मोहन दास : एक लेकिनवादी पढ़त / संजीव कुमार
हिंदी में जिस कहानीकार ने कहानी की विधा को उसकी 'स्वल्प क्षमता' (संदर्भ: बाबू श्यामसुदंर दास कृत 'साहित्यालोचन' ) के संकोच से मुक्ति दिलाकर सभ्यता-समीक्षा के लिए तैयार किया, वह उदय प्रकाश हैं। उन्होंने कमाल की छोटी और मँझोली कहानियाँ भी लिखी हैं- 'डिबिया' , 'टेपचू' और 'तिरिछ' जैसी-पर अपनी लंबी कहानियों में तो वे इस विधा की प्रकृति, परास और मार-क्षमता को ही बदल देनेवाले एक मोड़-बिंदु की तरह आते हैं। ऐसे मोड़ों से ही साहित्य का इतिहास बनता है। साहित्य का ही क्यों, किसी भी चीज का। कोई छह-सात साल पहले उदय पर लिखते हुए इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) ने उनकी बाद की कहानियों के लंबे होते चले जाने को लेकर दो बातें कही थीं। एक यह कि "इनमें अलग-थलग नजर आती चीजों के बीच सम्बंध बिठाने का एक अनवरत संघर्ष है, जैसे सूचनाओं के आधिक्य में घिरा कहानीकार उन्हीं को ज्ञान का पर्याय मानने से बरज रहा हो। सूचनाओं के आधिक्य के बीच होना हमारी नियति है और उनके बीच सम्बंध-स्थापन कर उन्हें ज्ञान में रूपांतरित करना हमारा संघर्ष। इसी नियति और संघर्ष के बीच ये कहानियाँ लंबी होती जाती हैं और उदय कहानी के रूपाकार की दमघोंटू (प्रतीत होती) मर्यादाओं को तोड़ते जाते हैं।" दूसरी यह कि "अब कहानीकार (उदय प्रकाश) कहानी की विधा में अपने समय के सबसे बड़े सवालों से टकराने की महत्त्वाकांक्षा भर रहा है। ये ऐसे समय की कहानियाँ हैं जब हिंदुस्तान उदारीकरण की चपेट में आ चुका है; विश्व-पटल पर समाजवादी व्यवस्थाएँ नष्ट हो चुकी हैं; 'टेपचू' का आंदोलनधर्मी आशावाद हास्यास्पद होता जा रहा है; एक ओर अमीरी बढ़ रही है और दूसरी ओर असंगठित दरिद्र सर्वहारा और हाशिए के लोगों की तादाद; पूँजी के अनैतिक, विचारहीन, आततायी भुक्खड़पन के सामने सिर्फ़ मजदूर वर्ग के लड़ने-बचने की नहीं, पूरी मानवता और प्रकृति के लड़ने-बचने की चिंता भी दरपेश है। ऐसे समय में उदय के यहाँ विवरणों-ब्यौरों का विस्तार, वाचक की मुखरता, निबंध-भाषण-कविता के सर्वोत्तम गुणों का इस्तेमाल करती चार्ज्ड भाषा-ये सब कहानी के सरोकार को साभ्यतिक स्तर तक उठा ले जाने का साधन बनते हैं, जहाँ इनका सहारा पाकर कहानी का मुख्य घटनाक्रम हमारे समय के सर्वातिशायी विद्रूप का प्रतिनिधि बन जाता है। ...ये सब कहानी के केंद्रीय कार्य-व्यापार को एक विराट समय-संदर्भ के बीच रख कर दिखाते हैं, जहाँ वह विशिष्ट और विचित्र न रह कर सामान्य और प्रतिनिधि हो जाता है और कहानी गहरी सभ्यता-समीक्षा की कुव्वत हासिल कर लेती है।"
'पाल गोमरा का स्कूटर' , 'और अंत में प्रार्थना' , 'दिल्ली की दीवार' , 'मैंगोसिल' -ये तमाम लंबी कहानियाँ इन विशेषताओं का उदाहरण हैं। इन्हें पढ़ना एक औपन्यासिक-महाकाव्यात्मक अनुभव से गुजरना है-आप महसूस करते हैं कि कहानीकार ने एक ऐसे अवलोकन-बिंदु पर आपको खड़ा कर दिया है जहाँ से आप किसी खंड को नहीं, अपने पूरे समय के सार को देख पा रहे हैं ('महसूस करते हैं' , यह कहना इसलिए ज़रूरी है कि आखिरकार समय का सार कोई तथ्य नहीं, एक व्याख्या है जिसमें आत्मनिष्ठता होनी ही है) ।
बाद की बहुचर्चित लंबी कहानी 'मोहन दास' भी इन विशेषताओं का उदाहरण है, लेकिन...
यह लेख इसी 'लेकिन' के बारे में है।
2005 में 'हंस' में और 2006 में पुस्तकाकार प्रकाशित 'मोहन दास' शक्तियों और सीमाओं का एक ऐसा योग है जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। 'लेकिन' पर आने के लिए ज़रूरी है कि पहले कहानी की उन शक्तियों और नायाब युक्तियों पर बात की जाए जिन्होंने इसे अनेक पाठकों-आलोचकों की पसंदीदा कहानी बनाया। नहीं तो फिर 'लेकिन' काहे का?
