मोहभंग / से.रा. यात्री
शुक्ल जी अपनी बात स्पष्ट करने के लिए हथेली में उँगली गड़ाते हुए बोले, भाई साहेब, जनतंत्र, में अखबार की शक्ति आप नहीं जानते! आपने 'चाँद' का 'फाँसी अंक' शायद नहीं देखा! ओ एक ही अंक ऐसा रहा कि अंगरेज बहादुर का छक्का छूट गया!'
शुक्ल जी लगभग बीस वर्ष कलकता में रहे थे। वैसे बनारस के रहनेवाले हैं। पत्नी बंगाली है। घर में हिंदी-बंगला दोनों बोली जाती हैं। इसलिए वार्तालाप करते समय बंगला के शब्द और क्रियाएँ स्वत: ही आ जाती हैं। मैंने शुक्ल जी की बात बहुत धैर्य से सुनी और झिझकते हुए बोला, 'पर शुक्ल जी, इस छोटे-से नगर में अखबार क्या चल पाएगा और इसके अलावा अखबार के लिए पैसा चहिए, प्रेस और दूसरे साधन भी।'
हवा में अपना पंजा नचाते हुए शुक्ल जी ने अपना भाषण शुरू कर दिया, 'भाई साहेब, आप सिर्फ संका करना जानता। हम आपसे बोला था कारज को हाथ लगाइए। सहारा देनेवालों का दल आपसे-आप आ जुटेगा। थोड़ी प्रोशंसा से सब काम सध जाता है। मानुष छोड़ भगवान खुश हो जाता। हम आपसे पूछता हूँ 'गीता सहस्त्रनाम', 'दुर्गा सप्तशाती', 'शिवमहिमा स्तोत्र' एऽ सब क्या है? आखिर तुम्हारा इतना महान पोएट तुलसीदास 'विनाय पोत्रिका' में क्या लिखा है? आप एक मानुष का नाम बोलें जो तारीफ से खुश नहीं होता!' शुक्ल जी ने मेरी आँखों में झाँक-कर देखा और लंबे-चौड़े नथुने फुला कर 'सु-ऊं' की आवाज निकालने लगे। मेरी ओर से कोई विरोध न देख कर आगे बोलने लगे, 'हम पूछता है, आपको प्रोशंसा से क्या एतराज है? मेरे बाई बेजा न करेगा, किसी की उचित प्रोशंसा तो करेगा! हम योजना दूँगा। काम आप करेगा। तोम चमक न उठा तो यम.पी. शुक्ला का नाम न लेना! ए दारिद्र लादे घुमता है! माना लक्ष्मी-सोरस्वती का परंपरागत दुश्मनी ठहरा परंतु रास्ता पकड़नेवाला आदमी दोनों को साध लेता है।'
शुक्ल जी धाराप्रवाह बोले चले जा रहे थे। मेरी नजर कभी उनके मुँह पर चली जाती थी और कभी मैं उनके सुंदर कालीन में धँसी अपनी गर्द-भरी चप्पलें देखने लगता था। अपने फटीचर होने का अहसास मुझे बहुत गहराई से हो रहा था। 'मेरा काम ही ऐसा है' यह सोच कर जिन मैले-मलगजे कपड़ों को मैं लापरवाही से लटकाए घूमता हूँ, इस वक्त उनसे मुझे बेचैनी हो रही थी। मेरी पतलून पर पीछे की ओर कई थेगलियाँ थीं, जो बंद गले के लबादे जैसे कोट के पीछे छिपने की नाकाम कोशिश कर रही थीं।... और पतलून? वह घुटनों पर लोटे के पेंदे की शक्ल में उभर रही थी। टखनों से ऊपर की ओर खिंचती मोहरियों पर दृष्टि गई तो देखा उधड़ कर झालरों की मानिंद झूल रही थी!
शुक्ल जी निरंतर एक से एक अच्छी बात कह रहे थे और मैं हुँकारी भर कर बीच-बीच में उनकी बहुमूल्य बातों का अनुमोदन करना चाहता था, पर मुझे कुछ अच्छे शब्द याद नहीं आ रहे थे। मैं केवल 'हाँ तो', 'जी हाँ', 'आप ठीक फरमाते हैं' आदि कुछ टुचियल और अहमकपने से भरे हुए फिकरे बोल सकता था। अच्छी बातों को समर्थन करने के लिए जिस शिष्ट भाषा की जरूरत थी वह मेरे पास सिरे से ही नहीं थी। उत्साहित करने वाला प्रवचन सुनने के बावजूद मेरी दृष्टि रह-रह कर दीवार पर लगे क्लाक से टकरा रही थी और सेकंड की अनवरत घूमती हुई सुई मेरे दिल में हौल पैदा कर रही थी। ग्यारह बज रहे थे। मैं पत्नी से ग्यारह बजे तक लौटने की बात कह कर आया था। इस समय मैं तय नहीं कर पा रहा था कि अपनी बात कैसे शुरू करूँ।
सहसा मेरे सोचने में व्याघात उपस्थित हुआ। शुक्ल जी ने अपने नौकर को जोर से पुकार कर कहा, 'कोथाय मातादीन! ऐ मातादीन! ऐ सब क्या गोलमाल किया भाय! आज हमको एक प्याली चा भी नहीं देगा रे!' मातादीन के उत्तर न देने पर उन्होंने अपने गाउन की जेबें थपथपाई और सिगरेट-केस निकाल कर मेरे सामने रख दिया, 'तब तक सिगरेट ही पीया जाए!'
