मोहब्बत की सराय, दरवेश इम्तियाज अली / जयप्रकाश चौकसे

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मोहब्बत की सराय, दरवेश इम्तियाज अली
प्रकाशन तिथि : 11 मार्च 2014


बयालीस वर्षीय इम्तियाज अली अपने नौ वर्षीय फिल्म कॅरिअर में पांच फिल्में बना चुके हैं, 'हाइवे' के बाद उनकी छठी फिल्म का नाम 'विन्डो सीट' है जिसमें आलिया भट्ट और रनदीप हुडा काम करने वाले हैं। उनकी 'हाइवे' को देखकर संगीतकार ए. आर. रहमान ने इम्तियाज अली से कहा था कि तुम आज भी अपने चुने हुए रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति हो परंतु 'हाइवे' अब तुम्हें अतिरिक्त सृजन स्वतंत्रता देगी। इम्तियाज अली के निकटतम मित्रों का कहना है उसके जीवन का यह दौर भावना और अध्यात्म के लिहाज से शिखर दौर है। पारम्परिक तौर पर लोग फिल्मकारों को अध्यात्म का अन्वेषी नहीं मानते क्योंकि उनके लिए आज भी फिल्में पाप का संसार है जैसा दशकों पूर्व राजगोपालाचारी ने कहा था। जिस उद्योग में धन हो, सुंदर महिलाएं हो और प्रेम कथाएं बनाई जा रही हो उसमें अध्यात्मिकता का होना नामुमकिन माना जाता है।

दरअसल फिल्में जितनी फॉर्मूलामय होती है, उससे अधिक फॉर्मूलामय वे लोग होते है जो इस उद्योग में लगे है या इन पर साधिकार बोलते हैं। इस 'पाप की नगरी' के अशोक कुमार दादा 'मुनि' कहलाए गए। दरअसल लोकप्रिय परिभाषाएं प्राय: अंधी गली में ले जाती है। अगर गुरुदत्त इस गीत का चयन करता है कि 'ये दुनिया मिल भी जाए तो क्या है' और इसी बेलागपन के साथ वह स्वयं दुनिया छोड़ भी देता है तो क्या आप उसे महज फिल्मकार मानेंगे या उसके सोच और तलाश को गहरे अर्थ में समझने का प्रयास करेंगे, या जानना चाहेंगे कि वह कैसा 'प्यासा' है?

दरअसल हमने अध्यात्म को रोजमर्रा के जीवन से अलग करके कुछ अजीबोगरीब ऊंचाई मान लिया है जबकि हर वह व्यक्ति जो अपना काम पूरी मेहनत, लगन और ईमानदारी से कर रहा है, वह अध्यात्म के सफर पर ही चल रहा है। आध्यात्मिकता किसी ऊंचे पहाड़ पर लगा हुआ पौधा नहीं है कि जिसके लिए आपको चढ़ाई चढऩी पड़ेगी, वो तो दिन-प्रतिदिन के जीवन में ही निहित है। केवल आर्कमिडीज ही वैज्ञानिक नहीं है, वरन् हर कोई जो स्वयं को खोजने का प्रयास कर रहा है, वह भी विज्ञान ही साध रहा है। दरअसल तमाम ऊंची-ऊंची बातों के चक्कर में हमने आम जिंदगी से उसको सहज दार्शनिकता को ही खारिज कर दिया है। आज भी हमें कबीर अध्ययन रोजमर्रा की साधारण जिंदगी की महानता को समझने का अवसर देता है। यही कारण है कि घर को बुहारने वाली औरत, दफ्तर में काम करने वाली औरत को हम जुदा नजरिये से देखते है जबकि दोनों ही अपने काम में मगन हैं और यही जीवन सघन भी है।

चलती हुई बस या रेलगाड़ी में विन्डो सीट आपको बाहर का नजारा बेहतर देखने का अवसर देती है परंतु किसी भी मनुष्य को सचमुच जान लेने के लिए कोई 'विन्डो सीट' नहीं होती। यह आपका दृष्टिकोण या नजरिया है जो जीवन की 'विन्डो सीट' है। इम्तियाज अली की 'हाइवे' अपहरण की गई लड़की और अपहरण करने वाले की प्रेम-कथा नहीं है। वह तो दो ऐसे लोगों की कहानी है जो अपने भूतकाल की घटनाओं से जूझ रहे हैं और जैसे ही वे एक दूसरे को विगत के भूतों से जूझता देखते हैं, उनके बीच संवेदना का एक मानवीय रिश्ता बन जाता है। इम्तियाज अली की फिल्में इस तरह के रिश्तों को प्रस्तुत करती है गोयाकि वह ऐसा दरवेश नहीं है जो मोहब्बत की सराय या सराय की मोहब्बत में गिरफ्तार होकर अपना सफर खत्म कर दे। बकौल शैलेन्द्र वह मुतमइन है, 'चलते चलते थक गया मैं और सांझ भी ढलने लगी, तब राह खुद मुझे अपनी बांहों में लेकर चलने लगी'। यह लेख लिखने की प्रेरणा गायत्री जयरामन के इम्तियाज अली आकलन से प्रेरित है। इम्तियाज अली का अठारह वर्ष का साथ प्रीति से छूट गया है, वे दोनों एक-दूसरे से अलग हो गए हैं परंतु यह कोई सनसनीखेज फिल्मी ड्रामा नहीं है - 'जीवन के सफर में राही चलते हैं बिछड़ जाने के लिए'।