'मोहन दास' गरीब, मेहनती, ईमानदार आम आदमी की बेचारगी और यातना का दिल दहला देनेवाला वृत्तांत है। नारकीय गरीबी को झेलता एक असहाय दलित युवक जब अपने नाम से किसी और को नौकरी की सुख-सुविधाएँ भोगता देखता है और बार-बार अपना अधिकार हासिल करने की कोशिश में एक-के-बाद-एक गहरी मारें खाता है, तो आप अंदर तक हिल जाते हैं। आखिरी मार इतनी गहरी और ऐसे असमाप्य दुःस्वप्न की तरह है कि वह खुद ही अपना नाम बदल देने की गुहार लगाता हुआ दिखता है। वह नाम, जिसके साथ उसकी नौकरी की दावेदारी का सम्बंध है, खुद अपने ऊपर से उतार फेंकने के लिए वह गिड़गिड़ा रहा है। कहानी इसी गिड़गिड़ाहट से शुरू होती है और पीछे जाकर सारा घटनाक्रम समेटती हुई वापस यहीं आकर खत्म होती है।
खुद उदय प्रकाश के अनुसार, यह एक सच्ची घटना है। उन्होंने कई अलग-अलग मौकों पर तो यह बात कही ही है, कहानी के भीतर वाचक के रूप में भी कही है। सच की दावेदारी उनकी कई कहानियों में आई है और इस कहानी में आई हुई दावेदारी उसी का एक संस्करण होते हुए भी थोड़ी अलग है, पर उसकी बात बाद में। उदय प्रकाश की कहानियों का वाचक कहानी-कला की वाचक सम्बंधी संकल्पना से अक्सर थोड़े अलग किस्म का होता है और इस कहानी का तो और भी अलग है, पर उसकी बात भी बाद में। पहले हम देखें कि 'मोहन दास' में वाचक कहता क्या है:
मोहन दास वास्तव में एक जीता-जागता असली आदमी है और उसकी ज़िन्दगी इस समय दरअसल संकट में है। हाँ, यह अवश्य है कि मैंने इस सच्चाई में हमेशा की तरह इस बार भी थोड़ा-बहुत हेरफेर किया है।
लेकिन यह हेरफेर वैसा ही है जैसे कोई हाथी को छुपाने के लिए उसके विशाल शरीर के ऊपर डेढ़ हाथ का अंगौछा बिछा दे।
आप मानेंगे कि सच एक हाथी होता है और जब कोई कवि या कहानीकार उसके ऊपर अंगौछा बिछाकर, उसे चोरी से हाँककर आप सबके सामने खड़ा करता है, तो हमेशा की उसके जीवन के सारे पुल टूट जाते हैं और उसकी सारी नावें जल जाती हैं।
...तो ...मोहन दास एक असलियत है। इसकी पुष्टि आप चाहें तो हमारे गाँव ही नहीं, इस देश के किसी भी गाँव के किसी भी बाशिंदे से पूछकर कर सकते हैं।
कहानी और असलियत के सम्बंध की यह दार्शनिक व्याख्या बहुत अंतर्दृष्टिपूर्ण है। वाचक शुरू में मोहन दास को जीता-जागता असली इनसान बताता है और आखिर में आकर यह दावा करता है कि उसकी असलियत की पुष्टि आप लेखक के गाँव ही नहीं, इस देश के किसी भी गाँव के किसी भी बाशिंदे से पूछकर कर सकते हैं। एकबारगी ऐसा लगता है कि लेखक अपनी ही पीछे कही हुई बात से पलट रहा है। पर यह पलटना नहीं, विशिष्ट से सामान्य की ओर एक छलाँग है। इसी छलाँग के प्रयोजन से हर कहानीकार सच के हाथी को छुपाने के लिए डेढ़ हाथ का अंगौछा अपने पास रखता है। उस अंगौछे की बदौलत वह पत्रकार से अपना फर्क कायम करता है और 'असल' को आधार बनाकर 'असलियत' तक पहुँचने की जुगत लगाता है-अगर आप 'असल' को विशिष्ट और 'असलियत' को सामान्य का वाचक मानें तो।
गौर करने की बात है कि कहानी के साथ 'असल' और 'असलियत' के सम्बंध की यह व्याख्या कहानी के भीतर और बाहर की संधिरेखा पर है। यह चौखट की तरह है, जितनी बाहर, उतनी ही भीतर। कहानी में ऐसे कई अंश हैं और इनकी पहचान यह है कि ये कोष्ठकों के अंदर हैं, तिरछे अक्षरों में। पर अभी हम उन सभी अंशों की बात नहीं कर रहे। जिस अंश की बात कर रहे हैं, उसका इस संधिरेखा पर होना यानी जितना बाहर उतना ही भीतर याकि जितना भीतर उतना ही बाहर होना महत्त्वपूर्ण है। भीतर होना यह सुनिश्चित करता है कि पाठक कहानी को पढ़ने के क्रम में ही इसे भी पढ़ेगा (किसी साक्षात्कार में या अन्यत्र कहानीकार के ऐसा कहने से पाठक तक उस बात का पहुँचना और वह भी उसी तीव्रता के साथ, सुनिश्चित नहीं होता) ; और इसका बाहर होना पाठक को यह विश्वास दिलाता है कि वह जिस आवाज से रू-ब-रू है, वह कहानी की दुनिया से आई हुई आवाज नहीं, उस दुनिया के बाहर से आ रहा एक तथ्य-कथन है। यह तथ्य-कथन कहानी की दुनिया में हस्तक्षेप करता है और उसे खबर की तरह विश्वसनीय बनाने का काम करता है। पर विश्वसनीय बनने के लिए खबर का ओहदा पा लेने से इस विशिष्ट का सामान्य के फलक तक विस्तारित होना, अन्याय के एक सर्वव्यापी परिदृश्य का प्रतिनिधि बन पाना बाधित होता है। इसलिए कहानीकार-वाचक अपनी बात को इस निमंत्रण पर जाकर खत्म करता है कि आप इसकी पुष्टि देश के किसी भी गाँव के किसी भी बाशिंदे से पूछकर कर लें।
उदय प्रकाश की इस युक्ति में खास क्या है? अगर वे 'टेपचू' , 'थर्ड डिग्री' , 'और अंत में प्रार्थना' , इन सारी कहानियों में सच की ऐसी दावेदारी पहले से करते ही आए हैं-और उनसे पहले भी सर्वांतेस से लेकर जाने कितने किस्सागो अपने किस्सों के भीतर ऐसी दावेदारी करते आए हैं-तो 'मोहन दास' के इस अंश को एक अलग तरह से उसका दुहराव भर क्यों न माना जाए?