मैंने अपनी जेब से माचिस निकाल ली। मेरी जेब में केवल माचिस थी। मुझे 'नाइट-शिफ्ट' से लौटते हुए कभी-कभी आधी रात गुजर जाती है। घर बस्ती से दूर जंगल में है। घोर अंधकार में माचिस की तीली जला कर उजाला कर लेता हूँ। एक दिन तो घुप्प अँधेरे में एक कुएँ में गिरते-गिरते बचा था। बस, तभी से हर वक्त जेब में दियासलाई रखता हूँ और यहाँ शुक्ल जी के घर में दिन के समय भी मरकरी राड जल रहा है। मैंने शुक्ल जी की दी हुई सिगरेट जला ली और दूधिया उजाले में टेलीफोन के चमकते चोंगे और हॉल की दीगर चीजों को देखने लगा। सारा हॉल बहुत करीने से सजा था। पालिश से चमकती हुई खूबसूरत कुरसियों पर डनलप की गद्दियाँ पड़ी थीं और अलमारियों में सीप और काँच से सुंदर खिलौने सजे हुए थे।
शुक्ल जी ने गाउन की जेबों में हाथ डाल कर कमर को एक हलका-सा झटका दिया और उबासी रोकते हूए बोले, 'हम आपसे सच बोलता है। जिन लोगों की चाकरी में बाहर से कोई आमदनी का सिलसिला नहीं है, महीना में खाली पगार हाथ पर आता है, उनका काम आज एकदम नहीं चलने का। आप महंगाई देखता? सिर के ऊपर से गुजर रहा है! हम आपके बारे में सोचता है तो दिल पर तकलीफ गुजरता। आप जैसा चौरित्रवान भालामानुस क्यों कष्ट सहता ए? हम एक बार आपका मनीजर बजाज साहेब से बोला। ओ बोला, बेशी स्कोप इधर नहीं।... खैर, प्लान आप फैलाइए, लाइन हम दूँगा। कैसे क्या होगा नहीं जानता, ऐ सब आपका सिरदर्दी। कोई राजनैतिक मासिक वा पाक्षिक छापो - रैजिस्ट्रेशन हम करा दूँगा। एक गारंटी हमारा, विज्यापैन का कमी नहीं। इतना ठो कोलकत्ता का धनाढ्य पार्लामेंट बैठा ए तोमकू सहायता करेगा। एक अखबार का निमित्त से तोम देखेगा कि प्रेस और निवास हो जाने का।'
बोलते-बोलते शुक्ल जी उठ कर खड़े हो गए। मैं नहीं समझ पाया कि आवेश के इन घनीभूत क्षणों में वे क्या करनेवाले हैं! आगे बढ़ कर उन्होंने फोन का रिसीवर उठाया और कोई नंबर डायल करने लगे। मैं भी उठा और उत्सुकता से उनके पास पड़ी एक खाली कुरसी पर जा कर बैठ गया। शुक्ल जी ने डायरेक्टरी मेरे हाथ में दे कर जल्दी-जल्दी कुछ नाम बतलाए और नंबर खोजने का आदेश दिया। रिसीवर कान से चिपकाए बोले, 'एक बहुत बड़े आदमी को रिंग किया हूँ। अब आप सुकुल का कमाल देखेगा!'
