल आना, मुझे लेने, कल पापाजी शहर से बाहर जा रहे हैं, कल।"
उसका कल देर तक हमारे बीच अटका रहा और मैंने जब धीरे से कटी हुई उसे अखर जानेवाली आवाज में कहा 'अच्छा' तो भी वह अपनी खो जानेवाली दुनिया से वापस लौटकर नहीं आई थी और उसी बदहवास दुनिया से होती हुई अपने घर लौट गई थी।
अगले दिन भी वह वैसी ही बनी रही। एकदम कातर और धुन में रँगी हुई.
प्रतीक भैया ने हमें देखते ही खामोशी से इशारा किया और हम उस अधबने मकान की ओर चल दिए जो अब उन दोनों के एकांत में मिलने का स्थायी सुरक्षित ठिकाना बन चुका था। जैसे ही हम मकान के फर्श की उगती घास पर बैठे थे, वह रोने लगी थी, पागलों-सी बुदबुदाते हुए. उन बुदबुदाहटों के अर्थ खोजना नामुमकिन था। खासतौर से मेरे लिए, लेकिन प्रतीक भैया ज़रूर समझ गए थे, तभी उन्होंने उसे खींचकर अपनी बाँहों में भर लिया था और मैं दृश्य देख जोर से अकबका गई थी। मुझे इस तरह देख प्रतीक भैया ने कहा था-
"थोड़ी देर के लिए बाहर चली जाओ... प्लीज!"
"हाँ-हाँ, हाँ-हाँ, हाँ-हाँ।" मेरी 'हाँ' रुकने का नाम नहीं ले रही थी। वह मेरे दृश्य में उपस्थिति को नकारती हाँ थी और अच्छा हुआ अँधेरा गहराता जा रहा था क्योंकि उसी की आड़ में मैं अपनी आँखों से बहते गरम पानी को छिपा पाई. कह नहीं सकती यूँ दोनों के प्रति अपने समर्पण भाव को एक्शन में तब्दील होते देख मेरे अंदर यह नया दुख जगा था अथवा शर्म के रेले के अपने ऊपर से गुजर जाने की वजह से मैं ऐसा महसूस कर रही थी। अधबने मकान के बाहर सीढ़ियों पर बैठ, नजरें जमीन में गड़ाए हुए मैं अनवरत प्रतीक्षा में जम गई थी। सामने से सूनी, अँधियारी सड़क पर जाते इक्का-दुक्का लोग मुझे सवालिया निगाह से देख रहे थे और मैं अपनी जगह पर सिमटकर धँसती जा रही थी। जी, डर और पसोपेश के मारे हलाकान हुआ जा रहा था और मैं चौंककर बार-बार अपनी घड़ी देखती जा रही थी। मेरा चश्मा पसीने की वजह से नाक से नीचे लुढ़कता जा रहा था। मेरे अंदर गीली, निकृष्ट दर्जे की चिपचिपाहट फैलती जा रही थी।
जब बीस मिनट का समय मुझे अझेल युगों समान लगने लगा तो मैं अपनी अस्थिर अवस्था को बड़ी मेहनत से उठाकर उस जगह की ओर ले गई जहाँ उन दोनों को छोड़ आई थी। मैंने चोर की तरह झाँककर देखा और पाया कि मैं एक अनधिकृत क्षेत्र में प्रवेश कर गई हूँ जहाँ पर दिखलाई पड़नेवाले तमाम रेखाचित्र पूरे अँधेरे के बाद भी अपनी विद्युत चमक लिए ताजीवन मेरे आगे कौंधते रह जाएँगे।
प्रतीक भैया को मोनिका ने कभी न छूटनेवाले आलिंगन में कसकर बाँधा हुआ था और वे उसकी ठुड्डी अपनी दो उँगलियों पर टिकाए उसके होंठों को अपने होंठों से कभी खोल, कभी बंद करते हुए एक ऐसे क्षण की गिरफ्त में फँसे हुए थे जिसका सम्मोहन सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे जाने से टूटता।
ऐसा ही हुआ। चूँकि मोनिका की पीठ मेरी ओर थी और उनका मुँह, लिहाजा वे ही मुझे पहले देख पाए. मुझे देखते ही उनकी पेशानी पर खीज के बल उभरे, मगर उन्होंने अपने प्रख्यात धैर्य का परिचय देते हुए, उन बलों के नामोनिशान तुरंत ही मिटा दिए और मुस्कुराते हुए बोले-
"मोनिका जाओ, घर जाओ, ये घबरा रही है।" मुझे लगा, मुझे चक्कर आ जाएगा और यहाँ की गहराई में एक अनावश्यक-सा उथला कोलाहल फैल जाएगा, इसीलिए मुझे जल्द अपने आपको सँभाल लेना चाहिए. मैंने व्याकुल नजरों से प्रतीक भैया की ओर ताका। उन्होंने मोनिका को अपने से खींचकर अलग किया और मेरा हाथ पकड़कर मुझे सहारा देते हुए सड़क के मोड़ तक हमें छोड़ने चले आए.