इसलिए नहीं माना जाए कि उन कहानियों में सच की दावेदारी कथात्मक संसार के भीतर से आती थी। 'मोहन दास' में वह एक ऐसी जगह से आ रही है जिसे कथात्मक संसार की अंतरंग जगह नहीं कह सकते। अव्वल तो इसलिए नहीं कह सकते कि इस जगह को जान-बूझकर कथा के मुख्य प्रवाह से निकाल कर गढ़ा गया है। पीछे चौखट वाला रूपक इसी आशय को व्यंजित करता है। दूसरे, इसे कहनेवाला वाचक बहुत नए किस्म का है। उदय प्रकाश की कहानियों में बहुत पहले से आत्मसजग वाचक (सेल्फकॉन्शस नैरेटर) मिलता रहा है। ऐसा वाचक सर्वज्ञ-सर्वव्यापी होते हुए भी अक्सर 'मैं' शैली में बातें करने लगता है और कई बार तो इस तरह की बहस भी छेड़ बैठता है कि कहानी कैसी है, कैसी होनी चाहिए, कैसी हो सकती थी इत्यादि। यह कथात्मक संसार को गढ़ने की शास्त्रीय शर्तों की एक ऐसी अवहेलना है जिसे बहुतों ने एक युक्ति की तरह इस्तेमाल किया है। पर इस अवहेलना का अगला कदम उदय प्रकाश की 'मैंगोसिल' और 'दिल्ली की दीवार' जैसी कहानियों में मिलना शुरू होता है। वह अगला कदम है, इस 'मैं' को एक कथात्मक सत्ता (फिक्शनल एंटिटी) की सीमाओं से मुक्त करके कहानीकार का 'मैं' बना देना। 'दिल्ली की दीवार' और 'मैंगोसिल' का 'मैं' खुद उदय प्रकाश हैं और ठीक उसी तरह 'मोहन दास' का 'मैं' भी। हिन्दी की दुनिया में अपने साथ हुए अन्यायों, दिल्ली से बाहर गाजियाबाद में विस्थापन, नौकरी से वंचित अपने जीवन के असुरक्षा-बोध, फ्रीलांसिंग का संघर्ष, बोन टीबी आदि-आदि का जिक्र करते हुए वे इन कहानियों में कहानीकार और वाचक का अभेद कायम कर देते हैं। यह अभेद स्थापित करना एक ऐसे कहानीकार के लिए ही संभव था जिसकी प्रसिद्धि ने सामान्य पाठक को उसके व्यक्तिगत जीवन से भी परिचित करा दिया है और अगर नहीं कराया है तो अब कहानी करा देगी! क्योंकि पाठक इस चीज को तो सीधे-सीधे अनुभव करता ही है कि यह 'मैं' , जो कहानी में कोई भूमिका नहीं निभा रहा, फिर भी मौजूद है और अपने बारे में कुछ ब्यौरे भी पेश कर रहा है, यह निश्चित रूप से कहानी का पारंपरिक वाचक नहीं, जो कि एक 'फिक्शनल एंटिटी' होता है, बल्कि स्वयं कहानीकार यानी उदय प्रकाश है।
अब वापस आइए सच की दावेदारी पर। तो पहले की कहानियों में यह दावेदारी उस वाचक के कथन के रूप में आती थी जो कहानीकार से भिन्न होता था, या कम-से-कम सचेत स्तर पर कहानीकार से अपनी अभिन्नता प्रदर्शित नहीं करता था। इस तरह वह दावा अंततः एक 'फिक्शनल क्लेम' ही रह जाता था-बहुत स्पष्ट रूप में एक युक्ति की तरह दिखाई पड़ता, कथा का अंदरूनी हिस्सा। खुद उदय प्रकाश की कहानी 'टेपचू' में जब वाचक पाठक को सीधे सम्बोधित करनेवाली शैली में बात करता है और उन्हें विश्वास दिलाता है कि जब जहाँ कहें, वह टेपचू को उनसे मिलवा सकता है, तो यह चीज साफ तौर पर एक युक्ति की तरह दिखाई पड़ती है। यह सच का ऐसा दावा है जो कथात्मक संसार के भीतर से आ रहा है, क्योंकि खुद वाचक, कहानीकार से अलहदा, उस कथात्मक संसार का हिस्सा है। इस तरह सच का दावा झूठ की एक वृहत्तर संरचना के अंदर स्थित है, इसलिए उस पर भरोसा कर लेने की कोई वजह नहीं है; अलबत्ता, चूँकि यह पूरी तरह स्पष्ट है कि उस पर भरोसा करने की कोई वजह नहीं, इसलिए पाठक उस दावे में कथा-स्थितियों और चरित्रों को प्रतीकार्थ के स्तर पर जाकर खोलने का संदेश पढ़ता है। यानी मामला भरोसा करने-न करने के खेल से ही बाहर चला जाता है; पाठक सच के दावे को चिराचरित विधि से सच यानी तथ्य के दावे के रूप में पढ़ता ही नहीं, एक अलग तरह की माँग को पेश करनेवाले संदेश या आदेश के रूप में पढ़ता है। यही स्थिति 'और अंत में प्रार्थना' में भी देखी जा सकती है जहाँ कहानीकार शीर्षक के ठीक नीचे कोष्ठकों में कह रहा है कि 'इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं' , जबकि कहानी के अंदर वाचक कह रहा है, 'अब इसका क्या किया जाए कि डॉक्टर दिनेश मनोहर वाकणकर किसी कहानी या उपन्यास के पात्र नहीं है। उन्हें किसी कहानीकार की कल्पना ने नहीं पैदा किया। डॉ. वाकणकर किसी कहानीकार या रचना के होने या न होने के बावजूद हैं।' यहाँ भी सच का जो दावा कथात्मक संसार के भीतर से आ रहा है, वह एक युक्ति के रूप में पाठक को तथ्य से परे सत्य की दिशा में जाने के लिए उकसाता है। (याद कीजिए, नामवर सिंह ने छायावाद के प्रसंग में रवींद्रनाथ ठाकुर के हवाले से तथ्य और सत्य के अंतर को समझाया था। पीछे जहाँ-जहाँ 'सच' शब्द आया है, उसे 'सत्य' के अर्थ में नहीं, 'तथ्य' के अर्थ में ही पढ़ें। चूँकि भाषा 'सिस्टम ऑफ डिफरेन्स' है, इसलिए 'सच' लिखते हुए इपंले के मन में 'झूठ' से उसका फर्क और 'सत्य' लिखते हुए 'तथ्य' से उसका फर्क रहा है।)
