मोहब्बत बीमारी कैसे बन गई? / जयप्रकाश चौकसे

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मोहब्बत बीमारी कैसे बन गई?
प्रकाशन तिथि :05 मई 2015


अनुराग कश्यप की रनवीर कपूर-अनुष्का अभिनीत 'बाम्बे वेलवेट' में एक गीत के बोल हैं 'मोहब्बत है बुरी बीमारी' ढेरों फिल्म प्रेम कहानियां बनी हैं और फिल्मों में प्रेम का नजरिया बदलते समय का संकेत करता हैं। लंबे समय तक छायावादी दृष्टिकोण रहा है और प्रेमिका का इत्तेफाक से हुआ स्पर्श भी शरीर में बिजलियां दौड़ा देता था, एक झलक पाने के लिए घंटों इंतजार किया जाता था और चांदनी रात में नौका विहार तो अन्यतम स्वप्न होता था। अनेक प्रेम कहानियां दुखान्त में बदल जाती थीं। दूरी के बावजूद विश्वास और प्रेम बना रहता था। एक दौर में धर्मवीर भारती का 'गुनाहों का देवता' युवा वर्ग में लोकप्रिय था और रोमांस का वह लिज़लिज़ा स्वरूप कुछ प्रेम की उस गाढ़ी चाशनी की तरह था कि भावनाओं की तितलियां उसमें उलझ कर मर जाती थीं। प्रेम पत्र कभी पोस्ट ना किये जाने के लिए लिखे जाते थे और पुस्तकों के पन्नों में सूखे गुलाब यादों का क्लोरोफार्म बन जाते थे और दर्द की सेज पर अधूरे प्रेम के नगमें गुनगुनाने में उम्र गुजर जाती थी। एक दौर में लड़कियां साहिर की नज़्मों की किताब तकिये के नीचे अच्छे सपनों की उम्मीद में रखती थीं।

स्वयं साहिर के इश्क के नजरिये में भी परिवर्तन आया और उन्होंने लिखा 'जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है, जुल्फों रूखसार की जन्नत नहीं, कुछ और भी है, भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में इश्क ही एक हकीकत नहीं कुछ और भी है।' नेहरू के समाजवादी सपनों के दौर में प्राय: युवा प्रेम तो करते थे परन्तु वामपंथी झुकाव भी प्रबल था 'एक शहनशाह ने लेकर दौलत का सहारा, हम गरीबों की मोब्बत का उड़ाया है मजाक।' उस रूमानी दौर में प्रेम करते हुए एक स्वाभाविक झिझक भी थी, जिसकी अभिव्यक्ति उस दशक के प्रतिनिधि प्रेम गीत में इस तरह हुई है 'प्यार हुआ इकरार हुआ, फिर प्यार से क्यों डरता है दिल' श्री 420 के इस युगल गीत में बड़ी झिझक के साथ झूमती बरसात में दोनों प्रेमी एक ही छाते के नीचे अपने को बचाते हैं, गोयाकि नजदीक भी हैं परन्तु शालीनता की दूरी कायम रखे है। इस गीत में नरगिस के थरथराते होंठ और राज कपूर की ठुमकती आंखों के साथ फुटपाथ की दुकान में केतली से वाष्प का निकलना एक मायावी वातावरण रचता था। साहिर यूं भी लिखते हैं 'तुमको दुनिया के गमो दर्द से फुरसत न सही, मैं सबसे उलफत सही, मुझसे ही मोहब्बत ना सही, मैं तुम्हारी हूं यही मेरे लिए क्या कम है, तुम मेरे होकर रहो यह मेरी किस्मत ना सही, और भी दिल को जलाओं यह हक है तुमकों, मेरी बात और है, मैंने तो मोहब्बत की हैं।' सुधा मल्होत्रा द्वारा यह गीत उनकी अनन्य प्रेमिका अमृता प्रीतम की भावना अभिव्यक्त करता है।

इस रूमानी दौर के सूर्यास्त के समय भी गूंजता था, 'ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर कहीं नाराज ना होना'। गोयाकि लिखकर नहीं पोस्ट किए गए पत्र अब पोस्ट किए जाते थे। इंदिरा गांधी ने 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इतनी नौकरियां इजाद की कि कला संकाय सूना हो गया, वाणिज्य की कक्षाओं में खचाखच भीड़ होने लगी परन्तु उस दौर में भी आंख मिचमिचाते राजेश खन्ना ने 'अमर प्रेम' की ज्योत अपनी आराधना से जगाएं रखी, 'मेरे सपनों की रानी कब आएगीं तू' और 'चिंगारी कोई भड़के तो आग लगाए, सावन जो आग लगाए तो कौन बुझाए।' इंदिरा के 1969 में ही अमिताभ बच्चन प्रगट हुए परन्तु 'जंजीर' के बाद आक्रोश की फिल्मों में प्रेम की गुंजाइश कम थी। इंदिरा जी के उस स्पात युग में प्रेम लंगड़ाता रहा परन्तु एक बूढ़ा नाविक 'प्रेमरोग' में पूछता रहा 'मोहब्बत है क्या मुझे भी बताओ।'

इंदिराजी के युग में वाणिज्य की अलसमोर आर्थिक उदारवाद के दौर में जलती दोपहर का तमतमाता सूरज बन गई और छायावादी प्रेम प्रगतिवाद की भट्टी से गुजरकर मांसलता के दौर में आ गया। अब कोई झिझक नही, प्रेम में हिंसा पैदा हुई और 'चांदनी' के 'लम्हे' 'डर' के खौफ के साये में आ गए। नई सदी में अनुराग कश्यप की पारो सायकिल पर बिस्तर लिए खेत में आ गई और चंद्रमुखी नशेड़ी भई। धीरे-धीरे 'मोहब्बत बीमारी हो गई।' युवा प्रेम तो करता है परन्तु जवाबदारी से बचना चाहता है।