उस दिन मोड़ से घर तक की यात्रा मीलों चली थी और उसकी थकन घटाने को हम दोनों में से किसी के पास भी शब्दों के खनक की स्फूर्ति नहीं बची थी।
उसी रात भयंकर बारिश हुई थी। मैं रात भर इस डर और दुख से करवटें बदलती रही थी कि बारिश कहीं उफनती नदी बन मुझे डुबा तो नहीं देगी। मुझे भीतर कहीं इतना दर्द होने लगा था कि मैं सोचने लगी थी-ज़िन्दगी के बहुत सारे मायने जाने बिना मुझे आज मर जाना होगा क्या? वह भी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैं उस हैंगर के समान हूँ जिसमें सुंदर तसवीरें टँगती हैं। सब तस्वीरों को ही देखते हैं हैंगर को किसने देखा आज तक? ' उस दिन अपने लिए बहुत रोई थी मैं।
"तुम भी किसी को चाहती हो क्या?" मोनिका ने एक दिन यह दहला देनेवाला सवाल भी मुझसे किया था।
"मैं?" मैंने घबराकर कहा था, "अअहाँ... नहीं, मेरा कहाँ...?"
"हाँ... हाँ... हाँ," उसने मुझे टुकड़ा-टुकड़ा करनेवाली हँसी के साथ देखकर कहा था, "प्यार करने के लिए सुंदर होना ज़रूरी थोड़ी होता है।"
मैं उसकी इस क्रूर खूबसूरती को ताकती रह गई थी, बार-बार अपना चश्मा ऊपर-नीचे खिसकाते हुए.
न दिन याद है, न महीना मगर दशक वही था और काल वही, खालिस रूप से वही जो कि़स्से के पहले भाग से चलता आ रहा है।
रात के आठ बज रहे थे और हम दूरदर्शन पर फ़िल्मी गीतों का लोकप्रिय कार्यक्रम चित्रहार देख रहे थे जब मोनिका के घर से खूब रोने-चिल्लाने और दौड़ने की आवाजें आने लगीं। हमारा ध्यान टी.वी. से हट, आवाजों पर चला गया और जब हमारे घर के दरवाजे को पीटने की आवाज आई तो ममा और मैं दोनों ने दौड़कर दरवाजा खोल दिया।
सामने मोनिका खड़ी थी, लंबे बाल खुले थे, माथे पर पसीने से कुछ लटें चिपकी हुईं, गालों पर तरह-तरह से प्रहार किए जाने के निशान थे और बाँहों पर हजारों खरोंचें थीं।
"आंटी... आंटी," वह विक्षिप्तों की तरह चीख रही थी, "देखो, आज पापा ने कितना मारा मुझे। कह रहे थे, मैं ही लड़कों को देख गंदे इशारे करती हूँ।"
"अरे-रे-रे, न-न... अंदर आओ बेटा।" ममा उसे जल्दी से अंदर लाकर, मेरे पलंग पर बिठा रही थीं। वे दौड़कर उसके घावों पर डेटोल भी लगा रही थीं।
"आंटी देखिए यहाँ... यहाँ और यहाँ भी," वह चीख-चीखकर रो रही थी, "आंटी, आज तो पापा ने हद कर दी, कहने लगे-मैं कॉलोनी के प्रतीक के साथ आँख लड़ाने जाती हूँ, रोज घूमने जाने के बहाने, बताइए आंटी, मैं तो रोज अनामिका के साथ ही रहती हूँ, आप उसी से पूछ लीजिए मेरा प्रतीक से कोई चक्कर नहीं, वह तो चूँकि अनामिका उसे भैया मानती है तो रास्ते में मिलने पर हम बातें कर लेते हैं, वरना तो...? पता नहीं कॉलोनी के लोग भी सारी ऊल-जलूल बातें पापाजी को बताते रहते हैं और वह मुझ पर ही गुस्सा करते रहते हैं। आँ... आँ-आँ!"