सच के दावे का कथात्मक संसार के भीतर से आना, उसका 'फिक्शनल क्लेम' होना अपने-आप में कोई दोष नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे कहानी का 'कहानी' यानी 'गढ़ा हुआ वृत्तांत' होना अपने-आप में कोई दोष नहीं जिसके चलते आप उसे पढ़ने से विरत हो जाएँ। किस्सा-कहानी तो नाम ही उस जादू का है जहाँ हम सहृदय के रूप में झूठ को जानते-बूझते हुए एक भावनात्मक सच की तरह ग्रहण करते हैं, चरित्रों के साथ-साथ हँसते और रोते हैं। या यों कहिए कि हँसने-रोने की अपनी भावनात्मक ज़रूरतों के लिए झूठ के संसार में आलंबन ढूँढ़ते हैं। कॉलरिज ने कभी इसे ही 'अविश्वास का स्वैच्छिक स्थगन' (विलिंग सस्पेंशन ऑफ डिसबिलीफ) कहा था।
यह सारी बक-बक इसलिए कि आप समझ सकें कि 'फिक्शनल क्लेम' कहने का मतलब किसी चीज का दर्जा गिराना नहीं है; पर साथ ही इसलिए भी कि आप अलग-अलग तरह के दावों के फर्क की सराहना कर पाएँ। उदय 'मोहन दास' में सच के इस दावे को 'फिक्शन' से बाहर निकाल लाते हैं जिसका असर कहानी की विश्वसनीयता पर अधिक तीव्र होता है। आखिर विश्वास करने और अविश्वास का स्थगन करने में कोई फर्क तो होगा! यहाँ घटना के असल होने की बात कहानी के अंदर होते हुए भी उससे बाहर और इसीलिए प्रामाणिक है। कहानी का वाचक कोई फिक्शनल एंटिटी नहीं, खुद उदय प्रकाश हैं और कहानी के अंदर कोष्ठकों और तिरछे अक्षरों के रूप में एक ऐसी जगह निकाल कर वे सच का दावा पाठक के सामने रखते हैं जो 'फिक्शन' के मुकाबले 'फैक्ट' की जगह है।
लेकिन गौर करने की बात है कि कहानीकार और वाचक का अभेद स्थापित करके भी उदय प्रथम पुरुष के अवरुद्ध अवलोकन बिंदु की सीमाओं को स्वीकार नहीं करते। उन सीमाओं को स्वीकार करने का मतलब यह होता कि कहानीकार-वाचक ने जो कुछ अपनी आँखों के सामने देखा है या विश्वसनीय स्रोतों से सुना है, उनका ही बयान करता (यानी कहानी इस ढंग से कही जाती कि सारी बात वाचक द्वारा देखी-सुनी हुई जान पड़ती) । 'मोहन दास' में ऐसा नहीं है। कहानी में ऐसे तमाम विवरण हैं जिन्हें अवरुद्ध अवलोकन बिंदु से प्रस्तुत किया ही नहीं जा सकता। मसलन, मोहन दास का अपनी पत्नी के साथ चाँदनी रात में नदी की धार में खेलते हुए सहवास करने का वर्णन प्रथम पुरुष वाचन में संभव नहीं है। पर ऐसे अनेक वर्णन-विवरण आते हैं और ये एक तरह से कहानी के रचना-तंत्र, उसकी अभियांत्रिकी को पाठक के लिए पारदर्शी बना देते हैं। वह साफ-साफ देखता है कि कहानीकार-वाचक उदय प्रकाश आत्मसजग रूप से एक कहानी लिख रहा है जिसमें मुख्य-मुख्य घटनाओं का कंकाल एकदम असली है और उसे शरीर देने का काम कल्पना कर रही है। अब वह कल्पना मुक्तिबोध, परसाई, शमशेर, लेनिन नगर, गांधी नगर, अंबेडकर नगर, नेहरू नगर, पुरबनरा और गांधी के परिवार की नाम-ध्वनियों से मिलते-जुलते मोहन दास के परिवार-जनों के नाम इत्यादि का जैसा भी प्रतीकात्मक या कौतुकपूर्ण इस्तेमाल करे, उससे पाठक के लिए केंद्रीय घटनाक्रम की सचाई-दुनिया में उसके असल में घटित होने की सचाई-अछूती रहती है। कहने का मतलब यह कि कहानी का घटना-आधार अपनी ठोस-मूर्त उपस्थिति को छोड़ कर प्रतीक में नहीं बदलता (याद रखें, प्रतीक हमेशा अपने से परे किसी और चीज का अर्थ देता है) , उसे कहानी में ढालने वाला विमर्श भले ही बीच-बीच में उस घटना-आधार में ऐसे प्रतीकार्थों की गुंजाइश निकाल ले जो बहुत बड़े फलक पर बिजली की तरह कौंध जाते हों।
घटनाओं के कंकाल को असली ठहराने की इस युक्ति का 'मोहन दास' के प्रसंग में असर जबर्दस्त है। यह युक्ति पाठक को कहानी के 'इमोशनली चार्ज्ड' संसार में पूरी तरह जकड़ लेती है। वह कहानी को एक सत्य घटना की तरह पढ़ता है, एक ऐसी घटना जिसे सीधे घटना की तरह भी कहा जा सकता था लेकिन कहानी की तरह कहने का चुनाव सिर्फ़ इसलिए किया गया है कि उसकी भयावहता का पूरा-पूरा अनुभव कराया जा सके और साथ ही, प्रतीकों के माध्यम से उसे अर्थ-विस्तार देने की छूट ली जा सके. कहानी इसी भाव से पढ़ी जाए, इसकी पेशबंदी अद्भुत कौशल के साथ की गई है। कौशल को रेखांकित करने का यह मतलब कहीं से नहीं कि घटना असली नहीं है। इपंले खुद मानता है कि घटना सच्ची है। पर वह यही कहना चाहता है कि खुद उसका ऐसा मानना भी उस पेशबंदी के कौशल का प्रमाण है।