इस पत्र-प्रकाशन की योजना में शुक्ल जी मुझे लगभग उसी प्रकार धकेल रहे थे जैसे लोककथा में राजा की अरथी के सामने आ जाने वाले घसियारे को मंत्रियों ने राजा के खाली सिंहासन पर धकियाकर बिठा दिया था। मेरे मन की बेचैनी मेरे हाथों में आ गई थी। हाथ लगातार जेबों में आ-जा रहे थे और बार-बार हाथ डालने से जेबों का मुँह लटके हुए जबड़े जैसा फैल गया था। शुक्ल जी बराबर डायल घुमा रहे थे और बीच-बीच में सिर भी झटकते जाते थे। टेलीफोन डायल करने की तमाम टेक्नीकों के बावजूद किसी 'बहुत बड़े आदमी' से संपर्क स्थापित नहीं हो पा रहा था। मैंने अत्यंत व्यस्तता दिखाते हुए डायरेक्टरी के पन्ने उल्टे-पलटे और शुक्ल जी द्वारा बताए गए नामों के नंबर उन्हें बता दिए।
लगभग बीस मिनट बाद इस संपर्क-स्थापना की लंबी यंत्रणा का अंत हुआ। मेरा महादुर्भाग्य! एक भी व्यक्ति से बातचीत न हो सकी! हार कर शुक्ल जी ने रिसीवर रख दिया और मेरी ओर ऐसे घूरने लगे जैसे मदारी तमाशा खत्म करके मजमे की तरफ घूरता है।
इस बीच मैंने तय कर लिया कि मैं अपनी बात बहुत स्पष्ट शब्दों में उनके सामने रख दूँ। अब मैं अधिक देर नहीं रुक सकता था। साढ़े ग्यारह बज रहे थे और एक बजे गाड़ी जाती थी। मुझे अभी घर पहुँचना था और कई तरह के झंझट मेरी जान को लग रहे थे। घर पर पत्नी अलग परेशान हो रही होगी! मैं किस झंझट में फँस गया! मुझे अपनी बात फौरन कहनी चाहिए थी। नंगी स्थितियों में जीवित रहने वाले आदमी को शिष्टता के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। आभिजात्य उस तंग जूते की तरह होता है जो नया, चमकीला ओर कीमती दिखाई पड़ता है, लेकिन भीतर ही भीतर पाँव का भुरकुस निकाल देता है!... यहाँ इंतजाम न होता तो किसी और से कहता। मेरी हालत यहाँ आ कर उस व्यक्ति जैसी हुई जो आपके पास कोई खास काम ले कर आए और देर तक संकोच में पड़ा रहे।
मैंने बेसब्री से अपनी बात शुरू की, 'ऐसा है...' लेकिन तभी मातादीन चाय ले कर आ गया। मेरी बात शुक्ल जी तक नहीं पहुँच पाई। शुक्ल जी ने मेरी ओर आँखें उठाई। गिलास की तली जैसे मोटे लेस के पीछे से झाँकती आँखें बहुत बड़ी और असह्य दिखाई पड़ती थीं। कुछ देर तक गंभीर रह कर वे सोचते रहे और फिर सजग होते हुए बोले, 'आइए, चाय पिया जाए! हम लंच टाइम पर आपके कारज हेतु सबको खड़-खड़ाऊँगा। आप रहिए, हम इस कारज को पूरा करके ही रहूँगा!' मातादीन ने दो प्याले तैयार करके हम दोनों के हाथ में थमा दिए और झाड़न उठा कर डाइनिंग टेबल साफ करने लगा।
मैंने जल्दी-जल्दी चाय गटकी और खाली प्याला मेज पर रख कर हथेली से अपना मुँह पोंछने लगा। चाय पीते-पीते शुक्ल जी बोले 'आलमीरा से जरा ओ ऽ अलबम उठाना जीऽ... आपको तसवीरें दिखाई जाएँ!' अब मैं एक मिनट भी गँवाने को तैयार न था। जेबों में हाथ डाल कर व्यग्रतापूर्वक उनकी सींवन उधेड़ने लगा। मेरे पैर बार-बार उठना चाहते थे। मुद्रा बिलकुल उठ भागने की ही थी, लेकिन शुक्ल जी ने मेरा अधैर्य नहीं देखा। उन्होंने इतमीनान से अलबम खोला और मुझे एक तस्वीर दिखाने लगे। इस तस्वीर में वे कुछ लोगों से घिरे खड़े थे और एक विदेशी महिला उनसे मुस्करा कर बातें कर रही थी। शुक्ल जी ने गदगद भाव से हँस कर मेरी ओर देखा और पहेली बुझाने के अंदाज से बोले, 'पहचाना?' मेरे नकारात्मक ढंग से सिर हिलाने पर बोले, 'अंबैसी की प्रथम सचिव हैं!'
मैं इस समय शुक्ल जी की बात काटने या उनसे विवाद करने के विषय में सोच भी नहीं सकता था। जिस समय उन्होंने एक बड़े नेता से हाथ मिलाने के अवसर का अपना एक फोटो मुझे दिखाया, मैंने फोटो के विषय में कतई आश्चर्य व्यक्त किया और तड़ाक से बोला, 'शुक्ल जी क्षमा कीजिए, मुझे आपसे एक बहुत जरूरी गंभीर बात कहनी है। मेरी पत्नी के पिता लखनऊ में बहुत बीमार हैं... वे शायद ही बचें!' इतना सुनते ही शुक्ल जी गहरा दुख व्यक्त करते बोले, 'ओफ! कब से? यह तो दुख का खबर रहा!' उन्होंने महसूस किया कि मुझे उनसे शायद और भी कुछ कहना है। बोले, 'आच्छा! बोलो हम क्या सेवा कर सकता हूँ?'