ममा उसे सहलाती रहीं, दुलारती रहीं, चुप कराती रहीं। मैं सामने एकटक उसे देखती रही। मुझे दिखाई दे रही थी दुपट्टा उतारकर इतराती मोनिका, खाली मकान में विभिन्न मुद्राओं समेत प्रतीक भैया के साथ सायों में समा जानेवाली मोनिका, अपने पीछे मुझे दौड़ाती हुई मोनिका और मुझ पर खूब हँसती हुई मोनिका।
मैंने ममा से ठंडी आवाज में उनके मोनिका को पुचकारने के दौरान पूछा था, "ये दुनिया इतनी क्रुएल कैसे हो जाती है ममा?"
ममा ने दुलार से मेरे सिर पर हाथ फेर, मुझे भी मोनिका के साथ-साथ आश्वस्त करने की कोशिश की थी और जीवन के पहले खतरनाक मोहभंग से उत्पन्न होनेवाले विकारों से मुझे बचा लिया था।
उस वर्ष होली के त्यौहार के ठीक चार दिन बाद मैं तेरह वर्ष की होने वाली थी। मैं टीनएजर बनने को बेहद उत्सुक थी। दोस्तों की बातें सुन लगता था टीनएजर बनते ही, एक नई दुनिया 'खुल जा सिम-सिम' वाले अंदाज में जादुई ढंग से मेरे सामने खुल जाएगी। वह कौन-कौन से जादुई करिश्मे अपने साथ लाएगी, मैं यही सोच-सोच विस्मित होती रहती थी।
कॉलोनी में होली का त्यौहार जमकर मनाया जाता था। सब लड़कियाँ टोली बनाकर एक-दूसरे के घर जाती थीं और हम खूब रंग खेलते थे। मोनिका को भी उस दिन रंग खेलने की इजाजत मिल गई थी। यह हैरत की बात थी। मगर वह उस दिन सबसे पहले मेरे घर आई, मेरे मन के गिले पर मरहम-सी लगाती और फिर हम कॉलोनी में निकल गए. बारी-बारी सबके घर जाते हुए हम संजना के घर भी गए. उसके यहाँ बड़ा धमाल मचा हुआ था। हम भी उसमें शामिल हो गए. तभी तेजी से कुलाँचें भरती हुई एक बाइक आकर संजना के घर के सामने रुकी। उसमें से प्रतीक भैया और उनके दोस्त उतरे। सारी लड़कियाँ हँसते-हँसते, एक ओर हो गईं और जैसा कि जाहिर था, प्रतीक भैया ने उनमें से मोनिका को बाहर खींच निकाला और उसके गालों पर रगड़कर गुलाल मलने के बजाय, गुलाल से उसके गालों को हल्के-हल्के थपथपा दिया, मानो वे अपनी मोनिका को तंग करना नहीं चाहते, छेड़ना नहीं चाहते, बस धीरे-धीरे सहेजते चले जाना चाहते हों।
बस इतना ही होली खेले वे मोनिका के साथ। बस इतना ही! मैं 'बस इतनी ही होली' , की परिभाषा में बेवजह फँस-सी गई थी, जब प्रतीक भैया मेरे नजदीक आ गए और मुझे देख, हँसते हुए बोले, "कैसी गत बन गई है तेरी हाँऽऽ!"