इस पेशबंदी के साथ कहानी जिस घटना-व्यापार को सामने लाती है, वह हृदय-विदारक है। उसकी खासियत है कि वह सबसे निचले पायदान पर खड़े मनुष्य को उसका वाजिब हक न मिल पाने और उत्तरोत्तर बढ़ती हुई यंत्रणाओं से उसके गुजरने के दृश्य ही नहीं दिखाती, सत्ता तंत्र के हर स्तर पर पैठी भयावह दुरभिसंधियों को भी रेशा-रेशा खोलती है। पुलिस, ठेकेदार, सरकारी अधिकारी और बाबू, स्थानीय गुंडे, गाँव के मातबर-इन सबके गठजोड़ से गरीब आदमी के उत्पीड़न और वंचना का जो नृशंस खेल चप्पे-चप्पे पर चल रहा है, उसकी एक माइक्रोस्कोपिक तस्वीर आपके सामने उभरती है। उसके ब्यौरों से गुजरते हुए आप एक गहरी बेचैनी और दहशत को अपनी शिराओं में उतरता हुआ महसूस करते हैं और कहानीकार का पूरा सरंजाम ऐसा है कि इसे किस्सा मानकर राहत हासिल कर लेने की भी कोई गुंजाइश नहीं। कहीं-कहीं उम्मीद की रोशनी फौरी राहत तो देती है, पर ऐसी हर राहत के बाद हताशा का अँधेरा अधिक गहरा हो जाता है। उम्मीद की रोशनी में चमक जहाँ सबसे ज़्यादा है, वहीं से निरुपायता का अँधेरा सबसे अधिक गहरा और खौफनाक भी हो जाता है। मोहन दास की लड़ाई न्यायिक दंडाधिकारी गजानन माधव मुक्तिबोध, पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हरिशंकर परसाई और एस.एस.पी. शमशेर बहादुर सिंह की बदौलत लगभग जीत ली जाती है, पर "गरीबों और अन्याय के शिकार लोगों के जीवन के खुरदुरे यथार्थ में ऐसे सुंदर रंग कभी-कभार बस ऐसे ही कुछ पल के लिए आते हैं। सत्ता और पूँजी से जुड़ी ताकतें अचानक किसी बाज की तरह झपट्टा मारकर अलोपी मैना के घोंसलों को उजाड़ देती हैं और बाहर दिखाई देते हैं चिड़ियों के नन्हें-नन्हें छौनों के पंख और खून के कुछ धब्बे।" पूरा खेल फिर पलट जाता है। नकली मोहन दास जमानत पर छूट जाता है और खुले आम अपराधों में लिप्त हो जाता है। उसकी अचूक साजिश के बल पर असली मोहन दास उसके सारे अपराधों के आरोप झेलता पुलिस के हाथों पिटता-पिटता बेदम रहने लगता है और इस नारकीय ज़िन्दगी से निजात पाने के लिए खुद अपने नाम से अपना पीछा छुड़ाने की गुहार लगाता पाया जाता है।
इतना गहरा असर, इतनी दूरगामी ध्वनियाँ...
तो फिर समस्या कहाँ है?
समस्या घटनाक्रम की प्रस्तुति, यानी घटनाओं के कहानी बनने की प्रक्रिया में है। अभी तक जो कुछ कहा गया है, उसमें कहानी के कंकाल की ही चर्चा अधिक हुई है। एक अदद युक्ति की भी किंचित विस्तार से चर्चा हुई है जिसका सम्बंध इसी कंकाल, यानी मुख्य घटना-व्यापार, की सत्य-प्रतीति से है। हाँ, थोड़ी चर्चा इस घटना-व्यापार को बहुत बड़े फलक पर प्रक्षेपित कर देनेवाली सांकेतिकता की भी हुई है। समस्या इनमें नहीं है। समस्या घटनाओं के कहानी बनने की प्रक्रिया (इसे ही संरचनावादियों ने 'कथा' के मुकाबले 'विमर्श' कहा है) के कुछ अन्य पहलुओं को लेकर है।
पहली बात, 'मोहन दास' एक भाषणबाज कहानी है। उदय प्रकाश ने अरुण आदित्य को दिए एक साक्षात्कार में बहुत सही कहा है कि "अच्छी रचना बहुत धीमी आवाज में बोलती है।" पता नहीं, यह अहसास 'मोहन दास' लिखते हुए उन्हें क्यों नहीं था! इतना ज़्यादा बोलने वाली कहानी हिन्दी में दूसरी नहीं है। यह-ऐसा-समय-था-जब-वाली शैली उदय की कहानियों में पहले भी आई है, पर तब उसका अनुपात-बोध बहुत सधा हुआ होता था। यहाँ आकर वह बिल्कुल अनुपातविहीन हो गई है। गोया रिझानेवाली अदाओं का असर कम होता देख कोई पुरुष / स्त्री उन अदाओं को बदलने के बजाय उन्हें और प्रयत्नपूर्वक माँजने लगे और इस चक्कर में वे अदाएँ प्रतिउत्पादक हो जाएँ। कोष्ठकों में लंबे-लंबे अंश लिखकर उदय पता नहीं क्या सिद्ध करना चाहते हैं? उनकी कहानियाँ निबंध और भाषण जैसी विधाओं का बेहतरीन इस्तेमाल कर लेती थीं। 'मोहन दास' पढ़ते हुए लगता है कि कहानी इस्तेमाल करने के बजाय इस्तेमाल हो रही है... और उसके साथ-साथ हम भी।
वैसे, कोष्ठकों में आए इन विवरणों से उदय क्या सिद्ध करना चाहते हैं, इसका एक उत्तर हो सकता है। वह यह कि ये विवरण हमारा समय हैं और मोहन दास इस समय की नब्ज। समय स्थूल संकेतकों में है जो कि खबरें हैं, या ज़्यादा दुरुस्त ढंग से कहें तो खबरों का एक खास तरह का संचयन। कहानीकार उन्हें एक योजना के तहत कहानी में पेश कर रहा है, ताकि आप नब्ज के साथ-साथ स्थूल शरीर को भी अपने सामने पाएँ। आखिर नब्ज ही क्यों, ऊपर से दिखता शरीर भी रोगों के बारे में काफी कुछ कहता है!