मैंने अकारण खों-खों की, 'मुझे इस क्षण एक हजार रुपए की सख्त जरूरत है। मुझे तत्काल जाना है। पत्नी जाएगी तो बच्चे भी जाएँगे।' मैं बहूत फूहड़ ढंग से अपनी आवश्यकता और आकस्मिक दुख उनके सामने रख रहा था। मेरे शब्दों में वह तीव्रता न थी जो किसीको अहसास करा सके कि मेरी जरूरत वास्तविक और अपरिहार्य है। जेबों में हाथ डाल कर मैंने शुक्ल जी को दिखाने के लिए वह तार निकालना चाहा जो मुझे आज नौ बजे मिला था। तार तो मेरे हाथ में नहीं आया, हाँ, वह बिल जेब से अवश्य बाहर आ गया जो मैंने एक सरकारी सेमिनार में सम्मिलित होने पर सरकार को भेजा था। वह बिल बिना अकाउंट्स अफसर के पास किए लौट आया था और इसे फिर वापस भेजना था। झगड़े-झंझट के बाद चार या छह महीने तक शायद इसका रुपया मिलनेवाला था, लेकिन वह अवधि अभी दूर थी।
शुक्ल जी मेरी बात सुन कर गंभीर हो गए। मैंने पंद्रह सौ दस रुपए, सत्तानवे पैसे का बिल उनके सामने फैला दिया। शायद मैं उनको प्रभावित करना चाहता था कि मुझे जल्दी ही एक रकम मिलने वाली है और जो भी वह मुझे देंगे उसका भुगतान करने में मुझे कठिनाई नहीं होगी। आपका कोई कितना ही अपना हो, अपने रुपए को डावाँडोल स्थिति में नहीं फँसाना चाहता। किंतु शुक्ल जी ने बिल की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा। बोले, 'आपका जरूरत हम मान गया मगर आज का दिन... अच्छा खैर, देखता हूँ।' शुक्ल जी उठ कर खड़े हो गए। मैं भी उनके साथ उठ गया। शुक्ल जी अंदर चले गए और मैं बेताबी से गैलरी में पीठ पर हाथ बाँधे चक्कर काटने लगा।
ज्योंही शुक्ल जी लौट कर आए मैं धुकधुकाते हृदय से उनकी ओर लपका। उन्होंने एक भी शब्द बोले बिना मेरे हाथ पर पाँच-पाँच के बीस नोट रख दिए। मैं सहसा कुछ न समझ पाया। एक हजार की बात कही थी, और केवल सौ रुपए दे रहे थे! शुक्ल जी संभवत: मेरे मन की बात भाँप गए। वे बहुत निरीह स्वर में बोले, 'बंधु आपके कष्ट का अपन को बहुत विचार है, नहीं तो अपने पास कौड़ी भी नहीं।' इतना कह कर फ्रिज की ओर संकेत किया और उदासी के स्वर में बोले, 'इसे चार मास पहले लिया। सारी किस्त देना है। पंद्रह तारीख की पहला किस्त देने को बोला। जितनी जल्दी हो, रुपया लौटाने की परम चेष्टा कीजिएगा।'
संकोच और झिझक के कारण जिस बात को मैं अपने फटीचर होने के बावजूद नहीं कह पाया था, वह शुक्ल जी ने बेलौस कह दी, 'आप शायद नहीं जानते, हम कितना गरीब हुँ! गाड़ी रखनी पड़ती है। सब टीम-टाम जुटानी होती है, इंश्योरेंस का हैवी प्रीमियम क्लब का मेंबरशिप। सामान की किस्त और इनकटैक्स - देह में रत्ती-भर खून नहीं छोड़ता! ऊँचा तबका मजदूर से बेसी तंग है। आपको मालूम है, हमको कुल जमा कितना तनखा मिलता? कट-वट कर केवल पचास हजार माहीना! आप मानेगा नहीं, वर्मा साहेब, हम सच कहता हूँ। माहीना का आखिर कड़की में होता है। महँगाई ने...'
हैरत से मैंने शुक्ल जी का गंभीर चेहरा देखा। मुझे लगा कि वे अपना माथा पकड़ कर विलाप कर रहे हैं। मैं उनकी गरीबी का पूरा आख्यान सुनने में दिलचस्पी रखता था, लेकिन तभी दीवार पर लगे क्लाक ने बारह बजने की सूचना दे दी। मैंने बदहवासी में उनसे हाथ मिलाया और भाग खड़ा हुआ।