मैं उनकी ठिठोली पर शरमा गई थी और दूसरी लड़कियों की तरह टूटकर उनको रंग लगाने से बचती रही। एक ओर कोने में जाकर चुपचाप खड़ी हो गई थी। वे सबके साथ खूब खेले, फिर हम सभी वहीं संजना के घर के बरामदे में थककर बैठ गए थे। कुछ लोग घर भी जाने लगे थे। जब मैं उठने को हुई तो प्रतीक भैया ने मुझे अपने पास बुलाया-
"एक काम है, ज़रा लॉन की ओर चलो।"
संजना के घर के लॉन में केले और कटहल के कई घने पेड़ थे, प्रतीक भैया मुझे लेकर वहीं पहुँच गए. मैं समझ गई, अब भैया मुझसे मोनिका को बुलवाने की कोशिश करेंगे और अगर कहीं और मिलने की बात होगी, तो भयानक देर हो जाएगी और उसके बाद डाँट।
"क्या भैया, क्या?" मैं आशंकाओं से भर उन्हें देख पूछ रही थी।
"कुछ नहीं, बस आज तो ये।" कहकर भैया ने मेरा चिबुक उठाया और मेरे होंठों पर धीरे से अपने होंठ रख दिए. महीनों की कल्पना के बाद वास्तविकता में जो क्षण जीवन में कभी न बीतनेवाले क्षण के रूप में दर्ज हो जाना चाहिए था, वह फुर्र से उड़ गया। मेरे सारे तंतुओं को छुए बिना ही, परे होता हुआ वह एक क्षण, बेमेल, बेअदब, बे़कायदा लोगों के बीच घटित हुआ। शायद इसीलिए इतना फौरी, इतना उड़नछू बन पड़ा था। निस्संदेह उस क्षण में निहित, पुरस्कार का संदेश ही वह तत्व था जिसे व्यक्त कर प्रतीक भैया रूई के फाए समान हल्के हो उठे थे। मेरे द्वारा मोनिका और उनके प्रेम को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के कृत्यों को उपहारों द्वारा नवाजे जाने की परंपरा उन्होंने कायम रखी थी। उपकृत कर देने पर आ जानेवाला हल्कापन, रिश्तों की स्थिरता और गोपनीयता बनाए रखने का प्रयास उन पर हावी होने लगा था और वे उमंग से भरकर गा रहे थे-
'आज बिरज में होली ओ रसिया।'
उस रोज पहली बार नहाते वक्त मैंने अपने होंठों पर साबुन मला था और उस उपहार को हमेश के लिए धो देना चाहा था जिससे मेरी शख्सियत को रँगकर, रिश्तों में मेरी भूमिका को पु़ख्ता ढंग से रेखांकित कर दिया गया था।
जो सच मैं हमेशा से जानती थी, उसे सील कर दिया गया था और मैं शुरुआती ईमानदारी से अधिक, जि़म्मेदारीपूर्वक अपनी भूमिका को निभाने लगी थी। मिल्स एंड बून्स की अंग्रेज़ी रोमांटिक किताबों सरीखे, पहले चुंबन, स्नेह झंकृत होते तन और मन की तैयारी अभी बाकी थी और मि। राइट के साथ अनूठी अनुभूतियों के घटित होने की बारी अभी आई नहीं थी, यह भी मैं अच्छी तरह समझ गई थी। इस दूसरे कि़स्म के मोह-भंग ने मेरे अंदर और दृढ़ता भर दी थी, लिहाजा मैं प्रतीक भैया और मोनिका को मिलवाने की अब और ज़्यादा कोशिशें करती थी और अपनी स्थिति और उम्र की वजह से सफल भी होती थी। बीतते समय की गति ने उसके पापाजी के भीतर हमारी दोस्ती के प्रति आस्था की हल्की परत जमा दी थी। अब वह ममा को भी गाहे-बगाहे देख नमस्ते कर दिया करते थे। मोनिका को मेरे घर कभी भी चले आने की छूट मिल गई थी और वह इस अवसर का बेधड़क इस्तेमाल करने लगी थी।
मेरे घर आने के बाद वह बिना संकोच प्रतीक भैया को हमारे घर के फोन से फोन मिला दिया करती थी और वहीं से मिलने की जगह और समय निश्चित कर लेती थी। फिर वह धीरे से मुझे लेकर दिन के अनजाने, अनसोचे पहरों में मेन रोड की ओर चल देती थी। वहाँ किसी बड़े छायादार पीपल के पेड़ के नीचे प्रतीक भैया अपनी बाइक लिए इंतजार करते रहते थे। वह उनकी बाइक की पिछली सीट पर सवार हो जाती थी और अपना दुपट्टा छाती से उतार अपने माथे और मुँह पर नकाब की शक्ल में बाँध लेती थी। बाइक स्टार्ट करने से पहले प्रतीक भैया दुलार