पर रोगों की कहानी कहने के लिए अपने रवैये में रुग्णता तो ज़रूरी नहीं है! यह 'मोहन दास' की एक और समस्या है कि कहानी न सिर्फ़ बहुत ज़्यादा बोलती है, बल्कि लगभग रुग्ण रवैये के साथ बोलती है। यहाँ गरीब और साधारण आदमी के पक्ष में कुछ 'व्यक्तियों' को छोड़ कर (जाहिर है, कहानीकार अपने को भी ऐसा ही एक व्यक्ति मानता होगा) और कोई नहीं है। हर तरह की कलात्मक और वैद्वत गतिविधि उसके खिलाफ है (इतिहास लेखन को दो-तीन बार कहानीकार ने निशाने पर लिया है, जबकि सचाई है कि यह अनुशासन लगातार साधारण आदमी के पक्ष में झुकता गया है) । हर तरह की राजनीति उसके खिलाफ है। कहीं हर्षवर्द्धन सोनी के राजनीतिक जुड़ाव को-साथ ही, मुक्तिबोध, शमशेर, परसाई आदि की पाठेतर प्रतिष्ठा जिस राजनीति की ओर संकेत करती है, उसको-देखते हुए आप वाम राजनीति के प्रति लेखक का सकारात्मक दृष्टिकोण न पढ़ लें, इसके लिए उदय प्रकाश कोष्ठकों में उस राजनीति को भी बार-बार निशाना बनाते हैं। पेट्रोल की कीमतों को लेकर उनका आंदोलन करना, केंद्र में कांग्रेस की सरकार को उनका समर्थन देना-ये सब कहानीकार की दृष्टि में इस बात के प्रमाण हैं कि वामपंथी भी गरीब आदमी के खिलाफ हैं। उनके मुक्तिबोध भी गहरी हताशा के साथ बोलते हैं, 'किसी समय बहुत परिवर्तनकारी लगनेवाली बौद्धिक और दार्शनिक संरचनाएँ बदले हुए समय में बिल्कुल खोखले वाग्जाल, अनर्गल बकवास और ठगों के प्रवचनों में बदल सकती हैं। इतिहास में ऐसा बार-बार हुआ है।' उदय प्रकाश मानो इस बात को लेकर अतिरिक्त रूप से सजग हैं कि उनकी कहानी में आए हुए मोहन दास के मददगार कहीं व्यक्ति से हटकर किसी विचारधारा या राजनीतिक धारा के प्रतिनिधि न मान लिए जाएँ।
शायद आप कहना चाहें कि मोहन दास की जगह से दुनिया ऐसी ही नजर आती है-कुछ मददगार 'व्यक्तियों' को छोड़कर और सारा कुछ खूँखार होने की हद तक प्रतिकूल और मोहन दास की जगह का मतलब है मुनष्यता के उस पूरे हिस्से की जगह, जिसके हुकूक मारकर ऊपर का तबका ऐश्वर्य भोग रहा है। कहानीकार ने भले ही मोहन दास को वाचक न बनाया हो, वह जिस दुनिया को दिखाता है, वह उसी के कोण और अवस्थिति से देखी हुई दुनिया है।
कहना चाहिए कि यह कहानी के दृष्टिकोण के पक्ष में, जिसे इपंले सब कुछ को खारिज करनेवाला रुग्ण दृष्टिकोण मानता है, एक आश्वस्तकारी तर्क हो सकता था। पर यह कारगर तब होता जब हम महसूस करते कि कहानीकार खुद को भी मोहन दास की जगह से देख पाता है (याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि कहानीकार और वाचक एक ही हैं) । ऐसा महसूस नहीं होता। कहानी में अपने प्रति कहानीकार का दयाभाव बहुत गाढ़ा है। उसे देखते हुए, रुग्ण दृष्टिकोण का औचित्य बताने का उक्त तर्क पूरी तरह गले नहीं उतरता। समझ में आ जाता है कि दुनिया को तो उदय अपनी ही जगह से देख रहे हैं और रुग्णता इसी जगह की है। अपने प्रति इतना दयाभाव और अपने समय की हर राजनीति तथा उसके कर्ताओं के प्रति इतनी निरपेक्ष निंदा-यह चीज 'मोहन दास' को कमजोर बना देती है।
और इपंले इसे रेखांकित करना ज़रूरी समझता है कि कोष्ठकों में बहुत ज़्यादा बोलने की झख न होती तो कहानी / कहानीकार के नजरिए में यह रुग्णता भी न दिखती। कहानियाँ अपने स्वभाव से ही मुक्तमुखी होती हैं, उनमें कई तरह से पढ़े जाने की संभावना होती है, बशर्ते कहानी के अंदर ही निबंध लिख कर कहानीकार उसके पढ़े जाने की दिशा निर्धारित न कर दे। उदय यही करते हैं और इस प्रकार हमें उक्त सर्व-अस्वीकार मुद्रा की अनदेखी कर पाने के लायक नहीं छोड़ते।
अब तीसरी समस्या। अपनी किसी भी और कहानी के मुकाबले उदय प्रकाश यहाँ बहुत असावधान नजर आते हैं। पहले पन्ने से ही यह असावधानी दिखने लगती है। डर के रंग के बारे में तीसरे अनुच्छेद में कहानीकार कहता है कि "फ़िल्म का अच्छे से अच्छा अभिनेता भी अपनी आँखों की पुतली, सफेदा और चेहरे पर हजार कोशिशों के बावजूद वह रंग पैदा नहीं कर सकता जो असल ज़िन्दगी में किसी बेहद डरे हुए जीते-जागते मनुष्य की आँखों और चेहरे में दिखाई देता है।" इसके बाद पाँचवे अनुच्छेद में, "'शिंडलर्स लिस्ट' या फिर उस जैसी अनेक फ़िल्मों में आपने उस जर्मन रेलगाड़ी का दृश्य देखा होगा, जिसे कहीं दूर भेजा जा रहा है। उस रेलगाड़ी के डिब्बों की खिड़कियों से बाहर ताकते यहूदी बच्चों, औरतों और बूढ़ों के चेहरे आपकी स्मृति में ज़रूर होंगे। ...डर का रंग कुछ-कुछ वैसा ही हुआ करता है।"
अगर फ़िल्म का अच्छे से अच्छा अभिनेता डर का वह रंग पैदा नहीं कर सकता तो 'शिंडलर्स लिस्ट' के अभिनेताओं ने कैसे पैदा कर लिया? क्या 'शिंडलर्स लिस्ट' असली फुटेज वाली कोई डॉक्यूमेंटी फ़िल्म है? यह बाकायदा एक फीचर फ़िल्म है जिसे स्टीवन स्पिलबर्ग ने सफेद-स्याह पर इसलिए फ़िल्माया था ताकि डॉक्यूमेंटी वाला प्रभाव आ सके. डर का जो रंग मोहन दासकार के अनुसार अच्छे-से-अच्छा अभिनेता पैदा नहीं कर सकता, वह इस फ़िल्म के अभिनेताओं ने ही पैदा किया था!