से कभी मेरे बाल सहला देते थे और कभी शरारत से मेरा चश्मा मेरी आँखों पर और ऊपर की ओर चढ़ा देते थे। मेरी ओर देखती उनकी आँखें एक राज के मजे से मुस्कुराती रहती थीं। मैं अपने दायित्वों के बोध से और झुककर, उन्हें बाय-बाय करती रहती थी और तब तक करती रहती थी, जब तक बाइक सड़क में धुआँ उड़ाता बिंदु बन विलीन नहीं हो जाती थी। लौटने के पहले दूर तक दिखलाई पड़नेवाले दृश्यों में मोनिका की प्रतीक भैया की पीठ में धँसाए गए शरीर का दृश्य भी देर तक टिका रहता था और मैं उस सड़क के बेजुबान पत्थरों को ताकत से ठोकर मारते हुए घर लौट आती थी।
इस तरह यह कि़स्सा अंत की ओर दौड़ने लगा था और अपनी परिणति को प्राप्त होने के लिए तैयार हो रहा था। लेकिन यहाँ हमें थोड़ा रुकना होगा और इससे पहले कि अंत की ओर पहुँचा जाए, अंत से पहले के एक दृश्य का वर्णन करना होगा। यह बेहद ज़रूरी है, इसलिए और क्योंकि यह मेरे सामने घटित हुआ था। उसके बाद के कि़स्से के ब्योरे मेरे सामने घटित नहीं हुए थे, सिर्फ़ मुझे सुनाई पड़े थे, इधर-उधर से।
सुबह के दस बज रहे थे और उस दिन निश्चित ही छुट्टी का दिन था क्योंकि मैं घर पर ही थी। उस दिन बहुत दिनों के अंतराल के बाद हमें मोनिका के घर से एक बार फिर रोने, चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी थीं। आवाजों को सुनते ही ममा और मैं दौड़कर उसके घर की बाउंड्री वाल तक गए थे, जहाँ से एड़ियों पर उचकते हुए मोनिका के घर का आँगन दिखाई पड़ता था। उसी दिन मैं ऐसे खौफनाक दृश्य से रू-ब-रू हुई थी जिसे याद कर आज भी मेरी रूह काँपती है। मोनिका आँगन के फर्श पर चित्त लेटी हुई थी। उसकी मम्मीजी ने उसे कंधों के बल दबा रखा था और उसके पापाजी उसकी जाँघों पर लगभग उकड़ूँ बैठे उस पर तमाम प्रहार कर रहे थे। मोनिका की अपने हाथों द्वारा उन्हें रोकने की कोशिश निरर्थक साबित हो रही थी। उसका शरीर माँ-बाप के स्पर्शों से बिंधा हुआ, प्रतिरोध की क्षमता खोता जा रहा था। उसके गले से निकलती आवाज भी निहायत बैठी हुई, फँसी-सी और अस्फुट थी। जो हम समझ पा रहे थे, वह बस इतना ही था-
"पापाजी... पापाजी... बस नहीं... नहीं... मर जाऊँगी... नहीं... छोड़ दो... छोड़ दो आप जो कहोगे, वही करूँगी, सिर्फ़ आपकी बात मानूँगी... घर के बाहर कदम भी नहीं रखूँगी... बस... अब छोड़ दो... छोड़ दो।"
काठ मार गया वाले अंदाज में ममा और मैं काठ हो चुके थे। कोई हरकत हमसे आजाद नहीं हुई, न ही हमारे गले से ध्वनि की कोई संभावना प्रकट हुई. हमारी वस्तुस्थिति इतनी कातर थी और उसी अवस्था में हमें देखते हुए मोनिका के पापाजी ने देखा था, वे बिफरे, पागल कुत्ते समान भौंके थे-
"भागो, तुम लोगों की शह की वजह से हमारी लड़की बर्बाद हो गई... भागो।"
भों... भों... भों।
यह कितने खराब तरह का मोह-भंग था। मैं पहली बार समझी थी, माँ-बाप सिर्फ़ अच्छे नहीं, ऐसे भी होते हैं।
बाद के दिनों में अपमान से घनीभूत चुप्पी और दूरी की ऊँची दीवार दोनों घरों के बीच खींच दी गई थी। सुना था, मकान मालिक ने छत की बाउंड्रीवाल उठाने और नीचे की बाउंड्रीवाल ऊँची करने की मोनिका के पापाजी की इच्छा का सम्मान किया था और देखते ही देखते निर्माण कार्य शुरू हो गया।
दीवार बनने के पहले, एक-दो बार मुझे मोनिका नजर आई थी। छत पर मम्मीजी के साथ टहलते हुए. उसका सर और उसकी छाती मोटे दुपट्टे से पूरी तरह ढँके रहते थे। उसकी नजरें छत की जमीन कुरेदती रहती थीं। वह एक बार भी मेरी खिड़की की ओर नहीं देखती थी। एक बार भी नहीं!
मेरा भी कॉलोनी में आना-जाना घट गया था। दरअसल घूमने का अब मेरा मन ही नहीं करता था। मैं अब बहुत-बहुत पढ़ने लगी थी। पढ़ना मुझे हमेशा से ही अच्छा लगता रहा था, अब और अच्छा लगने लगा। कभी-कभी जी करता था, प्रतीक भैया को फोन कर उनका हाल लूँ। कुछ पता तो चले, सब कुछ ठीक चलने के दरम्यान, अचानक ऐसा क्या हो गया कि सारी दुनिया उलट-पुलट हो गई. मगर फोन करने के खयाल सिर्फ़ खयाल साबित हुए. फोन का नंबर घुमाते वक्त मुझे, अपने होंठों को साबुन से मलकर धो लेने का मन करता था और उसी में इतनी देर लग जाती थी कि फोन करना रह ही जाता था।
कभी कॉलोनी की मार्केट में प्रतीक भैया दिखे भी तो बस इतना कहकर पास से गुजर जाते थे-
'अच्छे से पढ़ रही हो न?'
'एक्जाम कब हैं तुम्हारे?'
'आंटी कैसी हैं?'
मुझे घनघोर अविश्वास होता था उनके व्यवहार पर। वह मुझे अपने और मोनिका के बीच से कैसे ठंडे अंदाज में अलग कर दे रहे थे? मैं क्या लगती थी उनकी? कुछ लगती थी क्या?
जल्द ही, इन घटनाओं के बीतने के बाद, वह शहर छूट गया मुझसे। कहने को तो शहर के भौगोलिक क्षेत्र से दूर चली गई मैं, मगर संवेदनाओं के स्तर पर भी वहाँ बहुत-कुछ दफन कर आई थी मैं।
मैं बड़ी हो गई थी। सारे मोहभंगों से उबर, समझदार। टफ। उन लोगों के बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं की अपनी तरफ से, लेकिन बाद में उन दोनों से सम्बद्ध कुछ छिटपुट ब्योरे मिलते रहे। उन्हें नकारने के बावजूद अंदर एक बेचैनी बनी रहती थी। अंतिम सत्य तक पहुँचे बिना क्या जीवन का कोई हिस्सा पूरी तरह दफन किया जा सकता है अथवा जिया जा सकता है? त्रिशंकु होने से बेहतर तो चुनाव ही होगा न। फिर वह ग़लत हो या सही। इसीलिए उनकी खबर मिलती रहे ऐसी इच्छा हमेशा बरकरार रही। यह बात अलग है कि बाद में प्राप्त छितराए कि़स्म के ब्योरे, मुझे सच से ज़्यादा लोगों की अद्भुत कल्पनाशीलता की उपज लगे, जिनमें से सच को ढूँढ़ना बेहद कठिन था-
जैसे-किसी ने कहा था, "उन दोनों ने भागने का कार्यक्रम बना लिया था, मगर पकड़े गए थे।"
"जिस दिन भागना था, उसके पहले ही मोनिका के पापाजी को भनक लग गई थी। उन्होंने उसी रात कॉफी में नशे की दवा मिला दी थी, क्योंकि सारी दुनिया जानती थी मोनिका किसी चीज को हाथ लगाए अथवा नहीं, मगर कॉफी को मना नहीं कर सकती थी।"
"न... न... न, कॉफी में नहीं, उस दिन उसकी माँ ने उसके प्रिय खाने राजमा-चावल और भिंडी में से किसी में वह दवा मिलाई थी।"