अपनी असावधानी में ही कहानीकार ने कथा-काल को खासा गड्ड-मड्ड कर दिया है। वर्तमान काल में कहानी को शुरू करके पीछे की घटनाओं का बयान करते हुए वापस वर्तमान तक पहुँचना कोई नई और समस्यामूलक युक्ति नहीं है, लेकिन इसे भी उदय प्रकाश सुसंगत तरीके से सँभाल नहीं पाए हैं। उनके कद को देखते हुए कभी-कभी खुद पर संदेह करना पड़ता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि यह गड्ड-मड्ड अपने-आप में कोई कथा-युक्ति है, 'एकांत के सौ वर्ष' जैसी, जिसे हम समझ नहीं पा रहे। पर ढूँढ़ने पर भी कहानी में कोई ऐसा सुराग हाथ नहीं लगता जो कथा-युक्ति के रूप में इसकी सराहना करने की प्रेरणा दे। यानी यह सोच-समझ कर की गई गड्ड-मड्ड तो नहीं लगती।
कहानी वर्तमान में शुरू होती है, जिसमें मोहन दास अपने उसी संवाद के साथ हमारे सामने आता है जिस संवाद के साथ कहानी को खत्म होना है।
मोहन दास सामने खड़ा है और अपनी काँपती हुई, कमजोर आवाज में कह रहा है-' काका, मुझे किसी तरह बचा लीजिए! मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ! ...बाल-बच्चे हैं मेरे! उधर बाप मर रहा है टीबी से! ...आप कहें तो मैं आपके साथ चलकर अदालत में हलफनामा देने को तैयार हूँ कि मैं मोहन दास नहीं हूँ। मैं इस नाम के किसी आदमी को नहीं जानता। कोई और होगा मोहन दास! बस मुझे किसी तरह बचा लीजिए.
कहानी पढ़ते हुए आपको पता चलेगा कि बाप तो मोहन दास के 'बचा लीजिए' वाली गुहार से बहुत पहले ही मर चुका है। मोहन दास हर्षबर्द्धन सोनी की मदद से जी.एम. मुक्तिबोध की अदालत में अपने अधिकार की जो लड़ाई लड़ता है, उससे पहले ही उसके पिता की मौत हो चुकी है और अदालती लड़ाई शुरू होने के भी काफी बाद जाकर वह नौबत आती है जिसके वर्णन से कहानी शुरू हो रही है।
इस शुरुआत में कथा-काल के वर्तमान को लेकर आए और भी ब्यौरे ऐसे हैं जो अंत में आए ब्यौरों से बिल्कुल अलग हैं। उनमें से कुछ ब्यौरों का औचित्य यह कहकर दिया जा सकता है कि लेखक इस शुरुआती हिस्से में कहीं-कहीं कथा-काल के वर्तमान से थोड़ा पीछे भी गया है और इसके लिए एक बार यह कहा भी है कि "लेकिन ये सारी बातें तो बहुत पहले की हैं।" लेकिन उसके बाद वह इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं छोड़ता कि यह शुरुआती हिस्सा मुख्यतः कथा-काल का वर्तमान ही है और ऐसी गुंजाइश न छोड़ने के बाद जो ब्यौरे आते हैं, वे फिर इसी गड्ड-मड्ड की सूचना देते हैं। यह हिस्सा पढ़ें:
लेकिन ये सारी बातें तो बहुत पहले की हैं। मोहन दास इन दिनों एक भारी विपत्ति में है और बार-बार कहता है-
'हमारा नाम मोहन दास नहीं है। ...हम अदालत में हलफनामा देने को तैयार हैं। जिसे बनना हो बन जाए मोहन दास। आप लोग किसी तरह हमें बचा लीजिए! हम आप सबके हाथ जोड़ते हैं!'
मोहन दास का संकट क्या है? यह बताने से पहले उसके परिवार के पाँचवें सदस्य, यानी मोहन दास की छह साल की बेटी शारदा का जिक्र पूरा कर लें। छह साल की शारदा गाँव के सरकारी प्राथमिक पाठशाला में दूसरी कक्षा की छात्रा है और स्कूल के बाद वह ढाई किलोमीटर दूर, दो तालाबों के पार बसे गाँव बिछिया टोला चल देती है, जहाँ से वह रात नौ-दस बजे लौटती है। बिछिया टोला में वह बिसनाथ प्रसाद के एक साल के बेटे को सँभालने और उनके घरेलू कामकाज में लमरा-पहुँची करती है।
अब यहाँ जिस छह साल की बेटी का जिक्र आया है, वह कहानी के अंत में आए मोहन दास के उक्त संवाद से काफी पहले आठ साल की हो चुकी थी और दो साल से बिछिया टोला के बिसनाथ के बच्चे को सँभालने का काम छोड़ चुकी थी।
तो क्या मोहन दास की यह गिड़गिड़ाहट कहानी में दो बार आनी चाहिए थी? इसका सवाल ही नहीं। क्योंकि भारी विपत्ति में अपने नाम से पीछा छुड़ाने की नौबत तो तभी आती है जब इस नाम के कारण मोहन दास बार-बार पुलिस के हत्थे चढ़ता है और नारकीय यंत्रणा से गुजरता है। इसका मतलब यह कि कहानी की काल-रेखा पर आगे-पीछे करते हुए लेखक भूल जाता है कि उसे काल-रेखा पर किसी चीज को कहाँ रखना था। इसका उदाहरण उस बिसनाथ के संदर्भ में भी मिलता है जिसने मोहन दास का नाम धारण कर उसकी नौकरी हथिया ली है। गोपाल दास ने जब पहली बार बिसनाथ की इस हरकत की जानकारी मोहन दास को दी, तब यह भी बताया कि "बिसनाथ ने अपने गाँव बिछिया टोला में रहना चार साल से छोड़ दिया है और ओरियंटल कोल माइंस की वर्कर्स कॉलोनी 'लेनिन नगर' में बाल-बच्चों समेत रहने लगा है, जहाँ उसकी पत्नी ब्याज पर रुपया उठाने का धंधा करती है और चिट फंड चलाती है। मजे की बात यह है कि लेनिन नगर में रहने वाले सभी लोग बिसनाथ को 'मोहन दास' और उसकी पत्नी अमिता को 'कस्तूरी मैडम' के नाम से ही जानते हैं।" यह पता लगने के बाद मोहन दास अपना अधिकार वापस पाने के लिए सक्रिय हुआ। कई बार वह उस लेनिन नगर में गया जहाँ बिसनाथ रहता था। इस प्रक्रिया में कई साल गुजर गए. इस दौरान मोहन दास के पिता का भी निधन हुआ। इन सबका विस्तार से वर्णन कहानी में आता है। उसके बाद का यह अंश देखिए:
मोहन दास ने चुप रहना शुरू कर दिया। वह बहुत कम ही बोलता। उसका बेटा देवदास सड़के के किनारे 'दुर्गा ऑटो रिपेयरिंग वर्क्स' में पंचर लगाने और पाना-पेचकस की लमरा-पहुँची करने वाले हेल्पर का काम करने लगा था। शारदा ने दो साल से बिछिया टोला में बिसनाथ के बच्चे को सँभालना और घरेलू कामकाज छोड़ दिया था क्योंकि रेनुका देवी लेनिन नगर जाकर अपने पति बिसनाथ के साथ रहने लगी थी।
याद कीजिए कि मोहन दास ने कई सालों तक चले अपने संघर्ष की जब शुरुआत की थी, तभी बिसनाथ को बीवी-बच्चों समेत लेनिन नगर में रहते चार साल हो चुके थे। तो फिर शारदा किस बच्चे को सँभालने का काम करती थी? और रेनुका देवी अगर दो साल से अपने पति बिसनाथ के साथ रहने लगी हैं तो वह अमिता कौन थी जो कई साल पहले से लेनिन नगर में रह रही थी?
असल में, रेनुका देवी कहानी के शुरुआती ब्यौरों के अनुसार बिसनाथ की माँ है। वहाँ पत्नी का नाम अमिता है। लेकिन उक्त प्रसंग में आकर रेनुका देवी को बिसनाथ की पत्नी बता दिया गया है, जो कि पहली नजर में टाइपिंग की गलती लगती है। पर आगे आप पाते हैं कि हर जगह बिसनाथ की पत्नी का नाम रेनुका देवी बताया गया है। जब न्यायिक दंडाधिकारी जी.एम. मुक्तिबोध बिसनाथ के घर पहुंचे तो-
"बिसनाथ... बाहर गया हुआ था। फ्लैट में सिर्फ़ उसकी पत्नी कस्तूरी उर्फ रेनुका देवी थीं, जो चिटफंड, सोशल सर्विस, किटी पार्टी और फाइनेंस का धंधा करती थी। ...कस्तूरी मैडम उर्फ रेनुका देवी सरकारी बत्ती वाली गाड़ी और इतने लोगों को देख कर घबड़ा गई थी।"
इसी तरह आखिरी हिस्से में आई सूचनाओं में से एक सूचना है:
"ताजा हाल यह है कि बिसनाथ ने अपनी पत्नी रेनुका के साथ मिलकर कोलियरी की दलाली में बहुत पैसा कमा लिया है।"
इसका मतलब यह हुआ कि पीछे भी जहाँ रेनुका देवी के लेनिन नगर जाकर रहने की बात कही गई थी, वहाँ भी बिसनाथ को पुत्र की जगह पति बताना कोई टाइपिंग की गलती नहीं थी। लेखक यह हिस्सा लिखते हुए भूल चुका था कि बिसनाथ की पत्नी का नाम उसने रेनुका नहीं, अमिता बता रखा है। पर साथ ही, वह यह भी भूल चुका था कि उस पत्नी को बच्चे-समेत कितना पहले वह लेनिन नगर स्थानांतरित करा चुका है। अब चूँकि एक बार उसने मोहन दास की बेटी को बिसनाथ के गाँव के घर पर बच्चे सँभालने और लमरा-पहुँची का काम करते दिखा दिया है, इसलिए अब उसे इस काम से निकालना भी है और इसी चक्कर में वह सारी चीज़ें गड्ड-मड्ड कर देता है।
ब्यौरों की ऐसी गड़बड़ियाँ अनेक हैं, उन सबका यहाँ हवाला देना संभव नहीं। लब्बोलुआब यही है कि कहानी 12 साल के कथा-काल को समेटती है, लेकिन सँभाल नहीं पाती। बेशक, कोई कह सकता है कि कहानी पढ़ते हुए इस गड्ड-मड्ड की ओर ध्यान नहीं जाता और उसकी प्रभावोत्पादकता इनकी वजह से आहत नहीं होती। उत्तर सिवाय इसके और क्या हो सकता है कि यह तो अपनी-अपनी किस्मत है! बदकिस्मत हैं वह जिनका ध्यान इस ओर चला जाता है और कहानी के आस्वाद में बाधा पड़ जाती है।
इसके अलावा, इस बात से भी आप कैसे इनकार करेंगे कि नीरंध्र कथा-विन्यास कहानी-कला की आधारभूत अपेक्षाओं में से है। इस अपेक्षा के पूरा न हो पाने का औचित्य किसी भी तरह / तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता, जब तक कि कथा-विन्यास को जान-बूझ कर, यानी एक युक्ति के स्तर पर, रंध्रयुक्त न किया गया हो।
तो गोया 'मोहन दास' साँप-सीढ़ी के खेल में पड़ी हुई कहानी है। सीढ़ी ऊपर चढ़ाती है, साँप काटकर नीचे पहुँचा देता है। 'मोहन दास' के प्रसंग में केंद्रीय घटना की गहन मार्मिकता और सांकेतिकता सीढ़ी है, तो वाचक की वाचालता और कथा-विन्यास के रंध्र साँप।
साँप और सीढ़ी, दोनों पर अभी इपंले को काफी कुछ कहना था, पर वह थक गया है।
और शायद आप भी।