"जिस प्लेटफॉर्म पर प्रतीक भैया इंतजार करते रह गए थे, उसी के ठीक बगल वाले प्लेटफॉर्म पर बेसुध-बेहोश मोनिका को दो लोगों की मदद से ट्रेन में लादकर जालंधर पहुँचा दिया गया।"
"जालंधर में उसके पापाजी के कुछ रिश्तेदार थे। वहाँ उसका क्या हुआ कुछ पता नहीं।"
"कोई मिला था मोनिका के पापाजी से दिल्ली में। यूँ ही, दिल्ली करोल बाग में टकरा गया था उनसे, वे उस व्यक्ति को देख सकपका गए थे, मगर फिर बड़ी शान से बिना पूछे कहने लगे थे," मोनिका ससुराल में राजी-खुशी है। "
अस्सी का दशक मेरे जीवन का नेपथ्य काल हो चुका है और मुझे आश्चर्य है, कालों को सीमाबद्ध करने का बैरोमीटर अभी तक क्यों नहीं बन पाया है। क्या कर रही टेक्नोलॉजी? और ये विकास...?
कैसा है? क्या है यह...?
माने विकास और सिया नाम के दो प्रेमी हरियाणा, पंजाब या... या, के जो कहीं भाग गए थे और फिर पकड़कर माँ-बापों और समाजों द्वारा मार दिए गए. आप सबने सुना होगा, पढ़ा होगा, अखबारों में यह हाल ही की बात तो है। इसी इक्कीसवीं सदी की...! यानी नेपथ्य का कोई अर्थ नहीं? यानी भूत और वर्तमान सबका घालमेल जबर्दस्त है। यानी प्रतीक भैया और मोनिका ही विकास और सिया हैं, या थे? सब कुछ कितना कन्फ्यूजि़ंग है!
यह सब कुछ दर्ज करने के पहले एक अंतिम खबर और आई थी। सुना था, प्रतीक भैया को लोग रोज रात को प्लेटफॉर्म पर भटकते देखते हैं। कुछ घंटे वहीं बिताकर वह लौट आते हैं। एक दिन किसी दोस्त ने उनकी बाँह पकड़, रोककर पूछा था-
'क्या करने आते हो यहाँ?'
उन्होंने उस दोस्त को अजीबोगरीब नजरों से देखते हुए कहा था-
'कुछ नहीं।'
वे पागल नहीं हुए हैं। उन्होंने हाल ही में शादी भी कर ली है मगर वे उस 'कुछ नहीं' को आज भी ढूँढ़ते हैं।
अब अगर कन्फेस करूँ तो कहूँगी अपनी सारी शंकाओं, शिकायतों, अवधारणाओं और मोहभंगों के बावजूद मोनिका मुझे कई बार कचोट-कचोट कर याद आती है। निरंतर भीतर से कुछ छीलकर अपनी उपस्थिति बनाती हुई.
(लेखक का नोट-अनामिका के कन्फेक्शन के बाद हमें रुक जाना चाहिए, वरना कि़स्सा तो 'हरि कथा अनंता' की तर्ज पर चलता ही जा रहा है, चलता ही जाएगा और पाठक दर्शक बन उन प्रक्रियाओं में डूबकर सहभागी होते रहेंगे, साल-दर-साल, युग-दर-युग।)
अनामिका-"पता है, बचपन से मुझे कहानियों के वह वाले अंत पसंद नहीं... (सुन रही हो न) , भले ही वे मजाक में कहे जाएँ।"
मोनिका-"कौन से पागल...?"
अनामिका-"दोनों मर गए खत्म कहानी।"